वाराणसी। भदोही के डीह गांव के 66 वर्षीय साधुराम निषाद, जो वर्षों से गंगा नदी में मछली पकड़कर अपने परिवार का पेट पालते आए हैं, आज पानी की सतह पर जाल डालकर भी खाली हाथ बैठे हैं। उनका चेहरा चिंता की लकीरों से भरा है। साधुराम निराशा भरे स्वर में कहते हैं, “गंगा में पहले इतना पानी होता था कि जाल डालते ही अच्छी मात्रा में मछलियां फंस जाती थीं। अबकी फाल्गुन में ही गंगा नदी का प्रवाह सिकुड़ गया, पानी कम हो गया और मछलियां गायब हो गई हैं।”
पूर्वांचल में जलवायु परिवर्तन से मौसम का मिजाज तेजी से बदल रहा है। इस बार फाल्गुन में ही मौसम के तेवर तल्ख होने लगे हैं और ग्रामीण इलाकों में मई-जून जैसी तपिश महसूस की जा रही है। पूर्वांचल की नदियों में पानी कम होने की चौंकाने वाली खबरें आने लगी हैं। गंगा, घाघरा, सोन, गंडक जैसी प्रमुख नदियों में जल स्तर सामान्य से नीचे जा चुका है, जो गर्मी की शुरुआत से पहले ही गंभीर जल संकट का संकेत दे रहा है।

गंगा के जलस्तर बीते कुछ वर्षों में लगातार घटता जा रहा है। विशेषज्ञों के अनुसार, जलवायु परिवर्तन, जलविद्युत परियोजनाओं, और जल निकासी की बढ़ती दर के कारण गंगा का प्रवाह कमजोर हो गया है। इस कारण मछलियों की संख्या में भारी गिरावट आई है, जिससे हज़ारों मछुआरों की रोज़ी-रोटी खतरे में पड़ गई है। भदोही जिले में गंगा किनारे बसे डीह, छिछुहा, बारीपुर, बहपुरा, इब्राहिमपुर, रामपुर गुलौरी, बोगांव जैसे गांवों में बड़ी संख्या में निषाद और मल्लाह समुदाय के लोग रहते हैं। पहले जहां एक परिवार दिनभर में 500 से 1000 रुपये तक कमा लेता था, अब मुश्किल से 100-200 रुपये भी नहीं जुटा पा रहे हैं।
55 वर्षीय जोखू निषाद बताते हैं, “पहले हमारे बच्चे भी हमारी तरह मछली पकड़ते थे, लेकिन अब बेरोजगार घूम रहे हैं। कई परिवारों को मजबूरी में दिल्ली, मुंबई और गुजरात भेजना पड़ रहा है। हमें हमारे ही पानी से बेदखल कर दिया गया है। गंगा का घटता जलस्तर और सरकारी नीतियां निषाद और मल्लाह समुदाय के लिए दोहरी मार साबित हो रही हैं।”
डीह गांव के निवासी और मछुआरों के प्रतिनिधि धनराज निषाद बताते हैं, “हमारे पूर्वजों से लेकर अब तक हमारा परिवार इसी गंगा पर निर्भर था। लेकिन अब न ही मछलियां बची हैं और न ही सरकार से कोई मदद मिल रही है। पहले हम मछली पकड़ने के साथ-साथ नाव चलाने और बालू खनन का काम भी करते थे, लेकिन अब इन सभी पर प्रतिबंध लगा दिया गया है। ऐसे में हमारे पास करने को कुछ नहीं बचा। “
जल स्तर में गिरावट से बढ़ी चिंता
गाजीपुर, बलिया, वाराणसी, और चंदौली जैसे जिलों में गंगा और उसकी सहायक नदियों का जल स्तर तेजी से घट रहा है। फाल्गुन महीने में ही कई नदियां सूख गई हैं। स्थानीय किसान और मछुआरे इस बदलाव को लेकर चिंतित हैं। नदियों के किनारे बसे किसानों की फसलें पानी की कमी के कारण सूखने लगी हैं। पूर्वांचल में तालाब-पोखरे सूखने के बाद नदियों के दम तोड़ने से हाहाकार मच गया है।

