Saturday, April 27, 2024

सुप्रीम कोर्ट मीडिया नैतिकता के नियमों को और अधिक धार देने पर विचार करेगा

टीवी चैनलों के खिलाफ जुर्माना मुनाफे के अनुपात में होना चाहिए, एक लाख रुपए का जुर्माना अप्रभावी: सुप्रीम कोर्ट ने एनबीडीए से कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को न्यूज ब्रॉडकास्टर्स एंड डिजिटल एसोसिएशन (एनबीडीए), अर्थात् न्यूज ब्रॉडकास्टिंग एंड डिजिटल स्टैंडर्ड्स अथॉरिटी (एनबीएसए) द्वारा स्थापित स्व-नियामक सिस्टम की अप्रभाविता के बारे में अपनी चिंता व्यक्त की। भारत के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ की अगुवाई वाली पीठ ने वैधानिक सिस्टम के माध्यम से समाचार चैनलों पर प्री-सेंसरशिप या पोस्ट-सेंसरशिप के खिलाफ एनबीडीए के रुख को स्वीकार करते हुए एक प्रभावी स्व-नियामक तंत्र की आवश्यकता पर जोर दिया। सीजेआई चंद्रचूड़ ने विवादित समाचार प्रसारित करके समाचार चैनलों से अर्जित लाभ को प्रतिबिंबित करने वाले आनुपातिक जुर्माने की आवश्यकता का हवाला देते हुए एनबीडीए द्वारा लगाए गए मौजूदा दंड की पर्याप्तता पर सवाल उठाया।

यह कहते हुए कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को ध्यान में रखना होगा  सुप्रीम कोर्ट की एक अन्य पीठ ने मीडिया को विनियमित करने के लिए केंद्र सरकार के अधिकार की मांग वाली एक अन्य जनहित याचिका खारिज कर दी।

चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस मनोज मिश्रा की पीठ एनबीडीए (पूर्व में न्यूज ब्रॉडकास्टर्स एसोसिएशन) द्वारा दायर याचिका पर सुनवाई कर रही थी, जिसमें मीडिया के लिए स्व-नियामक सिस्टम के खिलाफ बॉम्बे हाईकोर्ट द्वारा की गई महत्वपूर्ण टिप्पणियों को चुनौती दी गई थी। अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की मौत के मामले में मीडिया ट्रायल पर सवाल उठाने वाली जनहित याचिकाओं के एक बैच का फैसला करते हुए जनवरी, 2021 में पारित एक फैसले में हाईकोर्ट की टिप्पणियां आईं।

पीठ ने कहा कि उल्लंघन के लिए जुर्माना एक लाख रुपये है, यह आंकड़ा 2008 में निर्धारित किया गया था। भारत के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पीठ ने कहा कि ₹1 लाख का जुर्माना 2008 में तय किया गया था, और तब से इसे संशोधित नहीं किया गया है। न्यायालय ने नियमों के “ढांचे को मजबूत करने” के सवाल पर नेशनल ब्रॉडकास्टर्स एंड डिजिटल एसोसिएशन (एनबीडीए), एक स्वतंत्र इलेक्ट्रॉनिक मीडिया निगरानीकर्ता, केंद्र और अन्य उत्तरदाताओं को नोटिस जारी किया।

पीठ ने कहा कि हम स्वतंत्र भाषण के बारे में उतने ही चिंतित हैं जितने चैनल हैं, लेकिन आप अपने शो में किसी व्यक्ति को दोषी मानते हैं, न कि उस व्यक्ति को तब तक निर्दोष मानते हैं जब तक कि वह दोषी साबित न हो जाए।उस अभिनेता (सुशांत सिंह राजपूत) की मौत के बाद मीडिया पागल हो गया।  चीफ जस्टिस  चंद्रचूड़ ने कहा आपने वस्तुतः पूरी जांच पहले ही कर दी।

एनबीडीए का प्रतिनिधित्व कर रहे सीनियर एडवोकेट अरविंद दातार ने पीठ के समक्ष तर्क दिया कि हाईकोर्ट का यह दावा कि स्व-नियामक तंत्र में वैधानिक ढांचे के भीतर पवित्रता का अभाव है, त्रुटिपूर्ण है। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि हालांकि एनबीडीए स्वीकार करता है कि यह एक वैधानिक निकाय नहीं है, लेकिन यह हाईकोर्ट द्वारा की गई प्रतिकूल टिप्पणियों का विरोध करता है जो इसकी विश्वसनीयता और प्रभावशीलता पर सवाल उठाते हैं।

दातार ने बताया कि स्व-नियामक तंत्र शिकायतों को संबोधित करने और जिम्मेदार पत्रकारिता को बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। दातार ने तर्क दिया कि स्व-नियामक निकाय एक वैकल्पिक विवाद समाधान तंत्र के समान कार्य करता है, जो नागरिकों को आपत्तिजनक लगने वाली मीडिया सामग्री के खिलाफ शिकायत करने की अनुमति देता है। उन्होंने कहा- ” यह सुशांत सिंह राजपूत मामले के दौरान शुरू हुआ। मीडिया उन्माद था। मीडिया ट्रायल के खिलाफ जनहित याचिकाएं दायर की गईं और यहीं मामला दायर किया गया… (बॉम्बे एचसी की) टिप्पणियों का हमारे निकाय की अखंडता पर हानिकारक प्रभाव पड़ा …क़ानून की योजना यह है कि टीवी चैनलों को स्वयं विनियमित होने के लिए छोड़ दिया जाना चाहिए। राज्य को विनियमित करने की अपेक्षा नहीं की जाती है।”

