सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली अध्यादेश का मामला संवैधानिक पीठ को भेज दिया है। पांच जजों वाली संवैधानिक पीठ इस मामले पर सुनवाई करेगी। अध्यादेश के खिलाफ दिल्ली सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की थी। मंगलवार को इस याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने संकेत दिए थे कि वह इस मामले को संवैधानिक पीठ के पास भेज सकते हैं। गुरुवार को फिर से दिल्ली सरकार की याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने मामले को पांच जजों की संवैधानिक पीठ के पास भेजने का आदेश दिया। इस बीच दिल्ली हाईकोर्ट ने सेवाओं पर एलजी को ओवरराइडिंग पॉवर देने वाले केंद्र सरकार के अध्यादेश को चुनौती देने वाली जनहित याचिका पर विचार करने से इनकार किया।
दिल्ली अध्यादेश 2023 के तहत राजधानी दिल्ली में प्रशासनिक अधिकारियों के तबादले और नियुक्ति का अधिकार उपराज्यपाल को दिया गया है। इस अध्यादेश के तहत केंद्र सरकार ने राष्ट्रीय राजधानी सिविल सर्विसेज अथॉरिटी का गठन किया है। इस अथॉरिटी में दिल्ली के मुख्यमंत्री की अध्यक्षता में मुख्य सचिव और प्रधान गृह सचिव को सदस्य बनाया गया है। यह अथॉरिटी ही दिल्ली में अधिकारियों की नियुक्ति और तबादले का फैसला करेगी। हालांकि इस अथॉरिटी में मतभेद होने पर अंतिम फैसले का अधिकार उपराज्यपाल को दिया गया है।
दिल्ली में प्रशासन को लेकर केंद्र और दिल्ली सरकार के बीच रस्साकशी चल रही है। इसके चलते यह विवाद सुप्रीम कोर्ट गया, जहां 11 मई को दिए अहम फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली में प्रशासनिक अधिकारियों के तबादले और नियुक्ति का अधिकार चुनी हुई सरकार को दिया है। वहीं दिल्ली पुलिस, जमीन और सार्वजनिक व्यवस्था से जुड़े अधिकार केंद्र को दिए गए। सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद केंद्र सरकार 19 मई को एक अध्यादेश लेकर आई, जिसे राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली (संशोधन) अध्यादेश, 2023 का नाम दिया गया।
गुरुवार से संसद का मानसून सत्र शुरू हो चुका है और केंद्र सरकार इसी सत्र में इस अध्यादेश को पास कराकर कानून बनाने की कोशिश करेगी। वहीं दिल्ली सरकार इस अध्यादेश के खिलाफ विपक्षी पार्टियों का समर्थन जुटाने में लगी है। कांग्रेस, टीएमसी समेत कई विपक्षी पार्टियां इस मुद्दे पर दिल्ली सरकार के समर्थन की बात भी कह चुकी हैं।
दिल्ली हाईकोर्ट ने गुरुवार को केंद्र सरकार द्वारा 19 मई को लागू राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली सरकार (संशोधन) अध्यादेश, 2023 को चुनौती देने वाली जनहित याचिका पर विचार करने से इनकार कर दिया। चीफ जस्टिस सतीश चंद्र शर्मा और जस्टिस संजीव नरूला की खंडपीठ ने एडवोकेट श्रीकांत प्रसाद को यह देखते हुए याचिका वापस लेने की अनुमति दी कि अध्यादेश की संवैधानिक वैधता को चुनौती पहले से ही सुप्रीम कोर्ट में लंबित है।
हालांकि पीठ ने प्रसाद को सुप्रीम कोर्ट के समक्ष मामले में हस्तक्षेप करने के लिए उचित आवेदन दायर करने की छूट दी। अदालत ने कहा, “यह देखा गया कि इस तरह के अध्यादेश के संबंध में संवैधानिक वैधता को चुनौती सुप्रीम कोर्ट के समक्ष लंबित है और मामला सूचीबद्ध है। याचिकाकर्ता लंबित मामले में उचित आवेदन दायर करने की छूट के साथ याचिका वापस लेने का अनुरोध करता है। रिट याचिका को उपरोक्त स्वतंत्रता के साथ वापस लिया गया मानकर निपटाया जाता है।
अध्यादेश, जिसे दिल्ली सेवा अध्यादेश के रूप में भी जाना जाता है, राष्ट्रपति द्वारा 19 मई को अनुमोदित किया गया और इसका प्रभाव निर्वाचित सरकार को “सेवाओं” पर शक्ति से वंचित करना है। याचिका में कहा गया, “दिल्ली के उपराज्यपाल को दिल्ली के मुख्यमंत्री की अध्यक्षता वाली समिति के साथ निर्णयों के टकराव के मामलों में विवेक से कार्य करने की ओवरराइडिंग पॉवर दी गई ।
अध्यादेश में दिल्ली के मुख्यमंत्री की अध्यक्षता में राष्ट्रीय राजधानी सिविल सेवा प्राधिकरण के निर्माण की भी परिकल्पना की गई, जो एनसीटीडी में प्रशासनिक अधिकारियों के तबादलों और पोस्टिंग के लिए सिफारिशें करेगा, जिसे उपराज्यपाल द्वारा अंतिम रूप दिया जाएगा।”
यह अध्यादेश सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ के फैसले के एक हफ्ते बाद लाया गया कि दिल्ली सरकार के पास सूची II (सेवाओं) की प्रविष्टि 41 पर अधिकार है। याचिका में कहा गया, “सुप्रीम कोर्ट के गर्मी की छुट्टियों के लिए बंद होने के कुछ घंटों बाद आधी रात को अध्यादेश जारी करने में कुछ प्रतीकात्मकता हो सकती है। तब से अध्यादेश की वैधता के बारे में राजनीतिक और कानूनी हलकों में गहन बहस हो रही है, निस्संदेह दिल्ली सरकार की अधिकारियों पर नियंत्रण की शक्ति को कम करके दिल्ली के विकास में असुविधा पैदा करने की दुर्भावनापूर्ण मंशा को दर्शाता है।”
(जेपी सिंह वरिष्ठ पत्रकार और कानूनी मामलों के जानकार हैं।)
+ There are no comments
Add yours