लक्षण बताते हैं कि ईवीएम से गड़बड़ी के आरोप निराधार नहीं हैं 

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ईवीएम पर बात चले तो पार्टी विशेष के लोग घबरा जाते हैं। इसलिए खबरें नहीं छपती हैं और जैसे ही चर्चा चली आईटी सेल सक्रिय हो जाता है। फिर भी स्थिति यह है कि एलन मस्क ने इस पर ट्वीट किया है और कहा है कि इसे खत्म किया जाना चाहिये। इसे मनुष्यों या एआई से हैक किये जा सकने का जोखिम भले कम है फिर भी बहुत ज्यादा है। एसोसिएटेड प्रेस के अनुसार प्यूरटो रिका के चुनाव में वोटिंग संबंधी सैकड़ों अनियमितताएं हुई हैं।

मस्क ने इस आशय के एक ट्वीट को रीट्वीट करते हुए ऐसा लिखा है। इस पर पूर्व केंद्रीय मंत्री और भाजपा नेता राजीव चंद्रशेखर ने लिखा है, यह बेहद सामान्यीकरण है। “इसका मतलब हुआ कि कोई सुरक्षित डिजिटल हार्डवेयर बना ही नहीं सकता है”। कहने की जरूरत नहीं है कि मुद्दा यह है ही नहीं। बिल्कुल बना सकता है। पर आपने जो बनाया है वह संदेह से परे नहीं है। मुद्दा यह है कि जो व्यवस्था है, वह सुरक्षित है कि नहीं? 

राहुल गांधी ने संडे मिडडे की एक खबर साझा करते हुए लिखा है कि, “भारत में ईवीएम एक “ब्लैक बॉक्स” है, और किसी को भी उसकी जांच करने की अनुमति नहीं है। हमारी चुनावी प्रक्रिया में पारदर्शिता को लेकर गंभीर चिंताएं जताई जा रही हैं। जब संस्थाओं में जवाबदेही का अभाव होता है तो लोकतंत्र दिखावा बन जाता है और धोखाधड़ी की आशंका बढ़ जाती है।”

अखबार की खबर के अनुसार शिवसेना उम्मीदवार रवीन्द्र वाइकर के रिश्तेदार के पास एक फोन था जिस पर ईवीएम अनलॉक करने के लिए ओटीपी आते थे। यही इस खबर का शीर्षक है और पुलिस इसकी जांच कर रही है। रवीन्द्र वाइकर ने मुंबई नॉर्थवेस्ट लोकसभा क्षेत्र से 48 वोट से जीत दर्ज की है। कहने की जरूरत नहीं है कि मामला पर्याप्त गंभीर है और राहुल गांधी ने अखबार की कतरन लगाई है जो तथ्य बता रहा है। 

इसका संतोष जनक जवाब जब आयेगा, तब आयेगा अभी कुछ भक्त पूछ रहे हैं कि अगर ईवीएम गड़बड़ है तो रायबरेली-अमेठी का नतीजा भी गड़बड़ है? मैं कहता हूं कि अभी यह मुद्दा नहीं है। क्योंकि अंतर कई लाख वोट का है और दोनों संभव है कि मशीन गड़बड़ करके अंतर आया हो और गड़बड़ के बावजूद आया हो। चूंकि अंतर बहुत ज्यादा है इसलिए इसे छोड़ा जा सकता है और नहीं छोड़ा जाये तो मैं यह क्यों नहीं कहूं कि पुनर्गणना में 50-100 वोट से परिणाम बदल जायें तो कौन यकीन करेगा या क्यों करे। इसके लिए जरूरी है कि मशीन की साख स्थापित हो और वह सबसे जरूरी है।

हजारों बार कहा जा चुका है कि ना तो सभी मशीनों को गड़बड़ किया जा सकता है और ना शत प्रतिशत वोट एक ही उम्मीदवार के पक्ष में किये जा सकते हैं। फिर भी जब मुद्दे पर बात होती है तो भक्त अपने नेताओं की तरह उसे घुमाने की कोशिश करते हैं और यह किसी भी विषय के लिए है। मुख्यधारा का मीडिया उनका साथ देता है। 

आपको याद होगा, प्रधानमंत्री ने चुनाव जीतने के बाद ईवीएम का विरोध करने वालों का मजाक उड़ाया था और पूछा था, …. ईवीएम जिन्दा है या मर गया। मुझे लगता है कि प्रधानमंत्री को ऐसा करने की कोई जरूरत नहीं थी और ऐसा कहकर उन्होंने ना सिर्फ विरोधियों को हतोत्साहित करना चाहा बल्कि अपने समर्थकों को भी संदेश दे दिया था। इसके साथ जो बात कही वह उनका आरोप है और उसका अपना मकसद हो सकता है।