दातार ने स्व-नियामक तंत्र के महत्व और उद्योग के सम्मानित सदस्यों द्वारा इसकी मान्यता पर प्रकाश डाला। उन्होंने सुप्रीम कोर्ट द्वारा नरीमन समिति की रिपोर्ट को मंजूरी देने का भी उल्लेख किया, जिसने मीडिया विनियमन के लिए स्व-नियामक दृष्टिकोण की वकालत की और राज्य नियंत्रण से बचने पर जोर दिया। उन्होंने यह भी कहा कि प्राधिकरण ने 4000 से अधिक शिकायतों का निपटारा किया है और कई मामलों में, उल्लंघन करने वाले मीडिया चैनलों को मौद्रिक दंड के अलावा, सार्वजनिक माफी मांगने के लिए कहा गया था। उन्होंने कहा, “आप पूछ सकते हैं कि उन चैनलों के बारे में क्या जो इसका हिस्सा नहीं हैं? सौभाग्य से, सभी प्रमुख चैनल इसका हिस्सा हैं। और जो इसका हिस्सा नहीं हैं, उनकी रिपोर्ट आईएमसी- अंतर मंत्रालयी समिति को जाती है। हमारी संस्था को मान्यता दे दी गई है …यह एक स्व-नियामक तंत्र है। हम एक लाख रुपए तक जुर्माना लगा सकते हैं। लेकिन सौभाग्य से वे जिम्मेदार चैनल हैं।

चीफ जस्टिस चंद्रचूड़ ने जवाब में स्व-नियामक तंत्र की प्रभावकारिता के बारे में चिंता व्यक्त की, खासकर ऐसे मामलों में जहां मीडिया कवरेज संभावित रूप से आपराधिक जांच में बाधा डालता है और किसी व्यक्ति की प्रतिष्ठा का उल्लंघन करता है। उन्होंने कहा कि मिस्टर दातार, आप कहते हैं कि कुछ चैनलों को छोड़कर, सभी मीडिया चैनल आत्मसंयम बरतते हैं। मुझे नहीं पता कि क्या आप इस अदालत में ऐसे लोगों की गिनती कर सकते हैं जो इससे सहमत होंगे। हम समझते हैं कि आप नहीं चाहते हैं सरकार हस्तक्षेप करे और आप चाहते हैं कि स्व-नियामक तंत्र जारी रहे। समान रूप से स्व-नियामक तंत्र को प्रभावी बनाया जाना है। सीजेआई ने यह भी कहा कि अभिनेता की मौत के बाद मीडिया “उन्मत्त” हो गया और उसने “उन्माद” पैदा कर दिया।

सीजेआई ने कहा कि हालांकि एनबीडीएसए का नेतृत्व सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीशों द्वारा किया जाता है, लेकिन उनका दायरा एनबीडीए दिशानिर्देशों द्वारा सीमित है।

अधिवक्ता निशा भंभानी के साथ एनबीडीए की ओर से पेश हुए वरिष्ठ अधिवक्ता अरविंद पी. दातार ने कहा कि वह एनबीडीए के वर्तमान अध्यक्ष न्यायमूर्ति (सेवानिवृत्त) एके सीकरी और एनबीडीए के पूर्व प्रमुख न्यायमूर्ति (सेवानिवृत्त) आरवी रवींद्रन से सलाह लेंगे कि “कुछ” कैसे रखा जाए। इसके नियमों में काट लें।

मुख्य न्यायाधीश ने एनबीडीए से पूछा यदि इन सभी उल्लंघन के अंत में, आप [एनबीडीए] ₹1 लाख का जुर्माना लगाने जा रहे हैं, तो कौन सा चैनल प्रेरित होगा? आपका जुर्माना पूरे शो से चैनल को होने वाले मुनाफे से अधिक होना चाहिए। हम मीडिया पर कोई सेंसरशिप नहीं चाहते, लेकिन जुर्माना प्रभावी होना चाहिए… सरकार इस दायरे में नहीं रहना चाहती। आपसे अपेक्षा की जाती है कि आप अपनी सामग्री को स्व-विनियमित करें। ₹1 लाख का जुर्माना गलती करने वाले चैनल को कैसे रोकेगा? यह राशि 15 साल पहले तय की गई थी, क्या आपने इसे संशोधित करने के बारे में नहीं सोचा है?”.

