कानून के जरिए एमएसपी को स्थायी बनाने पर क्यों है सरकार को एतराज?

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दुनिया का कोई भी विधि-विधान त्रुटिरहित नहीं रहता। जब भी कोई कानून बनता है तो उसका कुछ न कुछ उद्देश्य होता है, और जब वह कानून किताबों से उतर कर धरातल पर आता है तो उस कानून की कई कमियां भी, उपरोक्त उद्देश्य के अनुरूप सामने आती हैं, और तब उसमें ज़रूरत के अनुसार, संशोधन होते रहते हैं। न्यूनतम समर्थन मूल्य के मामले में भी यही हुआ है। एमएसपी की गणना को कुछ कृषि अर्थशास्त्रियों ने कई खामियों से भरा बताया है और उसे दूर करने के अनेक सुझाव दिए हैं। एमएस स्वामीनाथन ने तो एमएसपी तय करने का नया फॉर्मूला भी दिया है, हालांकि डॉ. स्वामीनाथन का क्षेत्र जेनेटिक साइंस का था न कि कृषि अर्थशास्त्र का। अब यह सवाल उठता है कि, क्या न्यूनतम समर्थन मूल्य तय करने वाली प्रक्रिया में बदलाव की ज़रूरत है?

इस विषय पर अर्थशास्त्री सचिन कुमार जैन ने कई लेख लिखे हैं और उन्होंने अपने अध्ययन और शोध से यह स्पष्ट किया है कि एमरसपी में कई ऐसी विसंगतियां हैं, जिससे कृषि उत्पाद का न्यूनतम समर्थन मूल्य औचित्यपूर्ण रूप से तय नहीं किया जा पा रहा है। यह शिकायत किसान संगठनों की भी है और अर्थशास्त्र के विद्वानों की भी। इसका कारण है, “भारत में खेती के क्षेत्र में ज़बरदस्त विविधता होती है, लेकिन जब भारत सरकार कृषि लागत एवं मूल्य आयोग की अनुशंसा पर न्यूनतम समर्थन मूल्य का निर्धारण करती है, तब वह मूल्य पूरे देश के लिए एक जैसा ही होता है।”

क्या भारत में कृषि उपज की लागत का सही-सही निर्धारण होता है? इसका उत्तर होगा, बिलकुल नहीं! भारत में कृषि उत्पादों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य का निर्धारण कृषि लागत एवं मूल्य आयोग के द्वारा किया जाता है। इसकी स्थापना, जनवरी 1965 में हुई थी, तब इसे कृषि मूल्य आयोग के नाम से जाना जाता था। वर्ष 1985 में इस संगठन को लागत निर्धारित करने का भी दायित्व सौंप दिया गया और तभी से इसे कृषि लागत एवं मूल्य आयोग कहा जाता है।

वर्ष 2009 के बाद से न्यूनतम समर्थन मूल्य के निर्धारण में, उपज की लागत, मांग और आपूर्ति की स्थिति, आदान मूल्यों में परिवर्तन, मंडी मूल्यों का रुख, जीवन निर्वाह लागत पर प्रभाव और अन्तराष्ट्रीय बाज़ार के मूल्य को ध्यान में रख कर, न्यूनतम मूल्य निर्धारण किया जाने लगा है। 

यहीं यह सामान्य जिज्ञासा उठती है कि एमएसपी तय करते समय किसान और खेतिहर मजदूर को किस दृष्टिकोण से इस मूल्य निर्धारण में सोचा जाना चाहिए। इस जिज्ञासा पर जब संसद में बहस चल रही थी तो कृषि एवं किसान मंत्रालय की ओर से राज्यसभा में यह बयान दिया गया, “खेती के उत्पादन की लागत के निर्धारण में केवल नकद या जिंस से सम्बंधित खर्चे ही शामिल नहीं होते हैं, बल्कि इसमें भूमि और परिवार के श्रम के साथ-साथ स्वयं की संपत्तियों का अध्यारोपित मूल्य भी शामिल होता है।”

यानी मूल्य निर्धारण के समय, फसल उपजाने के खर्चे ही नहीं शामिल किए जाते, बल्कि उसके साथ, भूमि, और किसान के श्रम को भी जोड़ा जाता है। पर क्या वास्तव में ऐसा होता है?

