चार जून का फैसला दुनिया के सब से बड़े लोकतंत्र के हक में आयेगा

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नफस-नफस कदम-कदम आम चुनाव 2024 अपनी पूर्णता की तरफ बढ़ रहा है। भारत के संसदीय इतिहास में यह चुनाव कई कारणों से याद किया जायेगा। जिन कारणों से इतिहास में याद किया जायेगा उस पर वर्तमान में चर्चा जरूर करनी चाहिए। पहले, ऐसी मान्यता थी कि वर्तमान के धूल-धुआं के छंट जाने के बाद परिदृश्य अधिक स्पष्ट होता है। अतः वर्तमान की घटनाओं का विश्लेषण भविष्य में किये गये विश्लेषणों में अधिक स्पष्टता होती है। अब ऐसा नहीं है। अभी कि स्थिति यह है कि वर्तमान इतिहास का ऐसा घोल-मट्ठा और भविष्य का “नवनीत” करता है कि इतिहास और भविष्य दोनों का वर्तमान विरोधी बातों से भर जाता है। इतिहास और इतिहास की समझ को बचाना बहुत मुश्किल होता है। इक्कीसवीं सदी की पहली चौथाई का एक चक्र 2024 के आम चुनाव के साथ पूर्ण होता है।

अभी एक आत्मीय ने इतिहासनुमा एक लेखांश दिखाया, आशय यह था कि महात्मा गांधी की हत्या में कांग्रेस शासन शामिल नहीं भी रही हो, लेकिन उसने ऐसा हो जाने दिया। कांग्रेस शासन के पास महात्मा गांधी की हत्या की योजना की पूरी सूचना थी। लेकिन कांग्रेस शासन ने न तो‎ इस योजना को सफल होने से रोकने में कोई प्रशासनिक दिलचस्पी दिखलाई, न इस जघन्य हत्या की जांच सही तरीके से करवाई। जो साफ-साफ कहा नहीं गया था, लेकिन इस तरह के विश्लेषण से भासित हो रहा था कि दक्षिण-पंथी राजनीति तो सीधे, हत्या-कांड में अपराध में शामिल थी और प्रकारांतर से अपराधी होने के लपेटे में कांग्रेस को भी लिया जा रहा था। जो कांग्रेस अभी चुनावी माहौल में भरोसे के काबिल दिखाई दे रही है। लेखांश में इशारा उस समय के गृह मंत्री, सरदार वल्लभ भाई पटेल की तरफ खास ‎तौर पर था। उनके मन में कहीं-न-कहीं यह तो‎ बैठ गई थी कि इसलिए प्रधानमंत्री, ‎नरेंद्र मोदी ने उन्हें सम्मान देने के लिए सरदार वल्लभ भाई पटेल की विशालकाय ‎मूर्ति लगवाने में दिलचस्पी दिखलाई।

भारत की आजादी के छः महीने के अंदर कश्मीर केंद्रित समस्या उठ खड़ी हुई थी। आजादी के आंदोलन के केंद्रीय व्यक्ति और महात्मा गांधी जैसे विश्व नेता का हत्याकांड हो गया था। न प्रशासन का पूरी तरह से ‘भारतीयकरण’ हुआ था, न सेना का। ये घटनाएं किसी भी नव-स्वतंत्र और विभाजन से संत्रस्त राष्ट्र और उसकी सरकार को ऊपर से अस्त-व्यस्त और भीतर से तहस-नहस कर देने के लिए काफी थी। कांग्रेस के सामने सद्यः विभाजित नव-स्वतंत्र राष्ट्र को बचाने की चुनौती थी। तब संविधान का बनना भी बाकी था। विभाजन के साथ सांप्रदायिकता की आग में रह-रहकर तेज लपटें उठ ही जाया करती थी। विश्व राजनीति की अपनी जटिलताएं थीं। बात-चीत के दौरान इस तरफ ध्यान दिलाने से उन का मन थोड़ा डोलता हुआ जरूर दिखा लेकिन धूल-धुआं कितना छंट पाया कहना मुश्किल है। यहां इस बात की चर्चा सिर्फ वर्तमान में इतिहास के घोल-मट्ठा किये जाने के प्रसंग में की गई है।

