Sunday, April 28, 2024

लंदन यात्रा: क्या चुनाव में ऋषि सुनक की कश्ती ‘जय श्रीराम’ से पार लगेगी ? 

“जय श्री  राम। मैं यहां प्रधानमंत्री के रूप में नहीं हूँ, लेकिन एक हिन्दू के रूप में हूँ। मुझे हिन्दू होने पर गर्व है। मुझे ब्रिटिश होने पर गर्व है, हिन्दू होने पर भी गर्व है। जिस प्रकार मुरारी बापू की पृष्ठभूमि में स्वर्ण जटित हनुमान जी की प्रतिमा है उसी तरह मुझे गर्व है कि मेरे 10 डाउनिंग स्ट्रीट  निवास स्थान की मेज़ पर उल्लासमयी गणेश जी की प्रतिमा है। मेरी मेज़ पर हनुमान चालीसा है। भगवान राम मुझे प्रेरणा देते हैं। विनम्रता-शालीनता के साथ शासन करने की प्रेरणा मिलती है।

धर्म मेरे लिए व्यक्तिगत विषय है। हम  दिवाली मनाते हैं, हवन करते हैं..  , . . मुझे  भारत के स्वतंत्रता  दिवस पर मेरे  हिन्दू मूल्य ब्रिटिश मूल्यों के समान हैं। दोनों धर्म सेवा सिखाते हैं। हिन्दू के नाते मुझे  मोरारी बापू की रामकथा में शामिल होने पर गर्व है।” ‘ जय श्रीराम ‘ को प्रधानमंत्री ऋषि सुनक चार-पांच बार गुंजित करते हैं। कैंब्रिज में आयोजित इस रामकथा में उपस्थित प्रवासी हिन्दू भक्त ऋषि सुनक से मंत्रमुग्ध हो जाते हैं। तालियों की गड़गड़ाहट से प्रधानमंत्री का अभिनंदन करते हैं। गुजरात से पहुंचे मोरारी बापू प्रधानमंत्री को आशीर्वाद देते हैं। 

भारत में ऐसे दृश्य का आयोजन सामान्य व स्वाभाविक घटना है। लेकिन, इंग्लैंड की भूमि पर ब्रिटेन के प्रधानमंत्री होने के बावजूद ऋषि सुनक द्वारा ‘ जय श्रीराम ‘ का बार बार लगाना किसी को भी चकित कर सकता है।इस घटना के संबंध में  मैंने स्थानीय परिचितों की  प्रतिक्रिया जाननी चाही। सभी को इस पर आश्चर्य था। कोई भी शिखर नेता इतनी मुखरता के साथ अपनी धार्मिक आस्था का प्रदर्शन नहीं करता है। जब प्रधानमंत्री गैर- श्वेत प्रवासी समुदाय से रहे तो उससे काफी सतर्कता की अपेक्षा रहती है क्योंकि इससे अन्य धार्मिक समुदायों की भावनाएं  प्रभावित हो सकती हैं। 2021 की जनगणना के अनुसार, ईसाइयत को मानने वाले बहुमत में हैं। दूसरे  स्थान पर मुस्लिम और तीसरे स्थान पर हिन्दू हैं। इसके बाद सिख, यहूदी और बौद्ध हैं।

इंग्लैंड में सबसे अधिक हिन्दू लंदन और लैंकेस्टर में रहते हैं। लंदन के मेयर मुस्लिम रह चुके हैं।वैसे लोगों ने बताया कि श्वेत समाज के प्रधानमंत्री भी चर्च जाते हैं। अन्य धर्मों के कार्यक्रमों में भी हिस्सा लेते रहे हैं। पर उनकी भाषा सुनक से भिन्न रही है। प्रधानमंत्री सुनक ने हिन्दू धर्म के प्रति कुछ अतिरिक्त अनुराग का प्रदर्शन किया है। यह आम धारणा थी। बहुसंख्यक  उदारवादी श्वेत समाज में इसे चरम दक्षिण पंथ की अभिव्यक्ति के रूप में देखा जा सकता है। वजह भी है। भारत में ‘जय श्रीराम ‘ की विशिष्ट अभिव्यक्ति है। इसे आक्रामक हिंदुत्व उभार के सन्दर्भ में देखा जाता है। 

