Saturday, April 27, 2024

अंग्रेजों के तीन कृषि कानूनों खिलाफ हुआ था ‘पगड़ी संभाल जट्टा’ आंदोलन

सरदार अजीत सिंह, अमर शहीद भगत सिंह के चाचा थे। उन्होंने एक किताब लिखी है, बरीड अलाइव। आज जब देश भर के किसान, दिसंबर की इस ठंड में अपने परिवार के साथ, दिल्ली सीमा स्थित, सिंघू नामक स्थान पर, एक लाख ट्रैक्टरों और अन्य लवाजमे के साथ सरकार द्वारा पारित तीन किसान विरोधी, कृषि कानूनों को वापस लेने के लिए आंदोलित हैं और, सरकार तक अपनी आवाज़ पहुंचाने की कोशिश कर रहे हैं और इसी क्रम में, 8 दिसंबर को जब एक सफल भारत बंद का आयोजन वे कर चुके हैं तो, सरदार अजीत सिंह के नेतृत्व में, आज से 113 साल पहले किया गया पंजाब का एक किसान आंदोलन, ‘पगड़ी संभाल जट्टा’ की याद और उसकी चर्चा करना स्वाभाविक है।

‘पगड़ी संभाल जट्टा’ नामक इस किसान  आंदोलन ने तत्कालीन ब्रिटिश हुकूमत की जड़ें हिला दी थीं। पंजाब के घर-घर से किसान, पगड़ी संभाल जट्टा गाते हुए, अपनी मांगों के समर्थन में पूरे पंजाब में फैल गए थे। तब का पंजाब आज के पंजाब से कई गुना बड़ा था। आज का पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश के साथ पाकिस्तान का पंजाब भी, 1907 के पंजाब में शामिल था। तब भी विरोध तीन किसान विरोधी कानूनों का था। यह अलग बात है कि वे आज के तीन कृषि कानूनों की तरह नहीं थे।

अंग्रेजों ने एक के बाद तीन ऐसे कानून बनाए थे, जो किसानों को पूरी तरह से, अपना गुलाम बना सकते थे। तब के ये तीन कानून थे, दोआब बारी एक्ट, पंजाब लैंड कॉलोनाइजेशन एक्ट और पंजाब लैंड एलियनेशन एक्ट। इन कानूनों के अनुसार, नहर बनाकर विकास करने के नाम पर किसानों से, औने-पौने दामों पर जबरन उनकी जमीन का अधिग्रहण किया जाने लगा। इसके साथ ही साथ पंजाब सरकार ने कई तरह के टैक्स भी किसानों पर थोप दिए। तब सरदार अजीत सिंह ने इन कानूनों के खिलाफ आंदोलन छेड़ दिया। हालांकि इस आंदोलन को ‘पगड़ी संभाल जट्टा’ जैसा अलग-सा नाम, सरदार अजीत सिंह ने नहीं, बल्कि एक पत्रकार ने दिया था।

मार्च, 1907 में पंजाब अब पाकिस्तान के जिला लायलपुर, जो अब फैसलाबाद के नाम से जाना जाता है, में किसानों की एक बड़ी रैली, ब्रिटिश राज द्वारा बनाए गए तीन कृषि कानूनों के खिलाफ हुई। तब वहां पंजाबी के एक स्थानीय अखबार ‘झांग स्याल’ ने इस आंदोलन को कवर किया। उस अखबार के संपादक थे, बांके दयाल। बांके दयाल ने इस आंदोलन पर एक गीत लिखा और उसे किसानों के आंदोलन के दौरान गाया।