गंगा को लेकर देशव्यापी चिंता से जूझ रहीं केंद्र और राज्य की सरकारों की नींद यह जानकर उड़ जाएगी कि वाराणसी से लगे छह जिलों-चंदौली, जौनपुर, बलिया, सोनभद्र, मिर्जापुर, आजमगढ़ में 42 नदियां सूखने के कगार पर हैं। इनमें से 25 से अधिक नदियों की तलहटी में धूल उड़ रही है। सोनभद्र की नदियों में पानी न होने से पक्षी दम तोड़ने लगे हैं। तटवर्ती इलाकों में खेती प्रभावित हुई है। हालात सुधारने के जल्द ठोस प्रयास नहीं हुए तो स्थिति और भी बदतर हो सकती है।
चंदौली में कर्मनाशा, चंद्रप्रभा और गरई तीनों नदियों का प्रवाह प्रभावित हो गया है। बलुआ, धानापुर में गंगा सूख रही है। बलिया में छोटी और बड़ी नदियों में भी पानी कम हो गया। मगई नदी बिल्कुल सूख गई है, जबकि टोंस में घुटने भर पानी है। गंगा का जल पेटे में चला गया है। गंगा में पानी कम होने से कोरंटाडीह पंप से बहुत कम पानी छोड़ा जा रहा है। इससे हजारों एकड़ खेत की सिंचाई प्रभावित हो रही है।
आजमगढ़ से गुजरी 13 नदियों में से 12 नदियां सूखने के कगार पर हैं। सिर्फ घाघरा में पानी है। तमसा के अलावा मंगई, गांगी, सिलनी, छोटी सरयू, वेसो, कुंवर, उदंती, मझुई नदी के पेटे में दरारें पड़ गई हैं। जौनपुर से गुजरी गोमती में जल प्रवाह कम हो गया है। सई नदी में प्रवाह स्थिर है। वरुणा, पीली तथा बसुही नदियों में पानी ही नहीं है। नहरों से पानी छोड़े जाने के कारण गड्ढों में कहीं-कहीं पानी है।

सोनभद्र की 11 नदियों में से नौ सूखने की कगार पर हैं। सिर्फ सोन, कर्मनाशा और घाघर नदी में जल है। इनके अलावा बेलन, कनहर, रेणुका, बिजुल, पांडु, ठेमा, अरंगी, सततवाहिनी, लउआ में पानी नहीं है। कर्मनाशा और घाघर के भी जगह-जगह सूखने से क्षेत्र के लोग पानी के लिए जूझने लगे हैं। जिले की गड़ई और कलकलिया नदी से निकली नहरों की तलहटी में धूल उड़ रही है। पानी की किल्लत से दुधारू गाय-भैंसों को तरावट नहीं मिल पा रही है। इससे दुग्ध उत्पादन भी प्रभावित हो रहा है।
नदियों के सूखने से हाहाकार
गाजीपुर जिले के एक मछुआरे रामलाल कहते हैं, “हमारा जीवन गंगा नदी पर ही निर्भर करता है। जल स्तर गिरने से मछलियों की संख्या भी कम हो रही है। इससे हमारी रोज़ी-रोटी पर संकट आ गया है। पहले जहां दिनभर में 10-15 किलो मछली पकड़ लेते थे, अब मुश्किल से 3-4 किलो ही मिलती है। इसका असर हमारी आमदनी पर पड़ा है और घर चलाना कठिन हो गया है।”
बलिया जिले के किसान हरिनाथ यादव कहते हैं, “गंगा का पानी खेतों तक नहीं आ रहा। पहले जब जल स्तर अच्छा रहता था, तो नदियों से पानी खेतों तक पहुंच जाता था, लेकिन अब हालत ऐसी है कि हमें सिंचाई के लिए नलकूपों पर निर्भर रहना पड़ रहा है। बिजली की कीमतें बढ़ने से लागत भी बढ़ गई है और फसल पर संकट मंडराने लगा है।”

चंदौली जिले के नौबतपुर गांव के निवासी सुरेश यादव कर्मनाशा नदी के किनारे खड़े होकर सूखे तल को देखते हैं और भारी आवाज़ में कहते हैं, “जब मैं छोटा था, तब यह नदी दूर-दूर तक लहराती थी। हम इसमें नहाते, मछलियां पकड़ते और खेतों को पानी देते थे। पर अब देखिए, फाल्गुन महीने में यह नदी सूखने की कगार पर है। हम क्या करें? हमारी रोज़ी-रोटी इसी से थी।” उनकी आवाज़ में निराशा है, उनकी आंखों में डर है-डर इस बात का कि अब आने वाली पीढ़ी शायद इस नदी को सिर्फ कहानियों में सुनेगी।
