Thursday, April 25, 2024

यूपी: ‘लापता जंगल’ की तलाश में निकले बुलडोज़र ने आदिवासियों के घर-खेत रौंदे

ग्राउंड रिपोर्ट चकिया। उत्तर प्रदेश के चंदौली जिले के चकिया में आदिवासी-वनवासियों समेत कई परिवारों को जंगल में खुले आसमान के नीचे रात गुजारनी पड़ रही है। प्रदेश की योगी सरकार की ओर से उनकी जमीन खाली करवाई जा रही है और उन्हें अपने घरों से बेदखल किया जा रहा है। कई आदिवासियों और वनवासियों की जमीन और खेत पर बुलडोजर चला दिए गए हैं। जिससे ना सिर्फ लोग बेघर हो गए हैं बल्कि उनकी रोजी रोटी पर गहरा असर पड़ रहा है।

दरअसल ये सारा मामला एक लापता जंगल की तलाश से जुड़ा है। दरअसल केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय की भारतीय वन सर्वेक्षण (एफएसआई) की एक रिपोर्ट-2022 के मुताबिक चंदौली में तकरीबन 1. 67 वर्ग किमी जंगल घट गया है। रिपोर्ट में जंगल के कम होने से वन विभाग के हाथ-पांव फूल गए हैं।

ऊपर से दबाव बढ़ने पर स्थानीय वन प्रशासन ने आनन-फानन में इन्हीं वनक्षेत्र में सदियों से रहते आ रहे आदिवासी, वनवासी और किसानों को निशाने पर ले लिया है। लिहाजा, बिना किसी पुनर्वास और जीवन के गुजर-बसर की व्यवस्था किए इनकी जमीनों को बुलडोजर के दम पर घेराबंदी का काम शुरू कर दिया गया है। अब तक 80 से ज्यादा हेक्टेयर भूमि को कब्ज़ा मुक्त कराने का दावा वन विभाग कर रहा है।

इसी अभियान के तहत सरकारी बुलडोज़र की ओर से यहां के दर्जनों गांवों के आदिवासियों को उनके ही जल, जंगल और ज़मीन से बेदखल किए जाने की कार्रवाई की जा रही है। रामपुर, मुसाहिब, गरला, पीतपुर, केवलाखांड कोठी जैसे गांवों में इन दिनों गरजते बुल्डोज़र और पुलिस की चहलकदमी से शांति कहीं खो सी गई है। जल, ज़मीन और जंगल से आदिवासियों को बेदखल किया जा रहा है। बेदखली की कार्रवाई से यहां के लोगों में खासा अंसतोष है।

इलाके में वन विभाग के अधिकारी

ये इलाका केंद्रीय मंत्री राजनाथ सिंह के पैतृक गांव भभौरा के आसपास ही है। वहीं, बगैर पुनर्वास की व्यवस्था किए अपने जल, जंगल, जमीन से उजाड़े जाने से नाराज आदिवासी, वनवासी, किसान और मजदूरों ने आदिवासी वनवासी महासभा और किसान-मजदूर एकता के बैनर तले मोर्चा खोल दिया है।

दरअसल यहां चंदौली में 29 जनवरी को स्थानीय प्रशासन की ओर से की गई कार्रवाई के लिए आधा दर्जन बुलडोजर और पुलिस फोर्स बुलाई गई। इस दौरान आदिवासियों की मौजूदगी में ही उनके सैकड़ों बीघे में खड़ी फसल को रौंद दिया गया। प्रशासन ने खेतों की निगरानी करने के लिए बनाए गए मचान और घासफूस की झोपड़ी को भी गिरा दिया। तीन पीढ़ी से अधिक समय से चकिया के जंगलों के आसपास बसे आदिवासी और वनवासियों की मुश्किलें दिन ब दिन बढ़ती ही जा रही हैं।

यहां जनचौक से बात करते हुए आदिवासी सविता कहती हैं कि 29 जनवरी को दोपहर के समय तीन-चार जेसीबी ने गरजते हुए हम लोगों के खेतों में लगी फसल को रौंद डाला। जब जेसीबी हमारे घरों की ओर बढ़ी तो मैं अपने बच्चों समेत खेत को बचाने पहुंची। पुलिस वालों ने हमलोगों की एक न सुनी और फसलों को रौंदते रहे। हम लोग कभी इस अधिकारी के पास भागकर जाते, कभी उस अधिकारी के पास। किसी ने हमारी फरियाद नहीं सुनी।

