राना अय्यूब पर दर्ज हुआ मुकदमा, दिल्ली हाई कोर्ट ने दिया आदेश

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दिल्ली हाई कोर्ट के आदेश के बाद देश की प्रतिष्ठित पत्रकार राना अय्यूब के खिलाफ दिल्ली में केस दायर कर दिया गया है। राना पर भारतीय दंड संहिता की धारा 153A, 295A तथा 505 के अंतर्गत मुकदमा दर्ज किया गया है।

पत्रकार पर आरोप लगाते हुए वाद पक्ष ने इस बात को स्पष्ट किया है कि राना के द्वारा 2013, 2014, 2015 तथा 2022 में अपने सोशल मीडिया हैंडल्स के द्वारा देश के धार्मिक, भाषायी, जातीय, क्षेत्रीय, सामाजिक समरसता को खडित करने हेतु कई पोस्ट लिखे हैं।

यह आदेश 25 जनवरी को साकेत अदालत के मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट हिमांशु रमन सिंह द्वारा जारी किया गया था, जो अधिवक्ता अमिता सचदेवा द्वारा राना अय्यूब के खिलाफ दायर एक शिकायत के बाद आया न्यायिक संज्ञान में आया।

राना अय्यूब इस देश में अपने कार्य से ज्यादा उनसे जुड़े विवादों के कारण चर्चा में रहीं हैं, जिसमें सबसे बड़ा विवाद उनकी पुस्तक गुजरात-फाइल्स रही जिसने उन्हें पूरी दुनिया में एक इनवेस्टिगेटिव जर्नलिस्ट के रूप में स्थापित किया। इसके अलावा, राना अय्यूब एक प्रमुख पत्रकार और वॉशिंगटन पोस्ट की कॉलमिस्ट हैं।

अय्यूब अपने खोजी कार्यों के लिए जानी जाती हैं, विशेष रूप से 2002 के गुजरात दंगों पर उनकी रिपोर्टिंग के लिए। वॉशिंगटन पोस्ट की उनकी जीवनी में उन्हें “गुजरात फाइल्स: एनाटॉमी ऑफ ए कवर अप” की लेखिका के रूप में वर्णित किया गया है। वह पहले भारत की खोजी पत्रिका तहलका की संपादक भी रही हैं। अय्यूब धार्मिक हिंसा, राज्य द्वारा की जाने वाली कथित फर्जी मुठभेड़ों और विद्रोह जैसे मुद्दों पर रिपोर्टिंग करती हैं।

इससे पहले राना अय्यूब के ऊपर एनफोर्समेंट डायरेक्टरेट ने वित्तीय अपराध, मनी लॉन्ड्रिंग के अंतर्गत उन्हें वादी बनाया, जिसमें उनके ऊपर इल्जाम लगाया गया कि राना ने कोविड 19 के अंतर्गत क्राउड फंडिंग के द्वारा उगाही गयी राशि को गलत रूप से उपयोग करने का इल्जाम लगाया जिसके बाद ED ने उनके खिलाफ फेरा (फॉरेन कंट्रीब्यूशन रेगुलेशन एक्ट) तथा प्रिवेंशन ऑफ़ मनी लॉन्डरिंग) के अंतर्गत केस दर्ज किया। यह मामला अभी भी कोर्ट के अंदर चल रहा है।

जबकि इसके अलावा राना अय्यूब के ऊपर मानहानि के अनेकों मामले लगाए जा चुके हैं। इसका एक बड़ा उद्धरण है 2018 का मानहानि का दावा था जो गुजरात आधारित एनजीओ ने उनकी पुस्तक गुजरात फाइल्स के आधार पर किया था जिसे बाद में वापस ले लिया गया था।

राना अय्यूब अपने आलोचनात्मक रिपोर्टिंग और विचारों के कारण ऑनलाइन उत्पीड़न, दुर्व्यवहार और धमकियों का शिकार रही हैं। उन्होंने अक्सर सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर ट्रोलिंग और धमकियों के बारे में खुलकर बात की है। 2021 में उन्होंने ऑनलाइन बलात्कार और हत्या की धमकियां मिलने के बाद दिल्ली पुलिस में शिकायत दर्ज कराई।

पुलिस ने एफआईआर दर्ज की, लेकिन मामले में सीमित प्रगति देखी गई है। यहां पर भी पुलिस इन्वेस्टीगेशन का एक दोहरा चरित्र सामने आता है जहां एक तरफ पुलिस 2013 और उससे पुराने मामले की जांच करने में लगी हुई है वहीं वह 2022 के मामले में दिल्ली पुलिस से जांच नहीं हो पा रहा है।

राना के ऊपर सीधे और क़ानूनी रूप से हमले का कारण उनकी मुखर पत्रकारिता और उनके मुस्लिम धर्म को मानना है। जहां राना अय्यूब ने बेहद बहादुरी के साथ गुजरात नरसंहार की प्रोफाइलिंग अपनी पहचान छुपा कर की, वही आज के समय में भी राना हर प्रकार के राजकीय दमन पर बोलती रही हैं।