राम विलास सिंह मौर्य, जो सालों से इस नदी के संरक्षण के लिए आवाज़ उठा रहे हैं, निराश होकर कहते हैं, “कर्मनाशा कभी हमारी शान थी, आज हमारी शर्म बन गई है। गर्मी आने से पहले ही यह नदी सूखने की कगार पर है। खेती का पूरा दारोमदार इसी पर था, अब किसान बर्बाद हो रहे हैं। कई लोग मज़दूरी करने शहर चले गए, क्योंकि यहां गुज़र-बसर मुश्किल हो गया है।”
चंदौली की सोगाई गांव की शारदा देवी कहती हैं, “पहले हम इसी नदी का पानी पीते थे, इसी से खेत सींचते थे। अब हाल यह है कि पीने के लिए भी दूर-दूर तक जाना पड़ता है। सरकार बड़े-बड़े वादे करती है, पर हकीकत में कोई सुनवाई नहीं। हमारे बच्चे तकलीफ में हैं, हमारा जीवन मुश्किल हो गया है। बच्चे, जो कभी इस नदी के किनारे खेला करते थे, अब बस सूखी दरारों को निहारते हैं। कर्मनाशा नदी अपने घर जैसी लगती थी। अब यह सूख गई, तो हमें भी अजीब सा लगता है। हम चाहते हैं कि यह फिर से भरे, फिर से पहले जैसी हो जाए।”
चंदौली के किसान सुरेश यादव कहते हैं, “हमारी फसलें नदी के पानी पर निर्भर हैं। अगर यही हाल रहा तो इस बार गेहूं और दलहन की पैदावार बुरी तरह प्रभावित होगी। मछली पकड़ने वाले समुदायों के लिए भी यह संकट गहरा रहा है। वाराणसी के नाविक और मछुआरे संतोष निषाद बताते हैं, “नदी में पानी कम होने से बड़ी मछलियां लुप्त हो रही हैं। पहले जो मछलियां आसानी से मिल जाती थीं, अब उनकी तलाश में दूर तक जाना पड़ता है। इससे ईंधन और मेहनत दोनों बढ़ गए हैं, लेकिन आमदनी घटती जा रही है।”
बनारस की गिनती दुनिया के सबसे पुराने शहरों में होती है। लगभग पांच हजार साल पुराने इस शहर को वरुणा और असि नाम की जिन दो नदियों से अपना नाम मिला आज उन्हीं का अस्तित्व खतरे में है, और इसकी वजह हैं खुद हम। बनारस के घरों, कारखानों से निकलने वाला अपशिष्ट इन नदियों को गंदे नालों में बदल रहा है। जरूरत है कि हम इनकी स्थिति सुधारने के बारे में गंभीरता से कोशिश करें।
मर रहीं वरुणा-असि नदियां
वाराणसी के एक छोर पर वरुणा है और दूसरे पर असि नदी। ये दोनों नदियां गंगा की धारा में मिलती हैं। शहरियों के धतकर्म से ये ऐतिहासिक नदियां दुर्दशा की मार झेल रही हैं। असि नदी तो सीवेज नहर में बदल गई है। करोड़ों रुपये खर्च होने के बावजूद वरुणा का अस्तित्व धरातल की ओर है। दोनों नदियों के किनारों पर खड़ी गगनचुंबी इमारतें किसी कायदे-कानून की मोहताज नहीं हैं। अवैध रूप से बनी तमाम इमारतों में रहने वालों को वरुणा नदी की बदहाली की तनिक भी चिंता नहीं है।
वाराणसी को पहचान देने वाली वरुणा प्रयागराज के अलावा प्रतापगढ़ और जौनपुर में भी खेतों को सींचती है और सैकड़ों गांवों को जिंदगी देती आई है। वाराणसी के लोहता और शिवपुर में वरुणा के पानी से ही सब्जियां उगाई जाती थी और अभी भी उसी पानी से खेतों की सिंचाई होती है।

एक अध्ययन से नतीजा निकला है कि वरुणा के पानी में जिंक, क्रोमियम, मैग्नीज, निकल, कैडमियम, कापर, लेड की मात्रा मानक से बहुत अधिक है। कुछ इलाकों में तो नदी का पानी पूरी तरह जहरीला हो गया है। यही जहर सब्जियों में भी घुस रहा है। नतीजा नदी के किनारों पर रहने वाले ज्यादातर लोग पेट, ऑत, लीवर और चर्म रोगों की जद में हैं।