सविता

दोपहर ढलते-ढलते मेरी तीन बीघे जमीन में लगी सरसों, चना, आलू, मटर और गेहूं की फसल को बर्बाद कर दिया गया। हमारे खेत में 10 से 15 फीट लम्बे और चार से पांच फीट गहरे सैकड़ों गड्ढे खोद दिए गए। ये गड्ढे हमारे लिए कब्रिस्तान के समान हैं। इन्हीं फसलों से हम लोगों के भरण-पोषण के लिए साल भर का अनाज पैदा होता था। फसल के नष्ट होने से हम लोग भूखों मरने के कगार पर पहुंच गए हैं।

सविता की ननद रोते हुए बोली,  खेतों को तहस-नहस करने के बाद प्रशासन का बुलडोजर हमारी कच्ची मिट्टी के बने घरों को उजाड़ने की ओर बढ़ने लगा। घर के मर्द लोग मजदूरी करने आसपास के गांव में गए थे। बड़ी मिन्नत करने पर प्रशासन के लोग मान तो गए ,लेकिन मकान का टीनशेड उतरवा कर खेतों में फेंकवा दिया गया। पुलिस के एक जवान ने कहा कि दो-तीन दिन में यहां से गृहस्थी समेट कर चले जाओ। साहब, आप ही बताइये कि छोटे-छोटे बाल-बच्चों को लेकर जंगल में कहां जायेंगे?

जहां कई पीढ़ियों से रहते आ रहे हैं। यहां हमारे बाप-दादा मरे-खपे हैं, इस जगह को छोड़कर कैसे चले जाएं ? सरकार को यदि हमें अपने जमीनों से बेदखल ही करना है तो पहले मकान, पेयजल की व्यवस्था, रोड और अन्य सुविधाओं की व्यवस्था भी करनी चाहिए। हम यहां अपने पूर्वजों की तरह मर-मिट जायेंगे, लेकिन अपना घर और जंगल छोड़कर नहीं जाएंगे। सरकार और स्थानीय प्रशासन चाहे तो जमीनों के साथ हमारी जान भी ले ले।’

हालांकि प्रशासन के पास भी अपने तर्क हैं। चकिया रेंज के क्षेत्राधिकारी योगेश कुमार सिंह ने “जनचौक” को बताया कि ” केवलाखांड़ के पास तकरीबन 25 साल पहले घना जंगल हुआ करता था। बाद के सालों में लोग जंगल की जमीनों पर धीरे-धीरे अतिक्रमण करते गए। पहले दिन की कार्रवाई में लगभग 50 हेक्टेयर वन भूमि को अतिक्रमण से मुक्त करा लिया गया है। वन क्षेत्र से अतिक्रमण हटाने की कार्रवाई मजिस्ट्रेट की मौजूदगी में की गई है।

कुछ लोगों को वन भूमि से जल्द से जल्द फसल काटने को कहा गया है। क्योंकि यहां भी विभाग गड्ढे खोदेगा। प्रशासन यहां ये मुक्त कराई गई जमीनों पर वर्षा ऋतु में पौधे लगाने की बात कह रहा है। यहीं के शिवभोला राम ने “जनचौक” को बताया कि ”पहले मेरी पीढ़ी के लोग भभौरा में रहते थे। हमारे दादा तकरीबन 80-90 साल पहले यहां आकर रहने लगे।  

शिवभोला राम

इसके बाद मेरे पिता बेचू राम और इनके बाद अब मैं अपने परिवार के साथ शांति से रह रहा था। मेरे पिता, राजनाथ सिंह को अपने कंधे पर बैठाकर स्कूल, मेले और बाजार ले जाते थे। उन्होंने ने ही बाद में यहां एक हैंडपाइप लगवाया है। पिता के गुजर जाने के बाद वन विभाग की ओर से नोटिस और तारीख भेजी जा रही है। जिसे देखने के लिए काम-धंधा छोड़कर जाना पड़ता है।

हमलोग अपनी समस्या लेकर मंत्री जी के पास जाते हैं तो कोई सुनवाई नहीं होती है। जैसे कई पीढ़ियों से बसे आदिवासी और किसानों को प्रशासन उजाड़ने का काम कर रही है। हमें भी डर है कि हमें जबरदस्ती उजाड़ दिया जाएगा। कहीं कोई सुनवाई नहीं हो रही है। हम लोग अपना खेत और घर छोड़कर जाने वाले नहीं है। जंगल में दर-दर भटकने से बेहतर है कि हमलोग प्रशासन का जुल्म-ज्यादती सह लेंगे।“ उन्होंने जमीन से जुड़े सन 1981 का अभ्यारण वन विभाग वाराणसी का दस्तावेज भी दिखाया।

कभी नहीं पड़ी कागजात की जरूरत

केवलाखांड़ कोठी के सामने जंगल में खेती करने वाले 48 वर्षीय राजेश कुमार चार बीघे में खेती करते हैं। बातचीत करने पर अपने फसल को दिखते हुए राजेश की आंखों से आंसू झरने लगे। खुद को संभालते हुए उन्होंने बताया कि ‘मैंने दो बीघे जमीन में सरसों और अरहर की फसल लगाई थी। जिसमें अच्छे फलिया और दाने आये थे।

