जमशेदपुर। “मेरा बेटा दो साल का हो गया है लेकिन न चल पाता है, न ही बैठ पाता है, वह सिर्फ सीधा रहता है।” यह कहना है जादूगोड़ा की रहने वाली सुकुमनी प्रधान का।
सुकुमनी का गांव जादूगोड़ा मोड़ से मात्र 500 मीटर की दूरी पर है। सड़क के किनारे ही उसके पति चिकन की दुकान चलाकर गुजारा करते हैं। इसी दुकान पर उसका छोटा बेटा बिस्तर पर पड़ा हुआ था। आसपास के सभी लोगों को पता है कि सुकुमनी का बेटा विकलांग है। मुझे भी इस बात की जानकारी गांव के प्रधान ने दी।
जादूगोड़ा का नाम सुनते ही लोगों के मन में सबसे पहले जो बात आती है वह है विकलांगता। सुंदर पहाड़ियों के बीच बसे जादूगोड़ा के आस-पास यूरेनियम की कई खदानें हैं। जमशेदपुर से लगभग 22 किलोमीटर दूर स्थित जादूगोड़ा देश की एकलौती जगह है, जहां छह यूरेनियम की खदानें हैं।
जिससे लाभ के साथ-साथ आम जनता को कई तरह की परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है। इसे जानने के लिए मैं और सामाजिक कार्यकर्ता तरुण कुमार सुंदर सड़क और पहाड़ी के रास्ते जादूगोड़ा पहुंचे। चौराहे पर ही सड़क के बीचों-बीच सिद्धू कान्हू की एक मूर्ति के साथ-साथ दोनों तरफ कई दुकानें हैं। सड़क के किनारे बैठकर कई ग्रामीण सब्जी बेच रहे थे।
वहीं किनारे पर लगे एक माइल स्टोन में लिखा है जादूगोड़ा जीरो किलोमीटर। साथ ही शुरू होता है सुंदर पहाड़ियों के बाद मानव निर्मित पहाड़ी का सफर। मुझे यह पहाड़ीनुमा संरचना देखकर थोड़ी हैरानी हुई।
सड़क से दिखती यह पत्थरनुमा पहाड़ी दरअसल टेलिंग पॉन्ड है, जहां यूरेनियम की खदान से निकाला गया मलबा डाला जाता है। इसी के बगल में बसा है सुकुमनी का गांव।
आज भी विकलांग बच्चे पैदा हो रहे हैं
सुकुमनी के पति की मीट की दुकान है। वह घर का काम करने के बाद दोपहर में पॉन्ड के नजदीक की पहाड़ियों में ही बकरियों को चराने जाती हैं। बकरियां चराकर लौटने के बाद सुकुमनी अपने पति के साथ दुकान में ही हाथ बंटाती हैं।
जिस दिन मैं उनसे मिलने गई, उनके बेटे की तबीयत थोड़ी खराब थी। उसे दुकान में ही नीचे बिस्तर लगाकर लिटाया गया था।
सुकुमनी के दो बेटे हैं। पहला बेटा बिल्कुल हृष्ट-पुष्ट है, उसका जन्म पोटका में हुआ है। हमने उनसे दोनों बेटों के बारे में पूछा।
वह बताती हैं, “जब छोटा बेटा पेट में था तो वह बकरी चराने के लिए दूर तो नहीं लेकिन टेलिंग पॉन्ड के आसपास जाती थी।”
वह सीधे तौर पर तो यह नहीं कहतीं कि उनके बेटे की विकलांगता के पीछे रेडिएशन का असर है। बल्कि उन्हें लगता है कि किसी ने उनके बेटे पर किसी तरह का तंत्र-मंत्र कर दिया है, जिसके कारण उनका बच्चा विकलांग पैदा हुआ।
सुकुमनी पिछले दो सालों से बच्चे को अस्पताल में दिखा रही हैं, जहां डॉक्टरों ने उन्हें बताया है कि बच्चा विकलांग नहीं बल्कि कमजोर है, जिसके कारण वह उठ नहीं पाता।
सुकुमनी हमें बताती हैं, “जब भी बच्चा कुछ करता है तो उसे बुखार हो जाता है। बच्चे की पैदाइश के बाद वह बहुत जोर से रोया, इसके कारण उसकी नसों में खिंचाव आ गया।”