हालांकि, इसका असर मस्क के ट्वीट के बाद दिख रहा है। बेशक गलत का विरोध किया जाना चाहिये और अपनी बात भी रखी जानी चाहिये। लेकिन उसमें कुछ तथ्य और ताकत भी तो हो। दो उदाहरणों का पोस्टमार्टम मैं कर चुका। यह बात बहुत पुरानी और घिसी पिटी है कि चुनाव आयोग ने चुनौती दी तो कोई सामने नहीं आया। तथ्य यह है कि शर्त रखी गई थी कि छूना नहीं है, खोलना नहीं है आदि। 

इसीलिए राहुल गांधी ने आज उसे ब्लैक बॉक्स कहा है। उससे पहले जब चुनाव आयोग के ईवीएम को सेट करके दिखा दिया गया तो चुनाव आयोग ने ईवीएम चोरी की एफआईआर करा दी थी और सेट करने वाले को जेल भेज दिया गया था। इसके बावजूद अमित मालवीय ने कहा है कि जो हैक करने का दावा करता है उसे चुनाव आयोग से कहना चाहिये। पर सच यह है कि चुनाव आयोग मशीन देने को तैयार नहीं है।

मोटी सी बात है कि ईवीएम में चिप और वाई-फाई नहीं है तो लगाना ना मुश्किल है और ना असंभव है। खोलकर देखने नहीं दिया जायेगा तो पुष्टि कैसे होगी या विश्वास कैसे होगा? ऐसे दावों का क्या मतलब है? भाजपा के लोग अब यह प्रचारित कर रहे हैं कि चुनाव अधिकारी ने संबंधित अखबार को नोटिस जारी किया है। यह सादे कागज पर जारी विज्ञप्ति के आधार पर है और कहा जा रहा है कि अखबार की खबर पर यकीन नहीं किया जाये।     

यह सब कहानी नए भक्तों को पता नहीं है या जानते हुए अनजान बनते हैं। सरकार के समर्थन में घिसे पिटे सवाल पूछते हैं। चुनाव आयोग या प्रधानमंत्री मुद्दे पर बात ही नहीं करते हैं। सुप्रीम कोर्ट में भी मुद्दे को घुमा दिया जाता रहा है। पर वह अलग मुद्दा है। ईवीएम हैक हो सकती है – कहते ही भक्तगण बच्चों की तरह सवाल करने लगते हैं। पर तथ्य यह है कि हैक होने का मतलब यह नहीं है कि घर के म्यूजिक सिस्टम या अपने मोबाइल की तरह उपयोग कर सकेंगे।

जरूरी नहीं है कि जिसे सेट करें वहां आप जितना चाहें उतने वोट आयें। आपको दूसरे के कुछ ही वोट मिल सकते हैं। इससे हार या जीत का अंतर बदल जायेगा। यह जीत की गारंटी नहीं हो सकती है। जितनी मशीनें हैक की जाएंगी उतने ही ज्यादा लोगों को राजदार बनाना होगा और यह सब जोखिम भरा है। कहने की जरूरत नहीं है कि अब तकनीकी रूप से कुछ भी संभव है। चिप और वाई-फाई बहुत सस्ते हैं इसलिए स्टैंड अलोन मशीन भी सुरक्षित नहीं है। ईवीएम वायरलेस है, इंटरनेट नहीं है -का अब तकनीकी तौर पर कोई मतलब नहीं रहा। 

इसीलिए, सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद चुनाव आयोग का रुख ढीला ढाला है। यह खबर तो आप जानते ही हैं कि सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया था कि हारने वाला उम्मीदवार ईवीएम की जांच की मांग कर सकता है। चार जून को चुनाव नतीजे आ गये। उसके बाद चुनाव आयोग ने हारने वाले उम्मीदवारों को इस बारे में क्या कहा? कायदे से यह पेशकश और घोषणा होनी चाहिये थी कि जो जांच कराना चाहें वे इन शर्तों पर इस तरह जांच करा सकते हैं।

फिर सूचना आनी चाहिये थी कि इतने लोगों ने जांच की मांग की या नहीं की है पर यह सब कुछ हुआ, सुना आपने। मुझे लगता है कि चुनाव आयोग की जिम्मेदारी थी कि ईवीएम और नतीजों की विश्वसनीयता के लिए वह यह सब करता लेकिन ऐसा कुछ किया भी हो तो प्रचारित नहीं है। खबर है कि चुनाव आयोग ने एक जून को सभी मुख्य निर्वाचन अधिकारियों को इस संबंध में पत्र भेजा था। 

उसके अनुसार यह मांग परिणाम घोषित होने के सात दिनों तक ही की जानी थी। प्रत्येक विधानसभा क्षेत्र/संसदीय निर्वाचन क्षेत्र के लगभग 5% ईवीएम में सत्यापन की मांग कर सकेंगे। यह 10 जून तक होना था। इसके लिए ₹40,000 शुल्क और 18% जीएसटी लगना था। सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि छेड़छाड़ साबित होने पर यह राशि वापस कर दी जाएगी। यह सब जिस ढंग से हुआ उससे मुझे नहीं लगता है कि चुनाव आयोग इसके लिए तैयार है।

