मद्रास हाईकोर्ट ने रद्द किए एन राम और सिद्धार्थ वरदराजन के खिलाफ दायर मानहा‌नि के मामले

Estimated read time 2 min read

एक ऐतिहासिक फैसले में मद्रास उच्च न्यायालय ने गुरुवार को कहा कि लोक सेवकों और संवैधानिक पदाधिकारियों को राज्य द्वारा प्रतिकूल परिस्थितियों में मानहानि की कार्यवाही शुरू करने के लिए एक उपकरण के रूप में दुरुपयोग करने की अनुमति नहीं दी जा सकती है। तत्कालीन जयललिता सरकार द्वारा मीडिया घरानों के खिलाफ शुरू की गई कई मानहानि की कार्यवाही को खारिज करते हुए, न्यायमूर्ति अब्दुल कुद्दोज ने कहा कि लोक सेवकों और संवैधानिक पदाधिकारियों को आलोचना का सामना करने में सक्षम होना चाहिए क्योंकि उनके पास लोगों के लिए एक कर्तव्य है। उन्होंने कहा कि राज्य लोकतंत्र की रक्षा के लिए आपराधिक मानहानि के मामलों का इस्तेमाल नहीं कर सकता।

प्रेस की स्वतंत्रता के महत्व को रेखांकित करते हुए एक महत्वपूर्ण फैसले में मद्रास हाईकोर्ट ने बुधवार को संपादक-पत्रकार एन राम,एडिटर-इन-चीफ, द हिंदू, सिद्धार्थ वरदराजन, नक्कीरन गोपाल आदि के खिलाफ दायर आपराधिक अवमानना की शिकायतों को खारिज कर दिया। इन सभी के खिलाफ 2012 में तमिलनाडु के तत्कालीन मुख्यमंत्री जे जयललिता के खिलाफ कुछ रिपोर्टों के मामले में “राज्य के खिलाफ आपराधिक मानहानि” का आरोप लगाते हुए शिकायत दर्ज की गई थी। लोक अभियोजकों को एक महत्वपूर्ण सलाह देते हुए न्यायाधीश ने कहा कि उन्हें राज्य की ओर से आपराधिक मानहानि के मुकदमे दायर करते हुए एक डाकघर की तरह काम करने से बचना चाहिए। इसके बजाय उन्हें अदालत में निष्पक्ष होने के अलावा अभियोजन शुरू करने से पहले अपने दिमाग का स्वतंत्र रूप से प्रयोग करना चाहिए।

एक सरकारी वकील से अपेक्षित बुनियादी गुणों को सूचीबद्ध करते हुए न्यायमूर्ति कुद्दोज ने कहा कि अभियोजन पक्ष को खुद को न्याय के एजेंट के रूप में विचार करना चाहिए, किसी दोषी को पकड़ने के लिए अंधाधुंध प्रदर्शन नहीं करना चाहिए, अत्यंत निष्पक्षता के साथ एक मामले का संचालन करना चाहिए और याद रखें कि अभियोजन का मतलब उत्पीड़न नहीं है।न्यायमूर्ति कुद्दोज ने कहा कि ट्रायल कोर्ट को अपने न्यायिक दिमाग को रिकॉर्ड पर उपलब्ध सामग्रियों पर भी लागू करना चाहिए और आरोपियों को तब समन जारी करना चाहिए, जब वे संतुष्ट हो जाएं कि राज्य के खिलाफ आपराधिक मानहानि शिकायत का संज्ञान लेने के लिए आवश्यक सामग्री पत्रावली पर है।

जहां तक ‘द हिंदू’ के खिलाफ शुरू की गई दो कार्यवाही का संबंध है, न्यायाधीश ने कहा कि दोनों उस श्रेणी में आते हैं, जिसमें एक निर्णायक निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि अखबार के खिलाफ कोई भी आपराधिक मानहानि का मामला नहीं बनता। 8 जनवरी, 2012 को प्रकाशित एआइएडीएमके कार्यकर्ताओं ने नक्कीरन कार्यालय पर हमला किया शीर्षक समाचर के संबंध में पहला मामला दायर किया गया था। न्यायाधीश ने कहा कि यह हमले के संबंध में एक तथ्यात्मक समाचार रिपोर्ट के अलावा कुछ भी नहीं था। एक समाचार पत्र की भूमिका केवल समाचार प्रकाशित करने की है जैसा कि हुआ था। एक राजनीतिक व्यक्तित्व / संवैधानिक पद पर बैठी, राज्य की तत्कालीन मुख्यमंत्री काउंटर प्रेस स्टेटमेंट द्वारा उन आरोपों का बहुत अच्छी तरह से खंडन कर सकती थीं ।

