गांधी बनाम अम्बेडकर का मिथक रचा जा रहा है। गांधी ने ही बाबा साहब की असाधारण मेधा के कारण उन पर भारत के संविधान रचने की महती जिम्मेदारी सौंपने का आग्रह किया था। गांधी की मूर्तियां खंडित की जा रही हैं। उनकी याद में दिए जाने वाले पुरस्कार गांधी विरोधी आचरणों को भी दिए जा रहे हैं। गांधी माला की सुमरनी नहीं हैं जिनके नाम का जाप किया जाए। कई गांधीवादियों ने अलबत्ता करोड़ों के सरकारी अनुदान डकार कर गांधी बनते मैली कुचैली धोती, छितरी दाढ़ी, हिंसक विनम्रता और लिजलिजे व्यक्तित्व का तिलिस्म बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है।
गांधी दरअसल एक वामपंथी हैं, लेकिन मार्क्स की नकल के नहीं। भारतीय औपनिवेशिक परम्परा के ऋषि चिन्तन के असल की तरह। उनका उत्तर आधुनिक पाठ भी बनता है। कोई उनसे मिले तो। उनका हालचाल पूछे तो। राजघाट पर समाधि जिसकी है, वह गांधी नहीं है। गांधी तो जनघाट पर ही अपनी मुक्ति पा सकता है। गांधी को लेकिन मुक्ति नहीं चाहिए थी। उसने मरण को संस्कार बनाया है। इसलिए जो भी इस रास्ते पर चलेगा, उसे ही मोहनदास करमचंद गांधी को जिलाए रखने का हक होगा।
गांधी लेकिन फकत आयोजनों और बकवास के मोहताज नहीं हैं। उनके सम्बन्ध में ठोस वैचारिक चिन्तन की जरूरत है। मर चुकी बेरहम बीसवीं सदी उपनिवेशवाद तथा आर्थिक वैश्वीकरण की वजह से विचार, अध्ययन और किताबों को लेकर जेहाद भी नहीं कर पाई। जिन्होंने गांधी के यश की राजनीतिक दूकानें सजा रखी हैं, वे हर मुद्दे पर यही फिकरा कसते हैं कि हमें गांधी के रास्ते पर चलते हुए गाँवों में जाना चाहिए। लेकिन जाता कोई नहीं है। अंधेरे के घटाटोप अट्टहास के बीच यदि कोई नन्ही कन्दील बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के मुकाबले जलने की कोशिश करती है, तो उसे यह बताने की जुर्रत की जाती है कि जब सूरज तक अंधेरे का स्थायी उत्तर नहीं है, वह तो केवल आधा उत्तर है, तब कन्दील जलाने की क्या जरूरत है।
विचारहीनता यदि शासनतंत्र का अक्स है तो गांधी एक तिलिस्मी, वायवी और आकारहीन फेनोमेना की तरह मुट्ठियों में पकड़ने लायक नहीं हैं। यह सवाल क्यों नहीं पूछा जाना चाहिए कि जिस व्यक्ति ने विचार बनकर दुनिया के इतिहास में शायद पहली और आखिरी बार एक नैतिक क्रांति के जरिए देश आजाद कराया, उसके सहकर्मियों द्वारा रचे गये संविधान की आस्थाओं में उसका उल्लेख तक क्यों नहीं है? क्यों नहीं यह सवाल पूछा जाना चाहिए कि अपने देश, धरती, इतिहास, परम्पराओं, संस्कृति और समकालीनता को जिस व्यक्ति ने सर्वाधिक आत्मसात होकर अनुभूत किया, क्या उसकी सलाह से भी यह देश नहीं चलेगा? उनकी सलाह को अनिवार्यता देने में क्या मजबूरी है? गांधी हमारी गवेशणा के विषय हैं, जिज्ञासा के प्रश्नवाचक चिन्ह हैं, परेशान दिमाग लोगों के लिए अब भी अनसुलझी पहेली हैं। लेकिन वे कब हमारा गहरा सरोकार बन पायेंगे?
महात्मा गांधी का यश और यादों को उनके वंशजों द्वारा एक अमेरिकी कम्पनी को पेटेन्ट कानूनों के तहत बेचे जाने की भी पुरजोर खबर रही है। बापू नीम, टमाटर, बासमती चावल और दवाइयों वगैरह की श्रेणी में हो गए? पोरबन्दर घी, सेवाग्राम तेल और दांडी नतक पहले से ही बाजार में हैं। नाथूराम गोडसे ने उन्हें पहले ही अंतर्राष्ट्रीय बना दिया है। कांग्रेसियों ने भी उन्हें मूर्ति, तस्वीर, जन्म जयंती और पुण्यतिथि बनाकर रखा था।
गांधी की बची खुची कीर्ति पर यह तुषार भी पड़ सकता है कि अमेरिकी कम्पनी से पूछकर ही उनके चित्र, पेंटिंग, कार्टून वगैरह बनाए जाएं। फिल्में, नाटक और बैले वगैरह अमेरिकी ही खेलने कहें। धीरे धीरे उन पर किताबें, समीक्षा, मूल्यांकन और जिरह भी हिंगलिश के बाद यांकी जुबान में जुगाली की शैली में अमेरिकी ही करें। ताजा परमाणु करार की तरह क्या गांधी धीरे से इंडो-अमेरिकन हो जाएंगे? वे उसी तरह तफरीह के लिए भारत आएंगे जैसे हरगोविन्द खुराना, चंद्रशेखर, अमर्त्य सेन और स्वराज पॉल आते रहते हैं?