केंद्र की ओर से सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि एनबीडीए केवल नियामक संस्थाओं में से एक है। मेहता ने कहा कि अदालत को प्रसारण में नैतिक आचरण पर व्यापक नियामक दिशानिर्देश तय करने के लिए हस्तक्षेप करना पड़ा। मेहता ने कहा कि कुछ समय पहले, दिल्ली उच्च न्यायालय के हस्तक्षेप से, अनावश्यक सनसनीखेज से बचने के लिए मीडिया को प्रतिदिन जानकारी देने के लिए प्रेस अधिकारियों को नियुक्त किया गया था।

यह कहते हुए कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को ध्यान में रखना होगा सुप्रीम कोर्ट ने मीडिया को विनियमित करने के लिए केंद्र सरकार के अधिकार की मांग वाली एक अन्य जनहित याचिका खारिज कर दी।

जस्टिस अभय एस ओका और जस्टिस संजय करोल की पीठ ने हाल ही में एक जनहित याचिका को खारिज करते हुए भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार के महत्व को रेखांकित किया, जिसमें मीडिया को विनियमित करने के लिए भारत सरकार को “भारतीय प्रसारण नियामक प्राधिकरण” का गठन करने का निर्देश देने की मांग की गई थी।

सुशांत सिंह राजपूत मामले की कवरेज की पृष्ठभूमि में रीपक कंसल द्वारा 2020 में दायर याचिका में “प्रेस की स्वतंत्रता के नाम पर चैनलों के प्रसारण द्वारा किसी व्यक्ति की गरिमा की हत्या को प्रतिबंधित करने के लिए” विभिन्न निर्देशों की मांग की गई थी। याचिकाकर्ता ने न्याय प्रशासन में हस्तक्षेप करने वाले मीडिया ट्रायल को प्रतिबंधित करने के निर्देश देने की भी मांग की। याचिका में एक और राहत की मांग की गई थी कि “मीडिया, प्रेस और पत्रकारिता के नाम पर इन प्रसारण इलेक्ट्रॉनिक चैनलों द्वारा एयरवेव्स के दुरुपयोग को रोकने के लिए निर्देश दिया जाए”।पीठ ने कहा कि याचिका में मांगी गई प्रार्थनाएं “बहुत व्यापक” हैं।

पीठ ने 8 अगस्त को पारित आदेश में कहा कि सबसे पहले, हमें यहां ध्यान देना चाहिए कि प्रार्थनाएं बहुत व्यापक हैं। दूसरे, हमें बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार को भी ध्यान में रखना होगा। पीठ ने आगे कहा कि न्यूज़ ब्रॉडकास्टर्स एसोसिएशन और न्यूज ब्रॉडकास्टर्स स्टैंडर्ड अथॉरिटी द्वारा दायर हलफनामों से पता चला है कि मीडिया प्रसारण से संबंधित शिकायतों से निपटने के लिए एक समिति अस्तित्व में है। समिति की अध्यक्षता सुप्रीम कोर्ट के एक सेवानिवृत्त न्यायाधीश करते हैं और इसमें नागरिक समाज के सदस्य होते हैं।

पीठ ने संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत हस्तक्षेप को अस्वीकार करते हुए आगे कहा कि इसके अलावा, यह न्यायालय अलग-अलग याचिकाओं में नफरत फैलाने वाले भाषणों/समाचारों से निपट रहा है। हालांकि, पीठ ने याचिकाकर्ता को अपनी शिकायतें व्यक्त करने के लिए उचित प्राधिकारियों के समक्ष अभ्यावेदन दाखिल करने की स्वतंत्रता दी।

कंसल की याचिका के साथ, न्यायालय ने फिल्म निर्माता नीलेश नवलखा द्वारा दायर एक अन्य जनहित याचिका पर भी विचार किया, जिसमें एक स्वतंत्र “मीडिया ट्रिब्यूनल” के गठन की मांग की गई थी। याचिकाकर्ता को संबंधित उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाने की छूट देते हुए उक्त याचिका खारिज कर दी गई। नवलखा का प्रतिनिधित्व अधिवक्ता शाश्वत आनंद और अधिवक्ता राजेश ईनामदार ने किया।

भाजपा जिस आरएसएस का हिस्सा है और उसी की विचारधारा इसका राजनीतिक आधार है, वह न संविधान में यकीन करती है और न ही संघात्मक गणराज्य में। गोलवलकर ने अपनी पुस्तक ‘विचार नवनीत’ (बंच ऑफ थॉट्स) में संविधान पर अपने विचार प्रकट करते हुए लिखा था, ‘हमारा संविधान पश्चिमी देशों के विभिन्न संविधानों में से लिए गए विभिन्न अनुच्छेदों का एक भारी-भरकम तथा बेमेल अंशों का संग्रह मात्र है। उसमें ऐसा कुछ भी नहीं, जिसको कि हम अपना कह सकें। उसके निर्देशक सिद्धांतों में क्या एक भी शब्द इस संदर्भ में दिया है कि हमारा राष्ट्रीय-जीवनोद्देश्य तथा हमारे जीवन का मूल स्वर क्या है? नहीं’ (विचार नवनीत, ज्ञानगंगा, जयपुर, 1997, पृ. 237)। संघ और भाजपा अकेले ऐसे संगठन हैं जो संघात्मक गणराज्य में यकीन नहीं करते। गोलवलकर ने लिखा था, ‘आज की संघात्मक (फेडेरल) राज्य पद्धति पृथकता की भावनाओं का निर्माण और पोषण करने वाली, एक राष्ट्रभाव के सत्य को एक प्रकार से अमान्य करने वाली एवं विच्छेद करने वाली है। इसको जड़ से ही हटा कर तदनुसार संविधान शुद्ध कर एकात्म शासन प्रस्थापित हो’ (समग्र दर्शन, खंड-3, भारतीय विचार साधना, नागपुर, पृ. 128)। 