वरुणा नदी को बचाने के लिए न सरकार संजीदा है, न ही नगर निगम के कर्ता-धर्ता। नदी की सफाई के लिए 11 जून 2022 को वाराणसी की तत्कालीन महापौर मृदुला जायसवाल शास्त्री घाट पर पहुंचीं और फोटो सेशन कराने के बाद लौट गईं। एक्टिविस्ट सौरभ सिंह कहते हैं, “हर कोई गंगा को साफ करने की बात करता है, लेकिन जब सहायक नदियां साफ नहीं होंगी तो गंगा कैसे साफ हो पाएंगी? वरुणा के साथ असि नदी को बचाने के लिए सालों से मुहिम चलाई जा रही है, लेकिन जो हाल पहले था और अब उससे ज्यादा बदतर है। घोर उपेक्षा के चलते इस नदी का वजूद ही खतरे में है। इस नदी को अगर पर्यटल स्थल के रूप में विकसित किया जाए तभी इसका वजूद बच सकता है।”
वरुणा के साथ असि नदी को पुनर्जीवित करने के लिए वाराणसी के अधिवक्ता सौरभ तिवारी ने कमिश्नर और कलेक्टर को कई चिट्ठियां लिखी हैं। इनकी याचिका पर एनजीटी ने दोनों नदियों के पुनरुद्धार के लिए एक स्वतंत्र जांच समिति का गठन किया। समिति ने 230 पन्नों की रिपोर्ट भी सौंपी। न्यायमूर्ति आदर्श कुमार गोयल की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय पीठ ने वरुणा और असि के पुनरुद्धार के बाबत यूपी सरकार को कड़े निर्देश भी जारी किए। वरुणा और असि को बचाने के लिए मुहिम चलाने वालों ने पीएम नरेंद्र मोदी तक से गुहार लगाई, लेकिन नतीजा वही, ढाक के तीन पात।
वरुणा के किनारे बने कई सितारा होटलों का सीवरेज नदी में ही गिरता है। कुछ चुनिंदा होटलों में मिनी सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट लगे हैं, लेकिन वो हाथी दांत सरीखे हैं। शायद ही कोई होटल होगा, जिसमें लगे ट्रीटमेंट प्लांट काम करते दिखते हों। वरुणा और असि नदियों के किनारे कायदा-कानून को तक पर रखकर खड़ी हजारों इमारतें से प्लास्टिक वेस्ट सीधे वरुणा में फेंका जा रहा है।

जन-सरोकारों के लिए संघर्षरत वाराणसी के एक्टिविस्ट डा.लेनिन कहते हैं, “साल 2016 में शहरी क्षेत्र के भीम नगर से आदिकेशव तक 10.03 किलोमीटर में 201.65 करोड़ की लागत से वरुणा कॉरिडोर का निर्माण कराया गया। नदी के दोनों किनारों पर सुंदरीकरण भी हुआ, लेकिन दम तोड़ रही इस नदी को बचाने के लिए कोई काम नहीं हुआ। हाल यह है कि इस नदी के उद्गम स्थल में ही पानी नहीं बचा है। आज स्थिति यह हो गई है कि वरुणा में कोई जीवन नहीं बचा है। पहले वरुणा में कई तरह के घोघे मिलते थे, लेकिन अब कुछ भी नहीं बचा है। वरुणा को बचाने के लिए हुक्मरान तो बातें तो बड़ी-बड़ी करते हैं, लेकिन होता कुछ भी नहीं है।”

बनारस शहर से गुजरने वाली असि का पानी अब छूने लायक नहीं रह गया है। छूने की कौन कहे, इसके किनारों पर बने पाथवे से गुजरने लायक भी नहीं रह गया है। असि नदी को प्रदूषण से बचाने के लिए नगर निगम ने शहर के राजघाट, अस्सी, नरोखा नाला, लख्खी घाट, सामने घाट पर बायोरेमेडीएशन यूनिट लगाई है। इस योजना पर करीब एक करोड़ रुपये खर्च किए गए हैं। इसके बावजूद स्थिति जस की तस है, क्योंकि दोनों नदियों में गंदगी के साथ मलबा लगातार गिराया जा रहा है।
