वाराणसी के ज्ञानवापी का मामला जिस तरह दिन प्रतिदिन उलझता जा रहा है उससे स्थिति लगातार गम्भीर होती जा रही है और यह सवाल उठने लगा है कि क्या यह रामजन्मभूमि- बाबरी मस्जिद सरीखे विवाद की ओर तो नहीं बढ़ रहा है। देश के प्रतिष्ठित अख़बार ने इस पर सम्पादकीय प्रकाशित किया है जिसमें आशंका व्यक्त की गयी है कि ज्ञानवापी मस्जिद में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) द्वारा सर्वेक्षण के संचालन को बरकरार रखते हुए हो सकता है कि इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने पूजा स्थल के चरित्र को बदलने के एक गुप्त प्रयास का समर्थन किया है।
उच्च न्यायालय और वाराणसी जिला न्यायालय, जिसने 21 जुलाई को एएसआई सर्वेक्षण का आदेश दिया था, दोनों ने पहले माना था कि मस्जिद परिसर के भीतर कुछ देवताओं और छवियों की पूजा करने के अपने अधिकार का दावा करने के लिए कुछ हिंदू भक्तों द्वारा दायर मुकदमा स्थानों द्वारा वर्जित नहीं था। पूजा (विशेष प्रावधान) अधिनियम, 1991, जिसने 15 अगस्त, 1947 को सभी पूजा स्थलों की स्थिति को स्थिर कर दिया। कारण यह दिया गया कि मुकदमा पूरी तरह से पूजा करने के अधिकार के लिए था, न कि किसी घोषणा की मांग करने के लिए कि इमारत एक मंदिर थी। इस रुख के बिल्कुल विपरीत, उपासकों ने पुरातत्वविदों द्वारा एक वैज्ञानिक सर्वेक्षण की मांग करते हुए आवेदन दायर किया ताकि यह पता लगाया जा सके कि क्या ज्ञानवापी मस्जिद एक हिंदू मंदिर की ध्वस्त संरचना पर बनाई गई थी।
दोनों अदालतों ने एएसआई के माध्यम से आधिकारिक साक्ष्य इकट्ठा करने की इस रणनीति का समर्थन किया है, जो वर्तमान में वादी के लिए उपलब्ध नहीं है। जिला न्यायालय के आदेश में केवल इतना कहा गया कि एक वैज्ञानिक रिपोर्ट इस मामले के बारे में “सही तथ्य” सामने लाएगी और उचित और उचित निष्कर्ष पर पहुंचने में मदद करेगी। उच्च न्यायालय ने सभी आपत्तियों को खारिज कर दिया है, जिसमें यह कहा गया था कि अदालत विचार किए जाने वाले मुद्दों को तैयार करने से पहले विशेषज्ञ साक्ष्य नहीं मांग सकती है, और वह वादी की ओर से साक्ष्य एकत्र नहीं कर सकती है।
सम्पादकीय में कहा गया है कि अदालतों ने इस सवाल पर विचार नहीं किया है कि खंभों और दीवारों की तारीख निर्धारित करना और कलाकृतियों की सूची बनाना क्यों आवश्यक है, जबकि मुकदमे में मुख्य प्रार्थना मां श्रृंगार गौरी, गणेश, हनुमान और अन्य दृश्य और अदृश्य देवता की पूजा करने के अधिकार के लिए है।
पूरा मामला इस दावे पर आधारित है कि 15 अगस्त, 1947 से पहले और बाद में इस स्थल पर हिंदू देवताओं की पूजा की जाती थी। और इन देवताओं की दैनिक पूजा 1990 तक चल रही थी, और 1993 के बाद, हर साल एक दिन इसकी अनुमति दी गई है।
