अब 2025 शुरू हो गया है। पिछले साल को याद किया जाये तो भारत के लोगों को कई तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ा। सब से बड़ी समस्या भयानक नैतिक विचलन से जुड़ी हुई है। जीवन का शायद ही कोई क्षेत्र नैतिक विचलन की चपेट में पड़ने से बचा हो।
नैतिकता व्यक्ति का गुण अवश्य है, लेकिन नैतिकता का वास्तविक प्रतिफलन सामाजिक व्यवहार में ही देखा जाना चाहिए। व्यक्तिगत नैतिकता व्यक्तित्व की शोभा जरूर बढ़ाती है लेकिन सार्थक वह तभी होती है जब समाज के व्यवहार के प्रारूप में नैतिकता की नियंत्रणकारी और निर्णायक भूमिका हो।
पिछले साल की शुरुआत से ही भारत के सार्वजनिक जीवन को कई तरह के धर्म-संकट का सामना करना पड़ा। सब से बड़ा धर्म-संकट तो राम मंदिर को लेकर खड़ा हो गया। निर्माणाधीन राम मंदिर में भगवान राम को प्रतिष्ठित किये जाने को लेकर शंकराचार्यों की असहमति मुखर हो गई। हिंदुत्व की राजनीति के शिरमौर्यों से शंकराचार्यों से विवाद सामने आ गया।
कहना न होगा कि नैसर्गिक हिंदू, जो कथित रूप से पांच सौ साल से इस शुभ घड़ी की प्रतीक्षा में बताये जाते रहे हैं, के मन में इस विवाद से अनिवार्य निराशा उत्पन्न हुई। समाज के अन्य शुभ-चिंतकों के सामने धर्म-संकट उत्पन्न हो गया।
हिंदुत्व की राजनीति के शिरमौर्यों ने कुपित शंकराचार्यों की ही नहीं, सबकी अनसुनी की और भगवान राम की प्रतिष्ठा निर्माणाधीन मंदिर में कर दी गई। औद्धत्य यह कि वे राम को लाने के दंभ से भरे हुए दिखने से जरा भी परहेज नहीं था।
हिंदुत्व की राजनीति करनेवालों में प्रतिष्ठा की इतनी हड़बड़ी 2024 के आम चुनाव में राजनीतिक फसल काटने की थी। समय पर आम चुनाव संपन्न हुआ। निश्चित इरादा, ‘चार सौ के पार’ की घोषणा को फलीभूत करने और भारत के इस संविधान को बदलने का था।
भारत के इस संविधान में शुरू से ही हिंदुत्व की राजनीति के वैचारिक पुरखों को ‘सब कुछ’ अ-भारतीय ही लग रहा था। कहना न होगा कि इन्हें भी भारत के इस संविधान में कुछ भी भारतीय नहीं लगातार रहा है। सारा भारतीय तत्व तो मनुस्मृति में दिखता है।
जाहिर है कि भारत के इस संविधान को बदलने का इरादा पक्का था। हालांकि भारत की राजनीतिक सत्ता के शिखर पर इसी संविधान के बल पर पहुंचने में कामयाब हो पाये हैं। भला हो विपक्ष की राजनीति का कि जनता ने इन के इरादों को ठीक से भांप लिया। नतीजा चार सौ के पार’ की घोषणा धरी-की-धरी रह गई और उनकी संसदीय शक्ति दो सौ चालीस पर सिमटकर आरामदायक बहुमत से खिसक कर अल्पमत में पहुंच गई।
