Friday, April 26, 2024

सत्ता के कंधे पर सवार ‘धनतंत्र’ और ‘धर्मतंत्र’ का लोकतांत्रिक चेतना पर हमला

इस समय भाजपा की केंद्र और यूपी सरकार में होड़ चल रही है कि हिंदुत्व का चैंपियन कौन बनेगा। इस होड़ ने लोकतंत्र की बुनियाद को हिला दिया है। हजारों तरीकों से लोकतंत्र के बारीक से बारीक तंतुओं पर तीखे हमले हो रहे हैं। जिस कारण भारत का लोकतांत्रिक ढांचा भारी दबाव झेल रहा है।

ऐसा लगता है कि 2024 का चुनाव आते-आते लोकतंत्र के सभी बुनियादी ढांचे कॉर्पोरेट हिंदुत्व गठजोड़ में विलीन हो जायेंगे। संघ के नेतृत्व में चलने वाले सांस्कृतिक और राजनीतिक अभियान बहुत पहले से ही संकेत दे रहा था कि संघ की चिंतन प्रक्रिया लोकतंत्र के मूल्यों के निषेध पर खड़ी है। संघ ने कभी भी अपने विचार और उद्देश्य को छुपाया भी नहीं।

अगर अतीत पर नजर डाले तो साफ दिखाई देगा कि बाबरी मस्जिद का ध्वंस और गुजरात नरसंहार जैसी घटनाएं मील का वह पत्थर हैं जिन्हें प्रायोजित कर संघ परिवार ने बता दिया था कि उसके लिए कानून के राज व लोकतांत्रिक संस्थाओं और संविधान का क्या मूल्य है। ये संस्थाएं संघ के लिए सिर्फ एक साधन मात्र है।

सत्ता में आने पर वह संविधान और लोकतंत्रिक ढांचे को बदल कर अपने चिंतन के आधार पर नया भारत गढ़ेगा। जिसकी नींव सनातन हिंदू मूल्यों, ब्राह्मणवादी वर्णवादी व्यवस्था तथा अवैज्ञानिक सोच के आधार पर खड़ी होगी। जिसकी संचालक शक्ति वर्णवादी सामाजिक मान्यताएं होंगी। इस अर्थ में संघ को यह श्रेय तो देना ही होगा कि उसके वैचारिक गुरुओं ने कभी अपने उद्देश्यों को नहीं छुपाया। इसलिए संघ अन्य पूंजीवादी पार्टियोंऔर संस्थाओं से इस अर्थ में सर्वथा भिन्न है।

एक, संघ ने भारत की आजादी, संविधान और संघात्मक गणतंत्र को कभी भी मान्यता नहीं दी। दो, गांधीजी की हत्या, बाबरी मस्जिद विध्वंस और गुजरात नरसंहार जैसी घटनाओं पर संघ परिवार ने कभी भी कोई अफसोस या खेद नहीं प्रकट किया। तीन, संघ के विचारक, नेता और कार्यकर्ता संघ द्वारा गढ़ी गई हिंदुत्व की चिंतन प्रक्रिया का ही व्यवहार में अनुसरण करते हैं। उनके व्यवहार का गुरुत्व हिंदू समाज की परंपरा, आस्था और धार्मिक अनुष्ठानों व्यवहारों के इर्द-गिर्द ही केंद्रित रहता है। जिसकी अग्रगति लोकतांत्रिक प्रणाली से सीधे टकराव पर निर्भर करती है।

चार, लोकतांत्रिक गतिविधि यानी सार्विक मताधिकार (मुख्यत: चुनाव द्वारा सत्ता का निर्धारण) संघ परिवार और भाजपा के लिए लिए सिर्फ एक साधन मात्र है। यह उनका स्वाभाविक जीवन व्यवहार नहीं है।

पांच, संघ के संस्थाओं का केंद्रीय व्यवहार और चिंतन धार्मिक क्रियाकलापों, प्रतीकों, नायकों, काल्पनिक रूप से गढ़ गए धार्मिक विवादों और राजा महाराजाओं के इतिहास के इर्द-गिर्द घूमता है। इसलिए लोकतंत्र जैसे सर्वथा आधुनिक सभ्यता के दौर में भी भाजपा और उसके सहयोगी संस्थाएं धार्मिक विभाजनों, प्रतीकों आस्थाओं को प्रधानता देती हैं। जैसे 1967 में गाय को केंद्र में रख कर शुरू किया गया चुनावी अभियान 80 के दशक तक आते-आते राम जन्म भूमि के इर्द-गिर्द केंद्रित हो गया।

