संसदीय लोकतंत्र में संसद का स्थगन लोकतंत्र का ही स्थगन है

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विधानसभाओं के चुनाव के परिणाम आ चुके हैं। सत्ताधारी दल को महाराष्ट्र में ‘भारी सफलता’ मिली है। लेकिन, ऐसा लगता है कि यह भारी सफलता सत्ताधारी दल की अन्य विफलताओं को ढकने के लिए काफी नहीं पड़ रही है। जिस तरह से शीतकालीन सत्र के पहले दिन ही संसद की कार्यवाही का स्थगन हुआ है, वह चिंताजनक और संसदीय सरकार के संसदीय व्यवस्था के प्रति सम्मान के अभाव का सूचक भी है। यह देश भर में इस बीच घटी घटनाओं पर संसद में सरकार की जवाबदेही से बचने का तरीका भी है। सरकार को जवाब-तलबी बिल्कुल पसंद नहीं है। भारत की संसदीय व्यवस्था के वर्तमान संचालकों के मन में लोकतंत्र और लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति कितना सम्मान है, यह तो जगजाहिर ही है।

सरकार के विधायी कार्य में विपक्ष की ओर से की जानेवाली बहस और सरकार की आलोचना के चलते हुआ कार्यवाही स्थगन का मामला नहीं है। विपक्ष को मुंह न खोलने देने के कुत्सित इरादों और संसद का सामना न करने की स्पष्ट बदनीयती को ही दिखलाता है। संसदीय व्यवस्था में जन-प्रतिनिधियों की सर्वोच्च संस्था संसद है। सदन में जनता के द्वारा ‘अस्वीकार्य लोग’ संसद सदस्य नहीं होते हैं। विपक्ष के जन-प्रतिनिधियों को अस्वीकार्य मानना जन-प्रतिनिधियों का ही नहीं उस जनता का भी अपमान है जिस जनता के वे चुने हुए प्रतिनिधि होते हैं। जन-प्रतिनिधियों के द्वारा की गई जवाब-तलबी को हुड़दंगबाजी मानना संसदीय व्यवस्था में सरकार के संसद के प्रति जवाबदेही से इनकार करने के अलावा और क्या हो सकता है।

जिन्हें ‘मुट्ठी भर’ बताया जा रहा है वे मुख्य रूप से 267 के तहत अदाणी मामले में चर्चा की मांग कर रहे थे। पीठासीन अधिकारी कहते हैं नोटिस नियम के मुताबिक नहीं थे। पीठासीन अधिकारियों ने चर्चा की इजाजत नहीं दी। सरकार के साथ ही पीठासीन अधिकारियों की भूमिका भी संसदीय मर्यादा के अनुकूल नहीं मानी जा सकती है।

जब सरकार के पास 303 की शक्ति थी तब शक्ति के बल पर संसदीय मर्यादा की अवहेलना करने से परहेज नहीं करती थी। विपक्ष के नेताओं खासकर राहुल गांधी की माइक बंद करने, उन के बोलते समय निर्बाध शोरगुल करने, वक्तव्य के मुख्य अंश को कतर-ब्योंत कर संसदीय कार्यवाही से निकालने जैसी हरकतें करने में जरा-सी भी झिझक महसूस नहीं करती थी। अब जबकि शक्ति 240 पर सिमटकर रह गई है तब संसदीय कार्यवाही से ‘मुंह चुराना’ सरकार की चर्या जैसी बनती जा रही है। भारतीय जनता पार्टी के लिए यह संसदीय समय कठिन है और राजनीतिक समय दुस्साहस से भरा है।

यह समय समर्थकों और समर्थक राजनीतिक दलों के लिए सावधान रहने का भी है। जनता दल यूनाइटेड और तेलुगु देशम पार्टी (टीडीपी) का मुख्य दायित्व है कि सरकार को संसदीय मर्यादा से बाहर जाने के रास्ता में राजनीतिक रुकावट पैदा करे। यदि जनता दल यूनाइटेड और तेलुगु देशम पार्टी (टीडीपी) यह काम भी नहीं कर पाती है तो यही माना जा सकता है कि संसद की अवहेलना के राजनीतिक अपराध में वे भी उतने ही भागीदार हैं।

देश के संघात्मक ढांचा को जीवंत और कारगर बनाये रखने का सब से महत्वपूर्ण आधार संविधान और संविधान के प्रावधानों, परंपराओं एवं मान्यताओं आदि के अनुरूप संचालित संसद ही है। भारत के विभिन्न राज्य न तो किसी अन्य राज्य के और न संघ सरकार के ही उपनिवेश हैं। संसद के संचालन के परिप्रेक्ष्य का सही न रहने से देश के संघात्मक ढांचा को चोट पहुंचती है। देश के बनावट में संघात्मक ढांचा की संवेदनशीलता को चोट पहुंचना बहुत ही विनाशकारी साबित होगा।