सुप्रीम कोर्ट के आदेश की मजबूरी ही थी इसलिए समय बहुत कम दिया गया और पैसे बहुत ज्यादा रखे गये। दिलचस्प यह कि उस पर जीएसटी भी लगना है जैसे कोई धंधा कर रहा हो। फिर भी अभी तक यह सार्वजनिक नहीं है कि कितने और किन लोगों ने जांच की मांग की और फीस जमा कराई। अगर जांच में यकीन होता तो कोई ना कोई कराता ही पर ऐसी कोई खबर मुझे नहीं मिली। मुझे कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह की एक फेसबुक पोस्ट (अंग्रेजी में) मिली इसके अनुसार चुनाव आयोग से हारने वाला उम्मीदवार ईवीएम की जांच की मांग कर सकता है। 

इसकी पूरी प्रक्रिया (एसओपी) तय समय तक घोषित नहीं की गई थी। वह भी तब जब चुनाव आयोग की जिम्मेदारी है कि पूरी प्रक्रिया को पारदर्शी रखे। सबको पता है कि डाले गए मत और गिने गये मत में अंतर है जब 48 वोट से जीत हार हो सकती है तो एक वोट का भी अंतर क्यों हो? पुराने नियमों के अनुसार 45 दिन में याचिका दायर की जा सकती है। ईवीएम की जांच के लिए यह समय इतना कम क्यों रहा और रहा तो एसओपी समय पर क्यों नहीं तैयार हुआ।

कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह ने इस संबंध में वीरवार, 13 जून को ही फेसबुक पर लिखा और इसमें मुख्य चुनाव आयुक्त को लिखे पत्र की कॉपी भी है। इसमें उन्होंने कुछ बिन्दुओं पर स्पष्टीकरण मांगे थे और कहा था कि इसके बिना सुप्रीम कोर्ट के आदेश का मकसद पूरा नहीं होगा। कहने की जरूरत नहीं है कि इस पत्र पर वह प्रतिक्रिया नहीं हुई जो राहुल गांधी के ट्वीट पर हुई है। कहा जा सकता है राहुल गांधी ज्यादा लोकप्रिय हैं लेकिन चुनाव आयोग और मीडिया की प्रतिक्रिया उस पर तब नहीं आई थी लेकिन राहुल गांधी के ट्वीट पर आज ही प्रतिक्रिया आ गई है और मुझे खबर भी मिल गई है। 

चुनाव आयोग ने कहा है कि ईवीएम का फोन से कोई लेना देना नहीं है, गलत खबर फैलाई गई है। तथ्य यह है कि खबर एक जाने-माने अखबार की है वह पुलिस के हवाले से है उसमें कहा गया है कि फोन फोरेंसिक जांच के लिये भेजा गया है। अगर पुलिस यूं ही जांच कर रही है तो उसे देखना भी सरकार का ही काम है। लेकिन इस मामले में महत्वपूर्ण यह है कि सरकार एक चुनाव अधिकारी से खंडन तो करवा रही है पर संबंधित सीसीटीवी फुटेज पर बात नहीं कर रही है।

खबर छापने वाले अखबार के खिलाफ मुकदमे की बात की जा रही है जबकि एफआईआर है, जांच चल रही है और उसके आधार पर खबर है तो एफआईआर का मामला बनता ही नहीं है। यह अखबार और पत्रकार को धमकाने की कोशिश लगती है और इसीलिए खबरें सभी अखबारों में नहीं हैं – वरना पुलिस की सूचना पर खबरें तो छपती ही रही हैं।   

राहुल गांधी के आरोप के जवाब में सरकारी पक्ष है कि फोन या ओटीपी की जरूरत नहीं होती है। अगर ऐसा है तो फोन ले जाने की मनाही क्यों है और संबंधित व्यक्ति को ले जाने की इजाजत क्यों दी गई थी और वह उम्मीदवार का रिश्तेदार क्यों है? अधिकारी होता तो बात अलग थी।

खबर के अनुसार पुलिस अपनी जांच में सीसीटीवी के फुटेज देखेगी। सीसीटीवी से अगर शंका समाधान होता है तो उसे चुनाव आयोग जारी क्यों नहीं कर देता है। खबर यह है कि मतगणना केंद्र में पोस्टल बैलट इलेक्ट्रॉनिक रूप में रखे जाते हैं। सरकारी विज्ञप्ति में कहा गया है कि इन्हें भौतिक तौर पर गिना जाता है लेकिन ईटीपीबीएस कहा जाता है। इसका मतलब, इलेक्ट्रॉनकली ट्रांसमिटेड पोस्टल बैलट सिस्टम कहा जाता है। कुल मिलाकर शंकाएं कम नहीं हैं।     

(संजय कुमार सिंह वरिष्ठ पत्रकार और अनुवादक हैं।)

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