अगर जादूगोड़ा के पुराने इतिहास को देखा जाए तो यहां के आस-पास के गांवों में विकलांग बच्चे ही पैदा हुए हैं। अब लोग विकलांगता के साथ-साथ अन्य कई परेशानियों का भी सामना कर रहे हैं, जिसमें पेट की बीमारियां, चर्म रोग, नसों में खिंचाव, किडनी की समस्या आदि शामिल हैं। इसकी पड़ताल करने के लिए हम आस-पास के गांवों में गए।
खुजली की समस्या से लोग परेशान
जादूगोड़ा मोड़ से बाईं ओर ईचड़ा गांव है। यहां सड़क के एक तरफ गांव बसे हैं और दूसरी तरफ यूसीआईएल (यूरेनियम कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया) की खदानें हैं। लगभग पांच दशक से काम कर रही इन खदानों से निकलने वाले मलबे से ग्रामीणों को दिक्कत हो रही है।
ईचड़ा गांव के पीछे से गर्रु नदी बहती है। टेलिंग पॉन्ड से निकलने वाला पानी इसी नदी में जाकर मिलता है, जो नदी के पानी को दूषित कर रहा है।
जुगल सिंह इसी गांव के निवासी हैं। वह हमें गांव के उस स्थान पर लेकर जाते हैं, जहां कंपनी से निकलने वाला पानी नदी में मिल जाता है। नदी की स्थिति देखने पर पानी के दो हिस्से साफ दिखाई देते हैं, जहां स्थानीय आदिवासी आज भी नहाने आते हैं।
इस बारे में जुगल सिंह सरदार ने हमें बताया, “हमारे पूर्वज इसी नदी के पानी का प्रयोग सभी कामों के लिए करते थे। लेकिन अब यह पानी इस्तेमाल करने लायक नहीं रह गया है। इससे गांव के ज्यादातर लोगों को खुजली की समस्या हो रही है।”
वह कहते हैं कि यहां का भूजल भी पूरी तरह से दूषित हो चुका है। गांव के लोग नदी में नहाने नहीं जा रहे हैं। कई जगहों पर हैंडपंप लगे हुए हैं। इसके पानी के कारण लोगों को खुजली के साथ-साथ अन्य बीमारियां हो रही हैं। वैसे कंपनी द्वारा सप्लाई वाटर दिया जा रहा है, लेकिन उसका पानी कितना अच्छा है यह कहना बहुत मुश्किल है।
कंपनी की नीतियों में कोई खास बदलाव नहीं
जादूगोड़ा में यूरेनियम की खदानों से होने वाले दुष्प्रभाव पर लंबे समय से काम कर रहे सामाजिक कार्यकर्ता घनश्याम बिरुली से भी हमने मुलाकात की।
वह जादूगोड़ा मोड़ के समीप ही रहते हैं। घनश्याम झारखंड आंदोलन से भी जुड़े हुए थे। अपने लंबे काम के अनुभव में उन्होंने कई तरह के बदलाव देखे हैं।
घनश्याम बताते हैं, “हमारे लगातार विरोध के बावजूद भी कंपनियों की नीतियों में कुछ खास बदलाव नहीं आया है। पहले बच्चे विकलांग पैदा होते थे। अब बीमारियों का तरीका बदल गया है। सूखा कचरा उड़ता है, नदी में गंदा पानी जा रहा है, जिससे खुजली, किडनी खराब होना, रेडिएशन के कारण नसों में दिक्कत शुरू हो गई है।”
वह कहते हैं कि पहले लोगों को इसके बारे में ज्यादा जानकारी नहीं थी। लेकिन अब धीरे-धीरे लोग इसके प्रति जागरूक हो रहे हैं। अब भी विकलांग बच्चे पैदा होते हैं, लेकिन उतने नहीं।
गांव के फुटबॉलर हुए विकलांग
ईचड़ा के ही फुटबॉल ग्रुप का आरोप है कि यूरेनियम की खदान से उनके स्वास्थ्य पर दुष्प्रभाव पड़ रहा है। पवन सिंह और सुखराव सिंह दोनों की उम्र 40 पार हो चुकी है। दोनों ही फुटबॉल खिलाड़ी रह चुके हैं, लेकिन अब उनके शरीर में परेशानी हो रही है।
सुखराव सिंह का पूरा शरीर आगे की तरफ झुक गया और वह सीधे खड़े नहीं हो पाते हैं। वहीं पवन की दाहिनी टांग में लंगड़ापन आ गया है।