गीत के बोल, ‘पगड़ी संभाल जट्टा, पगड़ी संभाल’ थे। यह गीत बहुत लोकप्रिय हुआ और बच्चे-बच्चे की जुबान पर चढ़ गया। बाद में यह गीत, आंदोलनों में गाया जाने वाला एक प्रसिद्ध पंजाबी गीत बन गया। पगड़ी, पंजाबियों और किसानों के लिए स्वाभिमान और गर्व की बात होती है और, इससे इस गाने के बोल सीधे जन-जन के  सम्मान के प्रतीक बन गए। इसी लोकप्रिय गीत से, इस आंदोलन का नाम ही ‘पगड़ी संभाल जट्टा’ पड़ गया।

पगड़ी संभाल जट्टा आंदोलन के जनक अजीत सिंह ने प्रदर्शन से पहले अंग्रेजों द्वारा पारित कानून को सब को पढ़ और उसका अनुवाद, पंजाबी में कर के सुनाया, ताकि प्रदर्शन का हिस्सा बनने जा रहे, हर किसान अंग्रेजी कानून से होने वाले नुकसान से परिचित हो सके। उनकी जीवनी, बरीड लाइफ़-  ऑटोबायोग्राफी, स्पीचेस, एंड राइटिंग्स ऑफ एन इंडिसन रिवोल्यूशनरी अजीत सिंह, जिसका संपादन, पदमन सिंह और जोगिंदर सिंह ढांकी ने किया है, में इस आंदोलन का विस्तृत और रोचक विवरण दिया गया है।

इस आंदोलन में पूरे पंजाब में, जगह-जगह, किसान इकट्ठे हुए और उन्होंने उक्त कानूनों को रद्द करने की मांग को लेकर, भारी प्रदर्शन किया। शुरुआत में प्रदर्शन शांतिपूर्ण और योजनाबद्ध था। प्रदर्शन के शांतिपूर्ण और योजनाबद्ध रहने से, अंग्रेज बल प्रयोग का रास्ता नहीं अपना सके और धीरे-धीरे आम जनता जो इन कृषि कानूनों से सीधे प्रभावित नहीं थी, वह भी इस आंदोलन से जुड़ने लगी। मामले की गंभीरता को देखते हुए, ब्रिटिश पंजाब के गवर्नर ने उन कानूनों में कुछ हल्के-फुल्के बदलाव भी किए, लेकिन इस आंदोलन पर कोई बहुत असर नहीं पड़ा। अंत में अंग्रेजों ने आंदोलन के मुख्य नेता, अजीत सिंह को पंजाब से बहिष्कृत कर दिया। अजीत सिंह इसके बाद अफगानिस्तान, ईरान, इटली और जर्मनी तक गए और उन्होंने विदेशों में ब्रिटिश राज की इन ज्यादतियों के खिलाफ जन मानस बनाया।

पगड़ी संभाल जट्टा आंदोलन की शुरुआत तो अजीत सिंह के नेतृत्व में हुई थी, लेकिन देश में चल रहे स्वाधीनता संग्राम के कारण, शीघ्र ही देश के प्रमुख क्रांतिकारी भी उस आंदोलन में शामिल होने लगे। उस समय पंजाब के सबसे लोकप्रिय नेता लाला लाजपत राय थे। उन्हें यह भनक लग गई थी कि इस आंदोलन से डरे हुए अंग्रेज, किसान कानूनों में थोड़ी बहुत छूट देने वाले हैं। उन्होंने पहले तो इस आंदोलन को स्थगित करने की सोची, लेकिन उन्हें भी जल्दी ही यह अहसास हो गया कि अब यह आंदोलन, केवल किसानों तक ही सीमित नहीं रहेगा, बल्कि यह जागृति ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ सघन हो रही है। उन्होंने इस आंदोलन और इस गीत को आज़ादी के आंदोलन में बदल दिया।

1907 में देश में आज़ादी के आंदोलन का स्वरूप वह नहीं था जो महात्मा गांधी के स्वाधीनता संग्राम में आ जाने के बाद हो गया था। 1907 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सूरत अधिवेशन में टूट हो गई थी। एक गुट जो गोपाल कृष्ण गोखले के नेतृत्व में अलग था, वह नरम दल कहलाया और दूसरा जो बाल गंगाधर तिलक के नेतृत्व में था वह गरम दल कहलाया। गोखले और तिलक दोनों का ही ब्रिटिश हुक़ूमत के प्रति दृष्टिकोण अलग-अलग था।