इसी तरह, अखबार के खिलाफ दूसरा मामला जुलाई 2012 में तत्कालीन नेता प्रतिपक्ष विजयकांत द्वारा जारी एक बयान के प्रकाशन के संबंध में था, जिसमें मुख्यमंत्री ने कार्यालय से लंबा ब्रेक लेने और मीडिया बयानों के माध्यम से सरकार चलाने का आरोप लगाया था। इस मामले में भी, “कोई आपराधिक मानहानि नहीं बनती है, क्योंकि अखबार ने केवल तत्कालीन नेता प्रतिपक्ष का बयान प्रकाशित किया था और तत्कालीन मुख्यमंत्री के खिलाफ कोई व्यक्तिगत टिप्पणियाँ नहीं की थी। उन्होंने यह भी कहा कि सरकार ने हाल ही में उस बयान को जारी करने के लिए विजयकांत के खिलाफ शुरू की गई मानहानि की कार्यवाही को वापस ले लिया था, हालांकि वह कथित अपराध के “वास्तविक अपराधी” थे।
अन्य मीडिया घरानों के खिलाफ कार्यवाही करने पर न्यायाधीश ने कहाकि उनमें से कुछ को उनकी व्यक्तिगत क्षमता में, आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 199 (6) के तहत न्यायिक मजिस्ट्रेट के समक्ष, मुकदमा चलाया जा सकता है लेकिन  सत्र न्यायालय के समक्ष नहीं क्योंकि राज्य के खिलाफ मानहानि का मामला बनता ही नहीं है।

मौजूदा मामले में लोक अभियोजक ने राज्य की ओर से सत्र न्यायालय में  शि‌कायत दायर कीगयी थी। सामान्य रूप से मजिस्ट्रेट कोर्ट के समक्ष सामान्य मानहानि के मुकदमे दायर किए जाते हैं। हाईकोर्ट में दायर रिट याचिकाओं में उन सरकारी आदेशों की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी गई ‌थी, जिनके तहत सरकारी अभियोजक को रिपोर्टों के संबंध में धारा 199 (2) सीआरपीसी के तहत शिकायत दर्ज करने की मंजूरी दी गई।

जस्टिस अब्दुल कुद्धोज की पीठ ने 152-पृष्ठ के फैसले में कहा कि आपराधिक मानहानि कानून आवश्यक मामलों में एक प्रशंसनीय कानून है, लेकिन लोक सेवक/संवैधानिक पदाधिकारी अपने प्रतिद्वंद्वी के खिलाफ राज्य के जरिए इसका इस्तेमाल अपनी खुन्नस के ‌लिए नहीं कर सकते। लोक सेवकों/ संवैधानिक पदाधिकारियों को आलोचना का सामना करने में सक्षम होना चा‌हिए। राज्य आपराधिक मानहानि के मामलों का उपयोग लोकतंत्र को कुचलने के लिए नहीं कर सकता है। कोर्ट ने कहा कि राज्य को आलोचना के मामलों में उच्च सहिष्णुता का प्रदर्शन करना चाहिए, और मुकदमे शुरू करने के लिए “आवेगात्मक” नहीं हो सकता है।

राज्य की तुलना “अभिभावक” से करते हुए कोर्ट ने कहा कि जहां तक मानहानि कानून का संबंध है, राज्य सभी नागरिकों के लिए अभिभावक की तरह है। अभिभावकों के लिए अपने बच्चों की ओर से अपमान का सामना करना सामान्य है। अपमान के बावजूद, माता-पिता अपने बच्चों को आसानी से नहीं छोड़ते। दुर्लभ मामलों में ही ऐसा होता है जब बच्चों का चरित्र और व्यवहार गैरकानूनी हो जाता है, और माता-पिता ने उन्हें छोड़ देते हैं।

जस्टिस अब्दुल कुद्धोज की पीठ ने अपने आदेश में जस्टिस दीपक गुप्ता, पूर्व जज, सुप्रीम कोर्ट, और जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़, जज, सुप्रीम कोर्ट के हालिया भाषणों का हवाला भी दिया था, जिसमें उन्होंने लोकतंत्र में असंतोष के महत्व पर रोशनी डाली थी और विरोध की आवजों को कुचलने के लिए आपराधिक कानूनों का इस्तेमाल की बढ़ती प्रवृत्ति की आलोचना की थी।

जस्टिस अब्दुल कुद्धोज की पीठ ने डॉ. सुब्रमण्यम स्वामी बनाम यूनियन ऑफ इंडिया मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा आपराधिक मानहानि के उपयोग के लिए तय सिद्धांतों का उल्लेख किया। याचिकाकर्ताओं ने भारतीय दंड संहिता की धारा 499/500 की संवैधानिक वैधता को भी चुनौती दी थी, हालांकि हाईकोर्ट ने उस पहलू पर विचार नहीं किया, क्योंकि 2016 में सुब्रमण्यम स्वामी मामले में सुप्रीम कोर्ट इसकी वैधता पर विचार कर चुका था। गौरतलब है कि दो हफ्ते पहले, मद्रास हाईकोर्ट ने इकोनॉमिक टाइम्स के एक संपादक और रिपोर्टर के खिलाफ आपराधिक मानहानि की कार्यवाही को रद्द कर दिया था और कहा ‌था कि मात्र रिपोर्टिंग में गलतियां मानहानि का आधार नहीं हो सकती हैं।

(जेपी सिंह वरिष्ठ पत्रकार होने के साथ कानूनी मामलों के जानकार भी हैं।)

+ There are no comments

Add yours

You May Also Like

More From Author