8 मार्च को दुनिया भर में महिलाओं के अधिकार के रूप में अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस का आयोजन किया जाता है। बहुतेरे देशों में इस दिन राजकीय अवकाश दिया जाता है और बड़े पैमाने पर महिलाएं इकट्ठा होकर अपने हक अधिकार पर विचार विमर्श करती हैं।
संयुक्त राष्ट्र संघ ने 2025 में इस दिवस पर हर क्षेत्र में महिलाओं को बराबरी देने का आह्वान किया है। पहली बार 1908 में काम के घंटे तय करने, सम्मानजनक वेतन और वोट के अधिकार के लिए न्यूयॉर्क में 15000 महिलाएं इकट्ठी हुई थी और अपने अधिकार के लिए आंदोलन करते हुए महिला दिवस मनाया था।
1910 में कामकाजी महिलाओं के अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी, जर्मनी की लीडर क्लारा जेटकिन ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर महिला दिवस मनाने का प्रस्ताव रखा था। इसके बाद ऑस्ट्रिया, डेनमार्क, जर्मनी व स्विट्जरलैंड में इसे मनाना शुरू किया गया। 1914 में अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस ज्यादातर देशों में मनाया गया।
द्वितीय विश्व युद्ध और रूसी क्रांति के समय जिस दिन ‘ब्रेड और पीस’ के सवाल पर आंदोलन शुरू किया गया था। उसी दिन 8 मार्च को अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के रूप में पूरी दुनिया में मनाने का निर्णय हुआ। 1975 संयुक्त राष्ट्र संघ ने इसे मान्यता प्रदान की। भारत में भी जो प्रगतिशील जनवादी धाराएं हैं वह इस दिवस को मानती है।
आज महिला दिवस का ज्यादा महत्व इसलिए है क्योंकि हम जिस युग में रह रहे हैं वह पूंजी और तकनीकी का युग है। इस युग की ढेर सारी उपलब्धियां हैं और बहुत सारी चुनौतियां भी हैं। महिलाओं के समक्ष एक बड़ा कार्यभार अपने को सामाजिक, सांस्कृतिक सर्वोपरि राजनीतिक रूप से संगठित करने का है। साथ ही उनका कार्यभार औरों को भी संगठित करने का है। ताकि वे उनकी पहलकदमी समाज और लोकतांत्रिक भारत के गणराज्य के विकास के लिए बढ़ा सके।
महिलाएं रोज -ब- रोज कई तरह की असमानता का सामना करती हैं। आर्थिक असमानता देश में बढ़ रही है। देश के संसाधन समाज के बहुत छोटे हिस्से में केंद्रित होते जा रहे हैं। तकनीकी, पूंजी का अपेक्षित विकास न होने की वजह से बेरोजगारी और महंगाई तेजी से बढ़ी है। लोगों की क्रय शक्ति में कमी आ रही है इसलिए ढेर सारे बच्चों को उचित शिक्षा, भोजन और स्वास्थ्य की सुविधा उपलब्ध नहीं हो पा रही है। महिलाओं को नए सिरे से आर्थिक संयोजन के लिए लोगों से संवाद करना पड़ेगा।
श्रम का उचित मूल्य न मिलने पर खेतिहर महिला से लेकर शहरों में कामकाजी और दिहाड़ी महिलाओं की स्थिति में सुधार नहीं हो पा रहा है। उद्यम, कौशल विकास, शिक्षण संस्थानों एवं स्वास्थ्य सेवाओं में हमारी पर्याप्त हिस्सेदारी नहीं है। राजनीतिक क्षेत्र में चाहे संसदीय हो या राजनीतिक दलों का संगठन हो उसमें हमारी संख्या अपेक्षा से बहुत कम है और नेतृत्वकारी भूमिका में तो और भी कम है।