वाराणसी में गंगा को साफ करने के लिए कई अभियान चलाए जा रहे हैं, लेकिन गंगा की सहायक वरुणा और असि नदियां आज नदी नहीं नाला बना दी गई हैं। वाराणसी का नाम वरुणा और असि नदी के नाम पर ही पड़ा है। पुराणों में काशी क्षेत्र के उत्तर में वरुणा, पूर्व में गंगा और दक्षिण में असि नदी का उल्लेख मिलता है। इनमें से गंगा के दक्षिणी मोड़ पर मिलने वाली ‘असि’ नदी को अब नदी मान ही नहीं सकते हैं।
असि का वजूद आज अस्सी नाला के रूप में ही शेष रह गया है। गंगा के जलस्तर में गिरावट ने असि नदी को नाला बना दिया। असि मुक्ति आंदोलन के कार्यकर्ता वल्लभाचार्य पांडेय कहते हैं, “असि वो नदी है जिसका जिक्र पुराणों में भी मिल जाता है, लेकिन आज खुद के अस्तित्व के लिए लड़ रही है। नदियों में नाम मात्र का पानी रह गया है, सीवर का पानी बिना ट्रीटमेंट के इन नदियों में जा रहा है। असि नदी के नौ किमी. क्षेत्र में कूड़ा पाटकर पांच हजार से भी ज्यादा घर बन गए।”
असि नदी संघर्ष समिति के संयोजक गणेश शंकर चतुर्वेदी साफ-साफ कहते हैं, “वरुणा के साथ असि नदी की बर्बादी के लिए सीधे तौर पर वीडीए और नगर निगम के अफसर जिम्मेदार हैं। इन अफसरों ने अतिक्रमणकारियों से मिलकर दोनों नदियों की कोख पटवा दी है। जिन हुक्मरानों का सीना 56 इंच का है, वो कुछ नहीं कर पा रहे हैं। आखिर अफसर अब कहां इन नदियों को बहाएंगे? गंगा को राष्ट्रीय जलमार्ग से जोड़ने के नाम पर करोड़ों रुपये पानी की तरह बहाए जा रहे हैं और असि व वरुणा की सुधि लेने की जरूरत ही नहीं समझी जा रही है। बाहरी नेता और अफसर तो चले जाएंगे, लेकिन बनारसियों का क्या होगा? “
कई नदियों का वजूद संकट में
यूपी के पूर्वांचल के सिद्धार्थनगर, बस्ती, गोरखपुर, संतकबीर नगर जैसे कई ज़िलों से होकर गुजरने वाली आमी नदी, जिसके किनारे मगहर में कभी संत कबीरदास ने समाधि ली थी, आज अपने अस्तित्व के लिए लड़ रही है। आमी नदी का उद्गम सिद्धार्थनगर ज़िले के डुमरियागंज के सिकहरा ताल से हुआ है, जहां से निकलकर यह नदी कई ज़िलों से होती हुई गोरखपुर में राप्ती नदी में मिल जाती है। इस नदी की लंबाई करीब 126 किमी है।
गोरखपुर औद्दोगिक विकास प्रधिकरण (गीडा) के अंतर्गत कई औद्योगिक इकाइयों की स्थापना हुई तो इन इकाइयों ने बिना शोधित कचरे को आमी में डालना शुरू कर दिया। इसी तरह संतकबीरनगर जिले में भी पेपर मिलों की स्थापना के बाद इस क्षेत्र में भी आमी प्रदूषित होने लगी। प्रदूषण का सबसे पहला असर जलीय जीवों खासकर मछलियों की मौत के रूप में सामने आया। नदी में मछली पालन करके जीवन यापन करने वाले करीब ढाई लाख परिवार इससे सीधे प्रभावित हुए।
आमी बचाओ आंदोलन के विश्वविजय सिंह पिछले कई वर्षों से आमी नदी को बचाने के लिए आंदोलन कर रहे हैं। वो बताते हैं, “कुछ साल पहले तक आमी नदी का पानी भी बिल्कुल साफ था, लोग अपनी फसल की सिंचाई और जानवरों को पिलाने के लिए इसी पानी का इस्तेमाल करते थे, लेकिन जब से इसमें फैक्ट्रियों का पानी इसमें छोड़ना शुरू किया, इसका ये हाल हो गया।”
मोदी के वादों का क्या हुआ?