सर्वेक्षण के लिए याचिका और मस्जिद के नीचे एक पुरानी संरचना के सवाल को उठाने का इरादा इसकी स्थिति में बदलाव की मांग के लिए स्थितियां बनाने की एक योजना का संकेत देता है। एक पूर्व आदेश में एक अधिवक्ता-आयुक्त को परिसर का अध्ययन करने के लिए कहा गया था, जिससे यह दावा किया गया कि जो संभवतः एक स्प्रिंकलर या फव्वारा था वह एक ‘शिवलिंगम’ था। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि अदालतें मुस्लिम पूजा स्थलों पर प्रेरित मुकदमेबाजी को प्रोत्साहित कर रही हैं। हर बार जब ऐसा आवेदन दायर किया जाता है, तो यह कानूनी प्रक्रिया के दुरुपयोग से बढ़ते अन्याय की आशंका को जन्म देता है।
गौरतलब है कि 1986 में बाबरी मस्जिद का ताला खुलने और उसके बाद राम मंदिर आंदोलन में आई तेज़ी के बीच, मथुरा और काशी का नाम भी अक्सर आता रहा है। अब बाबरी मस्जिद गिराए जाने के 30 साल पूरे होने को हैं, ऐसे में काशी और मथुरा के मामले अब अदालत में हैं। हालांकि सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद फ़िलहाल मस्जिद में नमाज़ जारी है।
पिछले साल अगस्त में दिल्ली की एक महिला राखी सिंह और चार अन्य महिलाओं ने ज्ञानवापी मस्जिद के परिसर में श्रृंगार गौरी और कुछ अन्य देवी-देवताओं के दर्शन-पूजन की अनुमति की मांग करते हुए एक याचिका दाख़िल की।वाराणसी की एक निचली अदालत में दाख़िल अर्ज़ी में याचिकाकर्ताओं ने दावा किया है कि ये देवी-देवता प्लॉट नंबर 9130 में मौजूद हैं जो विवादित नहीं है। अर्ज़ी में कहा गया कि सर्वे कराके पूरे मामले को सुलझाया जाए।
लगभग आठ माह बाद आठ अप्रैल, 2022 को अदालत ने सर्वेक्षण करने और उसकी वीडियोग्राफ़ी के आदेश दे दिए। मस्जिद इंतज़ामिया (प्रबंधन समिति) ने कई तकनीकी पहलुओं के आधार पर इस आदेश को हाई कोर्ट में चुनौती दी, जिसे अदालत ने नामंज़ूर कर दिया।
सर्वेक्षण के दौरान मस्जिद के वज़ूख़ाने में एक ऐसी आकृति मिली है, जिसके शिवलिंग होने का दावा किया जा रहा है, जिसके बाद मस्जिद को सील कर दिया गया था। हालाँकि सुप्रीम कोर्ट ने मस्जिद में नमाज़ जारी रखने जाने का आदेश सुनाया, हालांकि वज़ूख़ाना अब भी सील है।
श्रृंगार गौरी की पूजा अभी भी साल में एक बार नवरात्र चतुर्थी को होती है, लेकिन अब प्रतिदिन पूजा करने की इजाज़त मांगी जा रही है।
मुस्लिम पक्ष के वकील ने सवाल उठाया था कि जब पूजा वाली जगह मस्जिद की पश्चिमी दीवार की बाहरी ओर है यानी विवादित जगह पर नहीं है, तो ऐसे में मस्जिद में प्रवेश करने और वहाँ सर्वेक्षण कराए जाने का क्या औचित्य है?