सुखराव का कहना है कि “उनके साथ के कई लोगों को भी अब इस तरह की परेशानी हो रही है। उनमें वैसे लोग शामिल हैं, जो पहले फुटबॉल खिलाड़ी रह चुके हैं।”
सुखराव बताते हैं, “मुझे यह परेशानी 15 साल पहले शुरू हुई थी। धीरे-धीरे करके पूरा शरीर ही खत्म हो रहा है। अब गर्दन घुमती नहीं है, टांगे भी लंगड़ी हो गई हैं। हाथों में भी परेशानी हो रही है। मैं अब कोई काम भी नहीं कर सकता, जबकि मैं एक फुटबॉलर था।”
वह कहते हैं, “मुझे जैसे ही परेशानी शुरू हुई, मैंने डॉक्टर को दिखाना शुरू कर दिया था। धीरे-धीरे स्थिति यह हो गई कि डॉक्टर ने भी हाथ खड़े कर दिए हैं। वे इलाज के लिए बाहर जाने को कह रहे हैं। अब मेरे पास इतने पैसे नहीं हैं कि मैं बाहर जाकर इलाज करा सकूं।”
पवन सिंह बताते हैं कि “पहले उनके आसपास का वातावरण ठीक था। वे और उनके साथी लोग धूल-मिट्टी के बीच ही खेलकूद कर बड़े हुए हैं। कई सालों तक फुटबॉल भी खेला है। लेकिन अब उनका शरीर जवाब दे चुका है।”
वह कहते हैं, “हमारे यहां का वातावरण बहुत खराब हो चुका है। शायद इसी कारण मुझे परेशानी शुरू हुई। पहले पांव में दर्द हुआ, डॉक्टर को दिखाया, लेकिन कोई खास फर्क नहीं पड़ा। धीरे-धीरे टांग लंगड़ी हो गई। बायां हाथ भी काम करना बंद कर चुका है, जिसके कारण बहुत सारे काम नहीं कर पाता हूं।”
इलाके के लोग कई तरह की बीमारियों से पीड़ित होकर लगातार अस्पतालों का चक्कर लगाते रहते हैं, लेकिन आसपास में चिकित्सा की कोई बेहतर सुविधा नहीं है।
ग्रामीणों के अनुसार वे शुरुआत में कई किलोमीटर दूर सरकारी अस्पतालों में जाकर इलाज करवाते
हैं, लेकिन ज्यादातर अपने खर्च पर ही इलाज करवाना पड़ता है, फिर भी बीमारियों में सुधार नहीं आता। गांव के लोगों की आर्थिक स्थिति उतनी बेहतर नहीं है कि वे इलाज भी करवा पाएं। हम इसी हालत में जीने को मजबूर हैं। हालत यह है कि यहां के युवाओं से कोई शादी भी नहीं करना चाहता।
हैदराबाद का कचरा वापस जादूगोड़ा आता है
इसी गांव की रहने वाली मनोबला के अंदर कंपनी और उसकी नीतियों को लेकर बहुत गुस्सा है। उन्हें लगता है कि ईचड़ा गांव में होने वाली परेशानियों का सबसे बड़ा कारण कंपनी की लापरवाही है।
वह बताती हैं, “हमारे यहां यूरेनियम का भंडार है, जिसे निकालने के बाद हैदराबाद ले जाया जाता है। वहां सफाई होने के बाद सारा कचरा दोबारा जादूगोड़ा में भेज दिया जाता है। टेलिंग पॉन्ड का कचरा धीरे-धीरे सूखने के बाद हवा में उड़ता रहता है। स्थिति यह है कि यूरेनियम का कचरा पानी और खाने के रास्ते हमारे अंदर जा रहा है, जिसके कारण कई तरह की बीमारियां हो रही हैं।”
मनोबला गांव की प्रतिष्ठित महिला हैं, जो यूसीआईएल के खिलाफ कई बार आंदोलन में भी शामिल हुई हैं। वह बताती हैं कि “हमारा क्षेत्र आदिवासी बहुल क्षेत्र है, जहां ज्यादातर भूमिज आदिवासी रहते हैं, जो अब किडनी, पथरी, खुजली, चर्म रोग, कैंसर जैसी अनगिनत परेशानियों से जूझ रहे हैं। यहां तक कि कई लोग अब कमाने लायक भी नहीं रहे, क्योंकि उनका शरीर काम करना बंद कर चुका है।” अब उनके परिवार का गुजारा कैसे होगा!!