 बेशक़ पिछले कुछ समय से ब्रिटेन के सत्ता प्रतिष्ठान में  हिन्दुओं की उपस्थिति प्रभावशाली हुई है। मंत्रिमंडल में भी उपस्थिति बढ़ी है। सिख समुदाय आक्रामक ढंग से प्रभावी है।साउथहॉल को देख कर आप लुधियाना-जालंधर में पहुँच जाते हैं।पहली दफा 1983 में इस जगह के दर्शन हुए थे। मुझे लगा था कि मैं पंजाब के किसी शहर में पहुंच गया हूं। इस दफा भी जाना हुआ था।ऑक्सफ़ोर्ड के लिए बस लेनी थी। इसलिए यहां आना पड़ा।  साउथहाल की सूरत बदली ज़रूर है। आधुनिक हुआ है। लेकिन पंजाब की पहचान बदस्तूर है। सिख समुदाय के साथ साथ अब हिन्दू और मुस्लिम के लोग भी दिखाई दे रहे थे। चाट-पकौड़ी की थड़ियां अधिक दिखाई दीं।पहले सिखों का ही वर्चस्व दिखाई दे रहा था।  

 वैसे 19वीं सदी से ही इंग्लैंड में हिन्दू और मुस्लिम की मौजूदगी रही है। सिखों की अस्मिता का अलग महत्व है। इस वर्ष इंग्लैंड में आम चुनाव होंगे। मुख्य रूप से  सत्तारूढ़ कंज़र्वेटिव और लेबर पार्टी के बीच चुनावी संघर्ष होगा। दोनों ही पार्टियों में भारतीय व पाकिस्तान मूल के हिन्दू और मुस्लिम समुदायों के लोग प्रभावी पदों पर हैं। ऋषि सुनक ने ‘ जय श्रीराम ‘ का नारा उछाल कर क्या सन्देश देने की कोशिश की है, यह सभी के लिए कौतुक का विषय बना हुआ है। आशंका है कि कहीं इस समाज में ‘ध्रुवीकरण’ की महीन प्रक्रिया शुरू न हो जाए !

वोट की दृष्टि से मुस्लिम समाज का महत्व अधिक है क्योंकि जनसंख्या की दृष्टि से वह हिन्दू समुदाय से बड़ा है। कोई भी पार्टी मुस्लिम समुदाय के मतदान -महत्व की उपेक्षा की जोखिम नहीं ले सकती। लेकिन सुनक-अभिव्यक्ति को अनदेखा भी नहीं किया जा सकता। स्थानीय लोगों की नज़र में सुनक के नेतृत्व में सत्तारूढ़ कन्सर्वेटिव पार्टी के सत्ता में वापसी के अवसर कम माने जा रहे हैं। सोचने-समझने वाले लोग मानते हैं कि प्रधानमंत्री ऋषि सुनक एक सामान्य ‘ मेडिओकर लीडर’हैं। दूरदृष्टि संपन्न नहीं हैं।आठवें दशक की प्रधानमंत्री मैगी थैचर जैसी दृष्टि सुनक में दिखाई नहीं देती है। वे आक्रामक ढंग से विशुद्ध पूंजीवाद की समर्थक थीं। अमेरिकी राष्ट्रपति रेगन की आर्थिक नीतियों की समर्थक थीं। सुनक में वैसी डैशिंग नहीं है।

सुनक की तुलना में लेबर पार्टी के नेता कैर रॉडनी स्टार्मेर अधिक प्रभावशाली हैं। रॉडनी का ब्रिटिश संसद के निचले सदन यानी ‘हाउस ऑफ कॉमन’ में प्रतिपक्ष के नेता के रूप में भी प्रदर्शन अधिक प्रभावशाली माना जाता है। उनके सामने सुनक कुछ बोदे दिखलाई पड़ते हैं। ऐसा लंदनवासी मानते हैं। ऋषि सुनक की अपनी सीमायें भी हैं। गैर-श्वेत समुदाय से होने के कारण उनकी श्वेत समाज में स्वीकार्यता अपेक्षाकृत कम भी होगी। हालांकि, इंग्लैंड में रंगभेद नहीं माना जाता। रंगभेद दंडनीय अपराध है। लेकिन, मेरे मेज़बान का कहना था कि श्वेतों के मन में ‘अश्वेतों के प्रति पूर्वाग्रह’ ज़रूर रहता है। श्वेत समाज अधिक एकताबद्ध है। अपने हितों के प्रति अधिक जागरूक व सक्रिय है। उनमें ‘स्थानीयता’ की  चेतना अधिक है जोकि स्वाभाविक भी है। वैसे लंदन में मैं रंगभेद का  सामना कर चुका  हूं।

