एक जनवरी की शाम से लापता मुकेश चंद्राकर की देह मिलने की दुखद और स्तब्धकारी खबर कल शाम को आ गयी। मौके पर पहुंचे कमल शुक्ला ने रुंधे गले से यह खबर सुनाई।
एकदम युवा और अत्यंत धुनी और ऊर्जावान मुकेश का वेब पोर्टल देखने वाले सोच भी नहीं सकते थे कि इसका सम्पादक, रिपोर्टर बीजापुर के एक कमरे में बैठकर उसे तैयार करता है।
उनकी खबरें सचमुच की न्यूज़ होती थीं, टेबल पर बैठकर कट पेस्ट की गयी, इधर-उधर की क्लिप्स उठाकर बनाई गयी नहीं, मौके पर जाकर शूट की गयीं, संबंधितों से सीधे बात करके संकलित और एकदम चुस्त संपादित कैप्सूल होती थीं।
इस ताजगी की वजह उनकी प्रामाणिकता और स्वीकार्यता थी; वे धड़ल्ले से उस घने जंगल में उनके बीच भी जाकर इंटरव्यूज और बाइट ले सकते थे, जिनके बीच एसपीजी और ब्लैककैट सुरक्षा वाले नेता या अफसर जाने की सोच भी नहीं सकते। उतनी ही बेबाकी से प्रशासन से भी उसका पक्ष जान लेते थे।
हमने उन्हें एपिसोड बनाते और एडिट करते देखा है; आदिवासियों के एक आन्दोलन में, एकदम जंगल सिलगेर से, दिन भर की थकाऊ यात्रा के बाद हमारे साथ-संजय पराते कमल शुक्ला सहित-सिलगेर से लौटकर वे हम तीन के लिए खाना-दाल, भात और मछली भी रांधते जा रहे थे और लैपटॉप पर उस दिन की न्यूज़ भी पकाते जा रहे थे। वे किसी महानगर में होते तो! मगर होते क्यों? बस्तर और बीजापुर को उन्होंने चुना था। उन्हें लगता था कि खबर तो यहीं है।
एक ठेकेदार ने उन्हें क़त्ल कर दिया; नई साल की शाम लैपटॉप पर बैठने से पहले कुछ ताज़ी हवा लेने सिर्फ टी-शर्ट और शॉर्ट्स में जॉगिंग के लिए निकले थे, ठेकेदार ने उन्हें उठा लिया और दीदा दिलेरी देखिये, मार कर अपने फार्म हाउस के सेप्टिक टैंक में डाल कर उसे सीमेंट से बंद भी कर दिया। तीन दिन बाद कल शाम जाकर बरामद हुई उनकी देह।
जिस ठेकेदार के फार्म हाउस के सेप्टिक टैंक से यह लाश मिली है वह कोई 132 करोड़ रूपये का मालिक बताया जाता है- सबसे बड़ा ठेकेदार है। ये दोनों ठेकेदार भाई सुरेश और रीतेश चंद्राकर इतने बड़े वाले हैं कि दारिद्रय बहुल बस्तर में उनके यहां शादी में घोड़ी या बीएमडब्ल्यू नहीं आती हेलीकॉप्टर आता है। निडर पत्रकार मुकेश चन्द्राकर ने ऐसी ही एक शादी की खबर कुछ साल पहले कवर की थी; उनके पोर्टल बस्तर जंक्शन पर मिल जायेगी।
बस्तर सचमुच में एक जंक्शन बना हुआ है; एक ऐसा जंक्शन जहां के सारे मार्ग बंद हैं: माओवाद का हौवा दिखाकर लोकतंत्र की तरफ जाने वाला रास्ता ब्लॉक किया जा चुका है। कानून के राज की तरफ जाने वाली पटरियां उखाड़ी जा चुकी हैं। संविधान नाम की चिड़िया बस्तर से खदेड़ी जा चुकी है।
अब सिर्फ एक तरफ की लाइन चालू है; आदिवासियों की लूट, उन पर अत्याचार, सरकारी संपदा की लूट और उसके खिलाफ आवाज उठाने वालों को क़त्ल करने की छूट।
यह काम वर्दी और बिना वर्दी के किया जाता रहा है। इतने पर भी सब्र नहीं होता तो नकली पुलिस के असली शिकंजे कसे जाते रहते हैं; जिस ठेकेदार के फ़ार्म हाउस से मुकेश चन्द्राकर मिले हैं वह ऐसी ही फर्जी दमनकारी असंवैधानिक गुंडा वाहिनी सलवा जुडूम का (एसपीओ) विशेष पुलिस अधिकारी रह चुका था।
और ये गिरोह क्या करता रहा होगा इसकी जीती जागती मिसाल है इसकी कमाई और बर्बरता। इस हत्यारे को आज भी पुलिस सुरक्षा मिली है-यहां का एसपी इसके अस्तबल में बंधा है।
अभी खबर मिली है कि जिसके यहां मुकेश की लाश मिली वह भाजपा का नेता था, पहले कांग्रेस का नेता भी रहा। चित्त भी उसकी पट्ट भी उसकी अंटा उसके बाप का ही रहा !!
दिल्ली से रायपुर तक कितनी भी नूरा कुश्ती हो ले, बस्तर में मलाई में साझेदारी पूरी है। पत्रकार असुरक्षित हैं, लोकजतन सम्मान से सम्मानित वरिष्ठ पत्रकार कमल शुक्ला जैसे पत्रकारों को शारीरिक हमलों का निशाना बनाया जाता रहा है, बाकी पत्रकार भी समय-समय पर विभीषिका झेलते रहे हैं।
निहित स्वार्थ इतने गाढ़े हैं कि सरकार तिरंगी हो या दोरंगी न पत्रकारों की सुरक्षा का क़ानून बनता है न अडानी-अम्बानी के लिए आदिवासियों को रौंदा जाना रुकता है।
बस्तर जंक्शन वाले मुकेश चंद्राकर इसी स्थगित संविधान और उखड़े लोकतंत्र की जंग लगी पटरी पर कुचल दिए गए युवा हैं। यह एक ऐसा बर्बर हत्याकाण्ड है जिसे एक व्यक्ति, एक युवा पत्रकार तक सीमित रहकर देखना खुद को धोखा देना होगा;
यह एक पैकेज का हिस्सा है, यह पूरे बस्तर की यातना है, यह एक ऐसे घुप्प अन्धेरे का फैलना है जिसे यदि रोका नहीं गया तो कल न छत्तीसगढ़ बचेगा न देश !!
मुकेश भाई, हम सचमुच में शर्मिन्दा हैं दोस्त। मगर लड़ाई जारी रहेगी।
(बादल सरोज लोकजतन के संपादक हैं।)
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