Friday, April 26, 2024

नॉर्थ ईस्ट डायरी: बंदूक और अफस्पा के साये में मणिपुर चुनाव

पिछले महीने मणिपुर में चुनावों के मद्देनजर आदर्श आचार संहिता लागू होने के बाद से राज्य में 15,240 लाइसेंसी हथियार जमा किए गए थे। इस संबंध में मुख्य निर्वाचन अधिकारी राजेश अग्रवाल ने बताया: “अभी तक लगभग 58 प्रतिशत लाइसेंस शुदा हथियारों को जमा किया जा चुका है, बाकी हथियारों को जमा किये जाने का कार्य जारी है। हम आशा करते हैं कि यह संख्या न केवल 60 प्रतिशत को पार कर जाएगा बल्कि 2017 के चुनावों में हमने जितने हथियार जमा किए थे, इस बार उससे अधिक हथियारों को जमा किया जा सकेगा।”

मणिपुर में 25,299 लाइसेंसी हथियार हैं। जाहिर है, हथियार शून्य में मौजूद नहीं हैं। उनका उपयोग व्यक्तियों और समूहों द्वारा किया जाता है, और राज्य सरकार ने 588 बस्तियों की पहचान संवेदनशील क्षेत्र के रूप में की है और 1,430 व्यक्तियों पर प्रतिबंध लगाए गए हैं।

“मणिपुर राज्य में हालात सामान्य नहीं है। राज्य में करीब 15-20 विद्रोही समूह हैं। उन्होंने अलगाववादी मांगों के साथ शुरुआत की, लेकिन अब वे जबरन वसूली में जुट गए हैं। घाटी के मैतेई लोग, जो वैष्णववादी हैं, राज्य में सबसे अधिक भारत विरोधी समूहों में से हैं… वे आश्वस्त हैं कि भारतीय शासन सिर्फ हिंसा की भाषा को ही सुनता है और नगाओं के साथ लंबे समय से चली आ रही बातचीत उनके लिए दोषसिद्धि का प्रमाण है। इसलिए उनकी अलगाव की भावना बनी हुई है,” यह बात बीएसएफ के पूर्व प्रमुख प्रकाश सिंह, जिन्होंने यूपी और असम पुलिस का भी नेतृत्व किया है, ने मीडिया को बताया।

जबकि मणिपुर की पहाड़ियों में कुल भौगोलिक क्षेत्र का नौ-दसवां हिस्सा है, वे बहुत कम आबादी वाले हैं, जिनमें से अधिकांश आबादी घाटी में केंद्रित है। इंफाल घाटी में मैतेई समुदाय बहुसंख्यक है, जबकि आसपास के पहाड़ी जिलों में नगा और कुकी रहते हैं। चुनाव के समय ये जातीय विभाजन रेखाएं खुलकर सामने आ जाती हैं।

मणिपुर और नगालैंड के उग्रवाद में अंतर है; नगालैंड में विद्रोह देश के सबसे पुराने विवादों में से एक है, लेकिन उनके पास उतने समूह नहीं हैं जितने मणिपुर में हैं, जो व्यावहारिक रूप से नियंत्रण से बाहर हैं क्योंकि स्थानीय और राष्ट्रीय दोनों राजनेताओं ने इससे निपटने में कोई वास्तविक रुचि कभी नहीं दिखाई।

2017 के विधानसभा चुनाव से मणिपुर की राजनीति में एक नया मोड़ आया, जब भाजपा ने अपनी गठबंधन सरकार बनाकर राज्य में कांग्रेस के प्रभुत्व को समाप्त कर दिया। 15 साल के निर्बाध शासन के बाद, कांग्रेस के सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरने के बावजूद, पूर्वोत्तर राज्य में वह साधारण बहुमत हासिल कर पाने में विफल रही थी। लेकिन सबसे पुरानी पार्टी को भाजपा ने मात दी, जिसने सरकार बनाने के लिए छोटे दलों के साथ गठबंधन करके बहुमत को हासिल किया।

1972 में राज्य का दर्जा प्राप्त करने के बाद, 1980 से 2010 के बीच की अवधि उग्र-अलगाववादी विद्रोह के तौर पर चिह्नित की गई थी, जो इस कथित आक्रोश में निहित थी कि मणिपुर का भारत के साथ विलय ‘गलत’ था।