भारतीय संविधान के मूल में यह मान्यता थी कि भारत विभिन्न राष्ट्रीयताओं का संघ है क्योंकि भारत विभिन्न भाषाओं, क्षेत्रीय भिन्नताओं और सांस्कृतिक बहुलताओं वाला देश है। इन भिन्नताओं को स्वीकार करके ही उनके बीच एकता की स्थापना की जा सकती है। इसीलिए भारत की संकल्पना संविधान निर्माताओं ने लोकतांत्रिक संघात्मक गणराज्य के रूप में की थी। इसके विपरीत आरएसएस भारत को हिंदुओं का ही देश मानता है और अन्य धर्मावलंबियों का या तो हिंदुओं में ही समाहित करता है या उन्हें विदेशी मानता है इसलिए वह एक राष्ट्र्, एक धर्म, एक नस्ल, एक जाति की बात करता है। स्वयं आरएसएस का उद्देश्य, ‘एक ध्वज के नीचे, एक नेता के मार्गदर्शन में, एक ही विचार से प्रेरित होकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ हिंदुत्व की प्रखर ज्योति इस विशाल भूमि के कोने-कोने में प्रज्ज्वलित कर रहा है’ (समग्र दर्शन, खंड-1, पृ. 11)।नरेंद्र मोदी के शासन काल में जो बदलाव हो रहे हैं उनको हम तभी समझ सकते हैं जब आरएसएस की उपर्युक्त विचारधारा को ठीक से समझें। 

भारतीय जनता पार्टी (जिसका पहले नाम भारतीय जनसंघ था) जब-जब सत्ता में आयी है, चाहे राज्यों में या केंद्र में उसने उस दिशा में लगातार कदम उठाये जो आरएसएस की सांप्रदायिक फासीवादी विचारधारा के पक्ष में जाते हैं। लेकिन 2014 में जब से नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में केंद्र में भाजपा की सरकार बनी है, हिंदू राष्ट्र बनाने के अपने लक्ष्य की ओर तेज़ी से आगे बढ़ी है। लेकिन इस काम में सफलता तभी हासिल हो सकती है जब व्यापक हिंदू जनता का समर्थन उसे मिले। इस दिशा में तो आरएसएस और उससे संबद्ध सभी संगठन ज़मीनी स्तर पर हमेशा काम करते रहे हैं लेकिन सत्ता में आने पर वे पूरे सरकारी तंत्र का भी निर्लज्जतापूर्वक अपने लक्ष्यों के लिए इस्तेमाल करते रहे हैं।

इनमें पाठ्यक्रमों में फेरबदल, हिंदुत्वपरस्त सांप्रदायिक इतिहास लेखन और अपनी विचारधारा के प्रचार के लिए सिनेमा सहित मीडिया का इस्तेमाल शामिल है। लेकिन सबसे महत्त्वपूर्ण है कानूनों में बदलाव। भारतीय जनता पार्टी अपने घोषणापत्रों में तीन लक्ष्यों को बार-बार दोहराती रही है। पहला, कश्मीर से धारा 370 हटाना, दूसरा, समान नागरिक संहिता लागू करना और तीसरा अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण। नरेंद्र मोदी के शासन काल में कश्मीर से धारा 370 हटायी जा चुकी है, अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण चल रहा है और जनवरी, 2024 में मंदिर के द्वार भी खुल जायेंगे और समान नागरिक संहिता के बारे में मध्य प्रदेश की एक सभा में बोलकर इस संबंध में अपने इरादे जाहिर कर चुके हैं और इसे राजनीतिक विमर्श के केंद्र में ला दिया गया है।

जिस दौर में सांप्रदायिक राजनीति का तेजी से फैलाव और उभार हो रहा था, उसी दौर में भारतीय राजनीतिक अर्थव्यवस्था भी पूरी तरह दक्षिणपंथी करवट ले रही थी। कह सकते हैं कि इस दौर में पूंजीवादी व्यवस्थाओं का विस्तार हुआ है, उनमें पारस्परिक आदान-प्रदान बढ़ा है और जो और जिस तरह की भी वैकल्पिक व्यवस्थाएं थीं, वे या तो ढह गयी हैं, या कमजोर हुई हैं। 

इस दौर की तीन पहचानें हैं, निजीकरण, उदारीकरण और भूमंडलीकरण। इसी दौर की उपज आतंकवाद भी है। आतंकवाद को विश्वव्यापी और खतरनाक बनाने में यदि अमरीका की नवसाम्राज्यवादी नीतियां जिम्मेदार हैं, तो उस प्रौद्योगिकी का भी हाथ है जो नवीनतम हथियारों और संचार प्रौद्योगिकी के रूप में सामने आये हैं। भारत में आतंकवाद कई रूपों में सक्रिय है। लेकिन मीडिया आमतौर पर कथित रूप से जिहादी या इस्लामी आतंकवाद को ही अपने हमले का निशाना बनाता रहा है।