इसी घटना के सामानांतर रुपेश कुमार सिंह, जो झारखण्ड के खोजी पत्रकार हैं उनके जमानत अपील की याचिका को सुप्रीम कोर्ट ने ख़ारिज कर दिया है। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने झारखण्ड उच्च न्यायालय ने निर्णय में हस्तक्षेप करने से इंकार कर दिया।

वहीं इससे पहले झारखंड उच्च न्यायालय ने भी वर्तमान केस में ‘प्राइमा फेसाइ'(प्रथम दृष्टा) केस को मानते हुए मामले में रुपेश कुमार सिंह के बैल की याचिका को ख़ारिज कर दिया था। इससे पूर्व भी रुपेश कुमार को झारखंड से 2019 में भाकपा (माओवादी) के सदस्य होने के आरोप के कारण उन्हें इससे पहले भी पकड़ा गया था।

रुपेश न केवल एक जुझारू पत्रकार थे अपितु वह लगातार झारखण्ड में चल रहे जल-जंगल-ज़मीन के अधिकार की लगातार अवमानना को भी उजागर कर रहे थे। रुपेश को जिस मामले में अभियुक्त बनाया गया है उसे आश्चर्य की बात यह है कि एफआईआर में रुपेश का नाम नहीं है परन्तु उन्हें किसी दूसरे अभियुक्त से बरामद हुए साक्ष्यों के आधार पर गिरफ्तार किया गया है।

माननीय सर्वोच्च न्यायालय को इस बात पर जरूर ध्यान देना चाहिए कि रुपेश के साथ ही उसी मामले में गिरफ्तार हुए 3-4 लोगों को पहले ही बेल दिया जा चुका है जो रुपेश के बेल के लिए एक मजबूत आधार है।

रुपेश कुमार सिंह को सरकार ने काफी लम्बे समय से निशाने पर रखे हुए थे। इसका प्रमाण पेगासस लिस्ट में रुपेश कुमार सिंह के तीन नंबर थे। मुकेश चंद्राकर और रुपेश कुमार सिंह में कुछ समानताएं है, खास कर पत्रकारिता के क्षेत्र से हटकर एक की हत्या और एक के गिरफ्तार होने में। दोनों ही पत्रकार अपने क्षेत्रों में खनन और बड़े प्रोजेक्ट्स के अंदर धांधली और उसके दुष्प्रभाव का पर्दाफाश कर रहे थे।

जहां रुपेश खनन कंपनियों द्वारा झारखंड के क्षेत्र में खाना करने से भूमिगत जल प्रदूषण के कारण होने वाली बीमारी के बारे में रिपोर्ट ला रहे थे वहीं वह दूसरी तरफ खनन श्रमिकों में होने वाली सिल्कोसिस बीमारी के बारे में भी सच उजागर कर रहे थे जो हजार मीलों दूर बैठी दिल्ली की मीडिया के नज़र से दूर थी।

वहीं दूसरी तरफ मुकेश अपने ही चचेरे भाई सुरेश चंद्राकर द्वारा लिए गए सड़क कॉन्ट्रैक्ट में होने वाले भ्रष्टाचार के खिलाफ में एक बड़ा खुलासा कर रहे थे। वह प्रोजेक्ट 150 करोड़ से ज्यादा का बताया जा रहा रहा है जिसका मुकेश के रिपोर्ट के बाद पूरा हो पाना बेहद मुश्किल था।

ग्राउंड रिपोर्ट करने वाले पत्रकारों ने आज के समय में जमीनी हकीकत को दिखा पाने में एक हद तक सक्षम रहे हैं। वहीं अगर बात करें ऐसे मीडिया हाउसेस की जिन्हें ‘कुक्ड स्टोरीज’ चलानी है तो वह बहुत आम है और वही मुख्य धरा की पत्रकारिता का हिस्सा भी है।

गौरी लंकेश की हत्या के बाद देश ने एक बार ग्राउंड रिपोर्टर्स और जमीं से जुड़के काम करने वाले पत्रकारों की हत्या के सिलसिले पर बात करने शुरू किया था।

परन्तु गौरी लंकेश या उसके बाद अगर हम देखें तो यह ट्रेंड के रूप में सामने आया है कि राज्य अपने अलग-अलग प्रारूपों के द्वारा स्वतंत्र मीडिया व्यवस्था को पहले माओवादी, दशहतगर्दी, अलगाववादी आदि करार देकर पहले उसकी मेन स्ट्रीम मीडिया ट्रोलिंग करती है, फिर या तो उसे कोई फासीवादी भीड़ मार देती है या राज्य स्वयं उसे अपने तरीके से टारगेट करना शुरू कर देता है। मीडिया पर बढ़ते हमलों को एक व्यापक लोकतंत्र पर हमले के रूप में जरूर देखे जाने की जरूरत है।

(जनचौक की रिपोर्ट)

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