आदिवासी समाज में व्यवस्थित पतन के कई कारण: सालखन मुर्मू

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पूर्व सांसद सालखन मुर्मू आदिवासी समुदाय में जागरूकता एवं शिक्षा का अभाव, अंधविश्वास ग्रस्त होना, राजनीतिक भागीदारी का अभाव, उनकी संख्या में निरंतर गिरावट पर चिंता व्यक्त करते हुए कहा है कि झारखंड और बृहद झारखंड क्षेत्र के प्रमुख आदिवासी समाज में परंपरा के रूप में 1) नशापान 2) अंधविश्वास 3) ईर्ष्या-द्वेष 4) राजनीतिक कुपोषण और 5)  प्राचीन राजतांत्रिक स्वशासन पद्धति आदि सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक पतन के प्रमुख कारण हैं। जिस पर आदिवासी समाज के पढ़े-लिखे और बुद्धिजीवी लोगों का सुधारात्मक पहल नगण्य है।

आदिवासियों की सामूहिक परंपरा के अनुसार बच्चों के जन्म होने पर, शादी विवाह पर, श्राद्ध और पर्व–त्योहार आदि पर हँड़िया–दारु आदि का चलन अनिवार्य है।  अतः नशापान की सामाजिक अनिवार्यता और मान्यता छोटे बच्चों और नवयुवकों में निरंतर सिस्टम की तरह चालू है। जिसे रोके बगैर आदिवासी समाज से नाशापान को खत्म करना कठिन है, मगर जरूरी है।

आदिवासी समाज में अधिकांश लोग लाजिकल अर्थात तार्किक नहीं बल्कि मैजिकल या  जादुई मानसिकता की दुनिया में जीते हैं। अतः डायन भूत, झाड़-फूंक आदि का प्रचलन अभी भी प्रचंड है। जिसके पीछे सरकारी स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी एक बड़ा कारण है। मगर यहां प्राचीन आदिवासी स्वशासन व्यवस्था से जुड़े प्रमुखों यथा माझी-परगना, मुंडा-मानकी आदि और उनके पारंपरिक पुजारी नाइके, दिवरी आदि का मैजिकल माइंडसेट उन्हें डॉक्टरी इलाज की बजाय झाड़-फूंक की तरफ घसीटता रहता है। इसकी रोकथाम जरूरी है। अन्यथा डायन-बिसाही के नाम पर हत्या, प्रताड़ना आदि चालू रहेगा। शर्प दंश और ब्रेन मलेरिया आदि के बीमार मरते रहेंगे।

आदिवासी समाज में ईर्ष्या द्वेष अब भी एक प्रबल समस्या है। इसके कारण आदिवासी समाज में सुधारात्मक प्रयास करने वालों की कोई कद्र नहीं है। बल्कि जो नशापान, अंधविश्वास और प्राचीन गलत परंपराओं को बढ़ावा देता है उसकी प्रशंसा की जाती है। अंततः समाज में गलत लोग और गलत प्रवृत्ति हाबी हैं। अच्छे लोग और अच्छे विचारों को ईर्ष्या द्वेष का शिकार होना पड़ता है। अतएव गांव समाज के अच्छे लोग डर से चुप बैठ जाते हैं और गलत सोच वाले एकाध लोग ही अधिकांश आदिवासी गांव में हावी रहते हैं। जो ग्रामीणों को अच्छे उद्देश्यों के लिए एकजुट होने में सदैव बाधक बन बैठते हैं।

आदिवासी समाज अब तक राजनीतिक कुपोषण का शिकार है। वोट क्यों देना है? किसको देना है? सरकार, शासन, जनप्रतिनिधि आदि की सही समझ की कमी विकराल है। अंततः जिसका प्रतिफल झारखंड प्रदेश गठन के 20 वर्षों के बावजूद सर्वाधिक खस्ताहाल, सर्वाधिक आबादी और सर्वाधिक आरक्षित आदिवासी जनप्रतिनिधियों वाले आदिवासी समाज को भोगना पड़ रहा है। हँड़िया- दारु, चखना, रुपयों में वोट की खरीद- बिक्री आदिवासी समाज में परंपरा की तरह विद्यमान है। पढ़े-लिखे, नौकरी पेशा में शामिल आदिवासी भी इस मामले में अनपढ़ की तरह हैं। आदिवासी समाज अब तक राजनीति से घृणा कर खुद अपने पांव में कुल्हाड़ी मार रहा है।

आदिवासी समाज की सर्वाधिक बड़ी समस्या उसकी प्राचीन राजतांत्रिक  (वंश परंपरागत) स्वशासन पद्धति है। जिसके तहत प्रत्येक गांव में एक सामाजिक प्रमुख होता है। उसे संताल समाज में माझी कहा जाता है और हो समाज में मुंडा। उनके ऊपर कई गांवों को मिलाकर एक परगना और मानकी होते हैं। इनको गांव के लोग मिलकर नहीं चुनते हैं बल्कि यह वंश परंपरागत मान लिए जाते हैं। और अंततः लगभग सभी गांव में  99%  अनपढ़, पियक्कड़ लोग इन प्रमुख पदों पर काबिज हैं। जिनको देश-दुनिया, संविधान- कानून और राजनीति का महत्व आदि की कोई जानकारी नहीं रहती है। ये खाने-पीने, नशापान, अंधविश्वास, ईर्ष्या द्वेष, वोट की खरीद-बिक्री आदि को बढ़ावा देने में  योगदान करते हैं। गांव को एकजुट कर सही दिशा में अग्रसर करने की सोच बिल्कुल नहीं रखते हैं। ये बाहरी दबाव और स्वार्थ में आकर समाज विरोधी काम भी करते हैं। पहले इनको अंग्रेजों ने यूज किया अब सरकारी तंत्र भी इसका दुरुपयोग करता है। आदिवासी समाज के पतन के प्रमुख कारक खुद प्राचीन वंश परंपरागत स्वशासन पद्धति के प्रमुख हैं। जिनका गुणात्मक जनतांत्रीकरण अविलंब जरूरी है। अब तक आदिवासी समाज का राजा ही जाने-अनजाने में अपनी प्रजा का नरसंहार कर रहा है।

आदिवासी समाज की तरक्की हेतु अनेक  विचार, योजनाएं और बजट प्रदान किए जाते हैं। शिक्षित होने की दुहाई दी जाती है। मगर जब तक उपरोक्त पांच प्रमुख पारंपरिक बीमारियों को दूर नहीं किया जाता है, ज्यादा कुछ नहीं बदलने वाला है। यह सभी गलत सिस्टम या परंपरा के नतीजे हैं। अब सामाजिक, राजनीतिक और प्रशासनिक व्यवस्थाओं से जुड़े जिम्मेवार लोगों को उपरोक्त पारंपरिक बीमारियों का ईलाज प्रदान करना चाहिए तभी आदिवासी समाज में मूलभूत बदलाव संभव है।

(वरिष्ठ पत्रकार विशद कुमार की रिपोर्ट।)

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