राज्यसभा में मनोनयन के बाद पूर्व चीफ जस्टिस रंजन गोगोई ने कहा था कि राष्ट्र निर्माण के लिए किसी न किसी बिंदु पर विधायिका और न्यायपालिका को एक साथ काम करना चाहिए। कोरोना संकट में न्यायपालिका और विधायिका साथ हैं , इसमें किसी को कोई शक है। अगर शक हो तो उसे दूर कर लेना चाहिए क्योंकि भारत के चीफ जस्टिस शरद अरविंद बोबडे ने कोरोना को लेकर सोमवार को कहा है कि महामारी या किसी भी आपदा को कार्यपालिका द्वारा सबसे अच्छे ढंग से नियंत्रित किया जा सकता है।
इस संकट के समय सरकार के तीनों अंगों को संकट से निपटने के लिए सामंजस्य स्थापित करना चाहिए। इससे निपटने के लिए मैन, मनी एंड मैटेरियल यानी कार्यबल, धन, सामग्री, कैसे तैनात किया जाना चाहिए, क्या प्राथमिकता हो, ये कार्यपालिका को तय करना है।
दरअसल तत्कालीन चीफ जस्टिस गोगोई के कार्यकाल से ही सरकार के साथ चलने के लिए न्यायपालिका की आलोचना हो रही है और अभी कोरोना संकट पर किसी तरह का आदेश देने से बचने का आरोप भी न्यायपालिका पर लग रहा है। ऐसे में चीफ जस्टिस बोबडे के वक्तव्य को न्यायपालिका की सफाई मानी जा रही है। कल प्रवासी मजदूरों के मामले पर सुनवाई के दौरान जस्टिस रमना की अगुआई वाली पीठ ने भी कहा कि उच्चतम न्यायालय सरकार की बंधक नहीं है। सुप्रीम कोर्ट बार के अध्यक्ष दुष्यंत दवे ने भी कोरोना संकट में न्यायपालिका की निष्क्रियता पर सवाल उठाये थे।
मीडिया से बातचीत करते हुए चीफ जस्टिस ने कहा कि अदालत इस संकट के दौरान जो कर सकती है, वो कर रही है। निस्संदेह कार्यपालिका को नागरिकों के जीवन को खतरे में डालने की अनुमति नहीं दी जा सकती है, जब ऐसा होता है तो निश्चित रूप से न्यायालय का क्षेत्राधिकार हस्तक्षेप करेगा। जस्टिस बोबडे ने कहा कि कोविड-19 से संबंधित सभी मामलों में अदालत ने सरकार से पूछा है कि क्या कदम उठाए जा रहे हैं।
इस आरोप पर कि अदालत सरकार की लाइन पर चल रही है, चीफ जस्टिस ने कहा कि यह सही नहीं है लेकिन अदालत ने, जो भी हो सकता है, वह किया है। जज फील्ड पर नहीं हैं। अदालत ने प्रवासी मज़दूरों को आश्रय, भोजन और मनोवैज्ञानिक परामर्श प्रदान करने के लिए सरकार को निर्देश दिए हैं।
जस्टिस बोबडे ने कार्यपालिका पर अपना विश्वास जताया और कहा कि कार्यपालिका लोगों के जीवन को खतरे में नहीं डाल सकती और जब भी ऐसा होगा, हम हस्तक्षेप करेंगे। जस्टिस बोबडे ने कहा, हम अपनी तरफ से पूरी कोशिश करेंगे। हमने सभी को आश्रय, भोजन और मेडिकल सुविधाओं को सुनिश्चित करने की कोशिश की है लेकिन हम जमीन (फील्ड में) पर नहीं हैं, यह भी एक सच्चाई है। लॉकडाउन के दौरान लोगों को हो रही समस्याओं के मुद्दे पर हस्तक्षेप से जुड़े एक सवाल के जवाब में मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि हम हस्तक्षेप करेंगे जब अधिकारों के अतिक्रमण की बात होगी, लेकिन हर समय और हर बात पर नहीं।
कोरोना के चलते लॉकडाउन के बारे में चीफ जस्टिस ने माना कि अदालतों पर मुकदमेबाजी का दबाव कम हुआ है। उन्होंने बताया कि जनवरी 2020 में उच्चतम न्यायालय में रोजाना 205 केस दर्ज हुए। लेकिन अप्रैल में केवल 305 मामले ही ई- फाइलिंग के जरिए दर्ज किए गए हैं। जस्टिस बोबडे ने कहा कि कार्रवाई नहीं होने का कारण, चोर अपराध नहीं कर रहे हैं। अपराध दर में कमी आई है और पुलिस कार्रवाई भी कम हुई है। उन्होंने कहा कि वीडियो कांफ्रेंसिंग कार्यवाही के लिए यहां है लेकिन ये पूरी तरह से अदालतों की जगह नहीं लेगी।
गर्मियों की छुट्टियों में कटौती के बारे में मुख्य न्यायाधीश बोबडे ने कहा कि हम आराम नहीं कर रहे हैं और हम काम कर रहे हैं और मामलों का निपटारा कर रहे हैं। हम अपने कैलेंडर के अनुसार साल में 210 दिन काम करते हैं। उन्होंने कहा कि सुप्रीम कोर्ट का कैलेंडर फुल कोर्ट का विषय है और ये तय करने की कोशिश है कि सुप्रीम कोर्ट 210 दिन काम करे। उन्होंने वादकारियों और वकीलों को संदेश दिया कि इस संकट की घड़ी में धैर्य रखने की जरूरत है और पूरे देश को धैर्य रखना चाहिए।
गौरतलब है कि सुप्रीमकोर्ट बार के अध्यक्ष दुष्यंत दवे ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखे लेख में कहा था कि हम यह भूल जाते हैं कि भारत का संविधान एक जीवित दस्तावेज है। इसने इस उद्देश्य के साथ कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका का निर्माण किया कि सरकार के तीनों स्तम्भ एक-दूसरे पर नजर रखने के साथ-साथ उनके बीच संतुलन बनाए रखेंगे। तो फिर ऐसा क्यों है कि दो शक्तिशाली स्तम्भ, संसद और न्यायपालिका, करोड़ों नागरिकों की वर्तमान पीड़ा पर पूरी तरह से चुप हैं? ऐसा क्यों है कि एक ओर सरकार खाद्यान्न और अन्य संसाधनों की असीमित आपूर्ति का दावा कर रही है और दूसरी ओर श्रमिकों, गरीबों और दलितों और किसानों को खुद के हाल पर पूरी तरह से छोड़ दिया गया है?
दुष्यंत दवे ने कहा है कि ये लाखों लोगों के संवैधानिक और कानूनी अधिकारों का गंभीर उल्लंघन हैं जो 24 मार्च से प्रतिदिन किया जा रहा है । लेकिन इन दोनों स्तम्भों द्वारा इस पर कोई गंभीर सवाल नहीं उठाया जा रहा है, न ही कार्यपालिका को इसके निवारण के लिए बाध्य किया जा रहा है। देश के ये अंग अपनी विफलताओं से खुद को दोषमुक्त नहीं कर सकते हैं, जबकि देश खून के आंसू रो रहा है।
(जेपी सिंह वरिष्ठ पत्रकार और क़ानूनी मामलों के जानकार हैं।)