नारायणपुर। पिछले महीने छत्तीसगढ़ में हुए चुनाव के दौरान आदिवासी ईसाइयों पर हुए अत्याचार का मामला बहुत ही तेजी से उठा था। जिसमें मृत्यु के बाद शव को दफनाने से रोकने की खबर पर सबकी नजर थी। पिछले दो सालों में बस्तर संभाग के अलग-अलग जिलों में आदिवासी ईसाइयों पर अत्याचार की खबरें अखबारों की सुर्खियां रही। चुनाव में यह मामला मुद्दा तो बना लेकिन कोई खास समाधान नहीं निकल पाया।
संभाग के कोंडागांव, चित्रकोट, जगदलपुर, सुकमा, नारायणपुर के अलग-अलग हिस्सों में यह खबरें पढ़ने को मिली है कि मृतकों को दफनाने पर बवाल जारी है। फिलहाल ताजा मामला चुनाव के ठीक बाद नारायणपुर का है। जहां जिला मुख्यालय से मात्र 5 किलोमीटर और 20 किलोमीटर की दूरी पर ही शवो को दफनाने से मना कर दिया गया।
जंगल में भी नहीं दी जगह
जनचौक की टीम इन परिवारों से मिलने के लिए गई। सबसे पहले हम नारायणपुर के जिला मुख्यालय से पांच किलोमीटर दूर गारांजी गांव गए। यह एक बड़ा गांव है जिसमें लगभग 150 घर हैं। यहीं चन्नू सलाम का परिवार रहता है।
गांव में अपने खेत के बीच चन्नू का घर है जहां वह अपनी मां को दफनाना चाहते थे। लेकिन ऐसा नहीं हो पाया। जब मैं उनके घर गई तो उनके पास्टर भी वहां मौजूद थे। जो मूलरुप से माड़ के रहने वाले हैं।
चन्नू की मां का देहांत 12 नवंबर को हुआ था। उन्होंने बताया कि मृत्यु की अगली सुबह मैं और परिवार के कुछ सदस्य पटेल (एक तरह से गांव का मुखिया) के पास पूछने के लिए गए कि शव को कहां दफनाएं?, क्योंकि यहां गांव का नियम है कि शव को दफनाने के लिए पटेल से अनुमति लेनी होती है और वही बताते हैं कि शव को कहां दफनाना है।
चन्नू ने मांग की उसे मां को घर के ही एक कोने में दफनाने की अनुमित दी जाए। इसके लिए उसने घर में गड्ढा भी खोद लिया गया था। लेकिन गांव वाले इकट्ठा हो गए और मना कर दिया। वहीं दूसरी ओर गांव के पटेल ने जंगल में दफनाने की अनुमति दी।
चन्नू ने बताया कि हमने जंगल जाने की तैयारी की तो गांव वालों ने वहां भी इसका विरोध किया और कहा कि यहां दफनाने नहीं दिया जाएगा। आप कहीं बाहर जाए।
इस मामले में पुलिस को खबर किया गया। चन्नू सलाम के अनुसार टीआई दिनेश चंद्रा के साथ कुछ अन्य पुलिस वाले भी आए थे। जो जबरदस्ती शव को कब्रिस्तान ले गए और जेसीबी से खुदाई करके शव को दफना दिया गया। यहां तक की आखिरी प्रार्थना भी सही से नहीं की गई।
घर के बाहर कब्रिस्तान फिर भी नहीं मिली जगह
चन्नू पिछले सात साल से चर्च जा रहे हैं। उनकी दो बेटियां और एक बेटा है। उन्होंने मुझे उस जगह को दिखाया जहां मां को दफनाने के लिए गड्ढा किया गया था। उनका कहना है कि सभी लोगों को गांव में दफनाने की अनुमति है। सिर्फ ईसाई परिवारों के साथ ही ऐसा व्यवहार किया जा रहा है। हमें शादी, छठी के लिए भी रोका जा रहा है।
चन्नू सलाम के घर के बाहर सड़क की दूसरी तरफ कई शवों को दफनाया गया है। यहां कई पक्की कब्रें बनी हुई हैं। गारांजी में लगभग 150 घर है जिसमें से मात्र 10 से 12 ईसाई परिवार हैं।
इस घटना के बारे में हमने गांव के पटेल सीताराम सलाम से बात की। गांव की शुरुआत में ही उनका पक्का मकान है। जिसमें एक किराने की दुकान है। इसी दुकान में वह बैठे हुए थे।
मैंने उनसे पूछा कि ईसाइयों को गांव में दफनाने की अनुमति क्यों नहीं देते हैं? उनका जवाब था कि गांव वालों ने ही यह निर्णय लिया है कि ईसाइयों को गांव में दफनाने नहीं देंगे। वह आदिवासी संस्कृति से अलग हो चुके हैं। इसमें पूरे गांव की एक राय है। जिसे मानना पड़ता है। इसके लिए हमने मार्च के महीने में कलेक्टर को पत्र भी दिया था।