गोधरा और गुजरात की भयानक हिंसा से जो प्रक्रिया शुरू हुई थी वह 2024 के चुनाव परिमाण आने के बाद समाप्त हो सकती है। गोधरा और गुजरात की भयानक हिंसा‎ के बाद नरेंद्र मोदी की निरंतर चुनावी सफलता से इस बात के संकेत मिल गये थे कि देश को भयानक तहस-नहस के दौर से गुजरना ही होगा। देश उस तहस-नहस को पार कर आम चुनाव 2024 की पूर्णता तक पहुंच गया है। हालांकि चुनाव विशेषज्ञों और राजनीतिक विश्लेषकों के विश्लेषणों से आम तौर पर नरेंद्र मोदी की सरकार के दिन लद जाने के संकेत मिल रहे हैं। लेकिन डरा हुआ मन कहता है, क्या पता!‎

तरह-तरह के उकसावे के बावजूद से चुनाव में संप्रदायों के आधार पर मतदाताओं का ध्रुवीकरण नहीं हुआ। इतना ही नहीं समुदाय के आधार पर भी मतदाताओं का ध्रुवीकरण नहीं हुआ। जो हुआ है उसे ध्रुवीकरण नहीं, झुकाव कहा जाना चाहिए। यह झुकाव संविधान के प्रति है, लोकतंत्र के प्रति है। आज तक किसी भी चुनाव में संविधान और लोकतंत्र की इतनी चर्चा नहीं हुई थी। किसी आम चुनाव में इतनी बार संविधान और लोकतंत्र शब्द का उच्चारण नहीं हुआ होगा। यह सब अ-कारण नहीं हुआ। लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं के अनुसार संविधान की शपथ लेकर संवैधानिक पद पर सरकार की बागडोर हाथ में पानेवाले सत्ताधारी दल के नेता नरेंद्र मोदी ने जिस तरह से संवैधानिक परंपराओं और मर्यादाओं की धज्जियां उड़ाई, जिस तरह से लोकतंत्र का माखौल बनाया, सर्वसत्तावादी आचरण में अवतारी आभा का भ्रम रचाया, अपने को अपने अस्तित्व बायोलॉजिकल न होने की बात कहनी शुरू कर दी, झूठ और अ-तार्किक एवं असंगत बातों का पहाड़ खड़ा कर लिया कि वह किसी भी तरह से सभ्य आचरण की चौहद्दी से खुद बाहर होते चले गये और दैवीय आचरण की भाव-भंगिमा में प्रवेश करते हुए दिखने की कोशिश में लगे रहे।

एक बात तय है कि किसी भी कीमत पर आधुनिक और पूर्वाग्रह मुक्त मन-मस्तिष्क और खुले दिल से राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की वैचारिकी को स्वीकार नहीं किया जा सकता है, लेकिन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के संगठनात्मक धैर्य की प्रशंसा किये बिना रह भी नहीं सकता है। मोटे तौर पर कहें तो कोई पिछले सौ साल में सार्वजनिक क्षेत्र में कोई ऐसा सक्रिय राजनीतिक, सांस्कृतिक, सामाजिक संस्था, दल, कोई ऐसी पार्टी नहीं है, जिसमें टूटन न हुई हो। टूटन के मामला में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ अपवाद है। लेकिन सुख-सुविधा की ऐसी जड़ी नरेंद्र मोदी ने सुंघाई कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ में टूटन तो नहीं हुई लेकिन मारक संरचनागत क्षरण अवश्य हुआ। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ भी विकास की क्षयशीलता का शिकार हो गया। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ अपनी बनाई किसी संस्था से ऐसा अवहेलित कभी नहीं हुआ था। सुख-सुविधा का मोह कहें या कुछ अन्य नाम दें, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के काबू से भारतीय जनता पार्टी बाहर निकल गई।

