ब्रिटिश हुकूमत से आजादी मिलने के दिन, यानी 15 अगस्त 1947 की बीच रात में भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने कहा था, आधी रात के समय में, जब दुनिया सो रही होगी, भारत जीवन और स्वतंत्रता के लिए जाग जाएगा। इतिहास में ऐसा क्षण कभी-कभी ही आता है जब हम पुराने से नए की ओर कदम रखते हैं, जब एक युग समाप्त होता है। समझा जाता है कि आजादी के साथ वह क्षण प्रकट हुआ और संविधान के लागू होते ही पुराने से नये कदम की तरफ भारत ने कदम बढ़ा लिया।
उस रात की सुबह हम से दूर-दूर ही रही। पुराने से नए की ओर कदम बढ़ाने के रास्ता में, बेहतर बदलाव के रास्ता में तरह-तरह की बाधा खड़ी होती रही है, खड़ी की जाती रही है। अपनी-अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं के लिए राजनीतिक दलों और व्यक्तियों ने एक राष्ट्र के रूप में भारत के लोगों को बार-बार मतिभ्रम में डालने की कोशिशें की। ऐसे राजनीतिक दल के रूप में राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ से प्रेरित राजनीतिक दल के रूप में निस्संदेह भारतीय जनता पार्टी सब से आगे है। भारतीय जनता पार्टी की पूरी सोच ही संविधान के विरुद्ध दिशा में जाती है।
कहना न होगा कि राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी ने कभी भी संविधान को वह मर्यादा नहीं दी जिस की उम्मीद भारत की किसी भी राजनीतिक दल से सहज ही की जाती है। इस अर्थ में भारतीय जनता पार्टी कोई राजनीतिक पार्टी ही नहीं है। भारतीय जनता पार्टी एक मात्र पार्टी है जिस का जन्म आजादी के बाद हुआ, ठीक पहले आम चुनाव के समय। जबकि राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ (27 सितंबर 1925) का गठन पहले ही हो चुका था, लेकिन भारतीय जनता पार्टी की मूल पार्टी का जन्म 21 अक्टूबर 1951 को हुआ, यानी चुनाव में भाग लेने के लिए ही यह पार्टी बनी थी। अखिल भारतीय जनसंघ अखिल भारतीय जनसंघ इस पार्टी का चुनाव चिह्न दीपक था। इसने 1952 के संसदीय चुनाव में 3 सीटें प्राप्त की थी। तो एक तरह से अखिल भारतीय जनसंघ राजनीतिक पार्टी तो नहीं, लेकिन हां चुनावी पार्टी जरूर है।
राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ की बुद्धि और भारतीय जनता पार्टी की राजनीति जाने पिछली किन-किन शताब्दियों में भारत को भटकाती रहेगी? 2014 और 2019 के आम चुनाव में जरूर भारतीय जनता पार्टी को अपने दम पर पूर्ण बहुमत मिल गया। 2024 में इसे अपने दम पर पूर्ण बहुमत तो नहीं मिला लेकिन बिहार और आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और एन चंद्रबाबू नायडू के सहयोग से लगातार तीसरी बार नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बनने में कामयाब रहे।
जब से सत्ता की कुंजी भारतीय जनता पार्टी के हाथ लगी तभी से वह सत्ता को सकारात्मक बदलाव के लिए नहीं नकारात्मक ढंग से बदले की राजनीति के लिए बेझिझक और बेकाबू होकर सत्ता का इस्तेमाल करने पर आमादा हो गई। राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ हो या भारतीय जनता पार्टी हिंदू-मुसलमान के रिश्ता में तनाव ही इन की राजनीतिक पूंजी है। इस तनाव से नफरती माहौल के सारे सूत्र निकलते हैं। ना जाने इतिहास के किन-किन प्रसंगों का बदला लेगी? जो बेहतर बदलाव से डरते-डरते हैं, वे बदला की राजनीति करते हैं। अगर इस देश में बदले की राजनीति शुरू हो गई तो कहां का पानी डगर कर कहां जायेगा इस का अनुमान भी सिहरा देने के लिए काफी है। जो बेहतर बदलाव से डरते-डरते हैं, वे बदला की राजनीति करते हैं।