आतंकवाद यदि एक ओर देशभक्ति की भावनाओं को भुनाने का जरिया बनता है, तो दूसरी ओर, यह मीडिया को एक बहुत ही उत्तेजनापूर्ण और रोमांचकारी विषयवस्तु भी प्रदान करता है। मीडिया दर्शकों के इस राजनीतिक दुराग्रह को मजबूत करता है कि ‘सभी मुसलमान आतंकवादी नहीं होते लेकिन सभी आतंकवादी मुसलमान होते हैं’ जबकि  हिंदुत्वपरस्त आतंकवाद भी अपने खूंखार रूप में सामने आ चुका है।

यहां यह नहीं भुलाया जाना चाहिए कि गुजरात में मुसलमानों का नरसंहार और बाबरी मस्जिद का विध्वंस, उड़ीसा, कर्नाटक आदि में ईसाइयों पर हमले भी आतंकवाद ही हैं। नरेंद्र मोदी के शासनकाल में मुसलमानों की भीड़ द्वारा हत्या, उनके घरों पर बुलडोजर चलवाना और उन्हें निरपराध होते हुए भी गिरफ्तार करके लंबे समय के लिए जेल भेज देना भी आतंकवाद ही है। मणिपुर में पिछले तीन महीने से कुकी आदिवासी समूह और मैतेई लोगों के बीच गृह युद्ध की सी स्थिति बनी हुई है।

सत्ता समर्थक मैतेई समूहों (जो अधिकतर हिंदू हैं और बताया जाता है कि आरएसएस उनके बीच सक्रिय है) द्वारा कुकी अल्पसंख्यकों (जो अधिकतर ईसाई हैं) हिंसक हमले किये जा रहे हैं, वह भी एक तरह का आतंकवाद ही है। अब तक 150 से अधिक लोग मारे जा चुके हैं। लगभग 6000 घरों को जलाया जा चुका है। लगभग 250 चर्च नष्ट किये गये हैं। 60 हजार लोग विभिन्न शरणार्थी शिविरों में रहने को मजबूर हैं। हजारों की संख्या में हथियार लूटे जा चुके हैं। कई महिलाओं को सामूहिक बलात्कार का शिकार बनाया गया है। इतनी भयावह स्थिति के बावजूद प्रधानमंत्री ने न मणिपुर जाना जरूरी समझा और न वहां शांति स्थापित करने के लिए कोई कदम उठाया है। 

इन दस सालों में मनुवादी, दलित विरोधी, पितृसत्तावादी, मुस्लिम-विरोधी, हिंदुत्वपरस्त ताक़तों को अच्छी तरह से एहसास हो चुका है कि यह राजसत्ता उनकी है। यह अकारण नहीं है कि इन दस सालों में लगातार मुसलमानों पर ही नहीं महिलाओं, दलितों, आदिवासियों और अन्य कमज़ोर वर्गों पर हमले बढ़े हैं। शिक्षा संस्थाओं और नौकरियों में आरक्षण लगातार कम किया जा रहा है और सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योगों के बेचने की मुहिम का नतीजा है कि इन सभी कमज़ोर वर्गों के रोज़गार के रास्ते लगातार बंद होते जा रहे हैं। 

लेकिन इन सबसे अधिक खतरनाक है, कानूनों में ऐसे बदलाव जिसके कारण जहां एक ओर मुसलमानों को संविधान में मिली समानता और स्वतंत्रता में कटौती की जा रही है, तो दूसरी ओर आम भारतीय नागरिकों को जो अधिकार प्राप्त हैं उनमें भी कटौती की जा रही है। इसके साथ ही पिछले दस सालों में संवैधानिक संस्थाओं को लगातार कमजोर किया जा रहा है। 

5 अगस्त 2019 को भारतीय जनता पार्टी ने संवैधानिक प्रक्रियाओं को धता बताते हुए जम्मू और कश्मीर राज्य को विशेष दर्जा देने वाले आर्टिकल 370 के उन प्रावधानों को हटा दिया है जो भारत के साथ उसके विलय के समय संविधान सभा द्वारा स्वीकृत किये गये थे। आर्टिकल 370 के इन प्रावधानों को हटाये जाने से पहले भी और आज भी जम्मू और कश्मीर राज्य भारत का अभिन्न अंग था और है। लेकिन अब वह राज्य नहीं रह गया है बल्कि इसे दो केंद्र शासित प्रदेशों में बदल दिया गया है। 

जम्मू और कश्मीर ऐसा केंद्रशासित प्रदेश होगा जिसमें एक विधानसभा तो होगी लेकिन जिसे वे अधिकार प्राप्त नहीं होंगे जो पूर्ण राज्य का दर्जा प्राप्त राज्यों को प्राप्त होते हैं। जम्मू और कश्मीर के उपराज्यपाल की सलाह और स्वीकृति के बिना वहां का मंत्रिमंडल कोई काम नहीं कर सकेगा। लद्दाख भी केंद्र शासित प्रदेश होगा लेकिन उसकी कोई विधान सभा नहीं होगी और वह सीधे केंद्र द्वारा ही शासित होगा। इस तरह जम्मू और कश्मीर राज्य को जो स्वायत्तता प्राप्त थी उसने सिर्फ वही नहीं खो दी है बल्कि उसे वह स्वायत्तता भी नहीं मिली है जो अन्य पूर्ण राज्यों को प्राप्त है।

