ग्राउंड रिपोर्ट: मनरेगा मजदूरों को पलायन के रास्ते पर धकेल सकती है ऑनलाइन हाजिरी 

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चंदौली, यूपी। संसद में वर्ष 2019-20 के बजट पर चर्चा करते हुए भारत के तत्कालीन ग्रामीण विकास मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने कहा था कि ‘हमारी सरकार मनरेगा को हमेशा नहीं चलाये रखना चाहती है। यह योजना गरीबों की मदद के लिए है और हम गरीबी मिटा देंगे ताकि यह योजना बंद की जा सके’। इस वक्तव्य से यह स्पष्ट दिखता है कि भारत सरकार देश की सबसे बड़ी स्कीम मनरेगा की उपयोगिता का फंडा शायद समझ ही नहीं पाई है।

मनरेगा ने गांवों में आर्थिक असमानता, गरीबी, बेरोजगारी की मार झेल रहे लोगों और कोविडकाल में महानगरों से लौटे लाखों मजदूरों का भरण पोषण कर देश को एक बड़ी आपदा से उबारा। वहीं, पानी, तालाब, नदी के तटबंध, रजवाहे, नहर, मेड़बंदी, रास्तों व सड़क की मरम्मत, पेड़ों व खेतों को सुरक्षित कर पलायन के रोग से बेजार हो रहे गांवों की सेहत को सुधारा। यह कहना गलत न होगा कि मनरेगा वास्तव में नए ग्रामीण भारत की रीढ़ है।

देशभर में 2020-21 में मनरेगा के तहत काम करने वाले मजदूरों का आंकड़ा 11 करोड़ पार कर गया है। यूपी के चंदौली में वर्तमान समय में 1.58 लाख से अधिक मनरेगा मजदूर हैं। अब ऑनलाइन बाधा की वजह से जनपद भर में मनरेगा मजदूर, मनरेगा मेठ, रोजगार सेवक, पंचायत मित्र, ग्राम प्रधान समेत सभी जिम्मेदार अधिकारी परेशान हैं।

ग्रामीण आर्थिक विश्लेषकों का मत है कि मनरेगा में काम करने की जटिलता से मजदूर कतराने लगेंगे, विकल्प के रूप में वो काम की तलाश में महानगरों की ओर पलायन कर सकते हैं। 

उत्सव मनाना बुरी बात नहीं है बशर्ते की चेतना सजग रहे। देश में आजादी के अमृत महोत्सव की धूम मची है। कोई नगाड़ा बजाकर जश्न की नुमाइश कर रहा है, तो वहीं कुछ अपने तरीके से सेलिब्रेशन में मस्त हैं। अमूल्य आजादी की 75वीं सालगिरह के बाद भी यहीं कहीं अमृत काल में बड़े वर्ग को रोटी, छत और कपड़े के लिए रोजाना जी तोड़ मेहनत करनी पड़ रही है। मनरेगा में एक दिन का वेतन महज 213 रुपये है, जबकि आम दैनिक मजदूर हर दिन 400 से 450 रुपये दिहाड़ी कमाता है।

दशक पर दशक एक के बाद एक गुजरते जा रहे हैं। सभी सरकारें गरीबों, मजदूरों और पसमांदा समेत हाशिये पर पड़े लोगों को आगे बढ़ाने का दंभ भरती आ रही हैं। बावजूद इसके हाशिये पर पड़े लाखों मजदूर आज भी एक अदद छत, दोनों वक्त परिवार का पेट भरने योग्य रोटी की व्यवस्था, रोजगार और सम्मान के साथ जीने की महत्वपूर्ण कसौटियों को लेकर संघर्ष कर रहे हैं। इनके चहुंमुखी विकास में सरकारी योजनाएं और नीतियां कहां मुंह की खा रही हैं यह शोध का विषय है?