हालांकि जनता दल यूनाइटेड के नीतीश कुमार और तेलगू देशम पार्टी (टीडीपी) के एन चंद्रबाबू नायडू के समर्थन से नरेंद्र मोदी किसी तरह से तीसरी बार प्रधानमंत्री बनने में कामयाब हो गये। स्थिति का अनुमान इसी से लग जा सकता है कि भारतीय जनता पार्टी संसदीय दल का नेता चुने जाने की औपचारिकता पूरी किये बिना नरेंद्र मोदी ने अपनी राजनीतिक चतुराई से अवसर का अमृत चुरा लिया।
कैसी विडंबना है कि जातिवाद और सामाजिक भेदभाव के खिलाफ 25 दिसंबर 1927 मनुस्मृति को जलानेवाले डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर का सम्मान करने की बात हिंदुत्व की सत्ता करती है और हिंदुत्व की राजनीति मनुस्मृति की तरफ लपकती रहती है। हिंदुत्व की राजनीति की सत्ता के साथी हिंदुत्व की सत्ता की बात पर यकीन करते दिखते हैं।
पिछले साल काफी राजनीतिक गहमागहमी और घमासान का वातावरण बना रहा। किसान, युवा, महिला, रोजगार की तलाश में लगे लोग जान की बाजी लगाते रहे, जान गंवाते रहे।
हिंदुत्व की राजनीति ने पूरे देश को तरह-तरह के धर्म-संकट में फंसा दिया है। समस्त राजनीतिक और सामाजिक गतिविधियों के भीतर भयावह नैतिक-संकट का दखल बढ़ता गया। धर्म-संकट असल में मूल रूप से नैतिक-संकट ही होता है। धर्म-संकट यदि अपनी अंतिम व्याख्या में नैतिक-संकट न ठहरे तो उसे धर्म-संकट के रूप में नहीं, किसी और रूप में ही समझा जाना चाहिए।
बढ़ती हुई महंगाई, ₹ की लगातार गिरती हुई क्रय-क्षमता, सभ्य और बेहतर नागरिक जीवन के ध्वस्त होते चले गये सपनों के मलवा का मालिक नैतिक-संकट के अलावा और कौन हो सकता है! नैतिक-संकट के कारण भरोसे का आधार ही टूट गया, सभ्य और बेहतर जीवन के सपनों की बुनियाद ही हिल गई है। आराम-दायक जिंदगी की तो बात ही क्या!
‘न खाऊंगा, न खाने दूंगा’ का नारा कहां गया! क्या पता! ‘अकेले खाऊंगा, एक को ही खाने दूंगा’ में बदल गया लग रहा है! दुनिया जानती है ‘खाने-खिलाने’ का रीति-रिवाज कैसे चलता है। खाने-खिलाने के संदर्भ में ज्ञानी लोग, कहते हैं मछली को पानी पीते कोई नहीं देख सकता है।
तुलसीदास ने कहा है कि ‘मुखिआ को मुंह की तरह होना चाहिए जो विवेक के साथ खाये और सभी अंगों तक खाये गये के पोषक तत्व का लाभ सभी अंगों तक पहुंचने देना चाहिए। यहां तो हालत है कि अंधा बांटे रेवड़ी घुर-फिर अपने मुंह में लेअ! अपनों के मुंह में देअ! अर्थात ‘खाने-खिलाने’ का परंपरागत विवेक ही विकलांग हो गया है!
समाज में ही नहीं, परिवार में भी अपने हिस्से-बखरे के लिए लोग लड़ते हैं, इस से कोई दुश्मनी नहीं हो जाती है। लेकिन कुछ लोग हिस्से-बखरे की राजनीतिक लड़ाई में दुश्मनी का खोंच लगाते रहते हैं। आज राजनीति में वोट बखरा का खोंच राजनीतिक दोस्ती-दुश्मनी, अलटरनेटिव करेंट की तरह अदल-बदल होती रहती है। विवेक हीनता की गिरफ्त में फंसे समाज में कैसी नैतिकता!