भले ही पहला विद्रोही संगठन, यूनाइटेड नेशनल लिबरेशन फ्रंट (यूएनएलएफ), 1964 के दशक में अस्तित्व में आया, 1980 के दशक में कई घाटी-आधारित चरमपंथी समूहों का गठन हुआ – पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए), पीपुल्स रिवोल्यूशनरी पार्टी ऑफ कांगलीपाक और कांगलीपाक कम्युनिस्ट पार्टी (केसीपी) – ये सभी एक ‘स्वतंत्र’ मणिपुर की आम मांग करते रहे। ये अब समन्वय समिति नामक एक संगठन का हिस्सा हैं। 1990 के दशक में कुकी उग्रवाद ने भी अपना सिर उठाना शुरू कर दिया था।

आगामी चुनाव एक और बात के लिए महत्वपूर्ण है। यदि विपक्षी कांग्रेस पार्टी राज्य में सत्ता में आती है, तो उसने वादा किया है कि सशस्त्र बल विशेष शक्ति अधिनियम (अफस्पा) को समाप्त कर दिया जाएगा।

कांग्रेस नेता जयराम रमेश ने हाल ही में इंफाल में खचाखच भरे सभागार में यह वादा किया । अन्य विकास संबंधी एजेंडे में, जो कांग्रेस जैसे राजनीतिक दल के लिए निश्चित रूप से समान हैं, जो सत्ता हासिल करने की कोशिश कर रही है, अफस्पा सूची में सबसे ऊपर है।

‘इंफाल फ्री प्रेस’ के संपादक और ‘द नॉर्थईस्ट क्वेश्चन: कॉन्फ्लिक्ट्स एंड फ्रंटियर्स’ के लेखक प्रदीप फांजौबम ने बताया: ‘अफस्पा को थोड़ा-थोड़ा करके हटाया जा सकता है।’

“दिसंबर 2021 में नगालैंड में सेना द्वारा 14 नागरिकों की हत्या के मद्देनजर अफस्पा को रद्द किये जाने की मांग के बीच, केंद्र ने राज्य में विवादास्पद कानून की घोषणा को छह और महीने तक बढ़ाने का फैसला किया है। अधिनियम को केवल अशांत घोषित क्षेत्रों में ही बढ़ाया जा सकता है और यह स्थिति एक बार में केवल छह महीने के लिए हो सकती है, जो कि यह दर्शाता है कि अफस्पा एक आपातकालीन उपाय के रूप में था, न कि एक स्थायी उपाय के रूप में। तथ्य यह है कि यह आपातकाल 64 वर्षों से चल रहा है, यह अधिनियम की प्रभावशीलता में कुछ गंभीर रूप से गलत होने का संकेत है” मणिपुर में सबसे प्रभावशाली आवाजों में से एक फांजौबम ने बताया।

अफस्पा को निरस्त करने के महत्व को शायद ही कम करके आंका जा सकता है-कई सरकारी समितियों, विशेष रूप से 2005 में न्यायमूर्ति बीपी जीवन रेड्डी समिति, और 2007 में वीरप्पा मोइली की अध्यक्षता में प्रशासनिक सुधार आयोग (एआरसी) ने कई मानवाधिकार संगठनों के साथ परामर्श दिया है कि अधिनियम ने अपनी उपयोगिता को  खो दी है।

अधिनियम अपने आप में ऐसा है कि इसमें सेना को शामिल किए बिना निरस्त नहीं किया जा सकता है। फांजौबम ने कहा कि राजनेता ऐसी स्थितियां पैदा करते हैं जो स्थानीय पुलिस के हाथ से निकल जाती हैं और सेना को बुलाना पड़ता है। कोई भी राजनीतिक दल पुलिस में सुधार के लिए तैयार नहीं है, जिसका मुख्य काम देश के अंदर कानून-व्यवस्था बनाए रखना है।

इंस्टीट्यूट फॉर कॉन्फ्लिक्ट मैनेजमेंट एंड साउथ एशिया टेररिज्म के संस्थापक सदस्य और कार्यकारी निदेशक अजय साहनी ने कहा: ‘चीन इस क्षेत्र में वर्षों से दखल दे रहा है, लेकिन भारत को कमजोर करने के लिए बंदूकधारियों के एक छोटे समूह को हथियार देने में उसकी दिलचस्पी नहीं है। यदि आपके पास दस हजार विद्रोहियों का मजबूत समूह है, तो यह अलग बात हो सकती है।”

(दिनकर कुमार ‘द सेंटिनेल’ के संपादक रहे हैं।)

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