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पहली मर्तबा बनारस में चुनाव लड़ने आए थे तो उन्होंने गंगा को चुनावी मुद्दा बनाया था और इस नदी को फिर से नया जीवन देने का ऐलान किया था। उत्तर भारत में 2,500 किलोमीटर क्षेत्र में फैली गंगा की जितनी दुर्गति बनारस में हुई है, उतनी शायद ही कहीं हुई होगी। गंगा में अगाध श्रद्धा रखने और नियमित स्नान करने वाली पर्यटक स्वाति सिंह कहती हैं, “मैं हर महीने बनारस आती हूं। कभी राजघाट, कभी दशाश्वमेध और कभी अस्सी घाट पर स्नान करती हूं। पिछले दस सालों में गंगा में कोई सुधार नहीं है। गंदगी जस की तस है। नदी का आकार छोटा होता जा रहा है। घाटों पर जमा बालू और गंदगी देख अब नहाने का मन नहीं करता है।”

बनारस के वरिष्ठ पत्रकार राजीव मौर्य कहते हैं, “गंगा पवित्र जरूर है, इस नदी के साथ जितना खिलवाड़ हाल के कुछ सालों में हुआ है, उतना शायद कभी नहीं हुआ होगा। गर्मियों से पहले ही सामने घाट के सामने हर साल गंगा के बीचो-बीच बालू का जो टीला उभर जाता है। फाल्गुन महीने में ही इस बार गंगा मरने लगी है। बनारस का कोई भी नदी प्रेमी कह सकता है कि गंगा नदी की सेहत ठीक नहीं है। नदी के अपर स्ट्रीम में बांधों का निर्माण और सहायक नदियों के जलस्तर में कमी के चलते नदी का वेग धीमा पड़ता जा रहा है। इसके चलते गंगा बेसिन के भूजल का स्तर कम होने लगा है।”
आईआईटी खड़गपुर के असिस्टेंट प्रोफेसर अभिजीत मुख़र्जी की एक स्टडी का हवाला देते हुए राजीव कहते हैं, “साल 1999 से 2013 के बीच गर्मी के दिनों में गंगा जल में −0.5 से −38.1 सेंटीमीटर प्रति वर्ष की कमी आई थी। हाल यह है कि इस साल अप्रैल महीने के पहले पखवाड़े में इस नदी का जल स्तर खिसकर 57 मीटर पहुंच गया। पहले जून महीने में गंगा का जल स्तर 57 मीटर तक पहुंचता था। समझा जा सकता है कि स्थिति अभी इतनी भयावह है तो आगे कैसे होगी?”
चिंतित हैं गंगा से जुड़े वैज्ञानिक
काशी हिंदू विश्वविद्यालय में महामना मालवीय गंगा शोध केंद्र के चेयरमैन और प्रख्यात गंगा विशेषज्ञ प्रो. बीडी त्रिपाठी कहते हैं, “गंगा नदी में वाटर फ्लो कम हुआ है। गंगा की सेहत के लिए यह स्थिति बेहद खराब और चिंताजनक है। काफी हद तक गंगा के पानी को सिंचाई के लिए नहरों में मोड़ दिया गया है। इससे गंगा की मुख्य धारा दिनों-दिन छोटी होती जा रही है। हमें अपनी जल नीति बनानी होगी और ग्राउंड वाटर के दोहन को नियंत्रित करना होगा।”
प्रो.त्रिपाठी कहते हैं, “गंगा में बालू का टीला मार्च में ही दिखाई देने लगा है। गंगा में लगातार पानी का प्रवाह काम होने से सिल्ट्रेशन रेट बढ़ता है। यह एक इंडिकेशन है कि गंगा में लगातार पानी कम हो रहा है। गंगा में प्रवाह कम होने की कई वजहें हैं। उत्तराखंड में कई स्थानों पर जल विद्युत परियोजनाएं स्थापित की गई हैं। इसके चलते गंगा पर बांध बनाए गए हैं जिससे नदी का फ्लो रोका गया है। हाइड्रो परियोजनाओं में सिर्फ टरबाइन चलाते समय बहुत कम पानी गंगा की मुख्य धारा में छोड़ा जाता है। इसकी वजह से गंगा की मुख्य धारा में पानी कम आ रहा है।”
