Saturday, April 27, 2024

9 अगस्त को अंतरराष्ट्रीय आदिवासी दिवस मनाएगी किसान मज़दूर सभा

06 अगस्त 2021 आदिवासियों की पदयात्रा का दूसरा दिन है। बता दें कि एआईआईएमएस द्वारा तेलंगाना में अस्वरावपेट से कोठागुडेम तक पदयात्रा शुरु की गयी है। 500 साथी, 70 किलोमीटर, 5 दिन।

वहीं सत्तुपल्ली मंडल के रेगलापाडु गांव से एक और पदयात्रा शुरू की गयी है।

ये पदयात्रा निम्न मांगें के साथ शुरु की गयी है –

  • पोडू भूमि से आदिवासियों की बेदखली बंद करो।
  • वन उत्पादों पर आदिवासियों के अधिकार बहाल करो।
  • खेती के तीन कारपोरेट पक्षधर कानून वापस लो।
  • सभी फसलों तथा अल्प वन उत्पादों की एमएसपी का कानूनी अधिकार दो।

9 अगस्त को अंतरराष्ट्रीय आदिवासी दिवस के रूप में मनाने का एलान

संयुक्त किसान मोर्चा द्वारा 9 अगस्त को किसान अंतरराष्ट्रीय आदिवासी दिवस के तौर पर मनाने का आह्वान किया है गया है ।

अखिल भारतीय किसान मजदूर सभा ने कहा है कि – ” अंतरराष्ट्रीय मूलवासी दिवस के अवसर पर, हम सभी आदिवासी और जनवादी किसान संगठनों से अपील करते हैं कि व्यापक जन गोलबंदी के साथ उपरोक्त मांगों पर इस अवसर पर संघर्ष करे। आदिवासी समुदाय को जमीन व वन उत्पादों के लिए अपने संघर्ष को तेज करने चाहिए। कारपोरेट द्वारा हमारे प्राकृतिक संसाधनों की लूट का विरोध किया जाना चाहिए। आदिवासियों के आत्म शासन के लिए एक दीर्घकालिक संघर्ष विकसित करना चाहिए और आदिवासियों की भाषा, लिपि, साहित्य और संस्कृति के विकास की मांग उठाई जानी चाहिए। राजकीय दमन का भी प्रतिरोध करना चाहिए।

अखिल भारतीय किसान मजदूर सभा ने कहा है कि आदिवासी समुदाय के लोग हमारी सभ्यता के महत्वपूर्ण हिस्से हैं। वह हमारी जनसंख्या के 8 फीसदी हैं। सैकड़ों आदिवासी जनजातियों की एक अलग भाषा व संस्कृति है। हालांकि इनमें से कई को अनुसूचित जनजाति की श्रेणी में डाला हुआ है, बहुत सारी जनजातियों को आज तक इस श्रेणी से बाहर रखा हुआ है।

इस सब के बावजूद वे सबसे ज्यादा शोषित, वंचित और उत्पीड़ित हालातों में जीवन गुजार रहे हैं और उनके अस्तित्व को ही ख़तरा पैदा हो गया है। उन्हें विकास के नाम पर, जो वास्तव में उनके संसाधन की कारपोरेट लूट का दूसरा शब्द है, जमीन व वनों से बेदखल किया जा रहा है। उत्तरोत्तर सरकारों की गरीब विरोधी नीतियों के कारण आदिवासी समुदायों उनकी भाषा व संस्कृति अविकसित रह गई हैं और इनमें से कई लुप्त होती जा रही हैं। इस समस्या पर ध्यान आकर्षित करने के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ ने 1994 में 9 अगस्त को मूलवासी लोगों की रक्षा का दिन घोषित किया था।

आदिवासियों के ख़िलाफ़ दमन व प्रतिरोध का इतिहास उतारते हुये अखिल भारतीय किसान मजदूर सभा ने कहा है कि – “पुराने सामंती रजवाड़ों के समय, राजा और जमींदार आदिवासियों का शोषण करते थे। अंग्रेज उपनिवेशवादियों ने इनके शोषण को और तेज कर दिया और इनके पारंपरिक वन अधिकारों को छीनने के लिए कुख्यात वन संरक्षण कानून बनाया। इस कानून के तहत सभी वन सरकार के पूरे नियंत्रण में आ गए। यह कानून और 1894 के भूमि अधिग्रहण कानून का इस्तेमाल करके आदिवासियों को उनकी जमीन व जंगलों से जबरन बेदख़ल किया गया।