पिछले दिनों औरंगजेब की कब्र को लेकर हिंसक माहौल बना दिया गया। नागपुर के लोग हिंसा के शिकार होते रहे लेकिन आरएसएस खामोश बना रहा। आरएसएस की खामोशी तब टूटी जब भयानक घटित हो चुका था। अब जाकर नागपुर में भड़की हिंसा को लेकर राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ ओर से प्रतिक्रिया सामने आई है। अब, जब शंभाजी नगर से औरंगजेब की कब्र को हटाने की वीएचपी और अन्य संगठनों की मांगों के जोर पकड़ने और उग्र होने का भयानक खतरा सामने दिखा तब यह बात समझ में आई है कि मुगल बादशाह आज के समय में “प्रासंगिक नहीं” हैं। अब जाकर, राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ के अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख सुनील आंबेकर का कहना है कि, किसी भी तरह की हिंसा समाज के लिए ठीक नहीं हैं।
बात तो ठीक है लेकिन यह समझने में और कहने में इतना समय लग गया! इतना समय यानी पूरे सौ साल! इस बीच खबरों के अनुसार 21 से 23 मार्च 2025 के बीच बंगलूरू में आरएसएस की ‘अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा’ की बैठक होने जा रही है। अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा’ को आरएसएस की पूरी विचारधारा की प्रासंगिकता पर ही विचार करना चाहिए। बांग्ला में विचार का अर्थ न्याय होता है।
पश्चिम बंगाल में रहनेवाला, मेरे जैसा हिंदी भाषी जब ‘विचार’ कहता है तो उस के कहने में जाने-अनजाने न्याय का आशय भी छिपा रहना स्वाभाविक होता है। कम-से-कम मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि आरएसएस की पूरी विचारधारा ही अप्रासंगिक है। सामुदायिक भेद-भाव, सांस्कृतिक तनाव, वर्ण-वर्चस्व और किसी भी प्रकार के शोषण को ‘प्रशंसनीय’ और स्वीकार्य बतानेवाली या वैध ठहराने की कोशिश करनेवाली कोई भी व्यग्र शख्सियत, संस्था, सियासत या विचारधारा अप्रासंगिक ही होती है।
सामाजिक अशांति और विकास में जन्म-जात विरोध होता है। विकास तो बड़ी बात है ऐसा समाज जीवनयापन की छोटी-छोटी जरूरतों के लिए भी हमेशा मुंहतक्की में फंसा रहता है। वैश्विक परिस्थिति पर जरा नजर डालने पर यह समझने में बहुत दिक्कत नहीं होगी कि अर्थव्यवस्था की भयानक बदहाली के परिदृश्य में उम्मीद की किरण तो कृषि क्षेत्र ही है। कृषि क्षेत्र और किसानों के प्रति इन के शासन का रुख और रवैया सब के सामने है।
वैश्विक परिस्थिति पर जरा नजर डालने पर यह समझने में बहुत दिक्कत नहीं होगी कि अर्थव्यवस्था की भयानक बदहाली के परिदृश्य में उम्मीद की किरण तो कृषि क्षेत्र ही है। दिल्ली विधानसभा चुनाव का नतीजा आने के बाद आम आदमी पार्टी दिग्भ्रमित हो गई है। या यही उस की राजनीति की स्वाभाविक दिशा है, कुछ भी कहना मुश्किल है।
बहरहाल, दिग्भ्रमित आम आदमी पार्टी और उस की सरकार के भारतीय जनता पार्टी के साथ होने में क्या अचरज है। आम आदमी पार्टी की पंजाब सरकार ने किसानों और किसान आंदोलन के साथ जो सलूक किया है वह किसी भी लोकतांत्रिक देश की मर्यादा के अनुकूल तो नहीं कही जा सकती है। किसी भी चुनी हुई सरकार का ऐसा आचरण अंततः लोकतंत्र को ही संदेहास्पद बना देता है।
