सोनभद्र/चंदौली। मॉनसून में बरसात की कमी के बावजूद गर्मियों में तपने वाले पहाड़ अब ठंडे पड़ चुके हैं। वनों की वनस्पतियां हरी-भरी हो गयी हैं। घने जंगलों से गुजरे रास्ते, पहाड़ और जहां तक नजर जाए नैसर्गिक सौंदर्य की अनोखी छटा लुटाती प्रकृति। जिसे जो भी अपनी आंखों से देखे तो अपलक देखता ही रहे। लेकिन इस सौंदर्य के बीच यहां पीढ़ियों से रहने वाले आदिवासी और अनुसूचित जाति समाज के लोग कई तकलीफों से घिरे हैं।
जैसे-जैसे दिन गुजरते जा रहे हैं, इनकी मुश्किलें भी बढ़ती जा रही हैं। विंध्याचल पर्वत श्रेणी में बसे चकिया, नौगढ़ और मझगाई 2541 वर्ग किलोमीटर में विस्तारित है। चंदौली ज़िले में अनुसूचित वर्ग की आबादी 22.88 फ़ीसदी और जन-जाति की 2.14 फ़ीसदी है।
चंदौली और सोनभद्र के जंगलों में आदिवासियों की आठ जातियां रहती हैं; जिनमें कोल, खरवार, भुइया, गोंड, ओरांव या धांगर, पनिका, धरकार, घसिया और बैगा हैं। साथी अनुसूचित जाति भी छिटपुट बसी हुई है। साल 2011 की जनगणना के अनुसार चंदौली ज़िले की 80 फीसदी से अधिक आबादी गांवों में निवास करती है। जीवन-यापन के लिए प्राथमिक क्षेत्र के काम-धंधे यथा-खेतीबाड़ी, पशुपालन, मजदूरी और महानगरों में पलायन ही एकमात्र विकल्प है।
अब भी बारिश का इंतज़ार
‘जनचौक’ की टीम मन को मोह लेने वाले जंगल, ऊंचे पहाड़ और तीव्र ढ़लानों से होते हुए शुक्रवार को चंदौली जनपद के नौगढ़ विकासखंड के आदिवासी बाहुल्य गांवों में पहुंची। उत्तर प्रदेश के चन्द्रप्रभा वन्य जीव अभ्यारण से सटा हुआ गांव जमसोती। जमसोती गांव के नागरिकों के पास इन दिनों कोई काम नहीं है। गांव के दर्जनों युवा, बुजुर्ग और अधेड़ एक पीपल के पेड़ के नीचे बैठकर आपस में किसी बात पर जिरह में जुटे हैं।
गांव के सभी खेत अगस्त के पहले हफ्ते के आखिरी तक परती पड़े हैं। खेतों के कोने में डाली गई धान की नर्सरी में घास की भरमार है। अब वो सूखने भी लगी है। ऐसा लग रहा कि कई किसान इनकी देखरेख पर समय जाया करना नहीं चाह रहे हैं। आबादी के किनारे आदिवासी समाज की एक-दो महिलाएं अपने घरों के सामने खाली स्थानों में शाक-सब्जी उगाई हैं। शेष सभी किसानों को अब भी बारिश का इंतज़ार है।
चुनौती और भ्रष्टाचार से जूझते आदिवासी
साल 2022 में भी खरीफ के सीजन में खेत परती रह जाने से इस वर्ष किसी भी कीमत पर धान की रोपाई की बात करने वाले आदिवासी हालात और परिस्थितियों के आगे लाचार हैं। किसी तरह से हैंडपंप से पानी निकल रहा है। आसपास के तालाब और बंधी सूखे हैं। जिनमें अब तक इतना पानी भी नहीं जुट पाया है, जिससे किसान डीजल पंप लगाकर अपने खेतों में धान की रोपाई कर सकें।
खेत के खेत परती पड़े हैं। महिलाएं-बच्चों के चेहरे उदास हैं। लगातार फसलें नहीं होने से मवेशियों के लिए चारे की दिक्कत अभी से होने लगी है। कुछ वर्षों पहले तक पहाड़ी और जंगलों से घिरे जमसोती ने विकास की सीढ़ियां चढ़ना शुरू ही किया था कि सुखाड़, गर्मी, पेयजल की किल्लत, संक्रामक रोग, चिकित्सा और अस्पताल से दूरी, जंगली जीवों का खतरा और भ्रष्टाचार से रिसती योजनाओं ने इन्हें कहीं का नहीं छोड़ा है।
‘आदिवासियों की तकलीफ किसी को नहीं दिखती’
