क्या उदारवादी वैश्विक व्यवस्था समाप्त हो गई है?

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ट्रम्प-जेलेंस्की विवाद में एकाएक कुछ समय के लिए जेलेंस्की उदारवादी सामाजिक जनवादियों के लिए एक हीरो बनकर उभरे। कुछ लोग तो उन्हें ‘फिदेल कास्त्रो की तरह साम्राज्यवाद से भिड़ने वाला एक नायक’ तक बताने की कोशिश करने लगे, परन्तु इस नायक की हवा कुछ ही समय बाद निकल गई, जब जेलेंस्की लंदन पहुँचकर डोनाल्ड ट्रम्प को इस मीटिंग के लिए धन्यवाद देने लगे। वे यूक्रेन में जंग बंदी के लिए अमेरिकी शर्तों को मानने के लिए तैयार हैं, जिसके लिए वे अमेरिका को यूक्रेन के दुर्लभ खनिज पदार्थों को भी देने के लिए तैयार हैं। वे यूक्रेन की सुरक्षा की गारंटी चाहते हैं यानी नाटो की सदस्यता तथा रूस द्वारा युद्ध में यूक्रेन के कब्ज़ा किए भागों की वापसी, लेकिन अमेरिका ने उन शर्तों को मानने से इंकार कर दिया।

लंदन में जेलेंस्की के समर्थन में यूरोपीय देशों के शासनाध्यक्षों की एक मीटिंग भी हुई, जिसमें उन्होंने यूक्रेन और रूस के युद्ध में यूक्रेन का साथ देने का वचन दिया, परन्तु क्या अमेरिका के सैन्य और आर्थिक सहयोग के बिना यह संभव होगा? क्या नाटो और अमेरिका के बीच अंतर्विरोध अब उभर रहे हैं? इसका उत्तर अभी भविष्य के गर्भ छिपा है। हमें यह ध्यान रखना चाहिए, कि आज की दुनिया में वैश्विक राजनीति में अब कोई नायक नहीं रह गया है। ट्रम्प, जेलेंस्की और पुतिन तीनों ही घोर अंधराष्ट्रवादी हैं तथा तीनों से न केवल दुनिया को ख़तरा है, बल्कि उनके देश की जनता को भी ख़तरा है।

वास्तव में यह संघर्ष अंधराष्ट्रवादियों का आपसी संघर्ष भी है। ट्रम्प ने जेलेंस्की के साथ वही किया, जो वह अपने हर कठपुतली के साथ करता है। इराक, लीबिया और अफ़ग़ानिस्तान में ये हम देख चुके हैं यानी इस्तेमाल करके फेंक देना। अमेरिका तीन साल तक यूक्रेन को सैन्य सहायता देता रहा, लेकिन अब उसे लग रहा है, कि यूक्रेन और रूस के उस संघर्ष में उसे अब कोई फ़ायदा होने वाला नहीं है, यहाँ तक कि वह रूस के साथ खड़ा होकर यूक्रेन से हर्जाने के रूप में उसके दुर्लभ खनिज पदार्थों को माँग रहा है।

उदारवादी और सामाजिक जनवादी इन सब घटनाओं पर जितना रोना-धोना करें, लेकिन अब दुनिया बदल चुकी है तथा इसके मूल में नव उदारवादी आर्थिक नीतियों की असफलता ही प्रमुख कारण है। सवाल यह है कि आगे दुनिया किस तरह की बनेगी? इन रणनीतियों पर मै कुछ बिंदु रखना चाहता हूँ।

● संयुक्त राज्य अमेरिका और यूरोप के बीच जो सुरक्षा गठबंधन 1945 में हुआ था, वह वास्तव में रूसी ख़तरे पर आधारित था, जिसके पीछे दुनिया भर में कम्युनिस्ट आंदोलन के प्रचार- प्रसार का भय था। सोवियत संघ के विघटन के बाद भी यह गठबंधन पूर्वी यूरोप पर अपना प्रभुत्व बढ़ाने का प्रयास करता रहा। नाटो कई पूर्वी देशों को शामिल करके रूस को चारों ओर से घेरने की रणनीति पर चल रहा था, लेकिन अब यह रणनीति असफल हो गई है। अब अमेरिका रूस के साथ अपने संबंध सुधार रहा है। उसने यूरोप को अधर में छोड़ दिया है यानी 80 साल बाद अब यूरोप को अपनी सुरक्षा की गारंटी खुद लेनी पड़ेगी।

● 2008 का आर्थिक संकट, बढ़ती बेरोज़गारी और मुद्रा स्फीति के कारण यूरोप में भारी जन असंतोष की लहर है। यूरोप का शासक वर्ग अब लोगों पर अधिक कर लगाकर और बैंकों से अधिक ऋण लेकर यूरोप की रक्षा का बोझ उठाएँगे। यूरोपीय समाजों में आंतरिक विरोधाभास और राजनीतिक अस्थिरता बढ़ेगी। ये स्थितियाँ या तो फासीवाद को ओर जाएँगी, या फिर यूरोप में वर्ग संघर्ष जल्दी ही तेज होगा।