1983 की पहली लंदन यात्रा में मैं, स्वामी अग्निवेश और सांसद इंद्रवेश किसी सांस्कृतिक कार्यक्रम में भाग लेने जा रहे थे। स्थानीय सड़कछाप युवाओं ने हम पर रंगभेदी शब्दों की बौछार की और थूका भी।’you bloody indians’ कहा। अन्य राहगीरों ने हमें बचाया। आज चार दशक बाद रंगभेद बढ़ा है या घटा है, इसकी प्रामाणिक जानकारी मेरे पास नहीं है।वैसे 2014 व 15 के एक अध्ययन का दावा है कि  ब्रिटेन में नस्लभेद बढ़ा है। खैर! यह एक अलग विषय है। इस समय इतना ही मैं कह सकता हूं कि अगले आम चुनावों में प्रधानमंत्री  ऋषि सुनक की वापसी आसान नहीं रहेगी। लेबर पार्टी के अवसर अधिक माने जा रहे हैं। 

विश्व में इस समय चरम दक्षिण पंथ का ज्वार आया हुआ है।ऊंचा उठा हुआ है  मज़हबी परचम। पिछले वर्ष  इटली में धुर दक्षिणवाद व नवफासीवाद के प्रति रुझान रखनेवाली जिऑर्जीअ मेलोनी प्रधानमंत्री पद की शपथ ले चुकी हैं। नवंबर में ही नीदरलैंड में गीर्ट विल्डर्स ने चुनाव जीता है। डच देश के यह नेता ‘ इस्लाम विरोधी’ विचारों के लिए विख्यात हैं। चुनाव जीतने  के बाद उन्होंने मुसलमानों के बारे में काफी कुछ कह डाला।

मुझे लगता है कि श्वेत राष्ट्रों में अमेरिकी चिन्तक सैमुएल पी. हंटिंग्टन की पुस्तक ‘ clash of civilizations and the remaking of world order’ के प्रभाव की धारा बह रही है; मुक्त अर्थ व्यवस्था या कॉर्पोरेट पूंजी सत्ता + नव धार्मिक कट्टरता के आधुनिक गठबंधन के माध्यम से नई विश्व व्यवस्था के निर्माण की कोशिशें की जा रही हैं। इस परिप्रेक्ष्य में हमास-इजराइल जंग को भी देखा-समझा जा सकता है। एक प्रकार -से ग़ज़ा में इजराइल द्वारा मिनी होलोकॉस्ट मंचित किया जा रहा है। यहूदी राज्य इजराइल के शासक भूल गए हैं कि यहूदी नस्ल भी जर्मनी में होलोकॉस्ट की शिकार रह चुकी है।

1935 से 45 के बीच हिटलर शासन के दौरान करीब 60 लाख यहूदियों का नस्ली सफाया किया गया था। क्या इजराइल के लोग अपने ही इस ‘महाविनाश’ को भूल गए हैं ? आज वे अपने महाविनाश को गज़ा के मुस्लिमों के साथ दोहरा रहे हैं। इस क़िस्त को लिखते समय तक करीब 25 हज़ार गजानिवासी युद्ध की  भेंट चढ़ चुके हैं। पचास हज़ार से अधिक घायल हो चुके हैं। न जाने मनुष्यता के लिए वह दिन कब आएगा जब मनुष्य स्वयं का संहारक बनना त्याग देगा! इसी कशमकश से घिरा मैं अगले पड़ाव की तरफ चल देता हूं।

 फ्लीट टाउन से साउथहाल पहुंचने में लगभग पौन घंटा लगा। मुझे यहां से ऑक्सफोर्ड के लिए बस पकड़नी थी। साथ में मधु जोशी थीं। एक घंटे का सफर था। बेहद सुहाना। दोनों तरफ फैले विशाल हरे-भरे खेतों के मध्य से जाना  आत्मिक सुकून से कम नहीं था। वाहनों और भीड़ के शोर से मुक्ति मिली। ऐसे आलम में हम ऑक्सफोर्ड शहर पहुंचे। इस विश्वविद्यालय को करीब एक हज़ार साल पुराना बताया जाता है। विश्व के सबसे पुराने दस विश्विद्यालयों में इसका स्थान दूसरा है, पहला स्थान इटली के बोलोगना विश्विद्यालय का माना जाता है।