गोखले जहां बातचीत और कानूनी सुधारों के माध्यम से देश की जनता को ब्रिटिश राज में ही अधिक अधिकार दिलाने के पक्षधर थे, वहीं तिलक ‘स्वराज्य मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूंगा’, का उद्घोष कर चुके थे। गांधी तब दक्षिण अफ्रीका में थे। तब कांग्रेस के नेतृत्व की त्रिमूर्ति बाल, लाल, पाल के रूप में जानी जाती थी। ये थे, महाराष्ट्र से बाल गंगाधर तिलक, पंजाब से लाला लाजपतराय और बंगाल से बिपिन चंद्र पाल। लाला लाजपतराय के पंजाब के किसान आंदोलन का समर्थन करने से आंदोलन, अंग्रेजी हुकूमत के लिS और सिर दर्द बन गया।

वैसे तो इस आंदोलन में संपूर्ण तत्कालीन पंजाब के किसान शामिल थे, लेकिन इस आंदोलन का मुख्य केंद्र लायलपुर बनाया गया जो भौगोलिक रूप से पंजाब के बीच में पड़ता था। साथ ही ब्रिटिश सेना से रिटायर हुए बहुत से पंजाब के पूर्व सैनिक भी बहुतायत से लायलपुर के आसपास बस गए थे। आंदोलन के आयोजकों ने यह समझा था कि पूर्व फौजी मौजूदा फौजियों जो ब्रिटिश सेना और पुलिस में हैं को भी, अपने साथ जोड़ लेंगे। इस प्रकार इस आंदोलन की योजना बहुत ही सोच-समझ कर बनाई गई थी।

पगड़ी संभाल जट्टा आंदोलन के किसानों का कहना था कि यह अंग्रेजी कानून उन्हें अपनी खेती की जमीनों से नहर के नाम पर बेदखल कर देगा। अंग्रेजी हुकूमत उनकी ज़मीनों पर कब्ज़ा कर लेगी। साल 1907 में हुए पगड़ी संभाल जट्टा आंदोलन के दौरान काफी हिंसा भी बाद में हुई। तब अंग्रेजों की लगातार ज्यादतियों से परेशान किसानों ने रावलपिंडी, गुजरावाला और लाहौर में हिंसक प्रदर्शन किए। अंग्रेज अफसरों पर हमले हुए, उन्हें मारा-पीटा गया और अपमानित करने के लिए कीचड़ फेंकने जैसे काम भी भीड़ ने किए।

छिटपुट उपद्रव और यत्रतत्र मारपीट की घटनाओं के अतिरिक्त हिंसा की बड़ी घटनाएं  भी हुईं। सरकारी दफ्तरों में आगजनी की कोशिश हुई और तार की लाइनें खराब कर दी गईं। लाहौर में वहां के एसपी को पीटा गया। मुल्तान में किसानों के समर्थन में रेलवे के कर्मचारी हड़ताल पर चले गए और वे वापस तभी लौटे जब कृषि कानूनों में सरकार ने बदलाव किए। अंग्रेज अफसरों ने, आंदोलन जन्य हिंसक गतिविधियों को देखते हुए अपने परिवारों को बंबई भेज दिया, ताकि हालात यदि और बिगड़ते हैं तो उन्हें इंग्लैंड भेजा जा सके।

पगड़ी संभाल जट्टा आंदोलन के नेता अजीत सिंह ने इन सब घटनाओं का उल्लेख अपनी आत्मकथा में किया है। अंग्रेजों को बाद में समझ आया कि किसानों का यह गुस्सा और प्रदर्शन का कारण केवल कृषि कानून ही नहीं था। उक्त कृषि कानून, इस आंदोलन का तात्कालिक कारण ज़रूर था, लेकिन इस आक्रोश के पीछे अंग्रेजी राज से मुक्ति की कामना भी थी। पगड़ी संभाल जट्टा आंदोलन भी देश की आजादी के आंदोलनों का हिस्सा बना।