केंद्र को आज की तरह उन्हें वहां सेना, अर्धसैनिक बल तैनात करने का ही अधिकार नहीं होगा बल्कि वहां की पुलिस भी पूरी तरह केंद्र के नियंत्रण में होगी। निश्चय ही यह विलय के समय हुए समझौते और संविधान सभा द्वारा किये गये प्रावधानों का उल्लंघन है। ये प्रावधान क्या है जिसे खत्म करना इतना जरूरी समझा गया और इन्हें समाप्त करने के बाद ही यह माना जा रहा है कि अब जम्मू और कश्मीर भारत का वास्तव में अंग बना है। 

गौरतलब है कि एक अलग झंडा होने से या विधानसभा का कार्यकाल पांच वर्ष की जगह छह वर्ष होने से या वहां जम्मू और कश्मीर के बाहर के लोग जमीन न खरीद सकने के प्रावधान से वह भारत का कम अभिन्न अंग नहीं था तो फिर भारत के कई राज्यों में विशेष रूप से उत्तर-पूर्व के राज्यों को जो विशेष दर्जा प्राप्त हैं उनकी वजह से क्या वे भारत के अभिन्न अंग नहीं है। सिक्किम की विधानसभा का कार्यकाल सिर्फ चार साल का है।

इसी तरह हिमाचल प्रदेश, सिक्किम और उत्तर पूर्व के सभी राज्यों में कोई बाहरी व्यक्ति जमीन नहीं खरीद सकता। अरुणाचल प्रदेश, नागालैंड आदि राज्यों में किसी अन्य राज्य के नागरिक को वहां जाने के लिए अनुमति पत्र लेने की जरूरत होती है। जम्मू और कश्मीर तथा  लद्दाख के भारत में पूर्ण विलय का चाहे जो दावा किया जा रहा हो, लेकिन पिछले चार सालों में वहां चुनाव का न होना बताता है कि सब कुछ सही नहीं है। 

2014 में सत्ता में आने के बाद से मोदी सरकार लगातार ऐसे कदम उठाती रही है जिसका मकसद हिंदुओं को एकजुट करना है ताकि वे एकजुट होकर भाजपा को वोट दें। उनके और मुसलमानों में इस हद तक विभाजन पैदा करना है जिससे न केवल हिंदू एकजुट हों बल्कि धार्मिक अल्पसंख्यकों विशेष रूप से मुसलमानों को मुख्यधारा से अलग-थलग भी किया जा सके। चाहे मसला, गोमांस या गोतस्करी का हो या लव ज़िहाद का या जय श्रीराम बोलने का, मकसद यही है कि मुसलमानों में ऐसा भय पैदा किया जाए जिससे कि वे अपने को मुख्यधारा से अलग-थलग कर लें। उनका मकसद यह भी है कि वे हिंदुओं के मन में मुसलमानों के प्रति इतनी नफरत और घृणा भर दें (और भय भी)  कि वे उनका अपने आसपास होना भी बर्दाश्त न कर सकें और मौका लगते ही उनके प्रति हिंसक हो जाएं। हिंदू यह मानने लगे कि मुसलमान उनके लिए वैसे ही बोझ हैं जैसे हिटलर की जर्मनी में यहूदी। उनकी समस्त परेशानियों का कारण मुसलमान ही हैं।

इसलिए मुसलमानों के विरुद्ध किया जाने वाला कोई अपराध अपराध की श्रेणी में नहीं आता। प्रधानमंत्री ही नहीं भाजपा और संघ का कोई नेता ऐसे हिंसक अपराधों की न तो कभी निंदा करता है और न ही इन अपराधों की रोकथाम के लिए भाजपा सरकार द्वारा कोई कदम उठाया गया है। उनकी कोशिश यह भी है कि एक समुदाय के रूप में मुसलमानों की देशभक्ति को हिंदुओं की नज़रों में संदिग्ध बना दिया जाए। उनकी मौजूदगी को औरतों और बच्चों के लिए खतरा बताया जाये।

उन्हें देश का दुश्मन और आतंकवादी बताया जाए और अगर सभी मुसलमान आतंकवादी नहीं है तो भी सब मुसलमान आतंकवाद के समर्थक अवश्य हैं, यह हिंदू अपने दिमागों में बैठा लें। इसके लिए वे दो और हथियारों का इस्तेमाल कर रहे हैं। एक कश्मीर के मुसलमान जो उनकी नज़र में अलगाववादी हैं और पाकिस्तान प्रेरित आतंकवाद के समर्थक हैं और इसी प्रचार का परिणाम है, कश्मीर फाइल्स जैसी फ़िल्म। दूसरे, वे सभी मुसलमान जिनके पास भारत की नागरिकता का कोई प्रमाण नहीं हैं, उन्हें घुसपैठिए और देश के लिए खतरनाक बताकर बाहर निकालना और जब तक वे भारत से बाहर नहीं जाते तब तक के लिए उन्हें नागरिक अधिकारों से वंचित करके नज़रबंदी शिविरों में रखना।