पहले साल 1991 में एक केस फ़ाइल हुई थी, जिसमें दावा किया गया था कि मस्जिद जहां बनी है, वो काशी विश्वनाथ की ज़मीन है इसलिए मुस्लिम धर्मस्थल को हटाकर उसका क़ब्ज़ा हिंदुओं को सौंपा जाए। ये मामला हाई कोर्ट में है।
अदालत में एक मुक़दमा 1936 में भी दायर हुआ, जिसका निर्णय अगले साल आया। फ़ैसले में पहले निचले कोर्ट और फिर उच्च न्यायालय ने मस्जिद को वक़्फ़ प्रॉपर्टी माना। 1996 में भी सोहन लाल आर्य नाम के एक व्यक्ति ने सर्वे की मांग को लेकर बनारस की अदालत में अर्ज़ी दाख़िल की थी लेकिन सर्वे नहीं हुआ।
दरअसल इधर सुप्रीम कोर्ट ने 19 मई, 2023 को वाराणसी के ज्ञानवापी मस्जिद में पाए गए कथित ‘शिवलिंग’ की वैज्ञानिक जांच पर रोक लगाई,उधर 31 मई 23 को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने वाराणसी कोर्ट में हिंदू उपासकों के मुकदमे के सुनवाई योग्य होने के खिलाफ मस्जिद समिति की याचिका खारिज की और विवाद कायम रखा। दरअसल 1991 के प्लेसेस ऑफ वर्शिप एक्ट की संवैधानिकता को चुनौती देने वाली याचिकाओं को खारिज करने के बजाय स्वीकार के सुप्रीम कोर्ट ने जाने अनजाने में प्रॉक्सी मुकदमेबाजी में केंद्र और हिन्दू साम्प्रदायिकता की भरी मदद कर दी है। और विवादित स्थलों को लेकर न्यायालयों में मुकदमों की बाढ़ आ गयी है।
भारतीय स्वतंत्रता के दिन मौजूद पूजा स्थलों के धार्मिक रूपांतरण पर रोक लगाने वाले 1991 के कानून की संवैधानिकता को चुनौती देने वाली याचिकाओं को खारिज करने के बजाय स्वीकार करने का सुप्रीम कोर्ट का फैसला अजीब है, क्योंकि एक बड़ी पीठ ने इसे बरकरार रखा था।
1991 का अधिनियम कहता है कि कोई भी व्यक्ति किसी भी धार्मिक संप्रदाय या उसके किसी खंड के पूजा स्थल को उसी धार्मिक संप्रदाय के किसी अलग खंड या किसी अलग धार्मिक संप्रदाय या उसके किसी खंड के पूजा स्थल में परिवर्तित नहीं करेगा।
इसमें घोषणा की गई है कि 15 अगस्त, 1947 को मौजूद पूजा स्थल का धार्मिक चरित्र वैसा ही बना रहेगा जैसा वह उस तारीख को मौजूद था। अधिनियम में निर्दिष्ट किया गया है कि क़ानून में शामिल कुछ भी पूजा स्थल, जो कि अयोध्या में विवादित ढांचा था, और उससे संबंधित किसी भी मुकदमे, अपील या अन्य कार्यवाही पर लागू नहीं होगा।
हालांकि पूजा स्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम 1991 को चुनौती देने वाली याचिकाओं के एक बैच में जवाबी हलफनामा दाखिल करने के लिए केंद्र सरकार को समय का एक और विस्तार देते हुए, सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को कहा कि केवल याचिकाओं के लंबित होने का मतलब यह नहीं है कि अधिनियम पर रोक लगा दी गई है। भारत के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस पीएस नरसिम्हा और जस्टिस मनोज मिश्रा की पीठ कानून की संवैधानिकता को चुनौती देने वाली रिट याचिकाओं के एक समूह पर विचार कर रही थी, जो एक धार्मिक संरचना के रूपांतरण को उसकी प्रकृति से प्रतिबंधित करता है, जैसा कि आज से आजादी की तारीख में है। मामले की सुनवाई होते ही भारत के सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने जवाबी हलफनामा दाखिल करने के लिए और समय देने का अनुरोध किया।