राजेश कुमार और राकेश

बिना किसी नोटिस के वन विभाग ने बुलडोजर की मदद से कुछ ही महीनों में तैयार होने वाली फसल को तहस-नहस कर दिया। झोपड़ी उजाड़ दिया और खेत में सैकड़ों कब्रिस्तान के जैसे गड्ढे खोद दिए। पहली बात यदि प्रशासन को खेत में गड्ढे ही खोदने थे तो कम से कम हमारी फसलों को पक तो जाने दिया होता। ताकि परिवार के भरण-पोषण की दिक्कत नहीं होती। दूसरी बात कि सैकड़ों सालों हमारी पीढ़ियां यहां रहती आ रही है। हमें कभी जमीन के कागजात की जरूरत ही नहीं पड़ी।’

केवलाखांड़ कोठी में रहने वाले गहरवार वंश के राजा ने यह जमीन हमारे दादा-परदादा को दी थी। तब से हम यहां रहते आ रहे हैं। कभी किसी सरकार और प्रशासन ने हमें बुलडोजर के दम पर बेदखल करने की कोशिश नहीं की थी। मौजूदा वक्त में हमारे सामने जीवन-मरण का प्रश्न खड़ा है।” दमन का यह सिलसिला जल्द ही रोके सरकार।

पीतपुर के किसान राकेश बिन्द ने “जनचौक” से कहा कि “हमलोगों को भी अपने समूचे गांव को उजाड़े जाने का भय सता रहा है। “रक्षामंत्री, सांसद, जिला अध्यक्ष और यहां तक की विधायक भी हमलोगों के आसपास के गांव के हैं। फिर भी कोई नहीं देख रहा हैं कि आदिवासी, किसानों और वनवासियों को बेरहमी से उजाड़ा जा रहा है। हमलोगों का दुख और तकलीफ कोई नहीं सुन रहा है। क्या हमलोग सिर्फ चुनाव में वोट देने तक सिमित हैं।

हमारा कोई नागरिक और संवैधानिक अधिकार नहीं है। कई किसानों ने प्रशासन को अपनी जमीनों के स्टे कागजात प्रशासन को दिखाया भी, फिर भी उनके खेत में लगी फसल को नष्ट कर दिया गया। शासन-प्रशासन से मेरी अपील है कि दमन का यह सिलसिला जल्द ही रोक दिया जाए, अन्यथा हालात बद से बदतर हो जाएंगे। एक बड़ी आबादी दाने-दाने को मोहताज हो जायेगी और भूखों मरने के कगार पर आ जाएगी।”

बुलडोजर से उजाड़ी गई झोपड़ी।

जंगल आदिवासियों का घर

चकिया और नौगढ़ की दो दशक से रिपोर्टिंग करने वाले स्थानीय पत्रकार तरुण भार्गव कहते हैं कि ‘जल,जंगल और जमीन सदियों से आदिवासियों और वनवासियों का घर रहा है। ये लोग जंगल से प्राप्त होने वाले फल-फूल, पत्ते और अब जगह-जगह मोटे अनाज पैदा कर जीवन यापन करते हैं। इन्हें जंगल की जमीन से हटाने के लिए प्रशासन को चाहिए कि संवैधानिक अधिकार और मानवीय मूल्य के आधार पर पहले इनके पुनर्वास की व्यवस्था करे, फिर स्थानांतरण की कार्रवाई अमल में लाई जाए।

जो कार्रवाई की जा रही है,  इससे तो आदिवासी, वनवासी और किसानों का जीवन संकट में पड़ जाएगा। वहीं, कुछ दशक पहले से कुछ अतिक्रमणकारी जंगल की जमीनों पर अवैध रूप से बसे हुए हैं, जो साधन संपन्न और मुख्यधारा से जुड़े हैं। ऐसे लोग समयकाल में स्थानीय रेंजरों और वन वाचरों को रिश्वत देकर वन की भूमि पर अवैध रूप से काबिज हैं। जबकि, इन वनक्षेत्र में खरवार, अगरिया, चेरो, गोंड, बैगा, उरांव और कोरबा आदिवासी और जनजातियों के घर हैं। इन्हें जीवन यापन के रोजी-रोजगार, मकान-छत, स्कूल और अस्पातल की व्यवस्था किये बगैर जंगल से हटाना उचित नहीं है।

(चन्दौली से पवन कुमार मौर्य की ग्राउंड रिपोर्ट)

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Anil Maurya
Anil Maurya
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1 year ago

पवन भाई इस जगह का संपूर्ण विवरण और कुछ लोगों का नंबर मिल सकता है क्या ?

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