इसी के लिए नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) लाया गया है और जिसका अगला कदम नागरिकों का राष्ट्रीय पंजीकरण (एनआरसी) होगा। भारतीय संविधान सभी नागरिकों को चाहे उनका धर्म, जाति, लिंग, भाषा आदि कुछ भी क्यों न हो, उन्हें समान नागरिकता का अधिकार देता है। लेकिन अब इसमें से मुसलमानों के अलग कर दिया गया है। अगर कोई पड़ोसी राज्य का मुसलमान भारत की नागरिकता लेना चाहता है तो उसे सीएए के तहत नागरिकता नहीं मिलेगी। जहां तक नागरिकता के रजिस्टर का सवाल है, उन सभी लोगों की नागरिकता खतरे में पड़ जायेगी जिनके पास नागरिकता का प्रमाण नहीं होगा। लेकिन मुसलमानों को छोड़कर शेष समुदायों को शरणार्थी मानकर नागरिकता दे दी जायेगी। अभी इसे लागू करने से रोक दिया गया है, लेकिन इसे निश्चय ही 2024 में चुनाव जीतने के बाद लागू किया जा सकता है। 

नरेंद्र मोदी सरकार के निशाने पर भारत की लोकतांत्रिक और संघात्मक संरचना है। अभी हाल ही में दिल्ली राज्य को लेकर जो कानून संसद द्वारा पारित कराया गया है उसके बाद दिल्ली की चुनी हुई सरकार के पास नाम मात्र को भी अधिकार नहीं होंगे। उनके हर फैसले को उपराज्यपाल बदल सकेगा। यहां तक कि एक मंत्री से ज्यादा हैसियत एक सचिव की होगी। स्पष्ट ही यह कानून भारत के संघात्मक ढांचे पर प्रहार है और इस बात का खतरा है कि इस तरह के कानून भविष्य में दूसरे राज्यों पर भी लागू किये जा सकते हैं। सूचना के अधिकार कानून को कमजोर बनाया जा चुका है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर भी कई तरह के प्रतिबंध लगाये जा रहे हैं। इसी तरह कई आपराधिक और दंडात्मक कानून बदले गये हैं।

उनके केवल हिंदी नाम नहीं रखे गये हैं बल्कि उन्हें पहले से ज्यादा कठोर बना दिया गया है। दावा भले ही इससे उलट किया गया हो। मसलन, धारा 124 जो देशद्रोह से संबंधित कानून है और जो अंग्रेजों के समय से चला आ रहा था और जिसे हटाने की मांग लंबे समय से की जा रही थी, उसे हटा दिया गया है। संसद में इस कानून को समाप्त करने की घोषणा करते हुए गृहमंत्री अमित शाह ने कहा कि आजाद भारत में इस तरह के कानून नहीं होने चाहिए और सबको अपनी बात कहने की आज़ादी होनी चाहिए। लेकिन इस कानून की जगह अब जो नया कानून लाया जा रहा है, उसमें वे सभी प्रावधान हैं जो धारा 124 में थे। 

यह भी नहीं भूला जाना चाहिए कि पिछले दस साल में इसी सरकार ने धारा 124 का काफी इस्तेमाल किया है। इसी तरह यूएपीए जैसा कानून का भी इस सरकार ने सबसे अधिक इस्तेमाल किया है जिसमें बिना कारण बताये किसी को भी गिरफ्तार किया जा सकता है। भीमा कोरेगांव मामले में पांच साल से ज्यादा समय से बहुत से बुद्धिजीवी और सामाजिक कार्यकर्ता बिना मुकदमा चलाये जेलों में बंद हैं। इसी तरह बिना किसी सबूत के उमर खालिद को तीन साल से जेल में बंद रखा गया है। कानूनों में जो बदलाव किये जा रहे हैं उससे स्पष्ट है कि सरकार के निशाने पर धार्मिक अल्पसंख्यक विशेष रूप से मुसलमान हैं जिन्हें लगातार निशाना बनाया जा रहा है। उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, उत्तराखंड, हरियाणा आदि भाजपा शासित राज्यों में तुरत-फुरत न्याय के नाम पर मुसलमानों के घर, दुकानें और व्यवसायिक भवनों को बुलडोजर के द्वारा धराशायी किया गया है।

अभी कुछ ही दिनों पहले हरियाणा में नूंह में हुए दंगे के बाद बहुत बड़ी संख्या में मुसलमानों के घर, दुकानें और कई भवन बुलडोजर से धराशायी कर दिये गये। न्याय करने का यह गैरकानूनी तरीका है लेकिन इसे रोकने वाला कोई नहीं है। पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय के दो न्यायाधीशों ने यह टिप्पणी करते हुए इस पर रोक लगायी थी कि क्या यह जातीय नरसंहार का मामला है? इस मामले में इन दो न्यायाधीशों द्वारा आगे सुनवाई हो उससे पहले ही उन दोनों न्यायाधीशों से केस हटा दिया गया। दरअसल, हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था का कोई अंग ऐसा नहीं है जो इस सांप्रदायिक फासीवादी सरकार के निशाने से बाहर है। संसद का हाल हम देख रहे हैं जिसकी बहसों में शामिल होना प्रधानमंत्री अपना अपमान समझते हैं। बहुत से जरूरी विधेयक बिना बहस-मुबाहिसे के पास हो जाते हैं। अगर विपक्ष का कोई सांसद ज्यादा विरोध करता है तो उसे निलंबित कर दिया जाता है।

