Saturday, April 20, 2024

माकपा की कन्नूर कांग्रेस:भयावह है मोदी राज में बेरोजगारी की हकीकत 

देश में मोदी राज में बेरोजगारी की स्थिति पर भारत की कम्युनिस्ट पार्टी मार्क्सवादी यानि माकपा की केरल के कन्नूर में आयोजित 23वीं कांग्रेस के तीसरे दिन शुक्रवार 8 अप्रैल को पारित प्रस्ताव से मिली जानकारियाँ भयावह हैं। पिछले कुछ बरसों में भारत में बेरोजगारी कुल श्रम शक्ति के अनुपात में और संख्यागत रूप में भी बेतहाशा बढ़ी है। इस बारे में सरकारी आँकड़े बताते बहुत कम और छुपाते ज्यादा हैं। देश की आबादी के अधिसंख्य हिस्से के लिए सामाजिक सुरक्षा के कारगर प्रावधानों की कमी के कारण बेरोजगारी की समस्या और भी कष्टदायक है। बेरोजगारी में वृद्धि पिछले लगातार कई बरसों से अर्थव्यवस्था में छाई मंदी के कारण बरकरार है।

इसके अलावा यह मोदी सरकार द्वारा नवंबर 2016 में लागू नोटबंदी से असंगठित क्षेत्र पर पड़े दबाव के कारण भी बढ़ी है। इस बुरी स्थिति में एक जुलाई 2017 से लागू जीएसटी ने आग में घी डालने का काम किया। 2017-18 के संदर्भ में श्रम शक्ति सावधिक सर्वे के डेटा से पता चलता है कि बेरोजगारी के सभी सूचक 2011 -12 से 2017-18 के बीच तेजी से बढ़े। बेरोजगारी की स्थिति की तथाकथित दर 2011-12 के 2.2 फीसद से बढ़कर 2017-18 में 6.1 फीसद हो गई। युवाओं की चालू साप्ताहिक बेरोजगारी स्थिति की दर 2017- 18 में 10 फीसद और कुछ शिक्षितों के लिए और भी ज्यादा हो गई। 

कोरोना महामारी से निपटने में मोदी सरकार की अदूरदर्शिता और नवउदारवादी आर्थिक नीतियों पर जोर के कारण बेरोजगारी की समस्या और विकराल हो गई। आय कर की परिधि के बाहर के लोगों को धन और अनाज पहुँचाने के समुचित प्रावधान, नवउदारवादी आर्थिक नीतियों पर जोर के कारण नहीं किये गए। 

2020-21 के वित्त वर्ष में 25 से 29 के आयु वर्ग में बेरोजगारी दर 13 प्रतिशत थी। लेकिन इसी राजस्व वर्ष में 20 से 24  बरस के आयु वर्ग में बेरोजगारी की दर बहुत ही ज्यादा 39 फीसद हो गई है।  स्नातक और उससे अधिक की शिक्षा प्राप्त 20.4 फीसद लोग बेरोजगार हैं। करीब 35 फीसद महिला ग्रेजुएट बेरोजगार हैं। केंद्र और राज्य सरकारों की नौकरियों में पद बहुत बड़ी संख्या में अरसे से रिक्त हैं। उनमें से कई पद तो समाप्त ही कर दिए गए हैं। 

मोदी सरकार ने कई अन्य आर्थिक आंकड़ों को भी दबाया है। कुछ अरसा पहले राष्ट्रीय सांख्यिकी आयोग की लीक रिपोर्ट के अनुसार देश में बेरोजगारी पिछले 45 साल में सबसे ज्यादा है। जुलाई 2017 से जून 2018 की अवधि में बेरोजगारी 6.1 फीसदी बढ़ी। लेकिन सरकार ने इस रिपोर्ट को ही नकारने की कोशिश की। रिपोर्ट जारी करने में देरी के कारण इस आयोग के अध्यक्ष पी सी मोहनन समेत दो सदस्यों ने इस्तीफा दे दिया। यह रिपोर्ट आम चुनाव के बाद मोदी सरकार के सत्ता में लौटने के बाद ही आधिकारिक रूप से जारी की गई। बेरोजगारी के चलते 2018 में 12936 लोगों ने आत्महत्या की जिसका प्रतिदिन औसत 35 है।