मनरेगा मजदूर नीला देवी का घर

आश्चर्य तो तब होता है, जब मनरेगा में 20 या इससे ज्यादा सालों से मजदूरी कर रहे मजदूरों को अब तक पक्की छत तक नसीब नहीं हुई। ऐसे कई मजदूर हैं, जिनकी मजदूरी करते-करते अब कमर झुकने लगी है। कइयों को तो बीमारी भी लग चुकी है। वो दवा आदि खाकर मौत की बाट जोह रहे हैं।

अमृतकाल के इस दौर में मनरेगा की हाजिरी अब मोबाइल एप से ली जा रही है\लेने की तैयारी अंतिम चरण में है। इससे अनपढ़ और अकुशल मजदूर परेशान हो उठे हैं। मजदूरों का कहना है कि यह यानी मोबाइल एप भ्रष्टाचार रोकने का एक प्रयास हो सकता है, लेकिन यह हमारे लिए फंदा है।

मानिकपुर सानी की दलित बस्ती में सबसे अधिक मनरेगा मजदूर हैं। बस्ती गांव के दक्षिण में कर्मनाशा के तट पर है। इस बस्ती में ज्यादातर लोग अनपढ़ और मोटा काम यानी जी-तोड़ परिश्रम का काम करते हैं। वहीं नई पीढ़ी में कुछ गिनती के लड़के और लड़कियों ने आठ या कक्षा दस तक आधी-अधूरी पढ़ाई कर परिस्थितियों के आगे हथियार डाल चुके हैं। बस्ती के थोड़े होशियार युवक रोजगार और पैसा कमाने के लिए मुंबई, सूरत, दिल्ली, गुजरात, हैदराबाद, गुरुग्राम समते अन्य राज्यों व महानगरों में गए हैं।

बाकी लोग गांव में हो रहे भवन निर्माण, खेती में फसलों की कटाई-बुनाई और ईंट भट्ठों पर दिहाड़ी मजदूरी करते हैं। इसके बाद जो लोग बचे हैं और अगर उनके हाथ-पैर चल रहे हैं, तो वो मनरेगा में श्रमिक हैं। इस बस्ती में हैंडपंप लगा है। जिससे इन दिनों गंदा पानी आ रहा है। लिहाजा, चिलचिलाती गर्मी का दौर अभी शुरू ही हुआ है कि पेयजल की समस्या खड़ी हो गई है।

बस्ती में गिनती के पक्के मकान जरूर दिखे, लेकिन अधिकांश दलित लोगों के सिर पर पक्की छत नहीं है। इन भूमिहीन मजदूरों को रोजाना परिवार के लिए दाल, रोटी, दवाई और रोजमर्रा के खर्च के लिए मनरेगा या दिहाड़ी में मजदूरी करनी पड़ती है। यानी इन लोगों को रोज कुआं खोदना है और रोज पानी पीना है।

मोबाइल की माथापच्ची से मजदूर परेशान

17 मार्च, दिन शुक्रवार दोपहर के वक्त बस्ती के महिला-पुरुष मनरेगा मजदूरों की टोली, सिर पर टोकरी लेकर घर खाना खाने आ रहे हैं। इसमें भूमिहीन गुलाब राम भी शामिल हैं। 42 वर्षीय गुलाब ने ‘जनचौक’ को बताया कि “मनरेगा का पारिश्रमिक (मजदूरी) अन्य दिहाड़ी के पारिश्रमिक से बहुत कम है। मनरेगा का भुगतान 30 से 40 दिन पर होता है। तब तक मैं अपने परिवार को भूखा तो नहीं रख सकता ना”।

काम से जलपान के लिए लौटते मनरेगा मजदूर

उन्होंने कहा कि “दाल, रोटी, दवा और फीस आदि के लिए साहूकारों से कर्ज लेना पड़ता है। मनरेगा ही एक सहारा है पहले ये सही था, लेकिन अब एक दिन में तीन बार मोबाइल एप के जरिए मनरेगा काम की लोकेशन और मजदूरों की फील्ड पर काम करते हुए तस्वीर भेजनी होती है। अधिकांश मजदूर अनपढ़ हैं, जो लिखा-पढ़ी से कतराते रहते हैं”।