छठा, भाजपा और संघ के सभी सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक अभियानों में इस्लाम मुसलमान, आधुनिक वैज्ञानिक सोच, चेतना व शिक्षा, प्रगतिशील वामपंथी राजनीतिक विचार व ताकतें स्थाई तत्व होते हैं। जिनके इर्द-गिर्द राष्ट्रवाद का सघन जाल बुना जाता है। जिसमें फंसकर नागरिक संघ के विभाजनकारी विचारों के शिकार बन जाते हैं।

जैसे-जनसंख्या जिहाद, लव जिहाद, शिक्षा जिहाद, गौ हत्या, विधर्मी, असहिष्णुता, धर्म विरोधी, विदेशी विचारधारा और भारत के खिलाफ षड्यंत्र, देशद्रोही, भारत की संस्कृति पर हमला, टुकड़े टुकड़े गैंग, लिब्रांडू और सूडोसेकुलर जैसे शब्द कामन व्यवहार में प्रयोग किए जाते हैं।

अब कुछ नई शब्दावली भी गढ़ी गई है। जैसे मदर आफ डेमोक्रेसी, विश्व शक्ति, विश्व गुरु, विश्व नेता, विश्व भारत से प्रेरणा ले रहा है जैसे शुद्ध रूप से हवाई राष्ट्रवादी नारे उछाले जाते हैं। इन शब्दों के प्रयोग कॉर्पोरेट नियंत्रित मीडिया द्वारा इस तरह से होता है जैसे यही भारत का यथार्थ हो।धीरे-धीरे अवचेतन में ये विचार और भाषा सामाजिक राजनीतिक जीवन में जगह घेर लेती हैं।

इस तरह निर्मित किया गया एक कॉमन सेंस भारतीय समाज के बहुसंख्यक तबके को अपने प्रभाव में ले लेता है और स्वाभाविक रूप से उसे नियंत्रित, संचालित करने लगता है। इस मंजिल पर पहुंचकर भाजपा संघ के नेताओं के साथ समाज के तल छट, कूड़े-कचड़े लंपट तत्व गौ रक्षक, धर्म रक्षक, हिंदू रक्षक और भारत रक्षक बन जाते हैं। अंत तक आते-आते वे बहुसंख्यक समाज के प्रतिनिधि बनने का दावा करने लगते हैं। यही से भारतीय लोकतंत्र बहुमत वादी लोकतंत्र में रूपांतरित होने लगता है।

धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र राज्य की अंतिम क्रिया-संघ भाजपा ने हमेशा आर्थिक राजनीतिक सवालों पर विमर्श को हिंदुत्व की वैचारिक शब्दावली के दायरे में केंद्रित रखा। जब भी विकास शिक्षा स्वास्थ्य या सामाजिक न्याय जैसे प्रश्नों की चर्चा होती है तो तुरंत उसे अल्पसंख्यक बनाम बहुसंख्यक में बदल दिया जाता है।

जैसे कब्रिस्तान बनेगा तो श्मशान भी बनना चाहिए या जनसंख्या के सवाल पर बहस होती है तो तुरंत हम एक हमारे पांच पर चला जाएगा। अगर धार्मिक सवालों को लोकतांत्रिक स्पेस या राज्य की संस्थाओं के बाहर रखने की बात होती है तो तुरंत ही इसे अल्पसंख्यक तुष्टीकरण में बदल दिया जाता है। भारत में आर्थिक संकट पर चर्चा करते ही पाकिस्तान को सामने ला दिया जाएगा या पाकिस्तान परस्त घोषित कर दिया जाएगा।

इस तरह लोकतांत्रिक विमर्श को हिंदुत्ववादी या बहुसंख्यक वादी मुहावरे के दायरे में ही रखने की कोशिश होती है। जिसमें मीडिया और राजकीय संस्थान भी स्वाभाविक रूप से सहभागी हो जाते हैं। जिसके परिणाम स्वरूप भारतीय नागरिक की नागरिक चेतना कमजोर होती गई और धार्मिक पहचान वाली चेतना उस पर हावी होती गई।

इस प्रकार एक सामान्य मजदूर किसान मध्यवर्गीय समाज भी चिंतन और व्यवहार में हिंदुत्व के व्यापक के परिधि में ही क्रियाशील रहता है। वह स्वयं को अघोषित रूप से बृहत्तर हिंदू समाज का अंग मान लेता है। उसकी वर्गीय और सामाजिक चेतना पर धर्म की आभासी चेतना प्रधान बन जाती है। इसलिए जब लोकतांत्रिक राज्य की संस्थाओं द्वारा धार्मिक अनुष्ठानों को परोक्ष या अपरोक्ष रूप से आगे बढ़ाया जाता हैं। तो उसे कुछ भी अस्वाभाविक नहीं लगता।