ग्रामीण क्षेत्रों में महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम ( मनरेगा ) है। लेकिन शहरी क्षेत्रों में ऐसी कोई योजना नहीं है। मनरेगा में भी 200 दिन के रोजगार की गारंटी के प्रावधान और उसका शहरी क्षेत्रों में भी विस्तार की मांग उठती रही है। 

मोदी राज में अर्थव्यवस्था के बारे में गौरतलब है कि कुछ अरसा पहले केंद्र सरकार के ही सांख्यिकी एवं कार्यक्रम क्रियान्वयन मंत्रालय के मातहत नेशनल स्टैटिस्टिकल ऑफिस (एनएसओ) की एक सर्वे-रिपोर्ट लीक होकर बिजनेस स्टैंडर्ड आदि अखबार में छप गई। ‘ स्टेट इंडिकेटर्स:होम कंज्यूमर एक्सपेंडिचर इन इंडिया ‘ शीर्षक से प्रकाशित इस सर्वे के अनुसार भारत में और खासकर उसके ग्रामीण क्षेत्रों में खपत और मांग बहुत घट गई है। साफ है कि भारत की अर्थव्यवस्था संकट में फंस गई है। पता चला कि एनएसओ की एक कमेटी ने 19 जून, 2019 को ही वो रिपोर्ट जारी करने की मंजूरी दे दी थी। लेकिन सरकार ने इसे जारी ही नहीं किया। 

रिपोर्ट लीक होने के बाद सरकार अपनी नजरें चुराने लगी। एनएसओ भारत में सांख्यिकीय गतिविधियों के समन्वय एवं मानकों के विकास आदि का कार्य करता है। लीक रिपोर्ट के डेटा ने खुलासा किया कि वित्तीय वर्ष 2017-2018 में उपभोक्ता खर्च में राष्ट्रीय स्तर पर 3.7% और ग्रामीण भारत में 8.8 % प्रतिशत की गिरावट आई। लेकिन मोदी सरकार ने भारत की अर्थव्यवस्था के संकट की नब्ज समझने और इलाज के समुचित कदम उठाने के बजाय इसे छुपाना मुनासिब माना। मोदी सरकार ने ऐसा पहली बार नहीं किया। यह सब आखरी बार हुआ इसकी गारंटी नहीं है। इस सरकार ने पहले भी नोटबंदी से बिगड़े आर्थिक हालात,सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में वृद्धि की दर, बेरोजगारी की स्थिति और  किसानों की आत्महत्या समेत कई तरह के आर्थिक आंकड़े छुपाये या उनमें छेड़छाड़ की। लेकिन ये सब अर्थशास्त्रियों द्वारा पकड़ ली गईं।

एनएसओ सर्वे के मुताबिक 2017-18 में भारत में व्यक्तिगत औसत मासिक खर्च घटकर 1446 रुपये हो गया, जो 2011-12 में 1501 रुपये था। यह 3.7% की गिरावट है। सर्वे जुलाई 2017 से जून 2018 के बीच किया गया। इससे पता चला कि पिछले छह साल में देश के ग्रामीण क्षेत्रों में व्यक्तिगत खर्च में 8.8% की औसत गिरावट आई। शहरी क्षेत्रों में 2 प्रतिशत की गिरावट दर्ज हुई। सर्वे से यह भी पता चला कि गांव के लोगों ने दूध और दूध उत्पादों के सिवा अन्य वस्तुओं की खरीद में भारी कटौती की है। लोगों ने तेल, नमक, चीनी और मसाले जैसी वस्तुओं पर खर्च में बड़ी कमी की। ग्रामीण भारत में गैर-खाद्य वस्तुओं की खपत 7.6% कम हुई। मगर शहरी इलाकों में 3.8% की वृद्धि दिखी। ग्रामीण भारत में भोजन पर मासिक खर्च 2017-18 में औसतन 580 रुपये था, जो 2011-12 में 643 रुपये के मुकाबले 10% कम है। शहरी क्षेत्र में लोगों ने 2011-12 में औसतन 946 रुपये प्रति माह खर्च किया जो 2017-18 से मात्र 3 रुपये ज्यादा है। पूर्ववर्ती योजना आयोग के सदस्य रहे अभिजीत सेन के मुताबिक गांवों में भोजन पर खर्च में कमी का मतलब है कि वहां गरीबी में बड़ा इजाफा हुआ है,जिसके कारण कुपोषण और भी बढ़ेगा।