प्रसिद्ध समाजवादी विचारक डॉ राममनोहर लोहिया ने कहा था कि अगर सड़कें खामोश हो जायें तो संसद आवारा हो जाएगी। अब स्थिति बदलकर विपरीत हो गई है। संसद अगर धूर्त खामोशी का सहारा लेगी तो सड़कों पर जो सियासी तूफान खड़ा होगा वह बेरोजगारी और भांति-भांति के अन्याय से पीड़ित जनता को अंततः ‘राजनीतिक आवारगी’ के रास्ता पर ही धकेल देगा।

राजनीतिक मनमर्जी और संवैधानिक मनमानापन भारत के भविष्य के लिए राह भटकानेवाला और भयानक होगा। भारतीय जनता पार्टी के शासन-काल में लोक-लाज, नैतिक तर्क और नैसर्गिक न्याय की कोई परवाह तो कभी दिखी ही नहीं है। बल्कि ऐसा लगता है कि अनैतिक उत्तेजना और तर्क-हीन उन्माद की ‘ऊर्जा’ का इस्तेमाल राजनीतिक आयुध के रूप में करना भारतीय जनता पार्टी की दक्षता बन गई है। लोकतंत्र में नैतिक तर्क और न्याय मूल्य की परवाह किये बिना बहुसंख्यक के बल पर उपद्रव मचानेवाला दवा में ही जहर मिलाने के अपराधी से कम नहीं होता है।

अभूतपूर्व ढंग से भारत के प्रधानमंत्री जिस तरह से ‘मुट्ठी भर’ लोगों के बहाने ‘आरोपियों’ की ढाल बनने की कोशिश संसद के बाहर-भीतर करते दिखते हैं, वह बहुत ही विचित्र प्रसंग है। सरकार की ‘संसदीय विच्छिन्नता’ के पीछे की यह ‘रणनीति और रणनीयत’ बहुत ही त्रासदी भरा है। पीठासीन अधिकारियों की तो बात ही क्या की जाये! पीठासीन अधिकारी सदन के ‘अभिभावक’ होते हैं ऐसा माना जा सकता है लेकिन दिखता ऐसा है कि अब ‘सदनों के अभिभावक’ संविधान के पहरुआ नहीं पार्टी विशेष के चाकर होकर रह गये हैं।

क्या गजब का देश बन गया कि कोई दुनिया को ‘मुट्ठी’ में कर लेने की बात करता है और 240 पर अटका हुआ कोई ‘अल्पमत दल’ और सहयोगी पार्टियों के बल पर चलनेवाली सरकार के प्रधानमंत्री संसद में विपक्ष के 234 को ‘मुट्ठी भर’ कहने का दंभ दिखलाता है। यह ठीक है कि भारत में ‘असंवैधानिक कानूनों’ के सहारे धन बटोरनेवाले भी बेदाग मान लिये जाते हैं। यह ठीक है कि यहां ‘न्यायिक पीटीशन’ का फैसला ‘आध्यात्मिक प्रार्थना और प्रेरणा’ से होता है। न्याय-प्रक्रिया की पार-दर्शिता के नाम पर सीधा प्रसारण करने का फैसला लिया जाता है और महत्वपूर्ण मामलों में सरकार के पक्ष ‘बंद लिफाफा’ में रख लिया जाता है।

यह ठीक है कि प्रवर्तन निदेशालय (Enforcement Directorate) हो या केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (सीबीआई) हो या चुनाव आयोग हो सरकार का ‘सर्वोच्च लिहाज’ करती है। अमेरिका की संस्थाओं और न्याय प्रक्रियाओं में सरकार का ऐसा लिहाज नहीं रखा जाता है। इसलिए एक बात बिल्कुल साफ-साफ समझ लेनी चाहिए सामने बहुत बड़ी मुसीबत खड़ी है। इस बार हिंदू हृदय सम्राट जैन धर्मावलंबी गौतम शांतिलाल अदाणी का कितना साथ दे पाते हैं यह देखना दिलचस्प होगा, इस पूरे प्रकरण को ध्यान पूर्वक देखा जाना चाहिए।

इस समय की जो वैश्विक और घरेलू परिस्थिति है उस में सामान्य तौर पर लोगों का मानना है कि पूंजीवाद का कोई विकल्प नहीं है। लेकिन उद्दंड पूंजीवाद! उद्दंड पूंजीवाद लोकतंत्र को तहस-नहस कर देता है। स्वस्थ पूंजीवाद के कारोबार और विकास के लिए स्वस्थ लोकतंत्र का सहारा चाहिए होता है। इन में से किसी एक के भी अस्वस्थ होने से सामान्य जनता का जीवन तहस-नहस हो जाता है। स्वस्थ लोकतंत्र के लिए स्वस्थ पूंजीवाद भी उतना ही जरूरी होता है। न्याय-प्रक्रियाओं में असंतुलन से लोकतंत्र के स्वास्थ्य का आधार असुरक्षित हो जाता है। अस्वस्थ लोकतंत्र सभ्य समाज और बेहतर नागरिक जीवनयापन की न्यूनतम जरूरत का खयाल नहीं रखता है।