गुलाब राम कहते हैं कि “फावड़ा चलाने वाले हाथ और टोकरी ढोने वाले सिर को मोबाइल की माथापच्ची में उलझाना ठीक नहीं है। जल्द ही स्थितियां मजदूरों के लिहाज से सहज नहीं हुईं तो कई मजदूर मनरेगा से दूरी बनाने लगेंगे। मैं भी सूरत चला जाऊंगा”

मनरेगा ही सहारा

गुलाब राम आगे कहते हैं कि “सरकार को मनरेगा की मजदूरी और सुविधाएं बढ़ानी चाहिए थीं, लेकिन हुआ ठीक इसके उलट। ऑनलाइन मोबाइल एप मनरेगा योजना को मारने का षडयंत्र जान पड़ता है। मैं यह भी कहना चाहूंगा कि 213 रुपये से कुछ नहीं हो पाता है। कर्ज और लोगों से पैसे लेकर बच्चों को पढ़ा-लिखा रहा हूं।

पति-पत्नी दोनों की कमाई से किसी तहर दो वक्त की रोटी का इंतजाम हो पाता है। घास-फूस के छप्पर में रहते हैं, जो बारिश में टपकती है और गमी में उसमें आग लगने का डर चौबीस घंटे बना रहता है। मनरेगा में मजदूरी के अलावा हम लोगों को कोई सुविधा नहीं मिल रही है”।

अपने घर के बाहर मनरेगा मजदूर गुलाब

जुलाई और अगस्त 2021 की डेल्टा रिपोर्ट (नीति आयोग द्वारा जारी डेल्टा रिपोर्ट, जिसमें देशभर के अति पिछड़े जनपदों का ब्योरा छापा जाता है) में उत्तर प्रदेश से शामिल आठ जिलों में से सात जिलों ने टाप 10 में स्थान बनाया है। जिसमें सिद्धार्थनगर, बहराइच, सोनभद्र, श्रावस्ती, फतेहपुर, चित्रकूट और चंदौली जिला शामिल है। चंदौली जनपद में कुल नौ विकासखंड और 1651 गांव हैं।

मानिकपुर सानी, बरहनी विकास खंड का अति पिछड़ा गांव है, जो कर्मनाशा नदी के पश्चिमी तट पर स्थित है। गांव की जनसंख्या 1800 से अधिक है। इसमें से 390 महिला और पुरुष मनरेगा के श्रमिक हैं। गांव में रोजगार के विकल्प नहीं होने की वजह से बड़ी संख्या में लोग पलायन को मजबूर हैं।

दूसरी ओर आमदनी के अन्य साधन नहीं होने से जरूरतमंद लोग मनरेगा में 213 रुपये प्रतिदिन की मजदूरी पर ग्रामसभा का काम करते हैं। मानिकपुर सानी में सबसे अधिक दलित (चमार), मल्लाह, बिन्द, ठाकुर, ब्राह्मण और कोइरी जाति के लोग मनरेगा में मजदूर हैं। इनमें से दलित और मल्लाह समाज की स्थित दयनीय है और हाशिए पर पड़े हैं।

सुविधाजनक हो तकनीक

चकिया विकास खंड क्षेत्र की रोजगार सेविका (जीआरएस) सीता देवी ने बताया कि “बेशक मोबाइल एप से भ्रष्टाचार और फर्जी मजदूरों की हाजिरी पर रोक लगेगी। लेकिन मोबाइल एप के जरिये मजदूरों की हाजिरी भरना टेढ़ी खीर है”।

