घुसपैठिए कौन हैं? यह सवाल बड़ा राजनीतिक सवाल बन गया है। नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजन में जिनका नाम नहीं है, वे घुसपैठिए हैं। यह बात बार-बार गृहमंत्री अमित शाह दोहरा रहे हैं। वे यह भी कह रहे हैं कि एनआरसी पूरे देश में लागू होगा और चुन-चुन कर घुसपैठियों को बाहर निकाला जाएगा। 2024 डेडलाइन भी शाह दे रहे हैं। मगर, इसमें विवाद क्या है?
नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजन यानी एनआरसी कोई नया विचार नहीं है। देश में एनआरसी 1951 से पहले से मौजूद है। असम के संदर्भ में नये सिरे से इसे संशोधित करने का फैसला हुआ और यह असम समझौते को लागू करने का प्रयास था। इस समझौते के सेक्शन 5.8 में कहा गया है, “25 मार्च 1971 या उसके बाद असम में आए विदेशियों की पहचान होगी और उन्हें कानून के हिसाब से राज्य से बाहर निकाला जाएगा। ऐसे विदेशी लोगों को तत्काल बाहर करने के लिए कदम उठाए जाएंगे।” 2013 से ही असम में एनआरसी को अपडेट करने की पूरी कवायद की निगरानी सुप्रीम कोर्ट करता रहा है।
31 अगस्त को जो एनआरसी अपडेट होकर सामने आयी, उसमें लगभग 19 लाख लोगों को एनआरसी से बाहर पाया गया। इनमें बंगाली हिन्दू भी हैं, बांग्लादेशी मुसलमान भी। अब भी उन दावों को निपटाया जा रहा है जो स्थानीय होने का दावा कर रहे हैं और खुद को विदेशी नहीं मानने के तर्क दे रहे हैं। एनआरसी की पहचान भले ही नागरिकों के राष्ट्रीय रजिस्टर के तौर पर हो, लेकिन वास्तव में यह घुसपैठियों की पहचान का रजिस्टर बन गया है। जब हम घुसपैठिया कहते हैं तो इसका सीधा मतलब उन विदेशियों से होता है जिन्होंने अवैध तरीके से सीमा लांघ कर भारत में प्रवेश किया है। मगर, यह बात उन बंगालियों पर लागू नहीं होती जो पश्चिम बंगाल के रहने वाले हैं और असम में जा बसे हैं। अपने ही देश के बंगालियों को घुसपैठिया कैसे कहा जा सकता है? यही वह सवाल है जिसका जवाब नहीं दिया जा रहा है।
‘घुसपैठिए’ पर आमने-सामने हैं अमित-अधीर
लोकसभा में कांग्रेस के नेता अधीर रंजन चौधरी ने नरेंद्र मोदी और अमित शाह को गुजरात से दिल्ली आया हुआ ‘घुसपैठिया’ बताकर वास्तव में असम में पैदा हुई दुविधा की ओर ही सवाल उठाया है। अगर बंगाल से असम गये लोग ‘घुसपैठिया’ हो सकते हैं तो गुजरात से दिल्ली पहुंचे लोग क्यों नहीं? मगर, अधीर रंजन चौधरी के बयान को इस रूप में पेश किया जा रहा है मानो वे घुसपैठिया का मतलब ही नहीं समझते। वास्तव में अधीर रंजन अपने गृहमंत्री अमित शाह को रोकना चाहते हैं कि वे असम में रह रहे बंगालियों को घुसपैठिया बोलने से खुद को रोकें।
20 नवंबर 2019 को अमित शाह ने लोकसभा में घोषणा की है कि पूरे देश में एनआरसी लागू होगी। उसके बाद ही यह सवाल उठने लगा कि क्या एक राज्य में दूसरे राज्य से आ बसे लोग असम की तर्ज पर ही ‘घुसपैठिए’ करार दिए जाएंगे? पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने इसका तत्काल विरोध किया और इसे अपने राज्य में लागू नहीं होने देने की घोषणा की। चूंकि पश्चिम बंगाल के लोग असम में एनआरसी से पीड़ित लोगों में हैं इसलिए इस विरोध का महत्व भी बढ़ गया। ममता बनर्जी नहीं चाहतीं कि दूसरे राज्य के लोग जो पश्चिम बंगाल में रह रहे हैं उन्हें ‘घुसपैठिया’` करार दिया जाए।
जब अमित शाह घुसपैठियों को चुन-चुन कर निकालने की बात कह रहे हैं तो उनका संदेश यही है कि वे विदेश से घुस आए लोगों को अपने देश से निकाल-बाहर करने वाले हैं। वे संदेश देना चाहते हैं मानो बांग्लादेशियों को निकाल बाहर करने वाले हों। मगर, जब अधीर रंजन चौधरी या ममता बनर्जी इस पर आपत्ति जता रही हैं तो उनका आशय ये है कि घुसपैठिए के नाम पर एक राज्य की जनता को दूसरे राज्य में रहने की वजह से परेशान होने नहीं दिया जाएगा। ऐसा नहीं है कि दोनों एक-दूसरे का मतलब नहीं समझ रहे हैं। फिर भी इसी हिसाब से इस बहस को आगे बढ़ाया जा रहा है ताकि राजनीतिक रोटियां सेकीं जा सकें।
48 साल बाद कैसे बाहर होंगे घुसपैठिए
एनआरसी को लेकर एक बात और जो परेशान करने वाली है वह यह है कि अमित शाह घुसपैठिए को निकाल बाहर करने की बात तो कह रहे हैं लेकिन ऐसा वे कैसे करेंगे, इस बारे में कुछ नहीं बता रहे हैं। जब 1985 में असम समझौता हुआ था तब मार्च 1971 से आगे 14 साल बीते थे। अब उस फैसले में 34 साल की और देरी हो चुकी है। यानी कुल 48 साल बाद बांग्लादेशी घुसपैठिए कैसे बाहर किए जाएंगे, यह बड़ा सवाल है। कोई देश अपने ही मूल के नागरिकों को 48 साल बाद क्यों और कैसे स्वीकार करेगा, यह प्रश्न भी महत्वपूर्ण है। फिर यह बात साबित कैसे की जाएगी कि वे बांग्लादेशी हैं? एनआरसी में होना नहीं होना तो किसी के बांग्लादेशी होने का प्रमाण नहीं हो सकता।
चिंता इस बात की भी है कि जो बांग्लादेशी नहीं हैं और भारत के ही हैं लेकिन एनआरसी में अपना नाम रजिस्टर नहीं करा पाए हैं, उनके साथ क्या होगा? फिलहाल जिनके नाम एनआरसी में हैं वे असम के रहने वाले हैं यह बात तो साबित होती है। मगर, जिनके नाम एनआरसी में नहीं हैं वे हिन्दुस्तान के रहने वाले नहीं हैं, यह बात साबित नहीं हो जाती। यही वो बारीक फर्क है जो बांग्लादेशी मुसलमान और पश्चिम बंगाल के हिन्दुओं के बीच असम में दिख रहा है। इस फर्क को राजनीति समझने के लिए तैयार नहीं है। आखिरकार हुक्मरानों को यह फर्क सामने लाना होगा कि घुसपैठिए कौन हैं- बांग्लादेशी या बंगाली?
(प्रेम कुमार वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल आपको विभिन्न न्यूज़ चैनलों की बहसों में देखा जा सकता है।)
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