अंग्रेज शासकों, स्थानीय ज़मींदारों तथा गैर आदिवासी व्यापारियों व सूदखोरों के शोषण व दमन के ख़िलाफ़ आदिवासियों ने बहुत सारे संघर्ष संगठित किए। औपनिवेशिक राज्य के ख़िलाफ़ बहुत सारे हथियारबंद विद्रोही गठित हुए। इनका नेतृत्व तिलका मांझी, बिरसा मुंडा, सिद्धू-कानू, अल्लूरी सीताराम राजू, कोमाराम भीम, लक्ष्मण नायक व अन्य नेताओं ने किया। इन संघर्षों ने शासकों को मजबूर किया कि वे आदिवासियों की जमीन से बेदखली पर नियंत्रण रखने के कुछ रोक क़ानून बनाएं।

अंग्रेजों के जाने के बाद, स्थानीय शासकों ने उसी दमनकारी वन कानूनों और अन्य ज्यादा दमनकारी कानून बनाकर आदिवासियों का शोषण जारी रखा है। अधिकारों से वंचित, आदिवासियों को अपने ही जंगलों में बाहरी घोषित कर दिया गया; वन व पुलिस अधिकारियों ने उन्हें तंग करना व उनका शोषण करना जारी रखा है; उनकी जमीन व जंगलों को, अधिकारियों ने घरेलू व विदेशी कारपोरेट को खनिजों, वन व जल स्रोतों के क्रूर शोषण के लिए दिया है; सरकारी एजेंसियों द्वारा इन जंगलो पर बड़े बांध, शहर, व्यवसायिक परियोजनाएं तथा विशेष आर्थिक क्षेत्र बनाए। उनके लिए विस्थापन एक आम बात बन गई है और देश में कुल विस्थापित लोगों का आधा हिस्सा आदिवासी हैं। उन्हें ली गयी जमीन का उचित व समय पर मुआवजा नहीं दिया जाता है। उन्हें जिंदा बचने के लिए शहरों में सबसे घिनौने काम करने को मजबूर किया गया है। 2006 के वन अधिकार कानून, पेसा कानून 1996 और भूमि अधिकरण पुनर्वास व पुनर्स्थापना कानून 2013 ने उनके हालातों में कोई मौलिक परिवर्तन नहीं कराया है। देश के किसान संघर्षों में आदिवासियों के संघर्ष, बेहतरीन व शानदार संघर्षों के रूप में चमक रहे हैं। कलिंगनगर से नियामगिरि तक, आदिवासियों के संघर्ष, जबरन विस्थापन के विरुद्ध प्रतिरोध की अग्रिम कतारों में हैं।

वन अधिकार कानून 2006 के अनुसार हर परिवार को 10 एकड़ वन की जमीन खेती के लिए दी जानी चाहिए, उन्हें मकान मिलने चाहिए, छोटे वन उत्पादों पर उनका अधिकार होना चाहिए, उन्हें सामुदायिक व आवासीय अधिकार मिलने चाहिए तथा उनकी सांस्कृति व धार्मिक अधिकारों की रक्षा की जानी चाहिए। पर वे तथा गैर आदिवासी गरीब वनवासी, आज भी विस्थापन के शिकार हैं। कई राज्यों में, खासतौर से तेलंगाना में, आदिवासियों द्वारा दशकों से की जा रही वन भूमि से, हथियारबंद पुलिस बेरहमी से उजाड़ रही है, उनकी फसलों को नष्ट कर रही है व खड़ी फसल में आग लगा रही है। कैंपा कानून बनाए जाने के बाद बड़े पैमाने पर आदिवासियों की जमीनों पर, उन्हें बेदखल करके व्यवसायिक पेड़ लगाए जा रहे हैं। उनके अधिकारों को छीनने के लिए नए-नए कानून भी बनाए जा रहे हैं।

