कांग्रेस आखिर किसकी पार्टी है! हिंदू को लगता है, कांग्रेस मुसलमानों की पार्टी है! मुसलमानों को लगता रहा है, कांग्रेस हिंदू पार्टी है! पूंजीपतियों को लगता रहा है कि कांग्रेस गरीबों की पार्टी है! गरीबों को लगता रहा है कि कांग्रेस पूंजीपतियों की पार्टी है! ब्राह्मणवादी विचार को लगता रहा है कि कांग्रेस ‘दलितों’ की पार्टी है! दलितों को लगता रहा है कि कांग्रेस तो ब्राह्मणवादियों की पार्टी है। कांग्रेस के गठन के बाद से ही यह एक बड़ा राजनीतिक सवाल लाजवाब बना हुआ है कि कांग्रेस किसकी पार्टी है।
अभी 2025 का महाकुंभ चल रहा है। महाकुंभ के आयोजन में अ-व्यवस्था से लोगों को काफी परेशानी हुई और हो रही है। महाकुंभ की बहुत सारी घटनाएं संवेदनशील चर्चा में बनी हुई है। महाकुंभ में मची भगदड़ में मरनेवालों की संख्या की घोषणा में अनावश्यक किंतु सोद्देश्य विलंब पर टिप्पणी करते हुए उत्तर प्रदेश के वर्तमान मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की आलोचना करते हुए माफी मांगने तक की बात की है।
जाहिर है कि हिंदुत्व की राजनीतिक जमात में विपरीत और असंतुलित प्रतिक्रिया हुई होगी। संतुलन की जरूरत शंकराचार्य अविमुक्तेश्वरानंद सरस्वती को भी महसूस हुई होगी। अब शंकराचार्य ने राहुल गांधी पर टिप्पणी की है, माफी की मांग की है क्योंकि राहुल गांधी ने मनुस्मृति पर संसद में विपरीत टिप्पणी की थी। यद्यपि संसद में कही गई बात पर किसी कार्रवाई की गुंजाइश तो अमूमन नहीं होती है लेकिन शंकराचार्य ने इसका संज्ञान लिया है। उन्होंने राहुल गांधी को शायद महीने भर का समय दिया है।
महत्वपूर्ण यह है कि अब दलित हितैषी राहुल गांधी से उम्मीद कर रहे हैं कि राहुल गांधी शंकराचार्य की टिप्पणी पर, शंकराचार्य और मनुस्मृति पर टकराव में आ जायें। दलित हितैषी इस संदर्भ में राहुल गांधी के मति-भ्रम के लगातार शिकार होते रहने की भी बात करते हैं।
कुल मिलाकर अधिक-से-अधिक कहा जा सकता है कि ऐसा करते हुए दलित हितैषी ‘खोट’ दूर करने के लिए बाहर-बाहर ‘चोट’ कर रहे हैं तो ठीक है, लेकिन भीतर-भीतर सहारा देने की तरकीब पर भी इन्हें सोचना होगा।
सकारात्मक मन तो यही कहता है कि दलित हितैषी जरूर इस बारे में भी जरूर सोचते होंगे। वे अपने तरीके से यह भी परख लेंगे कि राहुल गांधी की राजनीति वास्तव में कितनी दलित हितैषी है! वैसे सावधानी जरूरी है क्योंकि हमारा समय विषाक्त हितैषिताओं से भरा हुआ है।
कांग्रेस के गठन के बाद से ही यह एक बड़ा राजनीतिक सवाल लाजवाब बना हुआ है कि कांग्रेस किसकी पार्टी है। सवाल लाजवाब है क्योंकि इसका ऐसा कोई सुनिश्चित जवाब नहीं है जो सभी पक्षों के एक साथ स्वीकार्य हो। जाहिर है कि हर किसी के पास अपना-अपना जवाब है, वह भी तदर्थ! तदर्थ इसलिए कि जिनके पास जवाब हैं वे भी स्थिर नहीं हैं और अकसर आक्रमण-प्रति-आक्रमण के ही काम आते हैं।
आक्रमण-प्रति-आक्रमण की बात अपनी जगह लेकिन कांग्रेस के साथ अपने रिश्ते के बारे में सोचना तो होगा ही, खासकर जिन्हें ‘राहुल गांधी की राजनीति’ में उम्मीद नजर आती है, जिनकी जेब में ‘राहुल गांधी की राजनीति’ के लिए कई उम्दा सलाह है। यह सच है कि विचारों की स्पष्टता का गहरा रिश्ता चरित्र की निष्कपटता से होता है। चरित्र की निष्कपटता! चरित्र की निष्कपटता की जरूरत कम-से-कम तीन जगह खासकर होती है।
पहली जगह उस स्रोत में होती है जिसे समझना जरूरी हो, दूसरी जगह समझने की चाह रहनेवाले के किरदार में होती है। तीसरी जगह है माध्यम, मीडिया! शत प्रतिशत निष्कपटता की अपेक्षा हर किसी से होती है और कपट का कुछ-न-कुछ तत्व भी जगह होता है। तो फिर, समाधान क्या है! समाधान है शत प्रतिशत निष्कपटता की मांग और पूर्णतावादी (Perfectionist) आग्रहशीलताओं से बचना।
राजनीति के फैसले तत्क्षण में होती है, वे फैसले कभी-कभी दीर्घ-प्रभावी हो जाते हैं, खता लम्हे करते हैं, कीमत सदियां चुकाती हैं! लेकिन यह कभी-कभी होता है कि हर फैसले को दीर्घ-प्रभावी, ऐतिहासिक प्रभाव का मानकर आगा-पीछा करते रह जायेंगे तो हम तटस्थ होने का अपराध कर बैठने से बच नहीं सकते हैं।
व्यक्ति की गरिमा की रक्षा और व्यक्ति की सामाजिक स्थिति का सम्मान किये बिना कोई देश कोई राष्ट्र उन्नत नहीं हो सकता है। अद्भुत विडंबना है कि हमारे राजनीतिक समय में ही नहीं जीवन समग्र में व्यक्ति की गरिमा और उसकी सामाजिक स्थिति के प्रति सम्मान और सहकार का भाव निरंतर घटता गया है और वीर-पूजा का भाव गहराता जा रहा है। वीर पूजा की आदत से बचना जरूरी है, संदर्भ कुछ भी हो!