इस सवाल का उत्तर ढूंढने से पहले हमें देश की कृषि विविधता को भी ध्यान में रखना होगा। भारत में कृषि और भूमि के क्षेत्र में जगह-जगह विविधता है। कहीं गंगा-यमुना का विस्तीर्ण मैदान है, तो कहीं पहाड़ और जंगलों के बीच खेत हैं, तो कहीं, गेंहू-धान आदि परंपरागत फसलों के अतिरिक्त गन्ना, आलू आदि अन्य नकद फसल बोई जाती है, तो कहीं फलों के बाग हैं तो कहीं की अन्य कृषिक परंपरा है। न सिर्फ खेती की जमीनें ही विविधितापूर्ण हैं बल्कि, जलवायु, भौगोलिक स्थिति, मिट्टी का प्रकार और सांस्कृतिक व्यवहार और खानपान की आदतें भी अलग-अलग हैं।

कहीं-कहीं तो यह सब एक-दूसरे से बिल्कुल विपरीत भी हैं। विविधिता का यह प्रसार, कृषि के तौर-तरीकों को गहरे तक प्रभावित करता हैं और खेती के अलग-अलग स्वरूप को सामने ला देता है, लेकिन जब सरकार कृषि लागत एवं मूल्य आयोग की अनुशंसा पर न्यूनतम समर्थन मूल्य का निर्धारण करती है, तब वह मूल्य पूरे देश के लिए एक जैसा ही होता है।

यह कार्य इस प्रकार किया जाता है, “आयोग पूरे देश की विविधता के अनुसार, समस्त सूचनाओं को इकठ्ठा कर, उनका एक औसत निकाल लेता है और तब एक समेकित अध्ययन के बाद, न्यूनतम समर्थन मूल्य तय कर देता है, जो पूरे देश में लागू होता है।” हालांकि, आयोग के अपने ही आकलन यह बताते हैं कि देश में उत्पादन की परिचालन लागत (इसमें श्रम, बीज, उर्वरक, मशीन, सिंचाई, कीटनाशी, बीज, ब्याज और अन्य खर्चे शामिल हैं) और खर्चे भिन्न-भिन्न होते हैं। फिर भी न्यूनतम समर्थन मूल्य एक जैसा क्यों? साथ ही यह भी सवाल उठता है कि इससे किसान को कितना लाभ होता है और उसे कितना नुकसान उठाना पड़ता है?

इसमें मानव श्रम के हिस्से को खास नज़रिए से देखने की जरूरत है, क्योंकि कृषि की लागत कम करने के लिए सरकार की नीति है कि खेती से मानव श्रम को बाहर निकाला जाए। पिछले ढाई दशकों में इस नीति ने खेती को बहुत कमज़ोर किया है। इन सालों में लगभग 11.1 प्रतिशत लोग खेती से बाहर तो हुए हैं, किन्तु उनके रोज़गार कहीं दूसरे क्षेत्र में भी सुनिश्चित हो पा रहे हों, यह दिखाई नहीं देता। कृषि लागत और मूल्य आयोग ने ही वर्ष 2014-15 के सन्दर्भ में रबी और खरीफ की फसलों की परिचालन लागत का अध्ययन किया, इससे पता चलता है कि कई कारकों के चलते अलग-अलग राज्यों में उत्पादन की बुनियादी लागत में बहुत ज्यादा अंतर आता है।