दस विश्वविद्यालयों में तक्षिला और नालंदा विश्विद्यालय शामिल नहीं हैं। इसके तीन कारण हो सकते हैं:1. श्वेत पूर्वाग्रह; 2. अविभाजित भारत के इन दोनों विश्वविद्यालयों में शिक्षण का लुप्त हो जाना और 3. निरंतर विदेशी आक्रमणों और तत्कालीन राजसत्ताओं की उपेक्षा का शिकार होना। ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय ने अपनी लम्बी आयु के बावजूद अपनी प्रतिष्ठा निरंतर सुरक्षित रखी है। दुनिया भर से ज्ञान-विद्या प्रेमी इसमें प्रवेश पाकर आज भी गर्व से भर जाते हैं। भारत व पाकिस्तान के अनेक नेता यहां के पूर्व विद्यार्थी रह चुके हैं।

ब्रिटेन के कई प्रधानमंत्री, विदेशों के राष्ट्रपति व प्रधानमंत्री, नोबल पुरस्कृत, लेखक, बुद्धिजीवी जैसे व्यक्तित्वों की लम्बी फेहरिश्त है जो कि इस विश्वविद्यालय के पूर्व विद्यार्थी रह चुके हैं। प्रसिद्ध ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस भी यहीं है। इस प्रेस की स्थापना 1478 में हुई थी। आज भी यह प्रेस अपने प्रकाशनों के लिए विश्व विख्यात है। प्रसिद्ध गैर सरकारी संस्था ओक्सफॉम का दफ्तर भी ऑक्सफ़ोर्ड में है। मैं 1983 में पहली बार स्वामी अग्निवेश के साथ ऑक्सफोर्ड आया था। तब हम ओक्सफॉम कार्यालय गए थे। उनके प्रतिनिधियों ने यूनिवेर्सिटी परिसर की यात्रा कराई थी। परिसर में स्थित पुस्तकालय देखने लायक है जिसमें ‘bodleian library ‘ को सबसे पुराना माना जाता है , जिसमें  1 करोड़ 30 लाख से अधिक पुस्तकें हैं। 

इस यात्रा में जहां 1983 की  स्मृतियां ताज़ा हुईं, वहीं कुछ कचोटनेवाली स्मृतियां भी स्मृति कोष में संचित हुई हैं। परिसर के दो-तीन किलोमीटर के दायरे में कम-से-कम 5-6 भिखारी दिखाई दिए। इन भिखारियों ने एक चादर फैला कर तख्ती लगा रखी थी। तख्तियों पर लिखा हुआ था : कृपया गॉड, क्राइस्ट के नाम पर हमारी मदद करें। इनमें एक औरत भिखारी भी थी। भिखारी शरमा रहे थे। अपने चेहरे को आधा ढके हुए थे। कोई उनका मोबाइल से चित्र लेने की कोशिश करता तो वे चीखने लग जाते। जहां से बस वापस साउथहाल के लिए चली थी वहां भी भिखारी बैठा दिखाई दिया। 

वह भी चित्र लेने से रोक रहा था।  फिर भी सबूत बतौर कुछ चित्र मोबाइल में क़ैद हो गए हैं। ऐसे दृश्यों की मुझे उम्मीद नहीं थी। लंदन में भी  पुल से जाते हुए  एक भिखारी स्त्री को देख चुका था। लोगों ने बताया कि इन भिखारियों में विभिन्न देशों के विस्थापित लोग शामिल हैं। उन्हें पर्याप्त निर्वाह भत्ता नहीं मिलता है। कुछ स्थानीय लोगों को नशे की लत भी है। वे भी इनदिनों भिक्षा प्रवृत्ति के शिकार हो गए हैं। फिर भी चार दशक के बाद ऑक्सफोर्ड की सूरत पर ऐसे दाग़ का होना किसी भी तरह से स्वागत योग्य तो नहीं हो सकता। 

चार एक घंटे बिताने के बाद हमारी वापसी यात्रा शुरू होती है। बीच में हमें एक ‘ न्यू विलेज ‘ ले जाया जाता है। नदी के आसपास बसा हुआ है। बताया जाता है कि इसका इतिहास काफी समृद्ध है। सातवीं सदी का है। छोटी छोटी कुटियानुमा मकान हैं। बिलकुल शांत है। गोरे लोग अपनी विरासत को कितना संभाल कर रखते हैं और पर्यटन उद्योग में उससे धन कैसे कमाया जाता है, यह हमें इन लोगों से सीखना चाहिए। याद आया। अमेरिका के बोस्टन शहर में  ‘ स्वतंत्रता पगडण्डी ‘ है। इस पगडण्डी का ऐतिहासिक महत्व है।