गांव के आदिवासियों की राय है कि ईसाई शव को कहीं भी दफनाएं लेकिन गांव की बॉउड्री के अंदर किसी को भी दफनाने की अनुमति नहीं है।
पुलिस ले गई शव
इसके बाद हम बेनूर ब्लॉक के कोलियारी गांव गए। जहां एक युवक की मौत के बाद उसे गांव में दफनाने नहीं दिया गया। न ही घर वालों को पता है कि शव को कहां दफनाया गया।
बस्तर के अन्य गांव की तरह इस गांव में भी घर एक दूसरे से दूर थे। गांव में लाल मिट्टी की कच्ची सड़क थी। पंचायत भवन था जिसमें ताला लगा हुआ था। मैंने गांव की एक महिला से पूछा सुकराम सलाम का घर कौन सा है? उसने छूटते ही पूछा जिसका कुछ दिन पहले देहांत हुआ है? मैंने कहा हां।
गांव के दूसरे कोने पर सुकराम सलाम का घर था। वहां पहुंचने पर एक बूढ़ी महिला मिली। शायद उसे हिंदी समझ में नहीं आती थी। मैंने उनसे पूछा यह सुकराम का घर है। उसने मुझे गोंडी में रुकने के लिए कहा और अपने घर से किसी को बुलाया।
इन लड़कियों को हिंदी आती थी। जिसमें एक सुकराम की बेटी थी और एक बहन।
जानकी सलाम जिसकी उम्र 18 साल है। मेरे सामने बैठकर पिता की देहांत के बारे में बताती है। नम आंखों से उसने बताया कि 20 नवंबर को पिताजी का देहांत हुआ था। मैंने पूछा तुम्हारी मां कहां है? बताया कि मां तो बचपन में ही गुजर गई थी। मैं और मेरा एक भाई है। जो अब अपनी दादी और बुआ के साथ रहते हैं।
जानकी ने मुझे बताया कि मेरे पिताजी की थोड़ी तबियत खराब थी। उन्हें सिक्ल सेल की परेशानी होने के कारण वह बहुत ही कमजोर हो गए थे। इसी दौरान 20 नवंबर को ज्यादा तबीयत खराब हुई और देहांत हो गया। हमने अपने घर पर ही दफनाने का इंतजाम किया। लेकिन गांव के लोग इकट्ठा हो गए दफनाने का विरोध करने लगे।
हमने बेनूर पुलिस थाने में इसकी शिकायत की। पुलिस आई लेकिन पुलिस ने हमारी एक नहीं सुनी। उल्टा पुलिस हमें ही धमकाने लगी और शहर के कब्रिस्तान में दफनाने की बात करने लगी।
जानकी सलाम और परिवारवालों के अनुसार इस बीच पुलिस शव को अपने साथ ले जाती है और उन्हें इस बात की जानकारी नहीं कि शव को कहां दफनाया गया।
यह बात मेरे लिए भी हैरान करने वाली थी कि परिजनों को पता ही नहीं कि शव को कहां दफनाया गया है।
जानकी का कहना है कि गांव में लगभग 200 घर हैं। जिसमें मात्र पांच ईसाई परिवार है। सुकराम का परिवार भी साल 2018 से चर्च जा रहा है।
जानकी के अनुसार उनके परिवार के सदस्यों को यही दफनाया गया था वह अपने पिता को मां के बगल में ही दफनाना चाहते थे। लेकिन ऐसा नहीं हुआ।
इस मामले के लिए मैं बेनूर थाना गई। लेकिन वहां टीआई मनोज साहू नहीं मिले। थाने के एक एसएचओ ने बताया कि वह कोर्ट गए हैं आप फोन पर बात कर सकती हैं।
फोन पर मैंने पूछा कि सुकराम सलाम के परिवार का कहना है कि टीआई के निर्देश पर ही शव को उनके घर से उठाया गया है और उन्हें नहीं बताया गया कि उसे कहां दफनाया गया है?
इसका जवाब देते हुए टीआई ने बताया कि हमने परिवार से अनुमति ली थी। बिना अनुमति के शव को दफन कैसे कर सकते हैं। यहां तक की जब दफन किया गया तो परिवार के लोग भी शामिल थे।
इस मामले में मैंने नारायणपुर के अतिरिक्त एसपी हिमसागर सिदार से बातचीत की तो उनका भी वही कहना था जो टीआई ने कहा। उनके अनुसार परिजनों के बिना कोई भी अंतिम संस्कार संभव ही नहीं है।
ईसाइयों पर लगातार होते हमले के बारे में सामजिक कार्यकर्ता फूलसिंह कचलाम का कहना है कि ईसाईयों के अधिकारों का लगातार हनन हो रहा है। स्थिति यह है कि उन्हें मृत्यु के बाद भी अंतिम संस्कार नहीं करने दिया जा रहा है। यहां तक कि प्रशासन की तरफ से भी उन्हें बाहर दफनाने के लिए दबाव डाला जाता है।
(बस्तर से पूनम मसीह की रिपोर्ट)