जैसे प्रधानमंत्री जब स्वयं हिंदू परिधानों में मंदिर की आधारशिला रखते हैं और भूमि-पूजन जैसे कर्मकांड स्वयं एक पक्ष होकर संपन्न कराते हैं तो गौरवान्वित महसूस करता है। या “पवित्र गंगा”, “मां गंगा” या “मां गंगा ने मुझे बुलाया है” जैसी धूर्तता वाली भाषा में बात करते हैं तो सामान्य हिन्दू की धार्मिक आस्था संतुष्ट होती है। इस प्रकार मनोजगत में निर्मित आभासी दुनिया का अंग बन जाता है। पूंजी की बर्बर लुटेरी सभ्यता के युग में वह राजनेताओं के छल प्रपंच और कपट के जाल को भेद पाने में असमर्थ हो जाता है।

अगर प्रधानमंत्री गंगा में सुरक्षित परिधानों में डुबकी लगाते हैं तो उसे इस इवेंट में खुद के अहम के तुष्टि होने और हिंदू धर्म के उत्थान के सारे लक्षण दिखाई देने लगते हैं। इसी संदर्भ में आप देखेंगे कि धार्मिक और सांस्कृतिक आयोजन सदियों से हमारे सामाजिक धार्मिक जीवन का अभिन्न अंग रहे है। जैसे नवरात्रि, रामनवमी, दशहरे के मेले, कुंभ या कावड़ यात्राएं, बसंत पंचमी, दीपावली, श्रीकृष्ण जयंती, गणेश जयंती, शिवरात्रि आदि में जब राज्य दृश्य अदृश्य हस्तक्षेप करने लगता है तो ये सांस्कृतिक और धार्मिक आयोजन समाज के लोकतांत्रिक करण की प्रक्रिया के विपरीत खड़े हो जाते हैं। यही नहीं यह समाज के अलगाव को भी गति देते हैं।

राज्य के हस्तक्षेप के दूसरे प्रभाव भी देखने को आते हैं। जैसे कावड़ यात्रा के समय जब राज्य के पदाधिकारी समाज के उस हिस्से को जिसने अपना “स्वयं का आत्म” खो दिया है, उस पर पुष्प वर्षा करते है, पद प्राच्छालन करते हैं तो वे सच्चे धार्मिक व्यक्ति का निर्माण नहीं कर रहे होते। वे एक उन्मादी आक्रामक उत्तेजक धर्म योद्धा गढ़ रहे होते हैं।

हमने अपने बचपन से ही देखा है कि नवरात्र के अनुष्ठान ‌हमारे जीवन की दैनंदिन क्रियाओं के बीच से ही संपन्न होते थे। जो जीवन जीने की प्रणाली के अभिन्न अंग थे। लेकिन जब राज्य ने इसमें हस्तक्षेप करना शुरू कर दिया तो अंतर्वस्तु में ये पर्व धार्मिक-सांस्कृतिक उत्सव नहीं रह गए। धार्मिक आयोजनों की जगह विशुद्ध राजनीतिक फल देने वाले अलगाववादी एजेंडे बन गए।

इसके खतरनाक प्रभाव सामाजिक जीवन में तनाव और टकराहट के रूप में पिछले वर्ष नवरात्रि और रामनवमी के पर्व के दौरान हम देख चुके हैं। इन अनुष्ठानों और त्योहारों में जो सामाजिक तबका भाग लेता है वह वस्तुतः आर्थिक सामाजिक राजनीतिक जीवन के विस्तृत मैदान से खदेड़ दिया गया समाज है जो अपना आत्म खो चुका है। जो जिंदगी की जद्दोजहद में दिन रात सड़कों चौराहों पर राज्य मशीनरी और दबंग सामाजिक समूहों से प्रताड़ित होता है।

लेकिन जब वह इन उत्सवों का अंग होता है तो कुछ क्षण के लिए” अपने आत्म को वापस पा “लेता है। और इस गौरव बोध में वह एक आक्रामक हिंसक ऑब्जेक्ट बन कर रह जाता है। जिसे पूंजी की क्रीतदास राजनीतिक ताकतें हर मौके पर मनमाने ढंग से इस्तेमाल करती हैं। दंगों से लेकर चुनावों तक और दिहाड़ी मजदूर से लेकर फुटपाथी दुकानदारों तक यही समाज दिखाई देता हैं। उन्मादी जाति-धर्म के वायरस इन्हीं के साथ समाज में नीचे तक फैल जाते हैं। परिणाम स्वरूप समाज धार्मिक-सामाजिक रूप से विभाजित विखंडित होकरबीमार समाज बन जाता है।

उदारीकरण के दौर का यही सामाजिक राजनीतिक विमर्श है। जिसके अंत: संघर्ष से निर्मित आज हिंदुत्व कॉर्पोरेट गठजोड़ भारत की सत्ता पर काबिज हो गया हो कर चौतरफा भारतीय लोकतंत्र को कमजोर करने समाप्त करने और कॉर्पोरेट पूंजी के नियंत्रण को पुख्ता करने में लगा है। जिसे आज हम हिंडेन वर्ग की रिपोर्ट के खुलासे के बाद अदानी समूह की गतिविधियों में प्रत्यक्ष देख रहे हैं।