वकील वृंदा ग्रोवर ने पीठ को सूचित किया कि जमीयत उलेमा-ए-हिंद (इस्लामिक मौलवियों का निकाय) ने पूजा स्थल अधिनियम को उचित रूप से लागू करने की मांग करते हुए एक रिट याचिका दायर की है। उन्होंने कहा कि पूरे देश में कानून के अस्तित्व में होने के बावजूद धार्मिक स्थलों को परिवर्तित करने की मांग को लेकर मुकदमे चल रहे हैं।
सीजेआई ने कहा कि अधिनियम पर कोई रोक नहीं है। आपको बस संबंधित न्यायालय को यह बताना है कि अधिनियम पर कोई रोक नहीं है। केवल याचिका के लंबित होने का मतलब यह नहीं है कि रोक है, हम आम तौर पर अदालतों के समक्ष कार्यवाही पर रोक नहीं लगा सकते हैं, बिना यह जाने कि वे क्या कार्यवाही हैं।
गौरतलब है कि अयोध्या पर फैसला आने के बाद मथुरा की एक अदालत में दायर याचिका में कृष्ण जन्मस्थान परिसर में स्थित 17वीं सदी की ईदगाह मस्जिद को हटाने की मांग की गई थी। हालांकि, ये याचिका खारिज हो गई। अब अगर सुप्रीम कोर्ट पूजा स्थल कानून की वैधानिकता पर विचार करता है तो इसका असर काशी-मथुरा के मंदिर विवादों पर भी पड़ेगा। इन मंदिरों के लिए भी अयोध्या मामले की तरह कानूनी लड़ाई शुरू हो सकती है।
कहा जाता है कि मथुरा की शाही ईदगाह मस्जिद जिस जमीन के ऊपर बनाई गई है, उसके नीचे ही वो जगह है जहां श्री कृष्ण का जन्म हुआ था। 17वीं सदी में औरंगजेब ने यहां मंदिर तोड़कर मस्जिद बनवा दी थी। इसी तरह काशी के विश्वनाथ मंदिर और ज्ञानवापी मस्जिद को लेकर भी विवाद है।
सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार 4 अगस्त, 2023 को वाराणसी में ज्ञानवापी मस्जिद का सर्वेक्षण करने के लिए भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) को रोकने से इनकार कर दिया। एएसआई की ओर से दिए गए इस अंडरटेकिंग को रिकॉर्ड पर लेते हुए कि साइट पर कोई खुदाई नहीं की जाएगी और संरचना को कोई नुकसान नहीं पहुंचाया जाएगा, अदालत ने सर्वेक्षण करने की अनुमति दी। तदनुसार, न्यायालय ने अंजुमन इंतजामिया मस्जिद कमेटी (जो वाराणसी में ज्ञानवापी मस्जिद का प्रबंधन करती है) द्वारा कल के इलाहाबाद हाईकोर्ट के आदेश को चुनौती देने वाली याचिका का निपटारा कर दिया, जिसने एएसआई सर्वेक्षण की अनुमति दी थी।
इसके पहले सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार 19 मई, 2023 को वाराणसी ज्ञानवापी मस्जिद के अंदर पाई गई उस संरचना की वैज्ञानिक जांच पर रोक लगाने का निर्देश दिया, जिसे हिंदू वादी ‘शिवलिंग’ होने का दावा करते हैं और मस्जिद कमेटी एक फव्वारे का दावा करती है। चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस पीएस नरसिम्हा और जस्टिस केवी विश्वनाथन की पीठ ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के 12 मई को पारित आदेश के खिलाफ अंजुमन इस्लामिया मस्जिद कमेटी (जो वाराणसी में ज्ञानवापी मस्जिद का प्रबंधन करती है) की विशेष अनुमति याचिका पर यह आदेश पारित किया। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने अपने आदेश में संरचना की आयु का पता लगाने के लिए ‘शिवलिंग’ के वैज्ञानिक सर्वेक्षण का निर्देश दिया था।
पीठ ने निर्देश दिया कि हाईकोर्ट के आदेश में निहित निर्देशों का कार्यान्वयन सुनवाई की अगली तारीख तक स्थगित रहेगा। पीठ ने आदेश में कहा, चूंकि आक्षेपित आदेश के निहितार्थों की बारीकी से जांच की जानी चाहिए, इसलिए आदेश में संबंधित निर्देशों का कार्यान्वयन अगली तिथि तक स्थगित रहेगा।
(जेपी सिंह वरिष्ठ पत्रकार और कानूनी मामलों के जानकार हैं।)