इससे कुछ भिन्न स्थिति न्यायपालिका की नहीं है। कुछ अपवादों को छोड़कर अधिकतर मामलों में न्यायालय के फैसले न्याय से नहीं बल्कि सत्ता की राजनीतिक जरूरतों से तय होते हैं। राहुल गांधी का मानहानि के मामले में जिस तरह से अधिकतम सजा दी गयी, वह इसका ठोस प्रमाण है। अरुण गोयल को चुनाव आयोग का सदस्य नियुक्त करने का जो तरीका अपनाया गया, वह इतना अधिक पक्षपातपूर्ण था कि पांच जजों की बैंच ने यह व्यवस्था की कि जब तक संसद कानून नहीं बनाता तब तक चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति जिन तीन सदस्यों द्वारा होगी उनमें प्रधानमंत्री, विपक्षी दल का नेता और सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश होंगे।

लेकिन अब संसद में सरकार एक ऐसा विधेयक लेकर आयी है जिसमें चुनाव आयुक्त की नियुक्ति जिन तीन सदस्यों द्वारा होगी उनमें सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश नहीं होंगे बल्कि उनकी जगह प्रधानमंत्री द्वारा नियुक्त एक केबिनेट मंत्री होगा। स्पष्ट है कि कैबिनेट मंत्री कभी भी अपने प्रधानमंत्री के विरुद्ध नहीं जायेगा इसलिए भविष्य में चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति दरअसल प्रधानमंत्री द्वारा होगी। विपक्ष के नेता पक्ष में रहे या विपक्ष में उससे कुछ भी फर्क नहीं पड़ेगा। 

ये सब बदलाव जो हो रहे हैं, वह लोकतंत्र को कमजोर करने वाले हैं और संविधान की मूल आत्मा का हनन है। इसका एक मकसद हिंदू राष्ट्र की दिशा में कदम बढ़ाते जाना है, तो दूसरी तरफ भारत के लोकतांत्रिक और संघात्मक ढांचे की बुनियाद को कमजोर करना है। ये दोनों मकसद दरअसल एक ही हैं। आशुतोष वार्ष्णेय का यह कहना सही प्रतीत होता है कि अगर नरेंद्र मोदी 2024 में जीतकर आते हैं तो वे कानूनों में ऐसे बदलाव कर सकते हैं जिससे मुसलमान भारत का दोयम दर्जे का नागरिक रह जायेगा। अभी संविधान में जो अधिकार अन्य समुदायों के साथ-साथ उसे मिले हुए हैं, उनमें से बहुत से अधिकार उनसे छीने जा सकते हैं, जैसा कि किसी समय अमरीका के कुछ राज्यों में अफ्रीकी मूल के लोगों के साथ किया गया था।  

हो सकता है कि फौरी तौर पर मुसलमानों की इस हालत को देखकर हिंदू आबादी का बड़ा हिस्सा इसे राष्ट्रवाद की विजय के रूप में देखे और इस बात से प्रसन्न हो कि पाकिस्तान की तरह हम भी एक धार्मिक राष्ट्र बन गये हैं लेकिन इन सबकी आड़ में जो शोषणकारी पूंजीवादी राजसत्ता जनता के लिए मुश्किलें पैदा कर रही है और आगे ये मुश्किलें दिन ब दिन बढ़ती जाएंगी उसे वे कैसे और कब तक भूल पायेंगे। देश पहले से ही महंगाई, बेरोजगारी और मंदी की मार से त्रस्त है और इनके पास इन समस्याओं से निपटने के जो तरीके हैं, उनसे निश्चय ही संकट और गहराता जाएगा तब हिंदू राष्ट्र के प्रति गर्व भावना और मुसलमानों के प्रति नफ़रत उनकी कोई मदद नहीं करेगी।

यही नहीं संघ की विचारधारा केवल धार्मिक अल्पसंख्यकों के ही विरुद्ध नहीं है वह दरअसल ब्राह्मणवादी विचारधारा भी है और उसका एक बड़ा हिस्सा जितनी नफरत मुसलमानों से करता है उससे कम दलितों से नहीं करता। वे यह भी चाहते हैं कि दलितों को संविधान ने जो बराबरी का अधिकार दिया है, आरक्षण की सुविधा दी है वह भी उनसे छीन ली जाए। सच्चाई यह है कि संघ का पूरा वैचारिक परिप्रेक्ष्य लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता, समानता और संघीय संरचना के विरोध में निर्मित हुआ है। उनके हमले का मूल निशाना यह संविधान ही है जिसे वे खत्म न कर सकें तो पूरी तरह से कमजोर और निष्प्रभावी जरूर बना देना चाहते हैं। 2014 से नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा सरकार यही काम कर रही है। संविधान हमारे लोकतंत्र का ही नहीं इस देश के प्रत्येक नागरिक की आज़ादी का भी रक्षक है और उसी के अस्तित्व पर खतरा मंडरा रहा है। 

(जेपी सिंह वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

जनचौक से जुड़े

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments

Latest Updates

Latest

Related Articles