विवेकहीनता के पर्यावरण में किसी प्रकार की नैतिकता के लिए कोई सम्मान नहीं बचता है, न सामाजिक नैतिकता का, न संवैधानिक नैतिकता का। नैतिकता के सवाल के सामने राज्य और लोकतंत्र के ‘चारों स्तंभ’ का सार्वजनिक चित्त, चारों खाने चित हो जाया करता है! सत्ता ने नैतिकता को राजनीति की रेत पर उलट कर रखा गया कछुआ बना दिया है।
आकाश पर पैर चलाने की कोशिश करती रहती है! विपक्षी लोगों की तरफ नैतिकता के कछुआ को सीधा करके आगे बढ़ा देना सत्ता की रणनीति होती है। कछुआ-धर्मी नैतिकता ढके हुए कांख को विरोध में ‘मुट्ठी’ तानने की सुविधा देती है।
नैतिकता के अभाव में न्याय पानी से परहेज करते हुए मछली पालने की कोशिश करने जैसा है। कहना न होगा कि नैतिकता और न्याय में मछली-पानी का रिश्ता होता है। जीवन में पानी बचाकर रखने के महत्व को रहीम ने समझ और समझाया था।
किस ने समझा! पानी तो सूखता चला गया है! ऐसे में सत्ता की राजनीति करनेवाले, सामाजिक या आर्थिक न्याय की बात करनेवालों को ‘अरबन नक्सल’ के नाम पर नागरिक समाज और राजनीति के अन्य ‘महा-पुरुषों’ की ओर से दी जानेवाली उम्मीद भरी किसी भी चुनौती या चूंचपड़ के अभाव में बहुत आसानी से चित कर देते हैं।
हालांकि सरकार की शब्दावली में ‘अरबन नक्सल’ शब्द शामिल नहीं है, लेकिन दिमाग में बसी राजनीतिक कार्यावली में यह शब्द बहुत खास और प्रमुख है।
हर सभा, हर गली, हर अवसर पर ‘मोदी-मोदी’ करनेवालों को देख और सुनकर प्रसन्न होनेवाले देश के गृहमंत्री अमित शाह ने संसद के शीतकालीन सत्र में संविधान पर चर्चा के दौरान सरकार का पक्ष रख रहे थे। इस दौरान राज्यसभा में बाबासाहेब का जिक्र करनेवालों पर अमित शाह ने विद्रूप तंज किया।
तंज यह कि जितनी बार आंबेडकर का नाम लेते हैं उतनी बार भगवान का नाम लेते तो सात जन्म तक स्वर्ग मिलता। हिंदू धर्म की मान्यताओं के अनुसार एक बार स्वर्ग में जगह मिल जाने पर ‘पुनरपि ज्नमम, पुनरपि मरणम’ से मुक्ति मिल जाती है, मोक्ष मिल जाता है। सात जन्म तक स्वर्ग का क्या विधान है, पता नहीं! क्या पता, हो भी!
बहरहाल मुद्दे की बात यह है कि बाबासाहेब ने परलोक के किसी काल्पनिक स्वर्ग में स्थान दिलाने के लिए नहीं, इसी लोक के लोकतंत्र में स्वर्ग के विधान के लिए कृत-संकल्प थे। जाहिर है कि इस तरह से बाबासाहेब के नाम का उल्लेख किये जाने को बाबासाहेब के प्रति अपमान माना गया।
बाबासाहेब के प्रति इस तरह के अपमानजनक रवैया के व्यापक विरोध से सत्ताधारी गठबंधन के लिए असहज कर देनेवाला राजनीतिक-सामाजिक वातावरण बन गया।
इसी बीच पूर्व प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह का निधन हो गया। उनके अंतिम संस्कार और स्मारक स्थल को लेकर भी काफी विवाद सामने आ गया। जाहिर है कि डॉ. मनमोहन सिंह और वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के किये कार्यों की तुलनात्मक चर्चा ने भी सत्ताधारी दल को असहज कर दिया।
हिंदुत्व की राजनीति ने जिस कांग्रेस को अपाहिज और पंगु बना देने में अपने जानते कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी थी वही कांग्रेस अब फिर से उठ खड़ी हो गई है, यह सत्ताधारी दल और गठबंधन के लिए निश्चित ही चिंता की बात है।