वो बताती हैं कि “अगर 10 मजदूर 10 दिन मनरेगा में काम करते हैं तो हर दिन मोबाइल एप से हाजिरी, फील्ड लोकेशन व अन्य जरूरी सूचनाओं को फीड करना होता है, इसके बाद 11वें दिन मास्टर रोल व ऑनलाइन हाजिर की जानकारी सर्वर पर अपलोड करनी होती है। यहां अपलोडिंग कई बार असफल हो जाती है”।

सीता देवी बताती हैं कि “अभी पिछले ही दिनों दो मजदूरों का बैंक खाता आधार से लिंक नहीं होने की वजह से उनकी तीन दिन की हाजिरी सर्वर पर अपलोड नहीं हो पाई थी। इन बेचारों का काम करने के बाद भी तीन-चार दिन की हाजिरी सर्वर में शो नहीं हो रही थी। इतना ही नहीं बार-बार सर्वर फेल हो जाने की वजह से मुझे भी कई-कई घंटे परेशान होना पड़ता है।”

अपने घर के बाहर मनरेगा मजदूर

जीआरएस सीता आगे कहती हैं कि “सुबह छह बजे से सुबह ग्यारह बजे के बीच उपस्थिति व कार्यस्थल की फोटो मजदूरों की संख्या के साथ अपलोड करनी होती है। ऐसे में कई बार सुबह की ही हाजिरी सर्वर के फेल होने से लटक जा रही है। सर्वर के इंतज़ार में दोपहर का वक्त भी हो जाता है। इस तकनीकि खामी के चलते मजदूरों द्वारा काम करने के बाद भी मजदूरी भुगतान अधर में लटक जाता है।

फील्ड में काम के दौरान कई मजदूर कहते हैं कि ऐसे ही चलता रहा तो वे मुबंई, दिल्ली, हैदराबाद या लुधियाना काम की तलाश में जा सकते हैं। बहरहाल, यह तकनीक कार्य व्यवहार के लिहाज से स्मार्ट और सुविधाजनक होना चाहिए। साथ ही लोगों को मोबाइल इंटरनेट नेटवर्क का भत्ता भी दिया जाना चाहिए”।

मनरेगा के बजट में भारी कटौती

भारत में साल 2006-07 में योजना के शुरू होने के बाद साल 2020-21 में मनरेगा के तहत काम करने वाले मजदूरों का आंकड़ा 11 करोड़ पार कर गया था। यानी 2020-21 में ऐसा पहला मौका आया जब मनरेगा मजदूरों की संख्या इतनी ज्यादा बढ़ी। वहीं साल 2019-20 में लगभग 7.88 करोड़ मजदूरों ने मनरेगा के तहत काम किया। मतलब साल 2020-21 में साल 2019-20 के मुकाबले लगभग 41.75 फीसदी ज्यादा मजदूरों ने काम किया।

वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण की ओर से पेश किए गए 2023 के बजट में मनरेगा आवंटन में 25% की कटौती देखी गई। साल के अंत में, ग्रामीण विकास मंत्रालय ने मनरेगा योजना में आई कमी को दूर करने के लिए अतिरिक्त 25,000 करोड़ रुपये की मांग की थी। वित्त मंत्रालय ने केवल 16,000 करोड़ रुपये को मंजूरी दी, जिससे इस वित्तीय वर्ष के लिए संशोधित बजट 89,000 करोड़ रुपये हो गया।

अभी नहीं मिली पुरानी मजदूरी

43 वर्षीय मुरली मल्लाह द्वारा मनरेगा में काम करने के बाद भी एक-डेढ महीने की मजदूरी का भुगतान अभी तक नहीं हो सका है। मुरली बताते हैं “मैं अकुशल श्रमिक हूं, मनरेगा में सौ दिन के काम की गारंटी है। यही गांव में मनरेगा के तहत काम करता हूं। मेरा लगभग सौ दिन का काम पूरा हो चला है लेकिन अभी तक मेरी 4-5 हजार रुपये की मजदूरी नहीं मिल सकी है”।