उत्तर प्रदेश सरकार की घोषणा-पहले मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और बाद में प्रमुख सचिव द्वारा जारी दो पेज के निर्देश में जिला और कमिश्नरेट के पदाधिकारियों को निर्देशित किया गया है कि वह अपने जनपद में शक्तिपीठों मंदिरों में स्वयं के देखरेख में नवरात्रि के समय दुर्गा सप्तशती और रामायण के पाठ कराएं। इसके लिए 1 लाख रुपये प्रति जनपद आवंटित किए गए हैं। साथ ही यह निर्देश दिया गया है कि इन कार्यक्रमों की वीडियोग्राफी कराकर राज्य सरकार के पास भेजा जाए।

सवाल यह है कि किसी लोकतांत्रिक देश और समाज में “जो बहुभाषी बहु सांस्कृतिक राष्ट्र राज्य हो “किसी एक धर्म के उत्सव के लिए राजकीय कोष से धन आवंटित करना नैतिक या संवैधानिक है या नहीं। इस तरह के निर्देशों के भारतीय संघ पर दूरगामी प्रभाव पड़ेंगे या नहीं। क्या इससे बहु धार्मिक समाज में अलगाव की खाई और चौड़ी होगी या समरसता सामंजस्य समन्वय विकसित होगा।

दूसरा-हमारे संविधान के अनुसार राज्य किसी धर्म के क्रियाकलाप में सीधे भाग नहीं ले सकता या उसमें हस्तक्षेप नहीं कर सकता। धार्मिक क्रियाकलाप व्यक्ति के निजी अधिकारों के दायरे में आता है। क्या योगी आदित्यनाथ सरकार के इस आदेश या अतीत में उनके द्वारा अयोध्या में लाखों दीप प्रज्वलित करने और प्रधानमंत्री द्वारा मंदिर का शिलान्यास करने, विश्वनाथधाम कॉरीडोर का उद्घाटन व लोकार्पण जैसे कार्य को किन अर्थों में देखा जाए।

स्पष्ट है की संघनीति भाजपा सरकार घोषित रूप से अब हिंदू राष्ट्र के प्रतिनिधि के बतौर अपने को प्रस्तुत कर रही है। 2023 तक पहुंचते-पहुंचते सरकार ने लोकतंत्र के सभी आवरण उतार कर फेंक दिया हैं। सरकार सार्वजनिक विमर्श में हिंदुत्व के मूल्यों और परंपराओं को ले आ चुकी है।

योगी सरकार ने नौकरशाही का भगवाकरण करने का फैसला कर लिया है। इस आदेश द्वारा नौकरशाहों की निष्पक्षता को खंडित कर उसे हिंदुत्व के कार्यकर्ता में तब्दील करने का एक भोड़ा प्रयास है। यही नहीं नौकरशाहों के लिए निर्धारित संवैधानिक कानूनी मूल्यों का भी यह आदेश उल्लंघन करता है। जो आने वाले समय में भारत के लोकतंत्र के लिए खतरनाक संकेत है। नवरात्रि और रामनवमी के पर्व पर योगी सरकार द्वारा जिला के प्रशासनिक अधिकारियों को दिए गए आदेश उत्तर प्रदेश में संवैधानिक धर्मनिरपेक्ष गणतंत्र के समापन की घोषणा है।

अब गेंद लोकतांत्रिक धर्मनिरपेक्ष और संविधान के पक्षधर ताकतों के पाले में फेंक दी गई है। जो संविधान और कानून के बुनियादी वसूलों के प्रति प्रतिबद्ध है और उसकी रक्षा के लिए संघर्षरत है। उनकी अग्नि परीक्षा शुरू हो चुकी है। आने वाले समय में उन्हें “लोकतंत्र बचाओ महायज्ञ” में आहुति देने के लिए तैयार रहना चाहिए।

लगता है समय आजादी, लोकतंत्र बराबरी धर्मनिरपेक्ष गण तांत्रिक भारत में जीने की आकांक्षा रखने वाले भारत के नागरिकों से स्वतंत्रता के दूसरे जंग की मांग कर रहा है। इस विकट परिस्थिति के बावजूद भी उम्मीद है भारत में संविधान और लोकतंत्र की रक्षा की लड़ाई मैं सब कुछ सकुशल और शांतिमय ढंग से संपन्न होगा।

(जयप्रकाश नारायण सीपीआई (एमएल) उत्तर प्रदेश की कोर कमेटी के सदस्य हैं।)

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