Sunday, April 28, 2024

पूर्वोत्तर राज्यों से जुड़े विशेष संवैधानिक प्रावधान नहीं हटेंगे

आर्टिकल 370 को खत्म किए जाने को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ के समक्ष सुनवाई के नवें दिन चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने कहा कि आर्टिकल 1 भारतीय संविधान का स्थायी हिस्सा है, उसे कभी भी संशोधित नहीं किया जा सकता। वहीं, आर्टिकल 370 कभी भी स्थायी प्रकृति का नहीं था। सुनवाई के दौरान जब याचिकाकर्ताओं के एक वकील ने इस तरह की चिंता जताई कि आर्टिकल 370 की तरह ही नॉर्थ-ईस्ट के राज्यों के विशेष दर्जे को भी खत्म किया जा सकता है। इसके जवाब में सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि आर्टिकल 370 जैसे अस्थायी प्रावधानों और नॉर्थ ईस्ट के लिए जो स्पेशल प्रोविजन्स हैं, उनमें अंतर को समझना चाहिए। उन्होंने कहा कि केंद्र सरकार नॉर्थ-ईस्ट से जुड़े विशेष प्रावधानों को नहीं छुएगी।

संविधान पीठ ने आर्टिकल 370 को खत्म किए जाने को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई कर रही है। बुधवार को सुनवाई के दौरान केंद्र सरकार ने कहा कि उसका देश के पूर्वोत्तर के राज्यों के लिए लागू संविधान के विशेष प्रावधानों को छूने का कोई इरादा नहीं है। केंद्र सरकार की तरफ से पेश हुए सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने संविधान के आर्टिकल 370 को खत्म किए जाने के कदम को सही ठहराया जिससे पूर्ववर्ती जम्मू-कश्मीर राज्य का विशेष दर्जा खत्म हो गया। उन्होंने दलील दी कि आर्टिकल 370 एक अस्थायी प्रावधान था।

उन्होंने कहा कि हमें आर्टिकल 370 जैसे अस्थायी प्रावधानों और नॉर्थ ईस्ट के लिए लागू विशेष प्रावधानों का फर्क समझना चाहिए। विशेष प्रावधानों को छूने की केंद्र सरकार की कोई मंशा नहीं है। इसके गंभीर दुष्परिणाम हो सकते हैं। इसे लेकर कहीं कोई चिंता नहीं है न ही किसी तरह की आशंका को पैदा करने की जरूरत है।

सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़ ने कहा कि हमें आखिर आशंकाओं में जाना ही क्यों चाहिए? जब केंद्र ने कह दिया है कि उसकी ऐसी कोई मंशा नहीं है, तो हमें इन सबकी आशंका क्यों जतानी चाहिए। केंद्र सरकार के बयान ने सभी आशंकाओं को दूर कर दिया है।

बुधवार को याचिकाकर्ताओं की तरफ से नित्या रामाकृष्णन ने दलीलों की शुरुआत की। उनके बाद सीनियर एडवोकेट मेनका गुरुस्वामी ने दलीलें रखी। सुनवाई के दौरान जस्टिस एसके कौल ने कहा कि आर्टिकल 370 अस्थायी था। हालांकि, अभी इस पर बहस चल रही है कि अस्थायी था या नहीं।

सुनवाई के दौरान एडवोकेट वारीशा फरासत ने वही दलील दोहराई जो पहले कपिल सिब्बल कई बार दे चुके हैं। उन्होंने कहा कि आर्टिकल 370 को सिर्फ कॉन्स्टिट्यूएंट असेंबली ही खत्म कर सकती है, कोई दूसरा रास्ता नहीं है। उन्होंने कहा कि एब्रोगेशन के दौरान क्या हुआ? तीन (पूर्व) मुख्यमंत्रियों को हिरासत में ले लिया गया।

एडवोकेट जहूर अहमद भट ने अपनी दलीलें रखते हुए कहा कि एक राज्य को स्पेशल स्टेटस मिला हुआ था। उसको खत्म करके अब उसे दो यूनियन टेरिटरी में बांट दिया गया। यह जम्मू-कश्मीर के लोगों के अधिकारों और को-ऑपरेटिव फेडरलिज्म का उल्लंघन है।