18वीं सदी में जब इंग्लैंड के खिलाफ अमेरीकियों ने स्वतंत्रता आंदोलन छेड़ा था तब आंदोलनकारी किस किस जगह से गुजरे थे, किन किन गलियों में गए थे, कहां कहां सभाएं की थीं, यह  पगडण्डी या ‘ freedom trail’ उन सभी जोड़ती है। यह आंदोलन ‘बोस्टन टी पार्टी’ के नाम से प्रसिद्ध है। हम दिल्ली में भी 1857 के स्वतंत्रता सेनानियों के नाम पर ऐसी पगडण्डी का निर्माण कर सकते थे। 10 मई, 1857 के आंदोलन के सैनिक लालकिले से निकल कर दिल्ली की गलियों में घूमे थे। अंग्रेजी सेना के साथ  विभिन्न स्थानों पर मुठभेड़ें हुई थीं। यदि राजधानी दिल्ली में भी ऐसी ‘ स्वतंत्रता पगडण्डी ‘ बनाई जाती है तो इसका ऐतिहासिक महत्व के साथ साथ पर्यटन महत्व भी बढ़ेगा। मई 2007 में 1857 की डेढ़ सदी बड़े धूमधाम से मनाई गयी थी। लेकिन, इस तरफ किसी का ध्यान नहीं गया।

यदि उस समय एक  फ्रीडम ट्रेल बना दी  जाती तो 1857 के सैनिकों और शहीदों की स्मृतियां दिल्लीवासियों और पर्यटकों के मन-मस्तिष्क में स्थाई रूप से अंकित हो जाती। लेकिन,जब  हम जमुना नदी को आज तक स्वच्छ नहीं रख सके और नौका विहार के लायक नहीं बना सके, तो पगडण्डी के संबंध में सोचना बेवकूफी ही है। राजीव गांधी के ज़माने से मोदी शासन तक गंगा-जमुना को स्वच्छ रखने का महाअभियान चल रहा है। सैकड़ों करोड़ रूपये बहाये जा चुके हैं। लेकिन, कोविड काल में हमारी नदियों पर  ‘शव वाहिनी’ का ही तमगा चप्सा ही दिया। वैसे, नदियों में जानवरों के शव बहते ही रहते हैं। ‘पशु वाहिनी’ नदियों की बारहमासी पहचान रहती है।  

टेम्स नदी को कितना साफ़ रखा जाता है, क्या हम अपनी नदियों को वैसा रख  सकते हैं ? याद आया, पेरिस शहर के चारों तरफ माला बन कर घूमती नदी ‘ ला सीने’ में नौका विहार का अलग ही आनंद है। नदियां शान मानी जाती हैं  पश्चिमी देशों की। मुझे जर्मनी यात्रा के दौरान ‘ राइन नदी’ को देखने का अवसर मिला है। मजाल है, नदी किनारे किसी गंदगी का निशान मिल जाए। अमेरिका के बॉस्टन शहर की शान मानी जाती है ‘चार्ल्स नदी’ को। भांति भांति की प्रतियोगिताएं होती हैं इस नदी में। ग्रीष्म के दिनों में तो सैलानियों का मेला ;लगा रहता है।

ये लोग विशुद्ध सैलानी होते हैं, कोई भक्त नहीं होते हैं। हमारी नदियों पर तो भक्तों का जमघट लगा रहता है और तट गंदे होते रहते हैं। जब भी मैं मयूर विहार से जमुना पार करते हुए नई दिल्ली जाता हूं, कोई -न-कोई भक्त वाहन से उतर कर नदी में ‘श्रद्धा सुमन’ फेंक रहा होता है।यह भी होता है कि सामर्थ्यवान भक्त पुल पर मंडराते गरीब घर के बच्चों को कुछ पैसा दे कर अपनी श्रद्धा पोटली को नदी में फेंकवा कर अपना पाप प्रक्षालन या श्रद्धा अर्पण कर डालते हैं।  लेकिन, मैं  टेम्स, राइन, सीने, चार्ल्स नदियों के मुहाने पर ऐसी श्रद्धा वृष्टि में स्नान करने के लिए तरस गया। 

(राम शरण जोशी वरिष्ठ पत्रकार हैं।)  

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