गांधी को समाजवाद से नफरत नहीं थी। वे मार्क्स को ठीक से जानने का अलबत्ता दावा भी नहीं करते थे। आज देश की नौकरशाही से नेता बनी चैकड़ी के चंगुल में लोकतंत्र की आत्मा फँस गई है। धर्म निरपेक्षता की बलिवेदी पर बापू की देह को जिबह कर दिया गया। उसके बाद भी शाहबानो के मामले में घुटने टेके गए। बाबरी मस्जिद को सुप्रीमकोर्ट, संविधान, संसद और मुख्यमंत्री अपनी अपनी विवशताओं का मुखौटा लगाकर नहीं बचा सके। गांधी देश में जनता का स्वराजी लोकतंत्र चाहते थे। फिर भी वोट हैं कि कबाड़े जा रहे हैं। छापे जा रहे हैं। मांगे नहीं जा रहे हैं। छीने जा रहे हैं।
हिन्दू-मुसलमान इत्तहाद के लिए अदमत्तशद्दुद के उस मसीहा ने खुद को ताबूत बना लिया। शहीदों की चिताओं के लिए ताबूत के नाम पर कमीशनखोरी की रोटी सेंकी जा रही है। अमरीकी प्रेसीडेन्ट हमारे ही घर आकर हमें आंखें दिखाता है। विश्व बैंक के मुलाजिम नये कौटिल्य बने हुए हैं और जनपथ हो गया है राजपथ। देश गर्क में जा रहा है, जनता नर्क में, फिर भी सत्ताधीशों को फर्क नहीं पड़ रहा है। नीम की पत्ती की चटनी, खजूर, बकरी का दूध, चोकर की रोटी गांधी की आत्मा के हथियार थे। पांच सितारा होटलों की अय्याशी, भुनी हुई मछली, कीमती स्कॉच, ‘आक्सब्रिज की अंग्रेजी, उद्योगपतियों का कालाबाजार, मूर्ख मंत्रिपरिषदें समेटे गांधी के दुरंगे और तिरंगे राजनीतिक वंशज देश की देह को दीमकों की तरह नोच नोच कर विश्व बैंक का ब्याज बनाते चले जा रहे हैं। फिर भी गांधी हैं कि चुप हैं।
गांधी का रचनात्मक कार्यक्रम देश के कोई काम नहीं आया। उनका ब्रह्मचर्य देश में बलात्कार से हार रहा है। उनकी अहिंसा नक्सलवाद और पुलिसिया बर्बरता से पिटकर भी जीवित रहना चाहती है। उनके सात लाख गांव दिल्ली और राज्यों की राजधानियों में धूल खा रहे हैं। उनके नाम पर बनी संस्थाएं अनुदान डकार रही हैं। सरकारी आयोग उन्हें भ्रष्ट करार दे रहे हैं। उनकी टोपी अफसरों के चरणों पर रखकर नेता जेल जाने से बचने के लिए हृदय परिवर्तन कर रहे हैं। भारत में उन्हीं की इज्जत है जो नॉन रेसिडेन्ट इन्डियंस हैं।
वे भारत में रहते तो नहीं हैं लेकिन सच्चे, प्रतिष्ठित और ख्यातिलब्ध भारतीय हैं। क्या बापू अब उनके ही सरगना बन जाएंगे! डनकी गरीबी को हम विश्व बैंक कहेंगे! डनकी बकरी कसाइयों के लिए पेटेन्ट हो जाएंगी! उनकी लाठी पुलिस के लिए! उनके चरखे से लोग कहेंगे ‘चर, खा। कितना बड़ा अहसान होगा इन सौदेबाजों का भारत के ताजा इतिहास और इक्कीसवीं सदी पर। गांधी जानते थे कि वे इतिहास की धरोहर हैं। लेकिन घर के दरवाजे खोंखों करता पितामह खून, पसीने और आंसुओं का संगम होने के अतिरिक्त बलगम बनकर भी थूक जाता है। क्या उन्हें इतनी सी बात मालूम नहीं थी? जब राष्ट्र वैश्वीकरण का रैम्प बनाया जा रहा है, तब राष्ट्रपिता से मॉडलिंग करने के लिए कौन कहेगा?
(कनक तिवारी पेशे से एडवोकेट हैं और रायपुर में रहते हैं। आपको देश के प्रतिष्ठित बुद्धिजीवियों में शुमार किया जाता है। यह लेख उनके फेसबुक पेज से साभार लिया गया है।)