अनुच्छेद 370 को कमजोर करने की चुनौतियों पर सुनवाई कर रही शीर्ष अदालत की पांच-न्यायाधीशों की संविधान पीठ द्वारा नौवें दिन की सुनवाई के दौरान बुधवार 23 अगस्त 2023 को कहा गया किचरम मामलों को सुलझाने के लिए चरम उदाहरण जरूरी हैं। सुप्रीम कोर्ट की ग्यारह-न्यायाधीशों की पीठ द्वारा 1970 के फैसले में इस्तेमाल किया गया था।

15 दिसंबर, 1970 को ग्यारह-न्यायाधीशों की पीठ द्वारा निर्णय दिया गया था जिसमें प्रिवी पर्स के उन्मूलन को चुनौती दी गई थी। इस उद्देश्य के लिए विधेयक राज्यसभा से अपेक्षित दो-तिहाई समर्थन हासिल करने में विफल रहने के बाद, राष्ट्रपति ने संविधान के अनुच्छेद 366 के तहत शक्तियों का प्रयोग करते हुए, रियासतों के सभी शासकों की मान्यता वापस लेने वाले एक दस्तावेज पर हस्ताक्षर किए।

इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने माना कि शासकों की “मान्यता रद्द” करने का राष्ट्रपति का आदेश अधिकारातीत और अवैध है। (केंद्र सरकार ने बाद में 26वें संशोधन अधिनियम, 1971 के माध्यम से पूर्व भारतीय राज्यों के शासकों के प्रिवी पर्स और विशेषाधिकारों को समाप्त कर दिया।)

इस मामले में अपने फैसले में, भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) एम. हिदायतुल्ला ने बताया कि यदि जींद के महाराजा को हैदराबाद के निज़ाम के रूप में मान्यता दी गई थी, तो अनुच्छेद 366 (22) का कोई आवेदन नहीं होगा- जो कि शासक को परिभाषित करता है। एक पूर्व भारतीय राज्य-और कार्रवाई इतनी पूरी तरह से मनमानी है कि इसे अनुच्छेद 363 (कुछ संधियों, समझौतों आदि से उत्पन्न विवादों में अदालतों द्वारा हस्तक्षेप पर रोक) द्वारा संरक्षित नहीं किया जा सकता है। न्यायमूर्ति हिदायतुल्ला ने कहा कि जवाब था कि राष्ट्रपति ऐसा कभी नहीं करेंगे। लेकिन 1950 में किसने सोचा होगा कि एक ही आदेश से सभी शासकों की मान्यता ख़त्म हो जायेगी? इसलिए, चरम मामलों को हल करने के लिए चरम उदाहरण आवश्यक हैं।

बुधवार को, वरिष्ठ अधिवक्ता गोपाल शंकरनारायणन ने पीठ के समक्ष याचिकाकर्ताओं की दलीलों को समाप्त करते हुए इस अवलोकन का उल्लेख किया, और जम्मू-कश्मीर की विशेष स्थिति को खत्म करने के लिए केंद्र सरकार द्वारा अनुच्छेद 367-व्याख्या से संबंधित-के उपयोग पर सवाल उठाया। उन्होंने कहा: “367 का उपयोग करते हुए, वाक्यांश ‘आधे से कम राज्यों की विधायिका’ को राज्यसभा या कानून मंत्री के रूप में पढ़ा जा सकता है। आप ऐसा कह सकते हो।”

शंकरनारायणन ने अनुच्छेद 367 में संशोधन करने के केंद्र सरकार के कदम पर सवाल उठाने के लिए इस अत्यधिक काल्पनिक उदाहरण का हवाला दिया, जो संविधान की व्याख्या के लिए दिशानिर्देश प्रदान करता है। अनुच्छेद 367 में एक नया खंड जोड़ा गया, जो अनुच्छेद 370(3) में संदर्भित “राज्य की संविधान सभा” के स्थान पर “राज्य की विधान सभा” है।

इस प्रकार शंकरनारायणन ने अनुच्छेद 368 के बजाय अनुच्छेद 367 के माध्यम से संविधान में संशोधन करने के लिए केंद्र सरकार की आलोचना की और पूछा कि यदि उन्हें ऐसा करने की अनुमति दी जाती है, तो स्वर्ग जानता है कि वे आगे क्या करेंगे।

बुधवार को, वरिष्ठ वकील नित्या रामकृष्णन ने इस सामान्य धारणा पर सवाल उठाते हुए दलीलों का माहौल तैयार किया कि जम्मू-कश्मीर एकीकृत नहीं है और केंद्रीय शासन का उद्देश्य यही था। उन्होंने बताया कि राजनीतिक संप्रभुता लोगों में निहित है और एक लोकतांत्रिक समझौता है जो अनुच्छेद 370 का एक हिस्सा था। उन्होंने सुझाव दिया कि यदि कोई बदलाव होना है, तो सिफारिश एक ऐसे प्राधिकारी से निकलनी चाहिए जो तुलनात्मक रूप से समान जनादेश वाला हो।