अभिजीत बनर्जी का मत

आर्थिक नोबेल पुरस्कार विजेताओं में शामिल अभिजीत बनर्जी ने भारत में घरेलू खपत में गिरावट के आंकड़ों के हवाले से कुछ समय पहले कहा था कि देश की अर्थव्यवस्था की हालत बहुत ही खराब है। बनर्जी भारतीय मूल के हैं, जिन्होंने नई दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू ) में अर्थशास्त्र की स्नातकोत्तर और आगे की शिक्षा प्राप्त की है। बनर्जी ने यह पुरस्कार प्राप्त करने वाली अपनी पत्नी ईस्थर डूफ्लो के साथ प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा कि खतरे की साफ घंटी बज चुकी है। शहरी एवं ग्रामीण भारत में औसत उपभोग में भारी गिरावट के एनएसएस के 1914-15 और बाद के आंकड़ों के हवाले से उन्होंने कहा कि ऐसा बहुत बरसों के बाद हुआ है। उनके अनुसार भारत सरकार को पता है कि अर्थव्यवस्था में मंदी तेजी से पसर रही है। लेकिन वह इसके सभी डेटा को अपने लिए असुविधाजनक मान कर उन्हें गलत बता रही है।

मनमोहन सिंह की राय

सवाल है कि जब मोदी सरकार को सब कुछ मालूम है तो वह आंकड़े क्यों छिपा रही है? असीम मुकेश जैसे विश्लेषकों के मुताबिक ऐसा इसलिए है कि मोदी सरकार जनता के प्रति अपनी जिम्मेवारी से बचना चाहती है। पूर्व प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह ने द हिन्दू अखबार में अपने आलेख में लिखा कि भारतीय अर्थव्यवस्था की मौजूदा स्थिति बहुत ही चिंताजनक है। जीडीपी वृद्धि दर 15 साल के न्यूनतम स्तर पर है, बेरोज़गारी 15 साल के सबसे ऊँचे स्तर पर है, घरेलू खपत 40 साल के निचले स्तर पर है, बैंकों का डूबा कर्ज़ सबसे ऊँचे स्तर पर है, बिजली उत्पादन में वृद्धि 15 साल के न्यूनतम स्तर पर है। ऐसे आँकड़े भरे पड़े हैं जो हमारी अर्थव्यवस्था को लगे रोग के लक्षण मात्र हैं। लेकिन सरकार आंकड़े दबा रही है जो बचकाना काम है।

पूर्व प्रधानमन्त्री ने लिखा कि सरकार देश में 120 करोड़ लोगों की तीन खरब डॉलर की अर्थव्यवस्था में आंकड़ों की हेराफेरी कर वास्तविकता नहीं छुपा सकती है। दुर्भाग्य से यह आर्थिक आत्मघाती घाव हमें तब लगे हैं जब इस वक़्त भारत वैश्विक अर्थव्यवस्था का फ़ायदा उठा सकता है। चीन की मंद होती अर्थव्यवस्था और गिरता निर्यात, भारतीय निर्यात के लिए एक सुनहरा मौका है जिसका फायदा मोदी सरकार उठा सकती जिसे लोकसभा में पूर्ण बहुमत प्राप्त है। वैश्विक तेल के दाम नीचे हैं। ऐसे आर्थिक मौके कभी-कभी ही आते हैं जब भारत आर्थिक विकास में लंबी छलांग लगा सकता है और हमारे युवाओं को रोज़गार के लाखों अवसर मिल सकते हैं। उन्होंने प्रधानमंत्री मोदी से आग्रह किया कि वह देश को दुबारा उस दिशा में ले जाएं जिसमें सब एक-दूसरे पर भरोसा कर सकें।

पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने आंकड़े को छुपाने के लिए मोदी सरकार की तीखी आलोचना की। उन्होने कहा कि मोदीनॉमिक्स की हालत इतनी खराब है कि सरकार को अपनी ही रिपोर्ट छुपानी पड़ रही है। कोई ऐसा क्षेत्र बचा नहीं है जो आर्थिक मंदी की मार से बचा हो। ये आंकड़े अर्थव्यवस्था की मंदी की हकीकत बयां कर रहे हैं। नतीजा है कि वैश्विक हंगर इंडेक्स में भारत का स्थान जहाँ 2014 में 55 वां था अब वह 100वें नंबर पर गिर गया है।

दुनिया की सभी क्रेडिट,रेटिंग और वित्त एजेंसियों ने भारत की विकास दर का अनुमान घटाकर 5 फीसदी या इससे भी नीचे कर दिया है। ऑटो इंडस्ट्री में दो दशकों की सबसे बड़ी गिरावट है। खुदरा महंगाई दर बीते साढ़े पांच साल के उच्च्तम स्तर पर है। थोक महंगाई भी बढ़ी है। वित्त वर्ष की तीसरी तिमाही में आवास बिक्री 30 प्रतिशत घटी। विनिर्माण क्षेत्र की वृद्धि दर 6.2% से घटकर 2% पहुँच गई है। कृषि क्षेत्र की विकास दर नकारात्मक हुई। अर्थव्यवस्था के सभी बुनियादी क्षेत्रों में 14 वर्षों की सबसे बड़ी गिरावट है। खुद नीति आयोग के मुताबिक देश के 25 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में गरीबी, भुखमरी और असमानता घटने की जगह बढ़ी है।

किसान आत्महत्या

नेशनल क्राईम रिकॉर्ड्स ब्यूरो (एनसीआरबी) 1953 से क्राइम इन इंडिया शीर्षक से जो रिपोर्ट जारी करती थी उसे 2015 के बाद रोक दिया गया। इस रिपोर्ट में भारत में कानून-व्यवस्था और अपराध की स्थिति के बारे में प्रामाणिक जानकारी होती है। सरकार ने कुछ वर्ष के अंतराल के बाद 2019 में ये रिपोर्ट जारी की जिसके आंकड़े 2017 के हैं। किसान आत्महत्या को लेकर नई रिपोर्ट में खामियां हैं। पहली बार राज्य के आकंड़ों की सूची नहीं दी गई। सिर्फ 5 राज्यों के आकंड़े प्रतिशत में जारी किए गए। किसान आत्महत्या के कारणों को नहीं बताया गया। इंडियन एक्सप्रेस की खबर के मुताबिक एनसीआरबी ने 18 महीने पहले ही गृह मंत्रालय को ये रिपोर्ट सौंप दी थी।

आंकड़े तब जारी किए गए जब लोकसभा चुनाव हो गए। एनसीआरबी की रिपोर्ट में लिंचिंग, खाप पंचायत के निर्देशों पर हत्या और सांप्रदायिक हिंसा में मारे गए लोगों की कोई जानकारी नहीं दी गई है। बताया जाता है कि इन सबके आकंड़े जुटा कर उन्हें सरकार को सौंपी गई रिपोर्ट में शामिल किया गया लेकिन फाइनल रिपोर्ट में ये सब जानकारी निकाल दी गई। उपलब्ध सरकारी आंकड़ों के ही अनुसार 2017 में खेती से जुड़े 10349 लोगों ने आत्महत्या की। निष्कर्ष यही निकलता है कि भारत में ‘ सब चंगा सी ‘ होने का प्रधानमंत्री मोदी का दावा एक और जुमला है , जिसकी पोल लगातार खुलती जा रही है।