● यूरोप और अमेरिका में उदारवादी ताकतों का पतन बहुत तेजी से होगा, क्योंकि उनकी ज़मीन अंधराष्ट्रवादियों ने छीन ली है। वास्तव में इसका नेतृत्व आजकल नस्लवादी शक्तियों द्वारा किया जा रहा है, जिसका मुख्य लक्ष्य असंख्यक और अप्रवासी हैं।

● लम्बे समय के बाद यूरोप में एक राष्ट्रवादी वामपंथ उभर रहा है। 1930 से 1950 तक ये संगठन अमेरिकी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के खिलाफ़ थे तथा अप्रवासियों को भी अपने देश में आमंत्रित कर रहे थे,लेकिन पिछले दशकों में वामपंथ पर उन बुद्धिजीवियों का प्रभुत्व रहा है, जिन्होंने खुद को यूरोपीय संघ जैसे शाही संस्थानों का समर्थन करने से लेकर अपने को राजनीतिक अस्मिता की पहचान तक सीमित कर लिया है। अभी कुछ दिन पहले ही फ्रांस में वामपंथ के एक बड़े नेता Jean luc melenchon ने घोषणा की, कि “फ्रांस यूरोप को अमेरिकी कॉलोनी नहीं बनने देगा।” 1950 के दशक के बाद यह पहली बार है,जब संयुक्त राज्य अमेरिका के खिलाफ़ किसी प्रमुख यूरोपीय वामप्रतिनिधि ने इस तरह का बयान दिया है। इसका अर्थ यह है कि वामपंथ ने अपने आपको अंधराष्ट्रवादी विमर्श तक सीमित कर लिया है।

● अमेरिका का असली लक्ष्य रूस,यूरोप और मध्यपूर्व नहीं है बल्कि चीन है। ट्रम्प चीन को रोकने के लिए सैन्य संसाधनों को एशिया में स्थानांतरित करने की कोशिश कर रहे हैं, इसके साथ ही वे रूस को चीन के खिलाफ़ गठबंधन में शामिल करने की कोशिश भी करेंगे, लेकिन इसमें अनेक जटिलताएँ हैं। रूस के लिए अमेरिका पर भरोसा करना इतना आसान नहीं है, दूसरी ओर रूसी अर्थव्यवस्था पर चीन का गहरा प्रभाव है और यह भी संभव है कि यूरोपीय देश अमेरिका से संबंध बिगड़ने के बाद आने वाले वर्षों में चीन और रूस के साथ संबंधों में सुधार करना शुरू कर दें, जो पहले से जटिल वैश्विक परिदृश्य को और भी जटिल बनाएगा। संस्मरण रहे, कि यूक्रेन युद्ध के कारण यूरोप को गंभीर आर्थिक नुकसान हुआ है, क्योंकि यूरोपीय अर्थव्यवस्था रूसी गैस पर निर्भर थी।

अमेरिका अब युद्ध को एशिया में स्थानांतरित करेगा। भारत, ताइवान, जापान, कोरिया, थाईलैंड और उसके अन्य सहयोगियों के माध्यम से चीन को घेरेगा। जो पैसा यूक्रेन पर बर्बाद करना था, अब वह उसे चीन को रोकने के लिए ख़र्च करेगा। दूसरा हमारे क्षेत्र में अमेरिका न केवल देशों के साथ बल्कि विभिन्न भाषाई धार्मिक समूहों के साथ अलग-अलग सौदे करने की कोशिश करेगा, जैसे-भारत में हिन्दू अतिवादी समूहों के साथ, दोहा में तालिबान के साथ, कोरिया से वियतनाम और यूगोस्लाविया से सीरिया तक संयुक्त राज्य अमेरिका जहाँ भी गया है, उसने इन देशों में आंतरिक विरोधाभास को अराजकता में बदल दिया।

उदाहरण के लिए सीरिया में अमेरिका को परवाह नहीं थी, कि वहाँ लोकतंत्र है या तानाशाही। कुर्द सुन्नी, अरब शिया और अन्य पहचानों के बीच के अंतर्विरोधों को उसने वहाँ अपने को स्थापित करने का माध्यम बनाया,जबकि सीरियाई लोगों को केवल विनाश का सामना करना पड़ा।

ये कुछ ऐसे बिंदु हैं, जिसके माध्यम से हम आज की इस विश्व व्यवस्था को कुछ हद तक समझ सकते हैं, हालाँकि वैश्विक व्यवस्था दिन-प्रतिदिन बदल रही है, नये रूप ले रही है, प्रतिदिन यह बन-बिगड़ रही है। याद करें, द्वितीय महायुद्ध के पहले दुनिया ऐसे ही गुटों में बँट रही थी। एक समय तो हिटलर को एक बड़बोला नेता ही समझा जाता था।‌ उस समय एक समय ऐसा भी आया था, जब अमेरिका और रूस एक ही गुट में थे।

अभी दुनिया की वर्तमान वैश्विक रणनीतियों को समझने के लिए कुछ और समय का इंतजार करना पड़ेगा, लेकिन एक बात तय है, कि गाज़ा और यूक्रेन के बाद उदार विश्व व्यवस्था समाप्त हो गई है। यह कहना अभी बहुत जल्दबाजी होगी, कि इस अंतर को कौन भरेगा, लेकिन यह तय है, कि जनसंघर्ष ही भविष्य में विश्व की दिशा को तय करेगा।

(स्वदेश कुमार सिन्हा लेखक और स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

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