जमसोती के राम कोल चौतरफा मुसीबतों में घिरे हैं। पिछले बरस मॉनसून के धोखा देने से अन्य ग्रामीणों के साथ इनके भी खेत परती रह गए थे। 14 सदस्यीय परिवार के भरण-पोषण के लिए अनाज की व्यवस्था और मवेशियों के चारे-भूसे के संकट से इनकी रातों की नींद और दिन का चैन कहीं खो गया है। पचास वर्षीय रामकोल “जनचौक” से कहते हैं कि “एक सीजन या एक साल की बात होती तो गुजारा किसी तरह से चल जाता, लेकिन यहां तो दिनों दिन स्थिति बिगड़ती ही जा रही है।”
वो कहते हैं कि “पिछले साल मेरे ढाई बीघे का समूचा रकबा पानी नहीं होने से परती रहा गया। सीजन की खेती छूट जाने से धान की नर्सरी को गांव के मवेशी को चरने के लिए छोड़ दिया था। फिर रबी में किसी तरह से उधार-कर्ज लेकर हजारों रुपये का डीजल फूंकने के बाद फरवरी के शुरुआत में बंधी में पानी सूखने और बोर से पानी नहीं निकलने से गेहूं की पैदावार गिर गई। गनीमत रही कि मवेशियों के लिए भूसे की व्यवस्था हो गई। मैं यहां कई पीढ़ियों से रहता आ रहा हूं। लेकिन ऐसी स्थिति हम लोग पहले कभी नहीं देखी थी। वोट लेने के लिए सभी आते हैं, लेकिन हमारी तकलीफों में कोई नहीं दिखता है।”
पलायन से पलता है परिवार
आदिवासी राम आगे कहते हैं कि “मेरा एक बेटा कपिलदेव गुजरात में मजदूरी करता है। वह अपने खर्च को काटकर दो-तीन हजार रुपये घर भेजता है। इसी से घर की अन्य जरूरतों को पूरा करता हूं। मौसम के दगा देने से खेती रूठ गई है। पानी नहीं है। रोपनी नहीं हो रही है। मेरे पास भी कोई काम नहीं है। मनरेगा और वन विभाग का गड्ढा खोदने का काम भी बंद है। इन दिनों बेकार और बेरोजगारी में दिन काटना बहुत मुश्किल हो रहा है।” कुल मिलाकर रामजी कोल का बारह विस्वा, गुपुत कोल का 11 विस्वा, कल्लू कोल का 20 विस्वा खेत पानी बिन परती है।
आधुनिक नलकूप की मांग
चंदौली जनपद में रहने वाले आदिवासियों के पास छोटे-छोटे जोत हैं। अधिकांश आदिवासी किसान की जोत एक बीघे से कम है। नौगढ़ विकासखंड के 15 विस्वा के काश्तकार शैलेन्द्र कोल के खेत भी परती हैं। उन्हें कुछ सूझ ही नहीं रहा है कि खेती के अभाव में पांच सदस्यीय परिवार कैसे आगे बढ़ेगा? इन दिनों मजदूरी भी नहीं मिल रही है। मौसम सही नहीं होने से स्वास्थ्य पर खर्च बढ़ गया है।
वो कहते हैं कि “हम लोग साल दर साल पानी की कमी से घिरते जा रहे हैं। यदि सरकार बंधी के पास एक बडी क्षमता के आधुनिक नलकूप की व्यवस्था कर देती तो गांव में पानी-सिंचाई की आजादी रहती, लेकिन इस ओर किसी का ध्यान नहीं है। बताइये हम लोग कब तक खेत नहीं रोपेंगे? कब तक ऐसे ही चलेगा? ग्राम प्रधान ने अपने स्तर से सिंचाई पंप के लिए बोर कराया था, लेकिन हजारों खर्च होने के बाद वह बोर भी फेल हो गया।”
संकट में लाइफ लाइन
नौगढ़ बांध के पास बसे औरवाटाड़ गांव के राजनारायण खरवार का दो बीघा खेत परती है। बांध के पास होने के बाद भी सिंचाई की समस्या बनी हुई है। खरवार बताते हैं कि “हलकी सी बारिश में भी खेती संभल जाती यदि बांध में थोड़ा-बहुत पानी होता है। बांध हम लोगों के गांव व फसलों के लिए लाइफ लाइन है। दो सालों से लाइफलाइन भी संकट में है। पर्याप्त पानी नहीं होने से डीजल पंप से पानी निकालना संभव नहीं हो पा रहा है।”