संभव है कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ स्वयं तो फिर से अपने को “आराम, दक्षः” की मुद्रा में कदम-ताल के लिए खड़ा रख लेगा, लेकिन सत्ता की राजनीति में ‎अपनी बनाई राजनीतिक संस्था की विश्वसनीयता को फिर से हासिल करना निकट भविष्य में उस के लिए संभव नहीं होगा। भारतीय जनता पार्टी में इतने सारे गैर-स्वयंसेवक महत्वपूर्ण पदों पर जमा दिये गये हैं कि उन्हें अपने कमान में लेना राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के लिए बहुत मुश्किल हो गया है। किसे दोष दे! यह दुर्गत तो अपने प्रचारक ने ही बना दी है कि भारतीय जनता पार्टी हारे तो मुश्किल, जीते तो उस से भी बड़ी मुश्किल!

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ भीतर-ही-भीतर बिना किसी कोलाहल के ‘अपना काम’ करता रहा था, कोट पहन लेने पर वकील, मुरेठा बांध लेने पर किसान; असल में न वकील, न किसान। विश्व हिंदू परिषद और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के बीच कोई सीधा संगठनात्मक संबंध कभी नहीं था। वैचारिक रवैये में भी उल्लेखनीय भिन्नताएं रही हैं। राम मंदिर आंदोलन के दौरान दोनों में रणनीतिक निकटता बढ़ी। विश्व हिंदू परिषद की आनुपातिक रुचि राम मंदिर में थी और भारतीय जनता पार्टी की रुचि सत्ता में थी। लोकतांत्रिक बहुमत और धर्म-आधारित या जाति-आधारित बहुमत में फर्क होता है।

सत्ता लोभ में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को यह सब याद नहीं है रहा और वह भारतीय जनता पार्टी के सत्तासीन होने के लोभ में फंस गया। यह भारतीय जनता पार्टी के सत्तासीन होने का प्रकरण नहीं था, नरेंद्र मोदी के सत्तारोहण और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के ‘सत्ता हरण’ का मामला था। भारतीय जनता पार्टी के माध्यम से विश्व हिंदू परिषद और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ में रणनीतिक संबंध बन गया। दोनों के लक्ष्य लगभग अ-साध्य ही थे।

लेकिन नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में ऐसी राजनीतिक परिस्थिति बनी कि दोनों के लक्ष्य सध गये! इस में कुछ प्रमुख ‎‘नव-धनिकों’‎ ने भी बटोरने का अवसर ताड़कर अपनी जबरदस्त भूमिका जमकर निभाई और उसके साथ सत्ता की मिलीभगत ने सारी हदें पार कर दी। कॉरपोरेट के साथ नरेंद्र मोदी सत्ता की मिलीभगत ने नरेंद्र मोदी के राजनीतिक अहंकार और दुस्साहस के कारण सार्वजनिक वातावरण ऊपर से राममय और भीतर-ही-भीतर मोदीमय होता चला गया।

मीडिया, खासकर ‘दुमदार’ तरंगी मीडिया स्थिति के काबू में होने का भरोसा दिलाता रहा। जिस पर लोक ने भरोसा करना छोड़ दिया वह तंत्र को भरोसा दिलाने में कामयाब रहा! इस बीच मीडिया के बल पर, विपक्षी दलों और खासकर कांग्रेस के प्रति न सिर्फ शत्रुता का भाव विकसित किया गया, बल्कि युद्ध का ऐलान कर दिया गया। अल्प संख्यक के विरुद्ध बहुसंख्यक के सैन्यीकरण और संवैधानिक संस्थाओं के दलीयकरण की कोशिश अपनी जगह। इस तरह से यह बहुत ही विकट स्थिति उत्पन्न हुई कि जिनके लक्ष्य सध गये हों, वे ही लक्ष्य के ‘श्रेय और प्रेय’ से दूर हो जायें। सर्वसत्तावाद का कमाल किस-किस तरह से प्रकट होता है!