मुरली कहते हैं कि “ज्यादातर समय मेरी तबियत भी ठीक नहीं रहती है। बुखार और खांसी के साथ गरीबी की पीड़ा व बोझ से आत्मा भी दबी है। अब लोग बता रहे हैं कि ऑनलाइन हाजिरी लगेगी। बताइये मैं निपढ़ हूं। हम लोग काम करेंगे या दिनभर दौड़-दौड़ कर हाजिरी लगवाएंगे और फोटो खिचवाएंगे।”

मनरेगा मजदूर मदनमुरली मल्लाह

मुरली मल्लाह कहते हैं कि “आर्थिक तंगी की वजह से बच्चों की पढ़ाई छूट गई है। बिटिया के शादी की चिंता भी सब तो सताने लगी है। घर-मकान का तो मत पूछिए, छप्पर के नीचे किसी तरह से गुजरा हो रहा है। मेरी ही तरह दर्जनों मजदूरों की मजदूरी फंसी हुई है।”

बदतर हैं मनरेगा योजना में दी जाने वाली सुविधाएं

अखिल भारतीय किसान महासभा के चंदौली जिला अध्यक्ष श्रवण कुशवाहा कहते हैं कि “सरकार को मजदूर और किसानों से कोई लेना-देना नहीं रह गया है। जमीनी स्तर पर मजदूर गरीबी, कर्ज, बीमारी और अन्य समस्याओं के भंवर में फंसे हुए हैं। ऐसे में मनरेगा के बजट में भारी-भरकम कटौती के बाद अगर राज्य सरकारों को केंद्र सरकार की तरफ से मनरेगा योजना के लिए धन नहीं मिलेगा तो राज्यों में मनरेगा मजदूरों का काम बाधित होगा।

उन्होंने कहा कि कई बार यह भी देखने को मिलता है कि केन्द्र सरकार ने राज्य सरकारों को अपनी तरफ से दी जाने वाली राशि नहीं पहुंचाई है। इस राशि को मदर मजूंरी भी कहा जाता है। मदर मंजूरी ना मिलने से पीक सीजन में मजदूरों के काम पर उल्टा असर पड़ता है।

सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद भी देर से मजदूरी भुगतान

श्रवण कुशवाहा आगे कहते हैं कि “इतना ही नहीं सुप्रीम कोर्ट के आदेश और केंद्रीय वित्त मंत्रालय की पहल और जीओ ( एक तरह का सरकारी आदेश) के बावजूद एमआईएस में अभी तक मजदूरों की मजदूरी के पैसे समय से देने को लेकर कोई प्रावधान नहीं बनाया है। अब भी मनरेगा मजदूरों के भुगतान में काफी देरी की जाती है। इससे मजदूर परिवारों के जीवन पर बहुत बुरा असर पड़ता है”।

श्रवण कहते हैं कि “अब मोबाइल से हाजिरी लेने की कवायद से मालूम पड़ता है कि सरकार मनरेगा योजना को कॉफिन में लिटाकर कील ठोंक रही है। बहरहाल, इन सब बातों से ये साफ होता है कि मनरेगा योजना की कमर पहले से ही टूटी हुई है। अब जब सरकार ने बजट में कटौती कर दी है और अनपढ़-अकुशल मजदूरों की हाजिरी मोबाइल एप से शुरू की है तो इससे मजदूरों की परेशानियां बढ़ेंगी।”

सभा में बोलते किसान मजदूर नेता श्रवण कुशवाहा

मनरेगा मेठ 43 वर्षीय उमरावती देवी और मानिकपुर सानी ने बताया कि “मनरेगा में भ्रष्टाचार और फर्जी हाजिरी को मोबाइल एप से कंट्रोल किया जा सकता है। लेकिन, मोबाइल एप के आने के बाद 40-45 की उम्र से अधिक के ही मजदूर साइट पर काम करने पहुंच रहे हैं। इनको भी कई बार बुलाना पड़ता है, ताकि हाजिरी छूट न जाए।