इसलिए नारी समूह को एक स्वतंत्र राजनीतिक शक्ति के बतौर खड़ा करना ऐतिहासिक दायित्व है। इस तरह का प्रयोग दुनिया के ढेर सारे देशों में हुआ है जहां महिलाएं अपनी राजनीतिक गोलबंदी के आधार पर शासन और प्रशासन में अपनी भूमिका दर्ज करा चुकी है।
एक बड़ा सवाल महिलाओं की शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार का है। यदि हम देखें तो अभी भी पुरुषों की तुलना में महिलाओं की साक्षरता दर बेहद कम है। सोनभद्र जैसे अति पिछड़े दलित, आदिवासी बाहुल्य जिले में तो यह लगभग आधी है। आदिवासी लड़कियों के लिए डिग्री कॉलेज न होने के कारण समाज में योगदान करने की इच्छा के बावजूद उन्हें अपनी पढ़ाई बीच में ही छोड़ देनी पड़ती है। जिसके कारण बहुत बड़ी प्रतिभा का विनाश हो रहा है।
यदि हम रोजगार का हाल देखें तो हाल के वर्षों में बड़ी संख्या में लड़कियां दूसरे प्रदेशों में जाकर काम करने के लिए मजबूर हुई है। इन लड़कियों को 10 से 12000 रुपए की बेहद कम मजदूरी पर 12-12 घंटे काम कराया जा रहा है। जिसके कारण वह बहुतेरे स्वास्थ्य संबंधी दिक्कतों का सामना कर रही हैं।
‘लखपति दीदी’ बनाने की बड़ी बातें भारत सरकार द्वारा की गई। कहा गया कि देश में 1 करोड़ लखपति दीदी बन चुकी है और 3 करोड़ लखपति दीदी और बनाने की योजना है। इसकी भी गहराई से जब हमने जांच पड़ताल की तो यह पाया कि दरअसल महिला स्वयं सहायता समूह, जिनके जरिए लखपति दीदी की बातें की जा रही है, उससे महिलाओं की आय में बहुत कोई फर्क नहीं पड़ा है। आमतौर पर सरकारी महिला स्वयं सहायता समूहों से जो लोन महिलाएं ले रही हैं इसका ज्यादातर पैसा इलाज, शादी, पारिवारिक कार्यों आदि जैसे रुटीन कामों में खर्च हो जाता है।
हालत यह है कि सरकार इसे 13.5 प्रतिशत वार्षिक की दर से ब्याज वसूल रही है। वहीं महिलाएं बड़ी संख्या में माइक्रोफाइनेंस कंपनियों की गिरफ्त में है जिसे 30 प्रतिशत वार्षिक तक ब्याज वसूला जा रहा है। वह ऐसे मकड़ जाल में फंस गई है जिससे निकल पाना उनके लिए बेहद कठिन हो जा रहा है। बहुतेरी जगह तो हमने खुद अपने सर्वे में देखा कि उन्हें अपनी जमीन तक बेचने के लिए मजबूर होना पड़ा है।
आमतौर पर पूरे देश में महिलाओं की स्वास्थ्य स्थिति बहुत खराब है। प्रधानमंत्री मातृत्व सुरक्षा अभियान चलाने के बावजूद अभी भी प्रसव के समय बहुत सारी महिलाओं की मृत्यु हो जाती है। सोनभद्र में ही अभी जो आंकड़े आए वह बेहद कष्टप्रद हैं। सरकारी आंकड़ों के अनुसार जनपद में अप्रैल 2024 से जनवरी 2025 तक 54249 गर्भवती महिलाओं ने पंजीकरण कराया था, जिसमें से 10294 में गर्भवती महिलाएं उच्च जोखिम की श्रेणी में है। इसी प्रकार 3594 गर्भवती महिलाओं में गंभीर रूप से खून की कमी है।
सोनभद्र में आमतौर पर लोगों में हीमोग्लोबिन का स्तर बेहद कम रहता है और उसमें भी महिलाओं और बच्चों की स्थिति तो बहुत ही खराब है। आंगनवाड़ी केंद्रों पर पोषाहार के नाम पर महज खानापूर्ति होती है। यहां गुणवत्तापूर्ण और पर्याप्त पोषण आहार महिलाओं और बच्चों को दिया जाए और कम से कम 10000 रुपए की गर्भवती व धात्री महिलाओं को सरकारी सहायता देने की मांग भी उठ रही है।