नए खतरे

जनवरी 2020 में ब्रिटिश न्‍यूज एजेंसी रॉयटर्स के हवाले से खबर मिली कि केंद्र सरकार ने अपने लगभग खाली खजाना में कुछ धन भरने के लिए भारतीय रिजर्व बैंक के सामने फिर हाथ पसारने की तैयारी शुरू कर दी है। वह आरबीआई से 45 हजार करोड़ रूपये की मदद लेगी। इसके पहले केंद्र सरकार के हाथ पसारने पर उसे आरबीआई ने 1.76 लाख करोड़ रुपये दिए थे। रिजर्व बैंक ने केंद्र सरकार को उसके लाभांश (डिविडेंड) के तौर पर 1.76 लाख करोड़ रुपये देने का निर्णय कर चालू वित्त वर्ष (2019-20) के लिए 1.48 लाख करोड़ रुपये दिए थे। आरबीआई मुद्रा और सरकारी बॉन्ड की ट्रेडिंग से मुनाफा कमाता है, जिसका एक हिस्सा वह अपने कामकाज और रिजर्व फंड के लिए रख बची रकम सरकार को इस बैंक के मालिकाना हक के कारण बतौर डिविडेंड देता है।

सरकार ने तो अभी तक स्वीकार नहीं किया है। पर उसके कुछ आला अफसर गुपचुप बताने लगे हैं कि भारी वित्तीय संकट की आशंका है। आरबीआई की वित्तीय मदद से सरकार को कुछ राहत मिल सकती है। यह लगातार तीसरा वर्ष है जब सरकार को आरबीआई के सामने हाथ पसारना पड़ गया। लेकिन सरकार के लगातार हाथ पसारने से आरबीआई की अपनी दिक्कत बढ़ सकती है। पूर्व गवर्नर उर्जित पटेल के कार्यकाल में आरबीआई से सरकार को रिजर्व फंड ट्रांसफर को लेकर भारी विवाद छिड़ गया था जिसके कारण उर्जित पटेल ने गवर्नर पद से इस्‍तीफा दे दिया। ये दीगर बात है कि उन्होंने इस्तीफा का कारण औपचारिक रूप से व्यक्तिगत बताया। 

नए रोजगार में भारी कमी 

स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया की रिसर्च रिपोर्ट ‘ इकोरैप ‘ के अनुसार 2019-20 में पिछले वित्त वर्ष  की तुलना में नई नौकरियों का सृजन 16 लाख कम होने की आशंका है। कर्मचारी भविष्य निधि संगठन (ईपीएफओ) के आंकड़ों के अनुसार 2018-19 में 89.7 लाख नए रोजगार के अवसर पैदा हुए.चालू वित्त वर्ष में इसमें 15.8 लाख की कमी आने की आशंका है। ईपीएफओ के आंकड़े में मुख्य रूप से कम वेतन वाली नौकरियां शामिल होती हैं, जिनमें वेतन की अधिकत सीमा 15,000 रुपये मासिक है.अप्रैल-अक्टूबर 2019 में ईपीएफओ से 43.1 लाख नए अंशधारक ही जुड़े।

सालाना आधार पर यह आंकड़ा 73.9 लाख माना जा सकता है। इनमें केंद्र और राज्य सरकार की नौकरियों और निजी काम-धंधे में लगे लोगों के आंकड़े शामिल नहीं है क्योंकि 2004 से यह डेटा नैशनल पेंशन स्कीम यानि एनपीएस के तहत आने लगा है। एनपीएस श्रेणी के आंकड़ों में राज्यों और केंद्र सरकार की नौकरियों में 2018-19 की तुलना में 39,000 कम अवसर पैदा होने का अनुमान है। असम, बिहार, राजस्थान, उत्तर प्रदेश और ओडिशा से नौकरी-मजदूरी के लिए बाहर गए लोगों से वापस मिलने वाले धन (रेमिटेंस) में कमी हुई है। इन राज्यों से लोग मजदूरी के लिए पंजाब , गुजरात और महाराष्ट्र जैसे राज्यों में जाते हैं और वहां से घर पैसा भेजते रहते हैं। ठेका श्रमिकों की संख्या कम हुई है।