सर्वसत्तावाद का ऐसा राजनीतिक अहंकार कि सब कुछ पर अपनी ही छाप और मैं-ही-मैं का ऐसा वातावरण बना कि सभी करबद्ध ‘चाकर’ जैसे दिखने लगे। भगवान राम के प्राण-प्रतिष्ठा के कार्यक्रम में जिस तरह से ‘हितधारकों’ की उपेक्षा और अवहेलना की गई वह उन ‎‘हितधारकों’ के लिए बहुत ही अपमानजनक रहा होगा, इसका अनुमान करना उनके विरोधियों के लिए मुश्किल ही है। यहां तक कि बड़े अनमने ढंग से राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत को ही बहुत-मुश्किल ‘थोड़ी-सी’ जगह दी गई। कार्यक्रम में आमंत्रित लोगों की सूची तो‎ और भी चिढ़ाने वाली थी। ऐसे में ‘काली टोपी’ और ‘भगवा गमछा’ दोनों ठगे-से रहकर घर बैठ गये।

राम मंदिर से चुनावी लाभ उठाने की स्थिति बिगड़ गई। ‘अपने लोगों’ ने अपने हाथ खींच लिये। ऊपर से राहुल गांधी की दक्षिण से उत्तर की ‘भारत जोड़ो यात्रा’ और पूर्व से पश्चिम की ‘भारत जोड़ो न्याय यात्रा’ के प्रभाव ने दबाव और डर के माहौलबंदी में दुबके लोगों के मन में उठकर खड़ा होने का साहस और ऊर्जा भर दिया। नीतीश कुमार के भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्ववाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन में लौट जाने के बावजूद विपक्षी गठबंधन (इंडिया अलायंस) की पारस्परिक समझदारी ने माहौलबंदी बदल दी। माननीय सुप्रीम कोर्ट के जबरदस्त हस्तक्षेप से इलेक्टोरल बांड के खुलासे का भी बहुत बड़ा असर हुआ। कांग्रेस के न्यायपत्र का बहुत सकारात्मक असर पड़ा। नरेंद्र मोदी के द्वारा कांग्रेस के न्यायपत्र की नकारात्मक चर्चा ने न्यायपत्र को जन-आकर्षण के केंद्र में ला खड़ा कर दिया।

पांच चरण के चुनाव संपन्न हो गया है। छठा चरण पूरा होने के बाद चुनाव अपने आखिरी चरण की तरफ बढ़ जायेगा। घने अंधकार के बीच एक सुगबुगाहट जारी है। अंधेरे में फैलती जा रही पशुओं की आंख की चमक रोशनी की खबर नहीं होती है। विश्वास! विश्वास और सत्य के बीच जितना भी तनाव हो, विश्वास रखना ही होता है कि लोकतंत्र में लोक ही सत्य है। जब कोई भरोसेमंद कहता है कि भरोसा उस पर भी करो, जिस पर भरोसा न होने की उत्पीड़कताओं से दुखी हो। भरोसेमंद से भरोसे को बचाने के लिए सकारात्मक हस्तक्षेप की उम्मीद का समाप्त होना बहुत ही खतरनाक स्थिति की तरफ समय को सरका दिया करता है।

फिलहाल उम्मीद तो‎ यही है कि चार जून का फैसला दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के हक में आयेगा। जी, बिल्कुल चाह को भी जिलाये रखना होगा और चिंता को भी! मन को उदासी से बचाना होगा, बेपरवाह होने से बचना होगा! हमें लोकतंत्र चाहिए। हमें आम आदमी का जीवन चाहिए, “साहन के साह” की जिंदगी नहीं, लोकतंत्र चाहिए। नहीं-नहीं, हमें ऐसी पीढ़ी के रूप में याद नहीं किया जाना चाहिए जिसने भावी पीढ़ियों के लिए कुछ नहीं बचाया; न पर्यावरण, न जीवन! फैसला चार जून को।

(प्रफुल्ल कोलख्यान स्वतंत्र लेखक और टिप्पणीकार हैं)

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