आज हालात यह है कि बड़ी संख्या में महिलाओं को आंगनबाड़ी,आशा, मिड डे मील रसोइया के रूप में सरकार ने नियोजित किया हुआ है। इन लोगों को मनरेगा मजदूरों से भी कम मानदेय का भुगतान किया जाता है। आंगनबाड़ी जैसों को बिना ग्रेच्युटी व पेंशन दिए ही 62 साल की उम्र में सेवानिवृत्ति किया जा रहा है।
सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के आदेश भी सरकार मानने को तैयार नहीं है। इस समय चल रहे बजट सत्र में सरकार ने स्पष्ट कर दिया की आंगनबाड़ियों के मानदेय को बढ़ाने की उनकी कोई योजना नहीं है। उद्यम में तकनीकी ज्ञान होने के बावजूद समुचित संसाधन और पूंजी की अनुपलब्धता की वजह से महिलाओं की भूमिका क्षमता के अनुरूप उभर कर नहीं आ पा रही है।
सरकार से महिलाओं की यह अपेक्षा यह रहती है कि वह महिलाओं के लिए रोजगार, कौशल विकास, आईटीआई, पॉलिटेक्निक, आत्मरक्षा के लिए विशेष अनुदान प्रदान करें और उनके सम्मानजनक वेतनमान को तय करे। साथ ही ढेर सारे सरकारी पद रिक्त हैं, महिलाओं के अनुपात और योग्यता के अनुसार वह उसे तत्काल भरने के लिए कदम उठाए। ताकि नारी शक्ति राष्ट्र निर्माण में अपना योगदान दे सके।
सरकार बार-बार यह कहती है कि उसके पास संसाधन नहीं है और इसी तर्क के आधार पर लगातार आईसीडीएस से लेकर स्वास्थ्य, शिक्षा तक के बजट में कटौती कर रही है। लेकिन देश के अर्थशास्त्रियों का कहना है कि यदि देश के 200 उच्च पूंजी घरानों की संपत्ति पर समुचित टैक्स लगाया जाए और काली पूंजी को अर्थव्यवस्था को नियंत्रित किया जाए तो बड़े पैमाने पर संसाधन जुटाए जा सकते हैं और महिलाओं समेत आम नागरिकों को सम्मानजनक जीवन दिया जा सकता है।
नैतिक, सांस्कृतिक मूल्यों में आई गिरावट की वजह से महिलाओं की सुरक्षा का प्रश्न और भी गंभीर होता जा रहा है। बलात्कारी और सामंती मूल्यों में विश्वास रखने वाले लोगों को आरएसएस और भाजपा द्वारा लगातार संरक्षण प्रदान करने, महिमा मंडित करने के कारण समाज में दबंग लोगों का मनोबल बेहद बढ़ा हुआ है और वह महिलाओं पर लगातार हमले कर रहे हैं।
बराबरी की बातें संविधान में तो की गई है लेकिन जमीनी स्तर पर अभी भी एक महिला को नागरिक मानने का बोध विकसित नहीं हुआ है। इसके कारण समान काम का समान वेतन, जमीन और संपत्ति में हिस्सेदारी जैसे सवाल आज भी हल नहीं हो सके हैं। उत्तर प्रदेश में ही संपत्ति का अधिकार तो महिलाओं को प्राप्त है लेकिन खेती की जमीनों में उसका अधिकार दर्ज नहीं है।
सब मिला-जुला कर कहा जाए तो महिलाओं की सुरक्षा, रोजगार, उद्यम, विकास, शिक्षा, स्वास्थ्य के लिए बजट के सब प्लान में उचित धन का आवंटन हो। उम्मीद है कि सामाजिक आर्थिक नियोजन, सुरक्षा, शिक्षा, स्वास्थ्य, शांति, सांस्कृतिक बहुलता और पर्यावरण की सुरक्षा के लिए एक सार्थक संवाद इस अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर होगा।
(दिनकर कपूर ऑल इंडिया पीपुल्स फ्रंट के प्रदेश महासचिव हैं)
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