वहीं, जो नए उम्र में मजदूर हैं, वे अब मनरेगा में आने से कतराने लगे हैं। ये मजदूर दिहाड़ी पर गांव या पड़ोस के गांव में भवन निर्माण, फसल कटाई, मिट्टी पटाई आदि कार्य दिहाड़ी के रूप में करते हैं। इससे इनको एक दिन का नकद भुगतान 350 से 400 रुपये के बीच मिल जाता है जबकि मनरेगा में 213 रुपये से कम मजदूरी मिलती है”।

उमरावती आगे कहती हैं कि “मान लीजिये मोबाइल एप के माध्यम से मनरेगा मजदूरों की हाजिरी ली जा रही है। 14 दिन 10 श्रमिक काम किये। इनका मास्टर रोल तैयार कर लिया गया और एकत्रित डेटा 11वें दिन मनरेगा के पोर्टल पर अपलोड किया गया, जो सर्वर के नहीं चलने से अपलोड नहीं हो पाया, तो श्रमिकों, मित्र, मेठ और प्रधानों की भी दिक्कत बढ़ जाती है।

दूसरी बाधा यह है कि ऑनलाइन मोबाइल एप से दो हफ़्तों का डाटा सर्वर पर अपलोड करने पर, यदि किसी एक मजदूर का बैंक खाता आधार से लिंक नहीं हुआ तो सभी मजदूरों की हाजिरी सस्पेंड हो जाएगी। बेशक, मोबाइल एप से पारदर्शिता तो बढ़ेगी, लेकिन फिलहाल सर्वर के सही तरीके से नहीं चलने और मजदूरों में जागरूकता की कमी होने से दिक्कतें बहुत बढ़ जाती हैं।”

अंगूठा नहीं लगा तो समझिये मजदूरी गई

बरहनी विकास खंड क्षेत्र में बीस से अधिक सालों से मनरेगा में मजदूरी करते आ रहे 58 वर्षीय अमेरिका को भी ऑनलाइन हाजिरी से दिक्कत है। वे कहते हैं कि “सर्वर डाउन होने की वजह से अंगूठा नहीं लिया गया तो उस दिन की मजदूरी गई ही समझिये। उस मजदूरी को बचाने के लिए ग्राम प्रधान और बीडीओ की दौड़ लगानी पड़ेगी। फिर भी मजदूरी के पैसे मिलेंगे या नहीं इसकी कोई गारंटी नहीं है।

इन दिनों बढ़ी कमरतोड़ महंगाई से श्रमिकों की हालत पस्त है। हम लोगों को हर चीज खरीदकर ही खाना पड़ता है। गेहूं, तेल, दाल, चावल, नमक और दवाई खरीदने के साथ बच्चों की पढ़ाई, कपड़े और अन्य जरूरी खर्चों को चलाने का एक ही स्रोत है- मनरेगा की मजदूरी। आप बस्ती के लोगों को देख रहे हैं। देख लीजिए कि मैं कैसे अपना परिवार चलाता हूं?”

मनरेगा मजदूर रामकेसी के साथ अमेरिका

अमेरिका आगे कहते हैं कि “बसपा की सरकार में मजदूरों की स्थिति ठीक थी, लेकिन इसके बाद साल दर साल मजदूरों की स्थिति बिगड़ती ही जा रही है। जिस पर किसी का भी ध्यान नहीं है। बीजेपी व राजग की सरकार ने मनरेगा के बजट में 25 फीसदी की कटौती कर दी है। यह सीधे तौर पर मजदूरों के पेट पर लात मारी गई गई है।

इस बात को खाए-अघाए लोग शायद ही समझ पाएं। होना तो यह चाहिए था कि सरकार मनरेगा का बजट बढ़ाने के साथ मजदूरों के लिए अन्य सहूलियत व सुविधापरक योजनाओं की घोषणा करती है। लेकिन, इन दिनों ऑनलाइन हाजिरी की वजह से मानसिक संत्रास से गुजर रहे हैं।”