कंपनी की नीतियों का विरोध करने पर पुलिस उन्हें जेल में डाल देने की धमकी देती है।
स्थानीय लोगों का आरोप है कि चुनावों में नेता सिर्फ वोट लेने आते हैं। वे कभी भी हमारे मुद्दों पर न तो बात करते हैं, न ही जनता की किसी तरह की मदद करते हैं। राजनीति में जादूगोड़ा के मुद्दे की कोई जगह नहीं है।
सामान्य मान्यता के अनुसार 6-7 दशक पहले तक जादूगोड़ा में दो बरगद के पेड़ थे, जहां जाने से जानवर मर जाते थे और गर्भवती महिलाओं के बच्चे या तो विकलांग पैदा होते थे या उनका गर्भपात हो जाता था। धीरे-धीरे आदिवासी लोगों के बीच यह बात प्रचलित हो गई कि यहां किसी भूत का वास है।
बात जब दूर तक फैली, तब सरकार ने अनुसंधान कर पता लगाया कि वहां यूरेनियम का विशाल भंडार है, जहां 1967 में यूसीआईएल ने खुदाई शुरू कर दी।
अध्ययन के अनुसार एक किलोग्राम यूरेनियम के पीछे एक हजार सात सौ पचास किलोग्राम कचरा बनता है। जिससे बनने वाली रेडॉन गैस हवा के जरिए लोगों के फेफड़ों में पहुंच रही है। बीबीसी की एक रिपोर्ट के अनुसार टेलिंग पॉन्ड में कई रेडियोएक्टिव तत्व होते हैं।
क्योटो यूनिवर्सिटी के एक शोध के अनुसार जादूगोड़ा के आसपास के गांव में एक मिलीसीवर्ट (प्रतिवर्ष) से ज्यादा का रेडिएशन पाया गया। वहीं टेलिंग पॉन्ड के आसपास रेडिएशन की मात्रा दस मिलीसीवर्ट तक बढ़ जाती है।
वहीं 50 से 100 मिलीसीवर्ट के संपर्क में आने से कैंसर का खतरा बढ़ जाता है। यहां तक कि इससे किसी भी व्यक्ति के सेंट्रल नर्वस सिस्टम को खतरा हो सकता है। महिलाओं की गर्भावस्था और डिलीवरी में भी परेशानी बढ़ती है।
ईचड़ा की मनोबला ने हमें बताया था कि “टेलिंग पॉन्ड से महज 500 मीटर की दूरी पर होने के कारण उनके गांव के कई लोग रेडिएशन के असर से जूझ रहे हैं।”
वह कहती हैं, “आदिवासी समुदाय बहुत ही सामान्य जीवन जीता है। वह पूरी तरह से प्रकृति पर निर्भर है। आज भी आदिवासी प्राकृतिक चीजों का इस्तेमाल कर ही गुजर-बसर करता है। इसके बावजूद हमारे गांव में कैंसर अब आम बात हो गई है।”
हम इस समस्या को और अच्छे से समझने के लिए टेलिंग पॉन्ड के सबसे पास वाले गांव चाटीकोचा गए। यहां हमें नूनाराम सोरेन मिले, जो यूसीआईएल की खदान में काम भी करते हैं। वह हमें पहाड़ी रास्ते के बीच उस जगह लेकर गए, जहां दो टेलिंग पॉन्ड बने हुए हैं। टेलिंग पॉन्ड के मोटे कंक्रीट दीवार से लगातार जल का रिसाव हो रहा है।
वहीं एक जगह पर पानी की कुछ मोटर्स रखी गई हैं, जिससे रिसाव के जल को वहां से बाहर निकालने की कोशिश की जाती है। बारिश के मौसम में यह समस्या और भी विकराल हो जाती है। गांव के लड़के जाहेर स्थल का पहरा देते हैं। नूनाराम हमें मोटर घर के बगल में बने जाहेर स्थल (आदिवासी पूजा स्थल) लेकर गए।
