Tuesday, March 19, 2024

सुप्रीम कोर्ट ने यूएपीए कानून पर पलटा अपना ही फैसला; कहा- सरकार को सुने बिना दिया फैसला गलत

सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को गैरकानूनी गतिविधि रोकथाम अधिनियम (यूएपीए) कानून के तहत प्रतिबंधित संगठनों की सदस्यता पर अपने ही 12 साल पुराने फैसले को गलत करार दिया। कोर्ट केंद्र और असम सरकार की रिव्यू पिटीशन पर फैसला सुना रहा था।

जस्टिस एमआर शाह, सीटी रविकुमार और संजय करोल की पीठ ने महत्वपूर्ण फैसले में अरूप भुइयां बनाम असम राज्य, इंद्र दास बनाम असम राज्य और केरल राज्य बनाम रानीफ में अपने 2011 के फैसलों को खारिज कर दिया, जिसमें कहा गया है कि प्रतिबंधित संगठन का सदस्य होना गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम 1967 या आतंकवाद और विघटनकारी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम (यूएपीए) के तहत अपराध का गठन करने के लिए पर्याप्त नहीं है, जब तक कि यह कुछ प्रत्यक्ष हिंसा के साथ न हो।

पीठ ने अब व्यवस्था दी है कि यदि कोई प्रतिबंधित संगठन का सदस्य है तो उसे अपराधी मानते हुए यूएपीए (अनलॉफुल एट्रॉसिटीज प्रिवेंशन एक्ट) के तहत कार्रवाई की जा सकती है। यानी उसके खिलाफ भी मुकदमा चलेगा।

पीठ ने 8 फरवरी को रिव्यू पिटीशन पर सुनवाई शुरू की थी और सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता, सीनियर एडवोकेट संजय पारिख को सुनने के बाद फैसला सुरक्षित रख लिया था।

गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट की जस्टिस मार्कंडेय काटजू और जस्टिस ज्ञान सुधा की बेंच ने 2011 में अरूप भुइयां v/s असम सरकार, इंद्र दास बनाम असम सरकार और केरल सरकार बनाम रानीफ केस का फैसला सुनाया था। पीठ ने कहा था कि केवल प्रतिबंधित संगठन का सदस्य होने से कुछ नहीं होगा।

जस्टिस मार्कंडेय काटजू और जस्टिस ज्ञान सुधा की बेंच ने कहा था कि एक व्यक्ति तब तक अपराधी नहीं, जब तक कि वह हिंसा का सहारा नहीं लेता है या लोगों को हिंसा के लिए उकसाता नहीं है, या हिंसा के लिए उकसाकर सार्वजनिक अव्यवस्था पैदा करने की कोशिश करता है।

उल्फा का सदस्य होने के आरोपी अरूप भुईयां ने कोर्ट में जमानत की अर्जी लगाई थी। 3 फरवरी 2011 को सुप्रीमकोर्ट ने अरूप भुइयां को बरी कर दिया था। जिसे टाडा अदालत ने उसके इकबालिया बयान के आधार पर दोषी ठहराया था।

इससे पहले केरल सरकार v/s रानीफ (2011) केस में यूएपीए के तहत जमानत अर्जी पर फैसला करते हुए उसी पीठ ने यही विचार रखा था। इन्द्र दास के मामले में भी इसी बेंच ने यही विचार रखे थे। पीठ ने यूएपीए की धारा 10 (ए)(आई) को भी बरकरार रखा, जो ऐसे संगठन की सदस्य बनाती है जिसे अपराध के रूप में गैरकानूनी घोषित किया गया है।

जस्टिस दीपक मिश्रा और जस्टिस ए.एम.सप्रे की 2 न्यायाधीशों की बेंच ने 2014 में इस मामले को बड़ी बेंच के पास भेज दिया, जब केंद्र सरकार ने इस आधार पर आवेदन दायर किया कि केंद्र की सुनवाई के बिना केंद्रीय विधानों की व्याख्या की गई।

तीन न्यायाधीशों की पीठ ने 8 फरवरी को संदर्भ पर सुनवाई शुरू की और भारत के सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता, सीनियर एडवोकेट संजय पारिख (हस्तक्षेपकर्ता एनजीओ के लिए) की सुनवाई के बाद अगले दिन फैसला सुरक्षित रख लिया।

संदर्भ में क्या रखा गया? फैसला सुनाते हुए बेंच ने कहा कि 2011 के फैसले जमानत याचिकाओं में पारित किए गए, जहां प्रावधानों की संवैधानिकता पर सवाल नहीं उठाया गया। पीठ ने भारत संघ को सुने बिना प्रावधानों को पढ़ने के लिए 2011 के निर्णयों को भी गलत बताया।

पीठ ने आगे कहा कि दो न्यायाधीशों की पीठ ने अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट के फैसलों पर भरोसा करके गलती की, क्योंकि भारतीय संविधान के अनुसार भाषण की स्वतंत्रता और संघ की स्वतंत्रता उचित प्रतिबंधों के अधीन है।

जस्टिस शाह ने ऑपरेटिव हिस्से को पढ़ते हुए कहा कि अधिनियम की धारा 10 (ए) (i) संविधान के 19 (1) (ए) और 19 (2) के अनुरूप है। इस प्रकार यूएपीए के उद्देश्यों के अनुरूप है।

सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने फैसले के बाद कहा, “वास्तव में आभारी हूं, यह देश की संप्रभुता की रक्षा के लिए ऐतिहासिक फैसला होगा।”

(जेपी सिंह वरिष्ठ पत्रकार एवं कानूनी मामलों के जानकार हैं।)

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