रोजगार के दायरे को सीमित करेगा सरकार का फैसला

नरेगा संघर्ष मोर्चा के सदस्य देबमाल्य नंदी ने कहा कि सरकार की तरफ से जिस तरह मनरेगा में कम पैसे आंवटित किए गए हैं, उससे ये साफ होता है कि यह रोजगार के दायरे को सीमित करेगा। नतीजतन आने वाले साल में मजदूरों के भूगतान में भी देरी होगी।

पीपुल्स एक्शन फॉर एम्प्लॉयमेंट गारंटी और नरेगा संघर्ष मोर्चा के तहत काम करने वाले कार्यकर्ताओं और शिक्षाविदों के एक संघ का कहना है कि चालू वर्ष में इस योजना के लिए 2.72 लाख करोड़ रुपये के आवंटन की करने की जरूरत है। 

पीपुल्स एक्शन फॉर एम्प्लॉयमेंट गारंटी में काम करने वाले कर्मचारियों का ये भी कहना है कि मनरेगा से जुड़े सभी परिवारों को 40 दिन के काम का पैसा देने के लिए 1.24 लाख करोड़ रुपये की जरूरत होगी। जो हालिया आंवटिंत किए गए रकम से दोगुने से भी ज्यादा है।

नरेगा संघर्ष मोर्चा के तहत काम करने वाले कार्यकर्ताओं ने कहा कि इस तरह के कम आवंटन का मकसद मनरेगा योजना को पूरी तरह से खत्म करने जैसा मालूम होता है। मजदूर किसान शक्ति संगठन के संस्थापक निखिल डे का कहना है कि यह आवंटन न्यूनतम सीमा को भी पूरा नहीं करता है।

मनरेगा मजदूरों के बच्चे भी मजदूर

मानिकपुर सानी के 60 वर्षीय रामकेसी भूमिहीन और अनपढ़ हैं। इनके परिवार के भरण-पोषण का सहारा मजदूरी ही है। वे कहते हैं कि “ग्रामसभा द्वारा पति-पत्नी को मिलाकर सौ दिन का काम जरूर मिलता है, लेकिन वर्तमान की महंगाई के चलते बहुत कष्ट में गुजारा करना पड़ता है। दिहाड़ी करने पर रोज 300 से 350 रुपये मिलता है, जबकि मनरेगा में एक दिन की मजदूरी सिर्फ 213 रुपए ही मिलती है।”

मनरेगा मजदूर रामकेसी

वो कहते हैं कि “मनरेगा की मजदूरी का भुगतान भी समय से नहीं होता है। काम करने के बाद भी महीने-डेढ़ महीने इंतजार करना पड़ता है। हम लोगों को श्रम विभाग का भी लाभ नहीं मिलता। बहुत सारे मनरेगा के मजदूरों को स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं हैं। इसमें इलाज और देखभाल की कोई व्यवस्था नहीं है। मिलने वाली मजदूरी से परिवार का दाल-रोटी चलाने के बाद यदि रुपये बचेंगे तभी दवाई-जांच के बारे में विचार करेंगे। यहां तो पेट ही नहीं भरता है। ऊपर से मोबाइल हाजिरी का झंझट।”

गरीबी, मजदूरों का नहीं छोड़ रही पीछा

रामकेसी कहते हैं कि “मैं दो दशक से मनरेगा और दिहाड़ी मजदूरी कर रहा हूं। जैसे-तैसे परिवार के उदर-पोषण के बाद बच्चे को दसवीं-12वीं तक ही पढ़ा सका। लड़के के आगे पढ़ने की रुचि होने के बाद भी गरीबी के चलते पढ़ाई छूट गई। अपने पढ़े-लिखे लड़के को रोजी-रोजगार के लिए भटकते देखकर बहुत दुःख होता है। यह सिर्फ मेरे बेटे के साथ नहीं हुआ, बस्ती के 25-30 युवक गरीबी के चलते बीच में ही पढ़ाई छोड़कर कोई महानगरों में तो कई गांव में दिहाड़ी करते हैं।”