सत्ताधारी दल ने समझा कि डॉ. मनमोहन सिंह के अंतिम संस्कार और स्मारक स्थल के कोलाहल और कलह के बीच बाबासाहेब के अपमान के विरोध का वातावरण हल्का हो जायेगा, लेकिन ऐसा नहीं हो सकता है।
बाबासाहेब के अपमान और उसके व्यापक विरोध का मामला भारत की राजनीति की आत्मा को झकझोर रहा है। भाजपा और उससे भी अधिक राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ को राजनीतिक स्थिति की गंभीरता का एहसास हो गया है।
कांग्रेस के फिर से तैयार होने में राहुल गांधी की ‘भारत जोड़ो यात्रा और भारत जोड़ो न्याय यात्रा’ की बड़ी जबरदस्त भूमिका रही है। समझ में आने लायक बात है कि बाबासाहेब के अपमान का मामला अब जातिवार जनगणना की जरूरत को अत्यधिक मजबूती से प्रत्यक्ष करता है।
जैसा भी हो इंडिया गठबंधन के आकार लेने में भी राहुल गांधी की सावधान पहलकारी भूमिका रही है। इंडिया गठबंधन के होने के तात्कालिक कारणों की खोजबीन की जाये तो इसके पीछे की कहानियां कहीं-न-कहीं इडी, सीबीआई आदि की कार्रवाइयों के डर और दबाव से जरूर जुड़ जाती है।
डर के माहौल ने न सिर्फ राजनीतिक दलों के नेताओं को बल्कि सत्ता की सक्रिय राजनीति से दूर रहनेवालों को भी अपने लपेटे में ले लिया था।
यह सच है कि डर के माहौल से निकलने की शुरुआत में राहुल गांधी के ‘डरो मत की दहाड़’ की भूमिका से इनकार नहीं किया जा सकता है। एम के स्टालिन, अखिलेश यादव और तेजस्वी यादव के साथ ने नेताओं में ही नहीं, आम लोगों में भी नये सिरे से आत्म-बल का संचार किया।
फिल्म ‘थ्री इडीएट’ की तरह हर किसी ने एक दूसरे को ‘डरो मत, डरो मत’ कहना शुरू कर दिया और अंततः भारतीय जनता पार्टी के दो सौ चालीस पर उतरते ही डर के कुहासे का फटना शुरू हो गया। डर के कुहासे के फटने में लोगों ने नये सूरज की आमद को सफलतापूर्वक पढ़ना शुरू कर दिया, गवाही चार सौ के पार’ के उन्मादी उत्साह के दो सौ चालीस में सिकुड़ने की।
इस साल 2025 में दिल्ली और बिहार विधानसभा के चुनाव संभावित हैं। जम्मू-कश्मीर, हरियाणा, महाराष्ट्र और झारखंड विधानसभाओं के चुनाव परिणामों के बाद दिल्ली और बिहार विधानसभाओं के चुनाव और उस के परिणामों का महत्वपूर्ण हो गया है।
इस बीच ममता बनर्जी और अरविंद केजरीवाल के राजनीतिक रुख से इंडिया गठबंधन में राहुल गांधी और कांग्रेस की हैसियत को चुनौती मिली रही है। उधर राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) में भी नीतीश कुमार के राजनीतिक रुख से हलचल मची हुई है।
भारतीय जनता पार्टी की अंदरूनी राजनीति में राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत के राजनीतिक सुर और साधु भेषधारी लोगों के बयानों से खलबली मची हुई है। सुननेवाले समझदार लोग तो राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ प्रमुख मोहन भागवत के कंठ से निकलती आवाज का मिलान राहुल गांधी की राजनीतिक आवाज से करने लगे हैं। कहना न होगा कि खलबली भी है, बवाल भी है और उबाल भी।
इससे राजनीतिक पर्यावरण में बदलाव के आसार दिख रहे हैं। पर्यावरण में बदलाव के प्रभाव से राजनीतिक मौसम में भी बदलाव होना और सियासी तूफान का उठना अनिवार्य हो गया है। इस बदलाव में तीन संकेत दिख रहे हैं। पहला यह कि ‘वन नेशन, वन इलेक्शन’ पर संसद में भारतीय जनता पार्टी के महत्वपूर्ण नेताओं को मिलाकर बीस सांसदों की स्पष्ट और सोद्देश्य निष्क्रियता ने बहुत गहरा संकेत दे दिया है।
