ग्राउंड रिपोर्ट: गांव-गांव दूध बेचकर दाल-रोटी चला रहे पुलवामा में शहीद जवान के माता-पिता

वाराणसी। जिस पुलवामा हमले ने पूरे देश को झकझोर कर रख दिया था और 4 साल बाद भी उस पर सियासत खत्म होने का नाम नहीं ले रही है। उस आतंकी हमले में शहीद हुए जवानों के परिवार किस हाल में हैं, इसकी चिंता न सरकारों को है और ना ही समाज को है। पुलवामा आतंकी हमले के बाद केंद्र व राज्य की सरकारों ने शहीदों के परिजनों के सम्मान करने और हर प्रकार से उनका ख्याल रखने की बात कही थी। लेकिन पुलवामा हमले में जान गंवाने वाले शहीद परिवार कई मुसीबतों से घिरे हैं। ऐसे ही एक शहीद के माता-पिता का कहना है कि अब भी कई वादे अधूरे हैं। बेटे के जाने के बाद से हमारी सेहत और आर्थिक स्थिति बिगड़ती जा रही है।

पुलवामा के आतंकी हमले में वाराणसी के तोफापुर गांव के शहीद रमेश यादव के 68 वर्षीय पिता श्यामनारायण कहते हैं कि “जब मेरे बेटे के शहीद होने की खबर आई तभी हम लोगों की दुनिया उजड़ गई। हम लोगों का हौसला, उम्मीद और उजाले का सूरज हमेशा के लिए डूब गया। इसके बाद दो-तीन दिन तक लगातार सैकड़ों नेता, मंत्री और अधिकारी आये। मेरे कानों में आज भी कई बातें गूंजती हैं कि बेटे के शहीद होने के बाद जिला प्रशासन ने क्या कहा था? लोगों ने कैसे-कैसे वादे किये थे? धीरे-धीरे समय गुजरा, बातें बातों में ही ख़त्म हो गईं।”

वो कहते हैं कि “अब मैं और मेरी साठ वर्षीय पत्नी के पास लाचारी, बीमारी, तंगहाली, सपूत खोने के गम के साथ बुढ़ापे का एक-आध दशक का अवसाद शेष है। अब हम लोगों की किसी से कोई मांग नहीं है। हमारे बेटे को कोई लौटा नहीं सकता, जो देश की खातिर मर-मिट गया। वही हम लोगों का एकलौता सहारा था। वह अगर जीवित होता तो अधिकार से हम बूढ़े मां-बाप उससे अपनी दुःख-तकलीफ और बीमारी आदि के इलाज के लिए कहते। अब किससे कहें?”

पुलवामा हमले में शहीद रमेश यादव की तस्वीर के साथ मां राजमती, पिता श्यामनारायण और भतीजा।

यह कहते हुए शहीद रमेश यादव के पिता श्यामनारायण की आंखों में नमी तैर जाती है और गला भरभरा जाता है। वे गमछे से अपने चेहरे को पोछते हुए हरे-भरे धान के खेतों को देखने लगते हैं। आंखों में शहीद का पिता होने का गर्व तो है, लेकिन इन्हीं आंखों में बोझिल बुढ़ापे की चिंता को भी आसानी से देखा जा सकता है।

‘जनचौक’ की टीम मंगलवार को शहीद रमेश के गांव तोफापुर पहुंची। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संसदीय क्षेत्र वाराणसी के चौबेपुर थाना क्षेत्र में एक गांव है तोफापुर। तोफापुर गांव बनारस के उत्तरी सीमा पर स्थित है। इस गांव से लगा हुआ हाइवे गुजरता है, जो पूर्वांचल के आधा दर्जन जनपदों को रफ़्तार देता है। लेकिन गांव की उबड़-खाबड़ सड़क ग्रामीणों के लिए मुसीबत बनी हुई है। तोफापुर गांव के 30-35 युवक-युवतियां सेना व पुलिस में भर्ती हैं। इन्हीं में से एक थे शहीद रमेश यादव।