शहीदे आज़म भगत सिंह पर आधारित फिल्मों में अक्सर आने वाला यह गीत ‘पगड़ी सम्भाल जट्टा’ आज भी हमें स्वाधीनता संग्राम की उदात्त भावना से जोड़ देता है। बांके दयाल जी का यह गीत, इतने जोश और उत्साह के साथ सभी आंदोलनकारियों द्वारा गया जाता रहा है कि उस आंदोलन का नाम ही पगड़ी संभाल जट्टा आन्दोलन पड़ गया। बाद में भगत सिंह की टोली के लोगों ने भी यह गीत अपना लिया। पूरा गीत इस प्रकार है। यह गीत, अपने मूल स्वरूप और भाषा में एक यादगार कविता है।

पगड़ी संभाल जट्टा
पगड़ी संभाल जट्टा
पगड़ी संभाल ओ।

हिंद सी मंदर साडा, इस दे पुजारी ओ।
झींगा होर अजे, कद तक खुआरी ओ।
मरने दी कर लै हुण तूं, छेती तैयारी ओ।
मरने तों जीणा भैड़ा, हो के बेहाल ओ।

पगड़ी संभाल ओ जट्टा?

मन्नदी न गल्ल साडी, एह भैड़ी सरकार वो।
असीं क्यों मन्निए वीरो, इस दी कार वो।
होइ के कटे वीरो, मारो ललकार वो।

ताड़ी दो हत्थड़ वजदी,
छैणियाँ नाल वो।
पगड़ी सम्भाल ओ जट्टा?

फ़सलां नूं खा गए कीड़े।
तन ते न दिसदे लीड़े। भुक्खाँ ने खूब नपीड़े।
रोंदे नी बाल ओ। पगड़ी सम्भाल ओ जट्टा
?

बन गे ने तेरे लीडर।
राजे ते ख़ान बहादर।
तैनू फसौण ख़ातर।
विछदे पए जाल ओ।
पगड़ी सम्भाल ओ जट्टा
?

सीने विच खावें तीर।
रांझा तूं देश ए हीर।
संभल के चल ओए वीर।
रस्ते विच खाल ओ।
पगड़ी संभाल ओ जट्टा
?

सरदार अजीत सिंह (1881–1947) ने भारत में ब्रितानी शासन को चुनौती दी तथा भारत के औपनिवेशिक शासन की आलोचना और खुलकर विरोध भी किया। उन्हें राजनीतिक ‘विद्रोही’ घोषित कर दिया गया था। उनका अधिकांश जीवन जेल में बीता। इनके बारे में कभी बाल गंगाधर तिलक ने कहा था कि ये स्वतंत्र भारत के प्रथम राष्ट्रपति बनने योग्य हैं। जब तिलक ने ये कहा था तब सरदार अजीत सिंह की उम्र केवल 25 साल थी। 1909 में अजीत सिंह, देश सेवा के लिए विदेश यात्रा पर केवल 28 वर्ष की उम्र में  निकल गए थे। ईरान के रास्ते तुर्की, जर्मनी, ब्राजील, स्विट्जरलैंड, इटली, जापान आदि देशों में रहकर उन्होंने क्रांति का बीज बोया। वे नेता जी सुभाष चंद्र बोस के भी संपर्क में रहे। मार्च 1947 में वे भारत वापस लौटे। 15 अगस्त 1947 को जब देश आजाद हुआ तो उनका देहांत हो गया।

(विजय शंकर सिंह रिटायर्ड आईपीएस अफसर हैं। आप आजकल कानपुर में रहते हैं।)

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