100 रुपये में डीजल, 250 रुपये घंटा सिंचाई दर; सावन में खेतों में उड़ रही धूल

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प्रयागराज। सावन के महीने में यूपी में खेतों में धूल उड़ रही है। पिछले साल बारहों महीने बेतहाशा बरसने वाले बादल इस साल मानसून में भी नहीं आये। आषाढ़ बीत गया। खेतों में बेहन रोपनी की राह देखते-देखते चेहरे पत्थर हो चले हैं। रोपनी गीत स्त्रियों के गलों में ही दबे रह गये। जो लोग कहीं से पानी का जुगाड़ करके धान की रोपाई कर भी दिये हैं उनके खेतों में दर्रा फाड़ पीले धान पानी-पानी चीख रहे हैं।

जीवन में दर्जनों सूखा-बूड़ा देख-झेल चुका प्रतापगढ़ का एक बूढ़ा किसान किसानी के मनोद्वंद को अभिव्यक्त करते हुये कहता है-“लगाय देई और झूरा सूखा से कुछ न पैदा होई तो संतोष है, लेकिन परती खेत देख के करेजा कटत है। डीजल इंजन मालिक इस सीजन 250 रुपये घंटा की दर से सिंचाई वसूल रहे हैं। कहते हैं इंजन डेढ़ लीटर घंटा डीजल पीती है”। डीजल 100 रुपये लीटर है। डेढ़ लीटर के हिसाब से डेढ़ सौ इसी के हो गये। ऊपर से मोबिल ऑयल का ख़र्चा, मेंटिनेंस का खर्चा है सो अलग। ये हालात और स्थिति परिस्थिति किसी एक जिले की नहीं है। इलाहाबाद, प्रतापगढ़, जौनपुर, फतेहपुर, कानपुर, वाराणसी, अंबेडकरनगर, अयोध्या (फैजाबाद), कौशाम्बी, बांदा, महोबा समेत दर्जनों जिलों के किसानों का यही हाल है।  

इलाहाबाद का एक किसान बताता है कि उसके तमाम खेत नहर के किनारे हैं। कहने को तो नहर में पानी 15 दिन आता था लेकिन हक़ीक़त यह है कि नहर में पूरा पानी बमुश्किल 2-3 दिन ही आया था। बम्बी से बहुत कम पानी निकल रहा था। रिस रिसकर खेत भरने में दो दिन लग गये। उसके बाद नहर बैठ गयी। अब जाने कब आये। नहर किनारे के किसानों को रोपनी के लिये इंजन का महँगा पानी ढूंढ़ना पड़े तो इससे ज़्यादा शर्म की बात और क्या होगी।  

रोपनी के समय बिजली का क्या हाल है। पूछने पर एक किसान झल्लाकर कहता है कि हाल तो पूछो ही न भैय्या। ट्रांसफॉर्मर में तीन फेस बिजली कभी आती ही नहीं। तो जिन लोगों का बहुत पुराना ट्यूबवेल की बोरिंग है जिसे वो सालों से तीन फेस से चलाते हैं बेचारे बैठे रो रहे हैं। क्योंकि कभी तीन फेस बिजली आती ही नहीं। महीने का बिल आता है बस। कई किसानों ने तो आजिज आकर कर्ज़ा ऋण लेकर मोनोब्लॉक, या सबमर्सिबल पंप बैठा लिया है।

बिजली मोटर से सिंचाई का क्या रेट है। पूछने पर पता चला कि अलग-अलग जगह अलग अलग दर है। इलाहाबाद में 80-100 रुपये घंटे की दर से सिंचाई पानी मिल रहा है तो वहीं प्रतापगढ़ में 120-150 रुपये प्रति घंटे की दर से। लेकिन सबसे बड़ी बात यह है कि बिजली ही नहीं रहती। आती भी है तो इतनी डिम की मोटर ही नहीं चल पाता। एक किसान बताता है कि तमाम गांवों में लोगों ने घर घर टुल्लू ख़रीद रखा है। जिसे उन्होंने हैंडपंप में फिट करवा रखा है। कुछ लोगों ने खेतों में बोर करवा लिया है। और वो टुल्लू लेकर जाते हैं और चलती बिजली में कटिया मारते हैं जिसके चलते न सिर्फ़ ट्रांसफॉर्मर पर लोड पड़ता है, बिजली बहुत फ्लक्चुएट होती है। कई बार चलती बिजली में कटिया मारने से स्पार्किंग होकर तार टूट जाता है, कहीं कोई फ्यूज उड़ जाता है। जिसे बनने में दो-तीन दिन लग जाते हैं।