फसल काटते किसान।

एक सबसे बड़ा सवाल उठता है कि अनाज या कृषि उपज का मूल्य निर्धारण करते समय, हम उस मूल्य में किसान श्रम का भी आकलन करते हैं या उसे नज़रअंदाज़ कर देते हैं। दुर्भाग्य से, श्रम एक सस्ती समझी जानी वाली चीज के तौर पर समाज में स्थापित हो गई है और श्रम जो पूंजी की तुलना में बिल्कुल भी कमतर नहीं है की बात कम ही की जाती है। श्रम की भूमिका को भी खास नज़रिए से देखने की जरूरत है, क्योंकि,  कृषि की लागत कम करने के लिए सरकार की यह पोशीदा नीति है कि खेती से मानव श्रम को बाहर निकाला जाए। एक अध्ययन के अनुसार, “पिछले ढाई दशकों में इस नीति ने खेती को बहुत कमज़ोर किया है। इन वर्षों में लगभग 11.1 फीसदी लोग खेती से बाहर तो हुए हैं, किन्तु उनके रोज़गार कहीं दूसरे क्षेत्र में भी सुनिश्चित हो पा रहे हों। पर यह दिखाई नहीं देता है।”

देश के कृषि वैविध्य की चर्चा ऊपर की जा चुकी है। इसी आधार पर, न्यूनतम समर्थन मूल्य और उत्पादन की परिचालन लागत को भी कृषक या मानव श्रम के दृष्टिकोण से देखना जरूरी है। कृषि लागत और मूल्य आयोग ने भी वर्ष 2014-15 के संदर्भ में रबी और खरीफ की फसलों के परिचालन लागत का अध्ययन किया, जिससे यह ज्ञात हुआ कि कई कारकों की वजह से अलग-अलग राज्यों में उत्पादन की बुनियादी लागत में बहुत ज्यादा अंतर आता है। यानी एमएसपी में एकरूपता का अभाव है।

सचिन कुमार जैन ने अपने अध्ययन से प्राप्त, निष्कर्ष के पक्ष में कुछ फसलों की लागत के संदर्भ में कुछ उदाहरण भी दिए हैं, जिन्हें पढ़ा जाना चाहिए। जैसे,

● चनाः बिहार में एक हेक्टेयर में चने की खेती में 18,584 रुपये की परिचालन लागत आती है, जबकि आंध्रप्रदेश में 30,266 रुपये, हरियाणा में 17,867 रुपये, महाराष्ट्र में 25,655 रुपये और कर्नाटक में 20,686 रुपये लागत आती है।

इस लागत को, अगर बिहार और आंध्र की दृष्टि से ही तुलना करें तो यह लागत लगभग दोगुनी के आसपास ठहरती है। इस लागत में इतने अधिक अंतर का एक बड़ा कारण है, मजदूरी पर होने वाला खर्च। हमें यह ध्यान रखना होगा कि खेती से सिर्फ किसान ही नहीं कृषि मजदूर भी जुड़ा होता है। अध्ययन के अनुसार, “बिहार में कुल परिचालन लागत में 44.3 प्रतिशत (8,234.6 रुपये), आंध्रप्रदेश में 44.2 प्रतिशत (13,381.3 रुपये) हरियाणा में 65.6 प्रतिशत (11,722 रुपये), मध्यप्रदेश में 33.4 प्रतिशत (6,966 रुपये), राजस्थान में 48 प्रतिशत (7,896 रुपये) हिस्सा मजदूरी व्यय का होता है।” यानी केवल एक फसल, चने की प्रति हेक्टेयर परिचालन लागत अलग-अलग राज्यों में 16,444 रुपये से लेकर 30,166 रुपये के बीच आ रही है।

● गेहूः इसके अध्ययन से पता चलता है, “खेती के मशीनीकरण ने आखिर कहां असर किया है? पंजाब गेहूं के उत्पादन में अग्रणी राज्य है। वहां गेहूं उत्पादन की परिचालन लागत 23,717 रुपये प्रति हेक्टेयर है। इसमें से वह केवल 23 प्रतिशत (5,437 रुपये) ही मानव श्रम पर व्यय करता है। वह मानव श्रम से ज्यादा मशीनी श्रम पर खर्च करता है, जबकि हिमाचल प्रदेश में परिचालन लागत 22,091 रुपये है, जिसमें से 50 प्रतिशत हिस्सा (10,956 रुपये) मानव श्रम का है। इसी तरह राजस्थान में गेहूं उत्पादन की परिचालन लागत पंजाब और हिमाचल प्रदेश की तुलना में लगभग डेढ़ गुना ज्यादा है, और वहां लागत का 48 प्रतिशत (16,929 रुपये) हिस्सा मानव श्रम पर व्यय होता है। इसी तरह मध्य प्रदेश 25,625 रुपये में से 33 प्रतिशत (8,469 रुपये), पश्चिम बंगाल 39,977 रुपये की परिचालन लागत में से 50 प्रतिशत (19,806 रुपये), बिहार 26,817 रुपये में से 36 प्रतिशत (9,562 रुपये) मानव श्रम पर व्यय करते हैं।” यानी गेहूं की बुनियादी लागत 20,147 रुपये से 39,977 रुपये प्रति हेक्टेयर के बीच आई थी।