ऐसी ही समस्या से बस्ती के मोतीराम, त्रिलोकी राम, गोपाल, बबिता, अमरावती, विनय, रामलखन, राजेश, लक्ष्मीना, मदन मल्लाह, श्यामलाल, बहादुर, नन्हकू, असगर, रामायन और रामगहन त्रस्त हैं।

सौ दिन रोजगार का दावा भी फिसड्डी

रिपोर्ट से पता चलता है कि मनरेगा योजाना कभी भी ग्रामीण परिवारों को 100 दिन का रोजगार देने के करीब नहीं पहुंच पायी। वर्ष 2016-17 से वर्ष 2019-20 के केंद्रीय ग्रामीण मंत्रालय के अध्ययन से पता चलता है कि इस अवधि में औसतन 7.81 करोड़ सक्रिय जॉब कार्डधारी परिवारों में से केवल 40.7 लाख (5.2 प्रतिशत) को 100 दिन का रोजगार मिला।

बिहार में 54.12 लाख सक्रिय जाॅबकार्ड में से केवल 20 हज़ार (0.3 प्रतिशत), उत्तर प्रदेश में 85.72 लाख सक्रिय जाॅबकार्ड्स में से औसतन 70 हजार (0.8 प्रतिशत), मध्यप्रदेश में 52.58 लाख सक्रिय जाॅबकार्ड धारियों में से केवल 1.1 लाख (2.1 प्रतिशत), छत्तीसगढ़ में 33.41 लाख जाॅबकार्ड धारी परिवारों में से 2.9 लाख (8.8 प्रतिशत), कर्नाटक में 33.39 लाख सक्रिय जाॅबकार्ड धारियों में से 1.6 लाख (4.7 प्रतिशत), पश्चिम बंगाल में 83.48 लाख कार्ड धारियों में से 6.1 लाख (7.4 प्रतिशत) और राजस्थान में 69.88 लाख जाॅबकार्ड धारियों में से 5.2 लाख (7.5 प्रतिशत) परिवारों ने ही यह लक्ष्य हासिल किया।

मनरेगा मजदूर मोती राम

मजदूरों का मानना है कि अब ऑनलाइन ऐप की तकनीकी जटिलता श्रमिकों को मनरेगा से दूर करने की एक बड़ी वजह बन सकती है। मनरेगा में हर पंचायत की वार्षिक और पंचवर्षीय कार्ययोजना बनाने का प्रावधान है, लेकिन क्रियान्वयन में सही ढंग से नियोजन न होना, एक बड़ी चुनौती रही है।

समस्या छिपाएं नहीं बताएं अधिकारी

उत्तर प्रदेश के मनरेगा आयुक्त अमित श्रीवास्तव ने “जनचौक” को बताया कि विकासखंड स्तर पर मनरेगा से जुड़े लोगों, कर्मचारियों और अधिकारियों का ग्रुप बना हुआ है। कई स्थानों से मोबाइल एप से हाजिरी, लोकेशन, डाटा अपलोड आदि को सर्वर पर अपलोड करने में समस्या आ रही है।”

उन्होंने कहा कि “ऐसी शिकायतें ग्राम प्रधान, नागरिकों, मजदूरों, मनरेगा मेठ और ब्लॉक स्तर के अधिकारियों द्वारा मिलती रहती है। इसके लिए अधिकारियों को निर्देश दिए गए हैं कि वे मनरेगा योजना में किसी भी तरह की समस्या या व्यवधान होने पर अपने वरिष्ठ अधिकारी को फ़ौरन सूचित करें ताकि, निराकरण तत्काल किया जा सके।”   

(चंदौली से पवन कुमार मौर्य की ग्राउंड रिपोर्ट। ) 

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