श्यामनारायण के दो बेटे हैं। बड़े बेटे बृजेश यादव कर्नाटक में प्राइवेट नौकरी कर परिवार के भरण-पोषण में जुटे हैं। दूसरे क्रम में रमेश थे, जो कड़ी मेहनत कर सीआरपीएफ में भर्ती हुए थे। रमेश के फ़ौज में भर्ती होने के बाद पिता श्यामनारायण को लगा था कि अब आर्थिक विपन्नता से पीछा छूटेगा और रहने लायक घर बन जाएगा। बच्चों की पढ़ाई-लिखाई भी कायदे हो जाएगी। लेकिन इसी बीच एक मनहूस खबर आ गई।

तोफापुर गांव पहुंचा शहीद का पार्थिव शरीर।

14 फरवरी, 2019 को पुलवामा में हुए आतंकी हमले में 40 जवानों की मौत हो गई। शहीद होने वाले जवानों में रमेश भी शामिल थे। एक झटके में सब कुछ उजड़ गया। शहीद की पत्नी रेनू को नौकरी मिली है, जो एक बच्चे को लेकर काफी समय से मायके में रहती हैं, जो बीते दीपावली पर तीन-चार दिनों के लिए ससुराल आई थीं। बड़े भाई बृजेश की पत्नी, दो बच्चे और बूढ़े मां-बाप आधे-अधूरे बने घर में रहते हैं।

गृहस्थी की गाड़ी खींचने के लिए श्यामनारायण साइकिल से दूध बेचने का काम करते हैं। वो रोजाना घर से 10-15 किमी दूर पंचकोशी मंडी तक दूध पहुंचाने जाते हैं। रमेश की मां भी पैदल दो-तीन किमी चलकर लोगों के घरों में दूध पहुंचाती हैं। उपेक्षा से उपजी इनकी लाचारी और गरीबी शासन-प्रशासन के मुंह पर जोरदार तमाचा है।

जबकि, शहीद रमेश यादव के पार्थिव शरीर के गांव पहुंचने पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रतिनिधि के रूप में केंद्रीय मंत्री महेश शर्मा श्रद्धांजलि देने पहुंचे थे। उस समय महेश शर्मा को ग्रामीणों के गुस्से का सामना करना पड़ा था।

शहीद के पोस्टर के साथ नौजवान।

उस समय महेश शर्मा ने कहा था कि “मुझे प्रधानमंत्री जी ने अपना प्रतिनिधि बनाकर यहां भेजा है। हमारी और प्रदेश की सरकार शहीद के परिवार को आर्थिक सहायता देने के साथ-साथ उनके मान सम्मान का पूरा ख्याल रखेगी। उनके परिवार, पत्नी और बच्चे के भविष्य के लिए हमारी केंद्र और राज्य सरकार हर संभव मदद करेगी। शहीद रमेश के पिता अब हमारे पिता और उनकी पत्नी देश की बेटी हैं, इनका ख्याल रखना अब हम सब की ज़िम्मेदारी है।”

मंगलवार को श्यामनारायण दूध पहुंचाने मंडी नहीं गए। वह बताते हैं कि “पेट में दर्द बना हुआ है। घुटने और पैर में बेहताशा दर्द बना हुआ है। इस वजह से आज मंडी नहीं गया। एक्स-रे और जांच करानी है। काम से फुर्सत ही नहीं मिल पा रही है। अपने मवेशी और आसपास के किसानों से दूध लेकर साइकिल से मंडी बेचने जाता हूं। इसमें कुछ बचत नहीं होती है। दूध की बिक्री से मिले पैसे से चारा-खली और किसानों को चुकाने के बाद कुछ हाथ नहीं आता है।”

साइकिल से दूध बेचने जाते शहीद के पिता श्यामनारायण।

वो कहते हैं कि “इस उम्र में और कोई काम कर नहीं सकते। जब तक हाथ-पैर चल रहे हैं, किए जा रहे हैं। गांव की सड़क को मेरे बेटे के नाम पर बनाने और विकसित करने के लिए कहा गया था। ये सड़क अब भी बदहाल है, जिस पर किसी का ध्यान नहीं है। कहीं कोई सुनवाई नहीं हो रही है।”