राजनीतिक 

इस बीच, माकपा की 23वीं पार्टी कांग्रेस में राजनीतिक प्रस्ताव के ड्राफ्ट पर बहस पूरी हो गई है। ड्राफ्ट में करीब दो हजार संशोधन प्रस्ताव पहले ही आम कार्यकर्ताओं से मिले थे। कुल 390 संशोधन प्रस्ताव और 12 सुझाव डेलीगेट्स ने बहस के दौरान रखे। पार्टी कांग्रेस के सभी डेलीगेट्स को संशोधन प्रस्ताव सीधे पेश करने का अधिकार है। बहस में 7 अपैल को 18 और 8 अप्रैल को 17 डेलीगेट्स ने भाग लिया। बहस पूरी होने के उपरांत पार्टी महासचिव उसमें उठे सभी बिन्दुओ , संशोधन प्रस्ताव और सुझाव का उत्तर देंगे। 

पार्टी पोलितब्यूरो सदस्य वृंदा कारात ने कल अपराह्न सत्र में औपचारिक प्रेस कॉन्फ्रेंस में प्रश्नों के उत्तर में बताया कि इन सभी संशोधन प्रस्तावों पर पार्टी कांग्रेस की संचालन कमेटी विचार कर उन्हें स्वीकार अथवा अस्वीकार करेगी। फिर ड्राफ्ट रिपोर्ट कॉंग्रेस डेलीगेट्स के अनुमोदन के लिए पेश किया जाएगा। उन्होंने जोर देकर कहा कि ये संशोधन प्रस्ताव, ड्राफ्ट रिपोर्ट को उन्नत करने के लिए ही रखे गए हैं। माकपा के संविधान के अनुसार उसकी तीन-साला पार्टी कांग्रेस ही सर्वोच्च नीति निर्धारक निकाय है। बहस में भाग लेने वाले डेलीगेट्स में तेलंगाना के सुधाकर रेड्डी और अब्बास, उत्तर प्रदेश के प्रेमनाथ राय और मधु गर्ग, उत्तराखंड के मदन मिश्र, केरल की सीमा और के के रागेश, गुजरात के एच आई भट्ट, कर्नाटक के के मीना, मध्य प्रदेश के अखिलेश यादव, छत्तीसगढ़ के धर्मदास मोहोपात्रा, दिल्ली के अनुराग सक्सेना , हिमाचल प्रदेश के राकेश सिंह, तमिलनाडु के तमिल सेलवी और वेल्किन, हरियाणा के जय भगवान , पश्चिम बंगाल के समान पाठक, समिक लाहिड़ी  और कोणिका घोष, त्रिपुरा के कृष्णा रक्षित और राजेन्द्र रियांग, महाराष्ट्र के अजित नावले, पंजाब के लाल सिंह और सुचा सिंह, अंडमान निकोबार के आयप्पन, असम की संगीत दास, आंध्र प्रदेश के कृष्नैया, मणिपुर के सांता क्षेतराम, जम्मू –कश्मीर के मोहम्मद अब्बास, सेंट्रल कमेटी सेंटर के प्रबीर पुरकायस्थ और जी ममता, गोवा के विक्टर सावियो ब्रोगाँजा, यूनाइटेड किंगडम के गुरप्रीत बैन्स और कनाडा के सुरिंदर धेसी शामिल हैं। 

शाम को पार्टी के दो बार महासचिव रहे प्रकाश करात ने संगठनिक रिपोर्ट पेश किया जो माकपा के केन्द्रीय मुखपत्र पीपुल्स डेमोक्रेसी के संपादक भी हैं।

(सीपी नाम से चर्चित पत्रकार,यूनाईटेड न्यूज ऑफ इंडिया के मुम्बई ब्यूरो के विशेष संवाददाता पद से दिसंबर 2017 में रिटायर होने के बाद बिहार के अपने गांव में खेतीबाड़ी करने और स्कूल चलाने के अलावा स्वतंत्र पत्रकारिता करते हैं।)

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