राहुल गांधी को उनकी विचारधारा और उनकी राजनीति के विरोधियों के धूर्त बयानों माध्यम से समझना चाहेंगे तो फिर बड़ी मुश्किल होगी। यह ठीक है कि राहुल गांधी को ठकुर सुहाती के माध्यम से नहीं समझा जा सकता है तो, सोद्देश्य विरोधियों के माध्यम से भी नहीं जा सकता है।
सामाजिक न्याय की राजनीति और जाति-वर्णवाद की राजनीति के अंतर को समझना जरूरी है। यह याद रखना जरूरी है कि इस मामले में कांग्रेस किंकर्तव्य विमूढ़ की स्थिति में पड़ी जड़ीभूत बनी रही। लेकिन इंदिरा गांधी और राजीव गांधी की हत्या से भी कांग्रेस की स्थिति विकट बन गई।
इस बीच भारतीय जनता पार्टी के लिए अपनी ‘सोशल इंजीनियरिंग’ के तहत लोगों को यह समझाना आसान हो गया कि सामाजिक न्याय के नाम पर प्रमुख जाति के कुछ ही परिवारों ने अपना वर्चस्व कायम कर लिया है। विकास की राजनीति में पीछे रह गई जातियों में नये नेतृत्व को उभारकर उनकी महत्वाकांक्षाओं के गुब्बारे को राजनीतिक आकाश में उड़ा दिया।
राजनीति के आकाश में उड़ते गुब्बारों का जमीन से रिश्ता टूटने में समय ही कितना लगता है! सामाजिक न्याय के नेताओं के नाम पर अपनी जमीन से कटे ऐसे कुछ गुब्बारे भारतीय जनता पार्टी के अंदर पहुंचकर निष्क्रिय अवस्था में व्यवस्थित हैं, तो कुछ बाहर रहकर ही अपनी सुरक्षा की गारंटी को छाती में चिपकाये अभी भी ‘सुप्रीमो’ बने हुए हैं।
जैसे ब्रिटिश हुकूमत के दौरान जब आम लोग गुलामी में जकड़ लिये गये थे बहुत सारे घराने महाराज के नाम से गौरवान्वित होकर अपनी सलामी के तोपों को गिनने में लगे हुए थे। भारतीय राजनीति का कैसा महान और लोकतांत्रिक परिदृश्य है!