इससे निकलता हुआ दूसरा यह कि नीतीश कुमार राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) से बाहर निकलकर बिहार चुनाव में जायेंगे। आज जबकि भारतीय जनता पार्टी अपने सांसदों को नहीं संभाल पा रही है, तो स्वाभाविक है कि जनता दल यूनाइटेड के सांसदों को भारतीय जनता पार्टी के द्वारा फंसाकर सत्ता के साथ रख लेने का भय नीतीश कुमार को जरूर कम हो गया है।
संभावना है कि नीतीश कुमार के जनता दल यूनाइटेड, लालू प्रसाद यादव के राष्ट्रीय जनता दल मिलकर और चिराग पासवान को मिलाकर चुनाव में उतरने की तैयारी करेंगे।
ममता बनर्जी, अरविंद केजरीवाल और अखिलेश यादव के रुख से भी साफ-साफ समझ में आ रहा है कि तीसरे मोर्चे की संभावनाओं को जिलाकर अपनी-अपनी राजनीति को आगे बढ़ाना उन्हें सहज और जरूरी लग रहा है।
वे समझते हैं कि गैर-भाजपा और गैर-कांग्रेस की राजनीति करते हुए जरूरत के मुताबिक केंद्र में सरकार के गठन के अवसरों तीसरा मोर्चा सामूहिक रूप से अपना रुख तय करे यह स्थिति उनकी राजनीति के अधिक अनुकूल होगा।
अब आगे से क्षेत्रीय राजनीतिक दल कांग्रेस या भारतीय जनता पार्टी जैसे वास्तविक राष्ट्रीय दल के साथ किसी भी तरह के चुनावी गठबंधन से परहेज की नीति पर चलेंगे। इसमें राजनीतिक शुभ और अशुभ दोनों तत्व हैं। मुख्य रूप से शुभ तत्व यह है कि इस तरह से भारतीय जनता पार्टी या कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व भारत के संघात्मक ढांचे और क्षेत्रीय अस्मिता की संवेदनशीलता के प्रति अधिक सावधान रहा करेंगे।
इसका दूसरा पहलू यह है कि वैश्विक परिस्थिति, राष्ट्रीय जरूरतों और क्षेत्रीय महत्वाकांक्षाओं में तनाव और बिखराव की स्थिति में भारत की राजनीति में आंतरिक उत्थान-पतन का दौर शुरू हो सकता है।
अपने राज्य से भिन्न राज्य में रहने-बसनेवालों और रोजी-रोटी की तलाश में आने-जानेवालों के प्रति हिकारत के अधिक तीखे माहौल का सामना करना पड़ सकता है। अपने वतन में पराये हो जाने का खतरा अधिक गहरा हो सकता है।
राष्ट्रीय दल हों या क्षेत्रीय दल उनके सामने सब से महत्वपूर्ण सवाल यह होना चाहिए कि राजनीतिक परिस्थिति जो भी हो भारत की राजनीति और सामाजिक प्रचलनों और रीति-रिवाजों में नैतिक मानदंडों का नवोत्थान और मानवाधिकार के प्रति समुचित सम्मान का भाव कैसे पोषित और प्रतिष्ठित होगा? भारत के नेतागण इस सवाल के जवाब की तलाश कितनी गंभीरता से करेंगे, फिलहाल तो कुछ भी कहना मुश्किल ही है।
जो भी हो, भारत की राजनीति का रास्ता नये बांक के बिल्कुल सामने पहुंच गया है। 2025 में क्या होगा, बल्कि क्या-क्या होगा? इंतजार किया जाना चाहिए। डॉ राममनोहर लोहिया ने कहा था कि जिंदा कौमें पांच साल तक इंतजार नहीं किया करती हैं! उन्होंने उस समय की राजनीतिक परिस्थिति में अपने हिसाब से ठीक ही कहा होगा।
आज की राजनीतिक परिस्थिति में तो यही कहा जा सकता है कि जो कौम आखिरी इंतजार में भी अधीर होकर उम्मीद खो देती है वह कौम अंततः अपनी बेहतरी की संभावनाओं को खो जाने से बचा नहीं पाती है। कौम की जिंदगी को इसलिए साल 2025 में भी इंतजार और उम्मीद के साथ इंतजार है! क्योंकि फिलहाल इंतजार का कोई विकल्प नहीं है।
(प्रफुल्ल कोलख्यान स्वतंत्र लेखक और टिप्पणीकार हैं)
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