उन्होंने जम्मू-कश्मीर के पूर्व राज्यपाल सत्यपाल मलिक के साक्षात्कार का उल्लेख किया और दावा किया कि उन्हें 4 अगस्त, 2019 को यह भी नहीं पता था कि राज्य का विशेष दर्जा वापस लेने का संविधान (जम्मू-कश्मीर पर लागू) आदेश (सीओ) जारी किया जा रहा है। हालांकि, पीठ ने कहा कि यह एक कार्योत्तर बयान है।

सुनवाई के दौरान पीठ ने सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता के एक महत्वपूर्ण बयान को दर्ज किया कि केंद्र सरकार का उत्तर-पूर्वी राज्यों पर लागू विशेष प्रावधानों को छूने का कोई इरादा नहीं है। उन्होंने पीठ से कहा कि कोई आशंका नहीं है और आशंका पैदा करने की कोई जरूरत नहीं है, क्योंकि इसके गंभीर परिणाम होंगे।” इसके बाद पीठ ने वरिष्ठ अधिवक्ता मनीष तिवारी से ऐसी आशंकाओं पर चर्चा नहीं करने का अनुरोध किया।

अधिवक्ता वारिशा फरासत ने अनुच्छेद 370 को कमजोर करने के आसपास की घटनाओं को चुनौती देने के लिए कानून में द्वेष के कानूनी सिद्धांत पर भरोसा किया, क्योंकि राज्य के तीन पूर्व मुख्यमंत्री हिरासत में थे। उन्होंने दावा किया कि विधान-पूर्व परामर्श के इन दिनों में, केंद्र सरकार ने अनुच्छेद 370 को कमजोर करने के संबंध में जो किया वह स्पष्ट रूप से दुर्भावनापूर्ण है।

जस्टिस चंद्रचूड़ ने शंकरनारायणन को जवाब देते हुए सुझाव दिया कि अनुच्छेद 370 का कभी भी स्थायी प्रावधान होने का इरादा नहीं था और 1957 में राज्य संविधान लागू होने के बाद यह स्व-सीमित था। शंकरनारायणन ने कहा कि यह मामला प्रभावी रूप से इस बारे में है कि क्या कोई शक्ति धारा 370 को कमजोर करने के लिए मौजूद है और क्या उस शक्ति का प्रयोग करने के लिए केंद्र सरकार द्वारा निर्धारित प्रक्रिया का पालन किया गया था। सीजेआई ने पूछा कि क्या एक संघीय इकाई का संविधान संघ के संविधान से श्रेष्ठ हो सकता है।

उत्तरदाता गुरुवार को अपनी दलीलें शुरू करेंगे। इसके पहले सुप्रीम कोर्ट में आर्टिकल 370 को निरस्त करने के मुद्दे पर सुनवाई के दौरान अनुच्छेद 370 संबंधी याचिकओं पर बहस के आठवें दिन सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने इस तर्क को स्वीकार करने के प्रति अपनी आपत्ति व्यक्त की कि जम्मू-कश्मीर संविधान बनने के बाद अनुच्छेद 370 का अस्तित्व समाप्त हो गया था।

सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस संजय किशन कौल, जस्टिस संजीव खन्ना, जस्टिस बीआर गवई और जस्टिस सूर्यकांत की पीठ ने कहा कि जम्मू-कश्मीर संविधान बनने के बाद अनुच्छेद 370 का अस्तित्व समाप्त होने का परिणाम यह होगा कि भारत का संविधान जम्मू-कश्मीर में लागू होगा और भारतीय संविधान में कोई भी आगे का विकास जम्मू-कश्मीर पर लागू नहीं हो सकेगा। इस दलील पर सीजेआई ने असहमति जताते हुए पूछा, ” ऐसा कैसे हो सकता है? ”

आठवें दिन सुनवाई के दौरान सीनियर एडवोकेट दिनेश द्विवेदी, सीनियर एडवोकेट सीयू सिंह, सीनियर एडवोकेट संजय पारिख और सीनियर एडवोकेट पीसी सेन द्वारा दलीलें पेश की गईं।

(जेपी सिंह वरिष्ठ पत्रकार एवं कानूनी मामलों के जानकार हैं।)

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