अमेरिका जैसा पूंजीवादी देश लोकतंत्र के स्वास्थ्य के लिए अपने यहां की न्याय-प्रक्रियाओं में संतुलन का खयाल रखता है। नागरिक समाज भी इस मामले में सावधान और सतर्क रहता है। साथ-साथ यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि वहां सत्ता-समर्थित या क्रोनी कैपिटलिज्म के लिए कारोबार का वातावरण और अवसर वैसा नहीं होता है जैसा अपने यहां बन गया दिखता है। लगुए-भगुए कारोबारियों को जन-हित के मामलों में लूट-खसोट मचाने का ऐसा खुला अवसर वहां नहीं मिलता है।

जाहिर है कि इसीलिए अमेरिका जैसे देश में कारोबारियों और राजनीतिक नेताओं में रस्साकशी के बीच एक तरह का सहयोग भी बना रहता है। देश हो या विदेश अपने देश के नागरिकों, कारोबार और कारोबारियों की हित-रक्षा के लिए अमेरिका की सरकार न सिर्फ तत्पर रहती है, बल्कि किसी भी हद तक जा सकती है। जी, किसी भी हद तक का मतलब किसी भी हद तक! यह सच है कि अमेरिका का समाज या उस की राजनीतिक व्यवस्था पूरी तरह से निष्कलुष या आदर्श नहीं है, न ऐसा बताने की हिमाकत की जा रही है।

कुल-जमा कहना यह है कि अमेरिका की अदालत को धोखा देना आसान नहीं है। विश्व के बड़े पूंजीपतियों को भारत के बाजार पर दखल जमाने में देखते-देखते क्या-से-क्या हो जानेवाले उद्दंड कारोबारियों से काफी परेशानी होती रही है। साफ-साफ कह जाये तो इस बार अदाणी समूह की ‘हिस्सेदारी’ का मामला विश्व के बड़े पूंजीपतियों और अदाणी के बीच फंसा हुआ लग रहा है। इस लिहाज से आनेवाले कई महीने भारत की संसदीय राजनीति, रणनीति और रणनीयत में काफी सनसनीखेज हो सकते हैं। विश्व-युद्ध के गहराते खतरों के बीच जन-जीवन की होनेवाली बड़ी दुर्गति की आशंका को निर्मूल नहीं किया जा सकता है।

यदि देशी-विदेशी कारोबार और कारोबारियों में टकराव को रोकने में नाकामी से भारत के समेकित विकास के भ्रामक आडंबर के ताना-बाना में बिखराव का सिलसिला तेज हो सकता है। आजादी के आंदोलन के समय को याद किया जाना जरूरी है। याद किया जाना जरूरी है कि देशी और औपनिवेशिक पूंजी के बीच कैसा टकराव और बरताव हुआ था। लोकतांत्रिक आजादी का मतलब सभी स्तर के नागरिकों के लिए सभ्य और बेहतर नागरिक जीवन की उच्चतर संभावनाओं की उपलब्धताओं में समानता, पारस्परिक सम्मान और सीमित अर्थ में ही सही सुपरिभाषित स्वामित्व का संतुलित अवसर ही होता है।

संभावनाओं की उपलब्धता में आनुपातिक समानता की चाह में ही देशी पूंजीपतियों का आर्थिक समर्थन महात्मा गांधी और कांग्रेस के नेताओं को हासिल हुआ था। हालांकि पूंजीपतियों के समूह को जवाहरलाल नेहरू की समाजवादी रवैया से कुछ-कुछ परेशानी भी थी। लेकिन महात्मा गांधी और कांग्रेस के कई महत्वपूर्ण नेताओं के स्वस्थ पूंजीवाद के समर्थक होने का भरोसा था।

नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद एक ‘व्यापार मिलन’ में जिस अंदाज में राहुल बजाज ने भोपाल की सांसद प्रज्ञा ठाकुर के गोडसे पर दिये गये बयान पर अमित शाह की उपस्थिति में भय के माहौल की जिस तरह से चर्चा की थी उसे याद किया जा सकता है। जो भी हो, एक आदमी को आसमान तक उठाने के लिए हर वह काम किया गया जो उद्दंड पूंजीवाद का रास्ता बनाता है। जाहिर है कि स्वस्थ पूंजीवादी विकास के रास्ता को ‘लोकतांत्रिक राजनीति’ की उद्दंडता ने भटका दिया।

इस बार लग रहा है कि ‘अदाणी मामले’ की पूंछ पकड़कर विश्व पूंजीवाद की औपनिवेशिक मानसिकता के भयानक आर्थिक हमले का वातावरण बनने जा रहा है। ऐसे में विपक्ष की राजनीति को ‘बॉयकॉट, वॉकआउट बहिष्कार’ निकलकर जबरदस्त धरना-प्रदर्शन-आंदोलन के रूप में शांति-पूर्ण राजनीतिक पहल करना होगा और साथ-साथ नागरिक समाज को भी सावधानी से अपनी शांति-पूर्ण राह बनानी होगी। विडंबना यह कि जिनके पैर के सहारे सरकार खड़ी है वे ही सरकार के पैर की धूल बटोरने में लग जाते हैं। क्या-क्या होता है आगे देखा जाना चाहिए।

(प्रफुल्ल कोलख्यान स्वतंत्र लेखक और टिप्पणीकार हैं)

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