इस बात के बावजूद कि वे सबसे सरल व्यक्तित्व, सीधे-साधे और सबसे मेहनतकश लोग हैं, आदिवासी आज भी गंभीर गरीबी, अशिक्षा व बदहाली का जीवन जी रहे हैं। उनके बच्चे एनीमिया, कुपोषण और सबसे अधिक बाल मृत्यु दर से पीड़ित हैं।

आरएसएस भजपा के आदिवासी विरोधी चरित्र उजागर करते हुये अखिल भारतीय किसान मजदूर सभा ने कहा है कि- “आरएसएस-भाजपा की मोदी सरकार ने देश के किसानों पर एक बहुत गंभीर हमला करते हुए, अलोकतांत्रिक ढंग से खेती के तीन कानून पारित किए हैं। इन कानूनों के बनने से खाने और कृषि पर कारपोरेट का नियंत्रण बढ़ जाएगा। इससे आदिवासी भी प्रभावित होंगे। ठेका कानून के कारण इनकी जमीन छिन जाएंगी। लागत के सामान व सेवाओं के खर्च तेजी से बढ़ जाएंगे। मंडी बाईपास कानून से बाजार पर कारपोरेट का नियंत्रण बढ़ जाएगा और सरकारी खरीद समाप्त हो जाएगी। इसका अर्थ है कि लोगों को राशन में सस्ता अनाज नहीं मिल पाएगा। खाने के दाम तेजी से बढ़ जाएंगे।

इसके साथ राज्य द्वारा आदिवासियों पर हमले बढ़ते गए हैं। छत्तीसगढ़ के नारायणपुर जिले में पर्यावरण अनापत्ति प्राप्त किए बिना खनन की अनुमति दे दी गई और जिन आदिवासियों ने अपने वन, भूमि व जल की रक्षा करने का प्रयास किया, उन पर सुरक्षाबलों ने हमला बोल दिया। नियमित रूप से वहां पुलिस कैंप स्थापित किए जा रहे हैं और आदिवासियों को डराने के लिए उन पर गोलियां चलाई जा रही है, ताकि उनके वन कंपनियों को दिये जा सकें। मोदी सरकार की बुलेट ट्रेन परियोजना के लिए महाराष्ट्र और गुजरात के 5 जिलों में 296 आदिवासी गांव उजड़े जा रहे हैं। 10 जुलाई को मध्य प्रदेश के नेगांव – जमुनिया क्षेत्र में, 40 आदिवासियों के घर उजाड़ दिए गए, जिसमें 212 आदिवासी बेघर हो गए। 6 आदिवासियों को गिरफ्तार किया गया ताकि विरोध रोका जा सके। ऐसे हमले बुरहानपुर व खंडवा जिलों में खासतौर से काफी तेज हैं।

वर्तमान समय में आदिवासियों के ख़िलाफ़ हुई दमन की घटनाओं का जिक्र करते हुए अखिल भारतीय किसान मजदूर सभा ने कहा है कि – “पोलावरम के जल पिंड में पानी भरने की वजह से, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना के हजारों आदिवासी परिवार बेदखली का सामना कर रहे हैं क्योंकि उन्हें डूबने से बचने के लिए ऊपर के क्षेत्र में पनाह लेनी पड़ रही है। यह स्थिति मई से ही है और ना तो सरकार ने इन्हें कोई मुआवजा दिया है ना ही इनका पुनर्वास का व्यवस्था की है। वे आस-पास की पहाड़ियों पर अस्थाई झोपड़ी डालकर रह रहे हैं। बहुत बड़ी संख्या में आदिवासियों को माओवादी होने के नाम पर यूएपीए और राजद्रोह के कानून में फर्जी ढंग से पाबंद किया गया है और सालों साल उन्हें जेलों में रखा गया है।

हम दिल्ली की सीमा पर पिछले 8 महीनों से आंदोलन पर बैठे हुए हजारों किसानों के संघर्ष का स्वागत करते हैं। यह संघर्ष खेती के तीन काले कानून वापस कराने और सभी फसलों के, वनोत्पाद समेत, स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों के अनुसार, एमएसपी का कानूनी अधिकार देने के लिए चल रहा है।”

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