● धानः अनाजों के समूह में चावल महत्वपूर्ण स्थान रखता है, इसलिए धान की फसल को नज़रंदाज़ नहीं किया जा सकता है। हिमाचल प्रदेश में धान के उत्पादन की परिचालन लागत 26,323 रुपये प्रति हेक्टेयर है। इसमें से 72 प्रतिशत (19,048 रुपये) मानव श्रम पर व्यय होते हैं। इसी प्रकार बिहार में 26,307 रुपये में से 58 प्रतिशत (15,281 रुपये), गुजरात में 41,447 रुपये में से 47 प्रतिशत (19,507 रुपये), पंजाब में 34,041 रुपये में से 43 प्रतिशत (14,718 रुपये), झारखंड में 23,875 में से 56 प्रतिशत (13342 रुपये), मध्य प्रदेश में 28,415 रुपये में से 44 प्रतिशत (12,449 रुपये) मानव श्रम पर व्यय होते हैं। वर्ष 2014-15 में धान की परिचालन लागत अलग-अलग राज्यों में 23,875 रुपये (झारखंड) से 54,417 रुपये (महाराष्ट्र) के अंतर तक पहुंचती है।”

● मक्काः ओड़ीसा में मक्का उत्पादन की परिचालन लागत 39,245 रुपये प्रति हेक्टेयर है, इसमें से 59 प्रतिशत हिस्सा (23,154 रुपये) मानव श्रम पर व्यय होता है। हिमाचल प्रदेश में 21,913 रुपये में से 62 प्रतिशत, गुजरात में 35,581 रुपये में से 57 प्रतिशत, महाराष्ट्र 58,654 रुपये प्रति हेक्टेयर की लागत आती है, इसमें से 26,928 रुपये (58 प्रतिशत) और राजस्थान में 33,067 रुपये में से 58 प्रतिशत और मध्यप्रदेश में 24,518 रुपये में से 47 प्रतिशत खर्च मानव श्रम पर होता है। मक्का की परिचालन लागत उत्तर प्रदेश में 19,648 रुपये प्रति हेक्टेयर से तमिलनाडु में 59,864 रुपये प्रति हेक्टेयर के बीच बताई गई। गेहूं, धान, चना और मक्का की उत्पादन परिचालन लागत में इतनी विभिन्नता होने के बावजूद, सभी राज्यों के न्यूनतम समर्थन मूल्य एक समान ही तय किए गए, इससे किसानों को अपनी उपज का सही मूल्य नहीं मिल पाया।

यह सब एक लोकप्रिय लोक कथा की तरह दिखता है, जहां एक अध्यापक, अपने कुछ छात्रों को नदी पार कराने के लिए उनकी लंबाई का औसत निकलता है और फिर नदी की गहराई को नाप पर, औसत से कम पाने पर छात्रों को नदी में उतार देता है। परिणाम यह होता है कि औसत से कम लंबाई वाले छात्र डूबने लगते हैं। इसी प्रकार कहीं किसान को एमएसपी से लाभ होता है तो कहीं उन्हें नुकसान उठाना पड़ता है।

