Friday, April 26, 2024

अस्पतालों को आम जनता से दूर करने की कवायद को छुपाने के लिए मंत्री जी मार रहे हैं छापे

लखनऊ। उत्तर प्रदेश सरकार ने शायद कोविड-19 महामारी से कोई सबक़ नहीं लिया है। विभाग में मंत्री और नौकरशाह, ट्रांसफ़ॉर-पोस्टिंग को लेकर आमने-सामने हैं। मंत्री छापेमारी करते हैं और दोषियों पर कर्रवाई के नाम पर कुछ नहीं होता है।

इतना ही नहीं राजधानी स्थित एक प्रमुख चिकित्सालय में एक रुपये में होने वाला इलाज अब 100 रुपये का कर दिया गया है।ऐसा लगता है कोविड-19 की महामारी का सामना करने के बाद भी स्वास्थ्य विभाग में कुछ सुधार नहीं आया है।

कोविड-19 महामारी में प्रदेश का ऐसा हाल था, कि स्वयं सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी के नेताओं और मंत्रियों ने सवाल खड़े कर दिये थे।

मौजूदा स्वास्थ्य मंत्री, ब्रजेश पाठक ने एक पत्र लिखकर कोविड-19 के दौरान कुप्रबंधन को उजागर कर दिया था। इतना ही नहीं नदी के किनारे बहते शवों और श्मशान घाट के किनारे अंतिम संस्कारों को छुपाने के लिये खड़ी की गई, “अस्थायी” दिवार ने भी बहुत कुछ बयान कर दिया था।

लेकिन इन सब के बावजूद स्वास्थ्य विभाग में कोई बदलाव नज़र नहीं आ रहा है। एक तरफ़ स्वास्थ्य मंत्री और नौकरशाही आमने-सामने हैं। दूसरी ओर महंगाई की मार का सामना कर रही जनता का इलाज और महँगा हो गया है।

इतना ही नहीं अगर स्वयं उप-मुख्यमंत्री ब्रजेश पाठक भी छापामारी कर में असंगतियों और भ्रष्टाचार को पकड़े तो भी कोई कार्रवाई नहीं होती है।

अब इस बात पर चर्चा तेज़ हो रही है कि क्या कारण है कि इतनी बड़ी महामारी का उदाहरण सामने होते हुए भी प्रदेश में स्वास्थ्य सेवाओं में लचरता है?

ऐसा कैसे संभव हुआ कि स्वास्थ्य विभाग के अपर मुख्य सचिव अमित मोहन प्रसाद ने उप-मुख्यमंत्री को नज़रअन्दाज़ करते हुए चिकित्सा विभाग में तबादले कर दिये? क्या मंत्री केवल रबड़ स्टांप बन कर रह गये हैं और विभाग कोई और चला रहा है? 

उप मुख्यमंत्री ब्रजेश पाठक, 08 जुलाई तक क़रीब 35 अस्पतालों में छापेमारी कर चुके हैं। इन छापेमारियों में स्ट्रेचर, व्हील चेयर और जांच की मशीनों से लेकर दवाओं के रखरखाव तक में कमियाँ देखने को मिली हैं।

लेकिन अब सवाल यह है कि इस छापेमारी में मिली असंगतियों और भ्रष्टाचार पर कर्रवाई का क्या हुआ? बता दें कि अभी तक तो किसी को नहीं मालूम कि कार्रवाई के नाम हुई छापेमारियों में मिले दोषियों के विरुद्ध “स्वास्थ्य विभाग” या शासन ने क्या क़दम उठाये हैं। ऐसा लगता है कि ब्रजेश पाठक की छापेमारियाँ केवल मीडिया की सुर्ख़ियों तक सीमित हैं। कहा जा रहा रहा है कि मंत्री के छापे के बाद सभी फ़ाइलें दबा दी जाती हैं।

इतना ही नहीं महँगाई का बोझ झेल रही जनता के लिये इलाज और महँगा हो गया है। निजी अस्पताल में इलाज न करा पाने वाली आर्थिक रूप से कमज़ोर जनता, उपचार के लिए सरकारी अस्पताल का रुख़ करती है। राजधानी लखनऊ स्थित राम मनोहर लोहिया संस्थान के अस्‍पताल में, जहाँ स्थानीय मरीज़ों के अलावा दूसरे शहरों से इलाज के लिए भी बड़ी संख्या में मरीज़ आते हैं, वहाँ अब एक रुपए वाली पर्ची के लिए 100 रुपए चुकाने होंगे। 

इस मुफ्त मिलने वाली सभी सुविधाओं जैसे रक्त जाँच आदि के लिए भी अब पैसे देने होंगे। मरीज़ को भर्ती करने के लिये 250 रुपए प्रतिदिन ख़र्च होगा।बता दें अनुमान के क़रीब 25000-3000 मरीज़ प्रतिदिन यहाँ इलाज के लिये आता है। यानी ग़रीबी की मार झेल रही जनता पर इस नीति से 2.5 से 3 लाख रुपये प्रतिदिन का बोझ बढ़ेगा।

इस सब के बीच नौकरशाही का कहना है डॉक्टरों का ट्रांसफर-पोस्टिंग मंत्री के अनुमोदन में बाद हुई हैं। जबकि स्वयं मंत्री ने सवाल किया है कि क्या राजधानी लखनऊ, जहाँ दूसरे शहरों से इलाज के लिये बड़ी संख्या में मरीज़ आते हैं, वहाँ पर्याप्त डॉक्टर हैं या नहीं? यानी मंत्री को स्वयं नहीं मालूम कि राजधानी में कितने डॉक्टर हैं।

हालांकि राजनीति के जानकार मानते हैं कि भारतीय जनता पार्टी की आंतरिक राजनीति का ख़ामियाज़ा, मरीज़ों और स्वास्थ्य व्यवस्थाओं को भुगतना पड़ रहा है। वरिष्ठ पत्रकार शरत प्रधान कहते हैं कि अगर किसी बाहरी का सहयोग न हो तो, नौकरशाह कभी विभागीय मंत्री की मर्ज़ी के तबादले नहीं कर सकते हैं। प्रधान कहते हैं कि ऐसी ख़बरें हैं कि केंद्रीय लीडरशिप द्वारा उप-मुख्यमंत्री बनाये गये ब्रजेश पाठक और मुख्यमंत्री के बीच तनाव का नतीजा है कि स्वास्थ्य विभाग में सुधार नहीं हो पा रहा है।

आप को बता दें कि जिन देशों में स्वास्थ्य व्यवस्था निजी हाथों में थी वहाँ कोविड-19 महामारी के दौरान जानों का ज़्यादा नुक़सान हुआ। हालाँकि जहाँ स्वास्थ्य सेवा सरकारी हाथों में थी वहाँ लोगों की जानों को ज़्यादा बचाया जा सका।ऐसे हालात में सरकारों के लिये अति आवश्यक है कि स्वास्थ्य सेवाओं को प्राथमिकता दें, न कि चिकित्सा व्यवस्था को आंतरिक या बाहरी राजनीति के जाल में फ़सने दें। क्योंकि आख़िर सवाल लाखों लोगों के स्वास्थ्य और जान का है।

(लखनऊ से असद रिज़वी की रिपोर्ट।)

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