भारत में लोकतंत्र के संदेहास्पद हो जाने के उदाहरणों की क्या कमी है! सामने बिहार विधानसभा का चुनाव है तो अब राष्ट्रीय जनता दल के नेता लालू प्रसाद यादव को ईडी ने समन जारी किया है। प्रवर्तन निदेशालय (Enforcement Directorate) ने यह समन नौकरी के बदले जमीन घोटाले के मामले में पूछताछ के लिए भेजा है। इस मामले की जांच अब तक सीबीआई करती रही है, लेकिन मनी लॉन्ड्रिंग का भी ऐंगल जुड़ा होने से ईडी की भी इस केस में एंट्री हुई है।
चुनाव का समय आते ही ईडी इस मामले में फिर से सक्रिय हो गई है, जबकि अगस्त 2024 में ही चाजर्शीट यानी आरोप पत्र अदालत में दायर हो चुका है। साफ-साफ समझ में आने लायक बात है कि घोटाला हुआ है या नहीं, यह तो ईडी ही बता सकती है। इस का फैसला तो अदालत में ही हो सकता है। लेकिन यह बात तो लोगों की नजर में गड़ जाती है, गड़ रही है कि हर-बार चुनाव के समय में ही ऐसे मुद्दों को सिर पर उठाकर ईडी नाचने क्यों लगती है?
चुनाव और ईडी के बीच चोली दामन का रिश्ता बन गया है। नौकरी के बदले जमीन का मामला 2004-09 के बीच का है जब यूपीए की सरकार में लालू प्रसाद यादव रेल मंत्री हुआ करते थे। तेज प्रताप यादव और श्रीमती राबड़ी देवी को 18 मार्च 2025 को पूछ-ताछ के लिए बुला भेजा। लालू प्रसाद यादव को 19 मार्च 2025 को बुलाया गया।
याद किया जाना चाहिए कि पहले तो इस मामले की जांच सीबीआई ने शुरू-शुरू में फिर पैसा का लेन-देन होने की बात, मनी लॉन्ड्रिंग के कारण ईडी ने इस की जांच शुरू कर दी। फिर कहें कि अदालत में चाजर्शीट अगस्त 2024 में दाखिल की जा चुकी है। चाजर्शीट दाखिल हो चुकने के बाद यह पूछ-ताछ का यह कैसा मौका आया है। मौका आया है या पैदा किया गया है, यह बताने या समझने में कोई बहुत बड़ी बुद्धिमत्ता की जरूरत नहीं है।
कहने की जरूरत नहीं है कि ईडी और चुनाव में चोली दामन का रिश्ता बन गया है तो ईडी की सक्रियता का बिहार विधानसभा के चुनाव से क्या रिश्ता है! हां, हां अभी तो बिहार विधानसभा का चुनाव थोड़ा दूर ही लगता है। लेकिन बिहार विधानसभा चुनाव को लेकर जिस तरह से राजनीतिक गतिविधि शुरू हो गई है। जाहिर है कि चुनाव के हर फ्रंट का सक्रिय होना तो स्वाभाविक ही माना जा सकता है।
कहना जरूरी है कि बिहार विधानसभा के चुनाव में सत्तारूढ़ राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के मुकाबले स्थानीय तौर पर महागठबंधन और व्यापक तौर पर इंडिया गठबंधन है। कहना न होगा कि महागठबंधन का मुख्य घटक दल राष्ट्रीय जनता दल है। लालू प्रसाद यादव राष्ट्रीय जनता दल के महत्वपूर्ण शिल्पकार हैं। लालू प्रसाद यादव राष्ट्रीय जनता दल के महत्वपूर्ण नेता हैं। वे तेजस्वी यादव के पिता हैं। तेजस्वी यादव के लिए यह क्षण भावुक करनेवाला क्षण है। लालू प्रसाद यादव तेजस्वी यादव के पिता हैं। समझ में आने लायक बात है कि तेजस्वी यादव पर राजनीतिक और पारिवारिक दबाव बनाने और लगातार बढ़ाते रहने के लिए ये सारी कार्रवाइयां हो रही है। तो क्या तेजस्वी यादव के लिए यह दबाव इस चुनाव में असहनीय हो जायेगा?