संविधान के मुताबिक कृषि राज्य सरकार के दायरे का विषय है, किन्तु वास्तविकता यह है कि विश्व व्यापार संगठन से लेकर न्यूनतम समर्थन मूल्य और कृषि व्यापार नीतियों तक को तय करने का अनाधिकृत काम केंद्र सरकार करती है, इससे राज्य सरकारों को कृषि की बेहतरी के काम करने से स्वतंत्र अवसर नहीं मिल पाए। सरकार ने कृषि सुधार की ओर कभी गंभीरता से ध्यान ही नहीं दिया। जबकि भारत की अर्थव्यवस्था का यह मूल आधार है। कृषि क्षेत्र में बड़े सुधार की बात ही छोड़ दीजिए, विशेषज्ञ और अर्थशास्त्री भी यह नहीं समझ पाए कि देश और समाज को खाद्य सुरक्षा प्रदान करने में किसान और खेती की ही भूमिका होती है, बड़े धनपशुओं की नहीं!

नए कृषि कानूनों का विरोध होने पर सरकार यह सफाई दे रही है कि वह एमएसपी खत्म नहीं करने जा रही है बल्कि एमएसपी और मजबूती से लागू की जाएगी। पी साईंनाथ ने एक सुझाव सरकार को दिया है कि वह जो कह रहे हैं, उसे भी एक विधेयक के रूप में लाकर कानून की शक्ल दे दें। उनके लेख के कुछ अंशो को यहां उद्धृत किया जा रहा है। यह टिप्पणी वरिष्ठ पत्रकार संजय कुमार सिंह ने अनूदित की है। टिप्पणी इस प्रकार है, “प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने बार-बार कहा है कि 1) वे एमएसपी (न्यूनतम समर्थन मूल्य) को कभी खत्म नहीं होने देंगे। 2) वे किसानों की कमाई 2022 तक दोगनी कर देंगे। बहुत अच्छी बात है। इन आश्वासनों को पांच पैराग्राफ के एक विधेयक द्वारा निश्चित करने से उन्हें कौन रोक रहा है? बाकी तीन बिलों से अलग, यह बिल आमराय से पास होगा। विधेयक का आशय होगा: एमएसपी (स्वामीनाथन फॉर्मूला, जिसका भाजपा ने 2014 में वादा किया था) की गारंटी है। कोई भी बड़ा व्यापारी, कॉरपोरेशन या कोई ‘नया खरीदार’ एमएसपी से कम कीमत में सामान नहीं खरीद सकेगा। साथ ही इस बात की गारंटी हो कि फसल खरीदी जाएगी ताकि एमएसपी मज़ाक न बन जाए। अंत में- बिल के जरिए किसानों के कर्ज को खारिज कर दिया जाए। जब किसान कर्ज में डूबे हैं तो ऐसा किए बिना किसानों की कमाई 2022 या 2032 तक भी दोगनी नहीं हो सकती। जब एमएसपी और किसानों की कमाई दूनी करने का प्रधानमंत्री का वादा हो, तो उस बिल का कौन विरोध करेगा?  तीन कृषि विधेयकों को जिस तरह जबरन पास कराया गया, उसके विपरीत इस बिल को, जिसमें एमएसपी और कर्ज ख़ारिज करने की गारंटी हो, प्रधानमंत्री आसानी से पास होते देखेंगे। संसद में इसको लेकर न घमासान होगा और न ही जबरदस्ती करनी पड़ेगी। और चूंकि इस सरकार ने वैसे भी राज्य विषय- कृषि पर अतिक्रमण किया है तो उसे इस विधेयक को पास कराने से रोकने का क्या कारण होगा? निश्चित रूप से संघीय संरचना और राज्यों के अधिकार का सम्मान कारण नहीं है। इसके लिए जो पैसा चाहिए वो तो वैसे भी केंद्र के पास ही है।”

नए कृषि कानून के बारे में कहा जा रहा है कि यह किसानों के हित में ही होगा, पर कैसे होगा, यह न तो सरकार बता पा रही है और न सरकार के समर्थक इसे समझा पा रहे हैं।

(विजय शंकर सिंह रिटायर्ड आईपीएस अफसर हैं और आजकल कानपुर में रहते हैं।)

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