वह बताते हैं, “साल 1997 में उनके गांव को अचानक से उजाड़ दिया गया, वहां की जमीन अधिग्रहित की गई। तब गांव वालों के विरोध के बाद जाहेर स्थल को छोड़ दिया गया। इसके आसपास अनगिनत साल के पेड़ थे।
साल के वृक्ष झारखंड के आदिवासियों के लिए सबसे पूजनीय हैं। रेडिएशन के गंभीर प्रभाव का इससे भी पता चलता है कि जाहेर स्थल में लगे सभी पेड़ पूरी तरह से सूख गए हैं, अब पेड़ की जगह केवल लंबी सूखी लकड़ियां दिखाई देती हैं।”
नूनाराम हमें बताते हैं, “चाटीकोचा गांव के आसपास तीन टेलिंग पॉन्ड हैं, जो अब भर भी चुके हैं। गांव वालों की परेशानियों और लगातार विरोध के बाद साल 2013 में पूरे गांव को पुनर्वास करने का प्रस्ताव आया।
लेकिन आज 11 साल हो गए हैं। हमें सिर्फ जगह दिखाई गई है, लेकिन अभी तक हमें वहां पुनर्वासित नहीं किया गया है। अपनी पीड़ा को लेकर आदिवासी समुदाय इसके लिए कंपनी प्रबंधन की बात ही छोड़िए, मुख्यमंत्री तक से मिल चुका है।”
यूसीआईएल प्रधानमंत्री कार्यालय के अंतर्गत काम करती है। पूर्वी सिंहभूम जिले में इसकी छह खदानें हैं – जादूगोड़ा, बागजाता, भाटिन, नरवापहाड़, तुरामडीह, और मोहुलडीह।
देश के कुल खनिज संसाधनों का लगभग 40 प्रतिशत हिस्सा झारखंड में पाया जाता है। यहां के खदानों में कोयला, लौह अयस्क, अभ्रक, यूरेनियम और बॉक्साइट जैसे बहुमूल्य खनिज प्रमुखता से पाए जाते हैं।
इनका खनन लगातार हो रहा है, लेकिन इसका फायदा यहां के निवासियों को शायद ही मिलता है। झारखंड के इलाकों के पिछड़ेपन, घोर गरीबी और जन समस्याओं के अंबार को देखते हुए यह बात कही ही जा सकती है।
जादूगोड़ा के लोगों की समस्याएं किसी से छुपी नहीं हैं। राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इसकी बात हमेशा होती है। लेकिन यहां के लोगों की समस्याओं का हल नहीं होता। “बुद्धा वीप्स इन जादूगोड़ा,” “टेलिंग पॉन्ड,” जैसी कई अवॉर्ड विनिंग फिल्मों में जादूगोड़ा के मुद्दे को मानवीय दृष्टिकोण से दर्शाया गया है।
“टेलिंग पॉन्ड” लघु फिल्म तो 93वें अकादमी पुरस्कार जैसे प्रतिष्ठित पुरस्कार के लिए भी विचाराधीन थी। जादूगोड़ा के मुद्दे की गंभीरता के बारे में इतनी चर्चा होती है, विचार होते हैं, लेकिन जादूगोड़ा के लोगों को गंभीर परेशानियों और बीमारियों से निजात दिलाने की पहल कब होगी, यह देखने वाली बात है।लोगों की समस्याओं का हल कब होगा, यह देखने वाली बात है।
(जादूगोड़ा, झारखंड से पूनम मसीह की ग्राउंड रिपोर्ट।)
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