लालू प्रसाद यादव ही क्यों, खुद तेजस्वी यादव की पिछली राजनीतिक पहलकदमियों को देखने से ऐसा नहीं लग रहा कि वे दबाव में आकर डर जायेंगे या मानसिक रूप से टूट जायेंगे। लेकिन अगर ऐसा असंभव हो ही जाता है तो फिर क्या होगा! महागठबंधन का शीराजा फिर भी नहीं बिखरेगा।
राजनीति तो परिस्थितियों का खेल है। एक मिनट के लिए यदि भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय जनता दल में किसी प्रकार की राजनीतिक समझदारी बन जाती है तो क्या होगा? कांग्रेस ने बिहार के प्रदेश अध्यक्ष अखिलेश प्रसाद सिंह को बदल दिया है। समझा जाता है कि पिछले कांग्रेस अध्यक्ष अखिलेश प्रसाद सिंह की अतिरिक्त निकटता राष्ट्रीय जनता दल से रही है। अब नये अध्यक्ष राजेश कुमार ने अपना पदभार नये सिरे से सम्हाल लिया है। कांग्रेस खुले मन खुदमुख्तारी का सबूत दे रही है।
कांग्रेस के नये अध्यक्ष राजेश कुमार को ‘राजनीतिक अनुयायी’ की तरह नहीं खुदमुख्तार कांग्रेस नेता की तरह अपनी सक्रियता का परिचय देना ही होगा। लेकिन ध्यान यह भी रखना होगा कि बिहार में जीवंत महागठबंधन की सेहत पर कोई नकारात्मक असर न परे।
महागठबंधन की सेहत पर कोई असर नहीं पड़ेगा ऐसी उम्मीद की जानी चाहिए क्योंकि लालू प्रसाद यादव जैसे अनुभव सिद्ध नेता की सक्रिय उपस्थिति महागठबंधन में बनी हुई है, तेजस्वी यादव खुद परिस्थिति परिवर्तन होने पर भी परिपक्व नेता की तरह व्यवहार करते रहे हैं। सब से बड़ी बात तो यह है कि महागठबंधन में जमीनी हकीकत से वाकिफहाल वाम-पंथी और खासकर भाकपा (मा-ले) लिबरेशन महत्वपूर्ण भूमिका में हैं।
बहरहाल, याद किया जा सकता है कि पिछले दिनों आरएसएस के प्रमुख मोहन भागवत दिनकर की काव्य पंक्ति दुहरा रहे थे, ‘सौभाग्य न सब दिन सोता है, देखें, आगे क्या होता है?’ वे किस के सोये हुए ‘सौभाग्य’ की तरफ इशारा कर रहे थे! समझना बहुत मुश्किल तो नहीं है। उधर, बिहार कांग्रेस के अध्यक्ष पद से हटा दिये जाने के बाद अखिलेश प्रसाद सिंह के सुपुत्र भी दिनकर की ही काव्य पंक्ति के सहारे किसी को कोस रहे हैं, ‘जब नाश मनुज पर छाता है, पहले विवेक मर जाता है।’ किस का विवेक मर गया! विवेक के मर जाने पर किस को कोस रहे हैं, समझना क्या मुश्किल है! नहीं न! एक बात तय है बिहार की जनता का चुनावी विवेक ही विवेक के जिंदा रहने का सबूत भी दे सकता है रखकर ‘सोये हुए सौभाग्य’ का अर्थ भी खोल सकता है।
(प्रफुल्ल कोलख्यान स्वतंत्र लेखक और टिप्पणीकार हैं)
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