राहुल गांधी सामाजिक न्याय के मामलों में मंडलोपरांत की राजनीति के क्षेत्रीय और आंचलिक आधार और जाति नेताओं के उभार को भी समझते होंगे। ‘सोशल इंजीनियरिंग’ भी अंततः जाति नेताओं व्यक्तिगत उत्थान से आगे नहीं बढ़ी। समुदाय के नेताओं को दूब-धान देकर समुदाय का वोट जुगाड़ लेना लोकतंत्र की जड़ में छल के लिए जगह बनाना होता है।
जो भी परेशान है, जो भी अपने को प्रताड़ित महसूस करता है उसकी उत्सुकता लगातार बेचैनी में बदल रही है। बेचैनी कि क्यों कांग्रेस उनके पक्ष में कारगर तरीके से खड़ी होने की कोशिश नहीं कर पा रही है। उधर कांग्रेस परेशान कि जिनके हित साधने में वह खपी जा रही है वह उसे ठीक से खड़ी होने में मददगार क्यों नहीं है! अधिकतर लोगों की बेचैनी कांग्रेस के ऊपर आरोप, सिर्फ आरोप ही नहीं अविश्वास की शैली में भी सामने आ रही है।
विडंबना यह है कि कुछ लोगों को एक ही साथ कांग्रेस से शिकायतें भी हैं, कांग्रेस पर अविश्वास भी है और उम्मीद का गतिशील केंद्र भी कांग्रेस ही है। भारत के शोषित-वंचित लोगों के सामने संविधान के पहले और संविधान के बाद उनकी अपनी सामाजिक स्थिति का अंतर स्पष्ट है। ऐसे लोग भली-भांति जानते हैं कि उनकी जिंदगी में बेहतर संभावनाओं का एक मात्र महत्वपूर्ण और विश्वसनीय आधार सिर्फ और सिर्फ संविधान है।
राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ की विचारधारा और भारतीय जनता पार्टी के शासन में संविधान सुरक्षित नहीं है। भारत के संविधान की रक्षा करना इस समय का सबसे बड़ा नागरिक, नैतिक और राजनीतिक दायित्व है। यह सच है कि मनुष्य सबसे ऊपर है, लेकिन इस ‘मनुष्य’ के स्थान को बचाये रखने के लिए आज की तारीख में संविधान को बचाना जरूरी है।
कांग्रेस और राहुल गांधी अन्योन्याश्रित होते हुए भी दो अलग-अलग निकाय बनते जा रहे हैं। बहुत हद तक बन गये हैं। फिर भी, कांग्रेस ने राहुल गांधी को कितना तैयार किया यह विचार का विषय है, लेकिन इससे इनकार नहीं किया जा सकता है कि राहुल गांधी अब ‘कांग्रेस’ को बना रहे हैं। कैसे कामयाब हो पायेंगे, कितने कामयाब हो पायेंगे!
कुछ भी कहना मुश्किल है, लेकिन रोशनी तो वहीं दिख रही है। न सही सूरज, दीया ही सही, सूरज के उगने तक, सुबह होने तक इस दीया की हिफाजत सबका दायित्व है! यह भी ठीक है कि कभी-कभी घर में आग लग जाती है, घर के चिराग से। लेकिन इस डर से घर में चिराग की जरूरत से इनकार नहीं किया जा सकता है। यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि हम घरेलू और वैश्विक स्तर पर बहुत कठिन दौर में हैं।
8 फरवरी 2025 को दिल्ली विधानसभा का चुनाव नतीजा सामने आया। इस चुनावी नतीजा ने किसी को चकित या हतप्रभ तो नहीं किया लेकिन आम आदमी पार्टी का एक अध्याय जरूर बंद हो गया। कहना न होगा कि एक अध्याय का बंद होना, पुस्तक का बंद होना नहीं है।
जिन लोगों को इंडिया अगेनस्ट करप्शन में क्रांति की झलक दिखी थी इनके लिए आम आदमी पार्टी का चुनाव हारना झूठी क्रांति से बाहर निकल आने जैसा लगा! यहां इतना टांक रखना जरूरी है कि भारत की संसदीय राजनीति में झूठी क्रांति के और भी ठिकाने हैं। उन ठिकानों के बारे में सचेत रहना जरूरी है।
अक्ल ठिकाने लगने के बाद अब आगे आम आदमी पार्टी और अरविंद केजरीवाल की राजनीतिक पहल को गंभीरता से देखा जाना चाहिए। फिलहाल तो महत्वपूर्ण यह है कि भारतीय जनता पार्टी की राजनीति कौन-सी दिशा पकड़ती है! इस दिशा के एक संकेत का सूत्रपात प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भाषण में है, इसे भी गौर से देखा जाना चाहिए। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अमेरिका यात्रा से वापस आने के बाद भारत की घरेलू राजनीति भी दिशा पकड़ेगी। वह कौन दिशा होगी! दशा में बदलाव तो दिशा में बदलाव ला ही देता है।
इधर दिल्ली विधानसभा के चुनाव परिणाम के बाद इंडिया गठबंधन के घटक दलों में कांग्रेस के प्रति और कांग्रेस हमें घटक दलों के प्रति क्या रुख और रवैया विकसित होता है, यह भी देखा जाना चाहिए। देखा जाना चाहिए कि इस दौर में सामाजिकता का राजनीति से क्या संबंध विकसित होता है। एक बात तय है कि मामला भले सामाजिक हो हल तो राजनीतिक ही हो सकता है।
भारत में लोकतंत्र की दृष्टि से 2025 बहुत महत्वपूर्ण साल है। 2025 इस अर्थ में भी महत्वपूर्ण है कि यह वसतिगृह के शुरू होने के सौ साल पूरे होने के साथ ही राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ की स्थापना के भी सौ साल पूरे होने का साल है। 2025 राहुल गांधी की राजनीति भारत के राजनीतिक भूगोल की विषुवत रेखा पर स्थित होने का भी साल है।
(प्रफुल्ल कोलख्यान स्वतंत्र लेखक और टिप्पणीकार हैं)
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