वो कहते हैं कि “खेती नहीं होने से अनाज के साथ मवेशियों को चारे की दिक्कत है। कोटे से राशन मिलता है, लेकिन अपने खेत के अनाज को बेचकर हम लोग बच्चों की फ़ीस, घर के खर्च, बचत, विकास के कार्य, दवा आदि का प्रबंध करते हैं, लेकिन अब कुछ भी अच्छा नहीं चल रहा है। बनवारी खरवार, जयप्रकाश और अजय राम समेत कइयों के खेतों को बारिश और पानी का इंतज़ार है।”
युवा चहरे पर उदासी
जमसोती, औरवाटाड़ की तरह गोड़टुटवा और लौवारी के खेत भी पानी बिन परती हैं। जबकि इन गांवों के खेतों का विस्तार चन्द्रप्रभा बांध के जल भराव वाले इलाके तक है। दूर तक फैले खेतों में खुले तौर पर मवेशियों की चराई हो रही है। ऊंचे और पठारी खेतों से हवा चलने पर आंधी चल रही है। गोड़टुटवा निवासी स्नातक की पढ़ाई करने वाले संदीप अपने खेत का चक्कर काट कर दोपहर में लौट रहे हैं। इस आयु में युवा के चेहरे पर चमक-उत्साह के बजाय उदासी और आंखों में निराशा नजर आ रही है।
खूबसूरती निहारने सभी आते हैं, लेकिन…
संदीप इस उदासी और निराशा का खुलासा ‘जनचौक’ से करते हुए कहते हैं कि “हम लोगों के पास खेती के अलावा कोई दूसरा रोज़गार नहीं है। चंद्रप्रभा वन्य जीव अभयारण्य चकिया और नौगढ़ में है। चंद्रप्रभा के जंगलों में यूपी के खूबसूरत झरने, राजदरी और देवदरी हैं। इन झरनों को देखने के लिए वर्ष भर पर्यटकों की भारी भीड़ जुटती है। इनमें नागरिकों के साथ मंत्री, प्रशासन और अधिकारी भी होते हैं।”
वो कहते हैं कि “इन खूबसूरत स्थानों के आस-पास आदिवासियों के कई गांव हैं। जिनमें वे पीढ़ियों से समस्यायों के बीच रहते आ रहे हैं, लेकिन कोई भी इनकी सुध लेने नहीं पहुंचता है। यह पहली बार नहीं है। दो साल से गांव के खेत परती रह जा रहे हैं। मेरी उम्र बीस साल है। अपने अनुभव में पहली बार इस तरह की परिस्थितियों को महसूस कर रहा हूं। गांव में अशोक, पारस, कवि वनवासी समेत दर्जनों लोग अब भी बारिश का इंतज़ार कर रहे हैं। हम लोगों का जीवन दिनों दिन कठिन होता जा रहा है। सरकार को सुध लेनी चाहिए।”
किसान खेती नहीं करेगा तो कैसे चलेगा?
औरवाटांड़-चिकनी निवासी अनुसूचित जाति के रामलखन राम के पास पांच विस्वा खेत सड़क से लगा हुआ है। शुक्रवार की शाम सूरज के ढलने से पहले रामलखन फावड़े से खेत को धान की रोपाई के लिए तैयार करते मिले। खेत के एक हिस्से में उनकी पत्नी भी उनका साथ दे रही थीं। वह सिर से पैर तक कीचड़ और पसीने से तर-बतर हैं। पिछली बार (2022) सूखे के चलते धान की रोपाई करने से चूक गए थे। इसी साल के रबी सीजन में फिर हाड़तोड़ मेहनत कर गेहूं बोये लेकिन पकने की बारी आते ही पानी नहीं मिलने से गेहूं की फसल मारी गई।
वह बताते हैं “मैं इस उम्मीद में बुआई कर कर रहा हूं, शायद आगे बारिश हो जाए और धान की फसल हो जाए। अपने मेहनत से उपजाए अनाज की बराबरी कोटे से मिलने वाला राशन कभी कर नहीं पाएगा। दो साल से खेती से अनाज नहीं पैदा होने से चारे की भी दिक्कत होने लगी है। हम लोग गरीब हैं। सरकार हम लोगों के लिए कुछ ऐसा रास्ता निकाले जिससे बदलते दौर में किसानों को कम दिक्कत उठाना पड़े।”
(यूपी के सोनभद्र और चंदौली जनपद के आदिवासी बेल्ट से पवन कुमार मौर्य की ग्राउंड रिपोर्ट।)