नदी विशेषज्ञ प्रो.बीडी त्रिपाठी के मुताबिक, “हरिद्वार के पास गंगा नदी का पानी खींचकर भीमगौड़ा कैनाल (नहर) में छोड़ा जाता है। गंगा का पानी दिल्ली, हरियाणा समेत कई राज्यों में आपूर्ति की जा रही है। हरिद्वार में मुख्य धारा के पानी को डायवर्ट किया जा रहा है जिससे मेन स्ट्रीम में पानी कम हो रहा है। तीसरा सबसे बड़ा कारण है गंगा के दोनों तरफ शुरू से लेकर अंत तक लिफ्ट कैनाल का निर्माण। बनारस में गंगा जल का इस्तेमाल जहां पीने के पानी के लिए किया जा रहा है वहीं नहरों के जरिये फसलों की सिंचाई के काम में भी लाया जा रहा है। चिंता की सबसे बड़ी वजह यह है कि भारत सरकार की अपनी कोई जल नीति नहीं है। यह तय ही नहीं है कि गंगा से कोई कितना पानी निकाले और कितना न निकाले? गंगा जल के बंटवारे की कोई पॉलिसी तय नहीं है”
“जिस तरह से ग्राउंड वाटर का मनमाने तरीके से दोहन किया जा रह है वही स्थिति गंगा की है। ग्राउंड वाटर लगातार नीचे जा रहा है। नतीजा, गंगा में पानी घट रहा है और फाल्गुन महीने में ही बीचो-बीच नदी में बालू के टीले उभरते जा रहे हैं। पानी का धरती पर एक ही स्रोत है वर्षा जल संचयन। इसका बहुआयामी इस्तेमाल करने की जरूरत है। हम जिन राज्यों में गंगाजल भेज रहे हैं उन्हें पहले आत्मनिर्भर बनाना पड़ेगा। हमें क्रॉपिंग पैटर्न बदलना होगा। धान गेहूं की प्रजातियां हैं जिसे बहुत पानी की जरूरत पड़ती है। ऐसे प्रजातियों की खेती करानी होगी जिससे पानी का इस्तेमाल कम हो सके।”
सरकारी आंकड़ों के अनुसार, गंगा का जल स्तर वाराणसी में सामान्य से 2.5 फीट कम हो गया है, जबकि गाजीपुर और बलिया में भी स्थिति चिंताजनक बनी हुई है। सोन और गंडक नदियों का प्रवाह भी प्रभावित हुआ है। नदियों के सूखने से सिर्फ जल संकट ही नहीं, बल्कि कृषि, मत्स्य पालन, और जल आपूर्ति पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। मछुआरों की आय में भारी गिरावट आ रही है, जिससे उनका जीवनयापन कठिन होता जा रहा है। दूसरी ओर, किसानों को सिंचाई के लिए वैकल्पिक साधनों का उपयोग करना पड़ रहा है, जिससे खेती की लागत बढ़ रही है और उत्पादन में गिरावट आने की आशंका है।
वैज्ञानिकों ने बताई ये वजह
गंगा निर्मलीकरण मुहिम से जुड़े पर्यावरणविद प्रो. विशंभरनाथ मिश्र कहते हैं, “गंगा का डायनमिक फ्लो प्रभावित हो रहा अनियोजित विकास के चलते गंगा अपना बालू मेन स्ट्रीम में फेंक रही है। यही वजह है कि गर्मियों से पहले ही बीचो-बीच नदी में कई स्थानों पर बालू के टीले दिखने लगे हैं। यह घातक नतीजे का संकेत है। गंगा का फ्लो कम होने से नदी की पाचन क्षमता कम हो जाती है। बनारस में गंगा प्रदूषकों को नहीं पचा पा रही है। हाल यह है कि ट्रीटमेंट प्लांट लगाने के बावजूद गंगा प्रदूषण में कोई खास बदलाव नहीं दिख रहा है।”
प्रो. विशंभरनाथ मिश्र कहते हैं, “गंगा निर्मलीकरण की मुहिम साल 1986 में शुरू हुई थी, और तब से लेकर अब तक इस पर हजारों करोड़ रुपये ख़र्च किए जा चुके हैं। 14 जनवरी, 1986 में ‘गंगा एक्शन प्लान’ बनाया गया था, जिसका मक़सद गंगा में मिलने वाले सीवेज और औद्योगिक प्रदूषण को रोकना था। उसके बाद साल 2009 में ‘मिशन क्लीन गंगा’ शुरू किया गया। इसके तहत गंगा को साल 2020 तक सीवर और औद्योगिक कचरे से निजात देने का लक्ष्य रखा गया था, लेकिन स्थिति जस की तस है। चिंता की बात यह है कि गंगा की मुख्य धारा दिनों-दिन छोटी होती जा रही है, जिसके चलते नदी का प्रदूषण भी बढ़ रहा है।”
जाने-माने पर्यावरणविद् डॉ. अरविंद त्रिपाठी बताते हैं, “इस साल फाल्गुन से ही तापमान में असामान्य वृद्धि देखी गई है। सामान्यतः मार्च के अंत तक तापमान धीरे-धीरे बढ़ता है, लेकिन इस बार फाल्गुन में ही तापमान 35-38 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच चुका है। इससे नदियों का जल वाष्पीकरण तेजी से हो रहा है और भूजल स्तर भी गिर रहा है।”