‘इस साल झूरा पड़ गया’ बोलने वाले जौनपुर के कई किसानों से मैंने पूछा कि आप लोग अन्य फसलें जो कि कम पानी लेती हैं जैसे कि ज्वार, बाजरा, मक्का, तिल्ली, अरहर क्यों नहीं बोते। इस पर वो दो टूक जवाब देते हैं जोगी बाबा के सांड़न न होई देइहें (मुख्यमंत्री योगी के सांड़ चर जाएंगे)।

इलाहाबाद की कहानी कुछ अलग है। कई अधेड़ किसान बताते हैं कि स्वाद के फैशन की ऐसी आंधी आई कि ज्वार, बाजरा, मक्का आदि चलन से बाहर कर दिये गये। इन्हें खाने वालों को पिछड़ेपन और गँवार का विशेषण देकर हिकारत से देखा जाने लगा। कहा जाने लगा कि ये जानवरों का चारा है। इससे कई किसानों ने अपने ऊँचे खेतों की माटी ईंट भट्ठों और मकान आदि बनाने वालों को मुफ़्त देकर निकलवा दिया। जबकि कुछ लोगों ने तो पैसे देकर खेतों की माटी निकलवाकर खेतों को खलार (नीचा) कर दिया ताकि धान पैदा कर सकें।

बांदा के एक किसान सवाल उठाते हुए कहते हैं कि इस सरकार ने सब धान एक पसेरी कर दिया है। महंगी गाड़ियों से चलने वालों के बराबर दाम में किसानों को डीजल बेचा जा रहा है। क्या वाकई में दोनों की हैसियत बराबर है। लेकिन नहीं, अंधेरगर्दी है। जिसके चलते ट्रैक्टर से जुताई, सिंचाई, मड़ाई सब महंगी पड़ रही है। किसान करे तो क्या करे।  

धान रोपने वाली स्त्रियां बताती हैं कि इस साल धान रोपना बड़ा दुखदाई रहा। बारिश नहीं हुई धरती की तासीर गर्म है। सिंचाई का पानी इतना महंगा है कि सुबह लोग पानी भर रहे हैं और दोपहर में रोपनी करनी पड़ रही है। कई बार तो पूरे खेत की रोपनी होते होते पानी सूख जाता है। सूखे खेत में धान की बीहड़ गाड़ने नाखून और उंगलियां दुखने लगती हैं। धान रोपने वाली स्त्रियां बताती हैं कि “लगवाई से पहले खेतों को पर्याप्त बारिश का पानी मिल जाता था। जिससे खेतों की गर्मी निकल जाती थी। खेतों की प्यास बुझ जाती थी। सिंचाई के लिये बहुत थोड़ा पानी लगता था। एक बार पलेवा करके हेंगाय देते थे तो धान रोपने के लिये बहुत बढ़िया माटी बन जाती थी। इस साल तो रोपनी लायक माटी ही नहीं बन पा रही है”।

जीवन के तमाम आषाढ़ और सावन देख चुके एक बुजुर्ग किसान कहते हैं सावन का पहला सप्ताह बीत गया है। जिन लोगों ने आषाढ़ की सप्तमी में जरई नहीं बैठाया होगा वो लोग आज सावन की सप्तमी में जरई बैठायेंगे। सावन में बहुत जुज्बी लोग रोपनी करते थे। अधिकांश लोगों की रोपनी आषाढ़ महीने में हो जाती थी। सावन-भादौं तो निराई का सीजन होता है। लेकिन इस साल सावन के पहले पखवारे तक पचास प्रतिशत किसानों ने भी धान की रोपाई नहीं की है। इसी से हालात का अंदाजा आप लगा लीजिये।  

बटाई पर खेती करने वाले एक दलित किसान राम जी कहते हैं कि खेत मालिक रोज ही टोकते हैं कि कब करोगे रोपनी। नहीं करना है तो खेत छोड़ दो। लेकिन क्या करूं। डीजल इंजन से सिंचाई मेरे सामर्थ्य की बात नहीं है। बिजली मोटर वालों से बात कर रखी है वो लोग पहले अपने खेतों की रोपाई कर लेंगे तब मुझे पानी देंगे। 

(इलाहाबाद से जनचौक के विशेष संवाददाता सुशील मानव की रिपोर्ट।)

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