रमेश की मां राजमती दुःखी मन से बताती हैं कि “बेटे के जाने के बाद बहुत लोग आये। खूब आश्वासन, भरोसा और वादे कर चले गए। लेकिन हालात वैसे के वैसे ही हैं, बल्कि पहले से और ख़राब हो गए हैं। मैं रोज दो से तीन किलोमीटर पैदल चलकर 4-5 लीटर दूध आसपास के गांव में बेचने जाती हूं। इससे जो आमदनी होती है, परिवार के भरण-पोषण और दवाई आदि खरीदती हूं।”

वो कहती हैं कि “जो हम लोगों के बुढ़ापे का मजबूत आधार था, वह तो चला गया। अब हम लोग किससे क्या कहें? घुटने में दर्द, बवासीर, कमर दर्द और कमजोरी दिनों-दिन बढ़ती ही जा रही है। रास्ता चलते चक्कर जैसा महसूस होता है। पर क्या करें? करेंगे नहीं तो खाएंगे क्या?”

दूध बेचने जातीं शहीद की मां राजमती देवी।

बहरहाल, तमाम वादों के बीच इन दिनों शहीद रमेश यादव के माता-पिता कई मुसीबतों से घिरे हैं। उन्हें न सिर्फ अपने गुजारे के लिए जी-तोड़ मेहनत करनी पड़ रही है, बल्कि ढलती उम्र कई शारीरिक परेशानियां भी दे रही है। रमेश के भतीजे और भतीजी स्कूल से लौटकर गांव की उबड़-खाबड़ पगडंडियों पर बकरियां चराते हैं।

यारों के यार थे रमेश

बचपन में रमेश को खेलने और सीआरपीएफ की ट्रेनिंग के दौरान हौसला बढ़ाने वाले गांव के ही भैयालाल ‘जनचौक’ की टीम को गांव में बने रमेश यादव शहीद स्मारक को दिखाने ले गए। वह रमेश की बातों को यादकर भावुक हो गए। वह बताते हैं कि “लंबे कद-काठी का रमेश जिद्दी और मेहनती था। जब भी वह दौड़ लगाने ग्राउंड जाता या वहां से आ रहा होता तो मुझे देखकर अपने सीने पर पड़ी बनियान को उठाकर कहता। भैया.. इस छाती पर वर्दी चढ़ाकर ही दम लूंगा। यही उसकी स्टाइल थी। कुछ ही महीने बाद वह सीआरपीएफ में भर्ती हो गया।”

भैयालाल कहते हैं कि “अपने और आसपास के गांवों के फ़ौज की तैयारी करने वाले लड़कों ने रमेश के सीआरपीएफ ज्वाइन करने की खुशी में दाल, बाटी और खीर के भोज का आयोजन कर जश्न मनाया था। वह जब भी गांव आता सुबह से लेकर शाम तक गांव के नौजवानों से घिरा रहता।”

बचपन में शहीद जवान का हौसला बढ़ाने वाले भैयालाल, रमेश की स्टाइल दिखाते हुए।

वो कहते हैं कि “छुट्टी खत्म होने के आखिरी दिनों और पुलवामा हमले के तीन-चार दिन पहले 40-50 युवक रमेश के साथ बैठकर कई विषयों पर चर्चा किये थे। जिसमें मैं भी था। हम लोगों को क्या पता था कि, ये रमेश के साथ आखिरी मुलाकात होगी।”

भैयालाल कहते हैं कि “मैं वाराणसी जिला प्रशासन, रक्षा मंत्रालय, राज्य और केंद्र की सरकार से कहना चाहूंगा कि शहीद के मां-बाप अपना इलाज करा सकें इसके लिए कम से कम स्वास्थ्य कार्ड दे दें। साथ उन्हें कुछ आर्थिक सहयोग भी करवाएं। गांव की सड़क और शहीद पार्क की मरम्मत की भी जरूरत है। यही शहीद रमेश के प्रति सच्चा सम्मान होगा।” 

जारी…

(यूपी के वाराणसी से पवन कुमार मौर्य की ग्राउंड रिपोर्ट। )

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