फाल्गुन में ही नदियों के सूखने की स्थिति जलवायु परिवर्तन के गंभीर संकेतों में से एक है। अगर समय रहते जल संरक्षण की ठोस नीतियां नहीं अपनाई गईं, तो गर्मियों में जल संकट विकराल रूप ले सकता है। जनभागीदारी और सरकारी प्रयासों से ही इस संकट से निपटा जा सकता है। नदियों के जलस्तर को बनाए रखने और उनसे जुड़े समुदायों को राहत देने के लिए जल प्रबंधन की नई योजनाओं की आवश्यकता है।
नीति आयोग की एक रिपोर्ट के मुताबिक, “देशभर में पिछले 10 सालों में करीब 30 फीसदी नदियां सूख चुकी हैं। वहीं पिछले 70 सालों में 30 लाख में से 20 लाख तालाब, कुएं, पोखर, झील आदि पूरी तरह खत्म हो चुके हैं। ग्राउंड वाटर (भूजल) की स्थिति भी बेहद खराब है। देश के कई राज्यों में कुछ जगह 40 मीटर तक ग्राउंड वाटर लेवल नीचे जा चुका है। हाल ही में नीति आयोग की रिपोर्ट में भी कहा गया है कि वर्ष 2030 तक लगभग 40% लोगों की पहुंच पीने के पानी तक खत्म हो जाएगी।”
जलपुरुष के नाम से मशहूर और मैग्सेसे अवॉर्ड विजेता राजेंद्र सिंह कहते हैं, “देश में एक दशक पहले कुल 15 हजार के करीब नदियां थीं। इस दौरान करीब 30 फीसदी नदियां यानी साढ़े चार हजार के करीब सूख गई हैं, ये केवल बारिश के दिनों में ही बहती हैं। वे बताते हैं कि कुछ वर्ष पहले उनकी टीम ने देशभर में एक सर्वे किया था, जिसमें निकलकर आया कि आजादी से लेकर अब तक देश में दो तिहाई तालाब, कुएं, झील, पोखर, झरने आदि खत्म हो चुके हैं, यानी पूरी तरह सूख चुके हैं।”
वह बताते हैं, “आजादी के समय देश में सात लाख गांव थे। एक लाख गांव पाकिस्तान में जाने के बाद छह लाख गांव बचे। यहां हर गांव में औसतन पांच जल संरचानाएं थीं, यानी देशभर में तीस लाख। इतने सालों में बीस लाख जल संरचनाएं पूरी तरह सूख चुकी हैं। अब देश में पानी प्रतिवर्ष तीन मीटर नीचे जा रहा है। हम 72% पानी का अतिरिक्त दोहन कर रहे हैं।”
राजेंद्र सिंह कहते हैं कि, “सरकार को नलजल योजना के बजाय जल संसाधनों के लिए योजना बनानी चाहिए। जब पानी नहीं होगा तो नलों में क्या पहुंचेगा। सरकार को जल संरक्षण पर पूरा फोकस करना चाहिए। हमने इस मामले में और पड़ताल की तो पता चला कि देश में ग्राउंड वॉटर की स्थिति भी बेहद खराब हो चुकी है। जल शक्ति मंत्रालय के ताजा आंकड़ों के मुताबिक देश में कई स्थान ऐसे हैं जहां पानी 40 मीटर तक नीचे चला गया है। इसमें मध्यप्रदेश, राजस्थान और गुजरात जैसे राज्यों के स्थान हैं।”
मौसम विभाग के वैज्ञानिक वेद प्रकाश सिंह कहते हैं, “मानसून में 81 फीसदी से कम बारिश होने पर सूखे की स्थिति मानी जाती है। लेकिन वर्ष 2000 के बाद ऐसा कभी नहीं हुआ है। ये जरूर है कि पानी का दुरुपयोग करने के कारण हमने स्थिति ऐसी बना दी है जैसे कि हमेशा बारिश 50 फीसदी से कम ही हुई हो। वहीं नदियों के सूखने का एक बड़ा कारण मानवीय गलतियां भी हैं।”
जल जन जोड़ो अभियान के राष्ट्रीय संयोजक संजय सिंह कहते हैं, “देश की 93 फीसदी नदियां झरनों से निकलती हैं, लेकिन भूजल के लगातार बढ़ते दोहन के कारण अब झरने भी सूख गए हैं। दूसरी तरफ अत्यधिक सिंचाई कार्य भी नदियों को प्रभावित कर रहा है। वहीं नालों का प्रदूषित जल नदियों में मिलने के कारण इनका जीन पूल भी खत्म हो रहा है। लगातार घटते पेड़ और नदियों के किनारे बढ़ती बसाहट भी इनकी बर्बादी के मुख्य कारण हैं।”
(विजय विनीत बनारस के वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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