(लेखक और सांस्कृतिक संगठनों ने दिल्ली विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम से मशहूर लेखिका महाश्वेता देवी समेत तीन लेखिकाओं की रनचाओं को निकाले जाने का विरोध किया है। इस सिलसिले में उन्होंने एक साझा बयान जारी किया है। पेश है उनका पूरा बयान-संपादक)
साम्प्रदायिक फासिस्ट शक्तियां स्वभावतः साहित्य, संस्कृति और वैज्ञानिक शिक्षा और लोकतंत्र की विरोधी होती हैं। जब-जब वे सत्ता में आती हैं, इतिहास और साहित्य के पाठ्यक्रमों के साथ विवेकहीन छेड़-छाड़ करने से नहीं हिचकतीं।
हमें नहीं भूलना चाहिए कि सन् 1978 में प्रख्यात इतिहासकार रामशरण शर्मा द्वारा लिखित पाठ्यपुस्तक ‘प्राचीन भारत’ को ग्यारहवीं कक्षा के पाठ्यक्रम से CBSE ने निकाल दिया था। इसी प्रकार वाजपेयी सरकार में प्रेमचन्द के निर्मला उपन्यास को CBSE के पाठ्यक्रम से हटाकर उसकी जगह गुमनाम ‘लेखिका’ (?) मृदुला सिन्हा के उपन्यास ‘ज्यों मेहँदी के रंग’ को शामिल किया गया था। इसी कड़ी का ताजा उदाहरण है दिल्ली विश्वविद्यालय की पर्यवेक्षी समिति (Oversight Committee) द्वारा देश की ख्यातिलब्ध लेखिका महाश्वेता देवी की लघुकथा ‘द्रौपदी’ और दो दलित लेखकों बामा और सुकिर्तरानी की कहानियों को अंग्रेजी पाठ्यक्रम से बाहर करना।
ये कहानियां जातिभेद और लैंगिक भेदभाव पर आधारित समाज में स्त्री के साथ होने वाले अन्याय और वंचितों के साथ होने वाली संरचनात्मक हिंसा को उजागर करती हैं।
महाभारत काल से आज तक वर्चस्व के लिए होने वाली पुरुषों की लड़ाई में स्त्री अपमान का मोहरा बनाई जाती रही है। जिस तरह महाभारतकाल ने द्रौपदी के सशक्त चरित्र के माध्यम से इस अन्याय के खिलाफ आवाज़ उठाई थी, इसी तरह हमारे समय की इन प्रतिनिधि लेखिकाओं ने भी उठाई है।
समाज में व्याप्त अन्याय के खिलाफ आवाज़ उठाने से समाज कलंकित नहीं होता, उस पर पर्दा डालने से होता है। किसी भी समाज में श्रेष्ठ साहित्य की यही भूमिका होती है। आलोचना और प्रतिरोध को साहित्य से निकाल दिया जाए तो हमारे पास केवल चारण साहित्य रह जाएगा। चारण साहित्य से देश मजबूत नहीं, कमजोर होता है।
प्रतिष्ठा के नाम पर आलोचनात्मक साहित्य को सेंसर करने वाले हमारी राष्ट्रीय विरासत और हमारे सांस्कृतिक भविष्य को गम्भीर क्षति पहुंचाने के दोषी है।
कहना न होगा कि महाश्वेता देवी अन्तर्राष्ट्रीय स्तर की प्रसिद्ध लेखिका हैं, जिन्हें पद्म विभूषण, साहित्य अकादेमी और ज्ञानपीठ जैसे पुरस्कारों से नवाजा जा चुका है और शैक्षणिक मूल्य के कारण उनकी रचना ‘द्रौपदी’ को सन् 1999 से ही दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाया जाता रहा है।
विश्वप्रसिद्ध लेखिका गायत्री चक्रवर्ती स्पीवाक द्वारा अनूदित महाश्वेता देवी की उत्पीड़न विरोधी रचना को देशविरोधी, हिन्दू विरोधी और अश्लील बताना सेंसरकर्ताओं के मानसिक दिवालिएपन का सूचक है। हिन्दू धर्म का गौरव चीर हरण में नहीं, चीर हरण के विरुद्ध द्रौपदी और कृष्ण के प्रतिरोध में है।
चिंताजनक है कि पाठ्यक्रम में ये सारे बदलाव मनमाने तरीके से किए गए। न CBSE इतिहास के विशेषज्ञों की समिति है और न ही पर्यवेक्षी समिति (Oversight Committee) साहित्य के विशेषज्ञों की। यह विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि इस पर्यवेक्षी समिति (Oversight Committee) में न साहित्य या अँग्रेजी साहित्य का कोई विशेषज्ञ शामिल है और न ही दलित या आदिवासी-समुदाय का कोई सदस्य, जिन्हें दलितों या आदिवासियों की समस्याओं और उनके जीवन के यथार्थ की जानकारी हो ।
‘एक तो चोरी, उल्टे सीनाजोरी’ वाली कहावत की तरह पर्यवेक्षी समिति (Oversight Committee) के अध्यक्ष ने अपने इस मनमाने कृत्य को उचित ठहराते हुए कहा कि न मैं इन रचनाकारों की जाति जानता हूँ और न मैं जातिवाद में विश्वास करता हूँ; मैं भारतीयों को विभिन्न जातियों के रूप में नहीं देखता हूँ। (“I don’t know the caste of authors. I don’t believe in casteism. I don’t look at Indians as belonging to different castes”.)
पर्यवेक्षी समिति (Oversight Committee) के अध्यक्ष एम. के पण्डित का यह बयान कितना हास्यास्पद है, कहना अनावश्यक है। इतना ही नहीं, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से संबद्ध शिक्षक संगठन NDTF के द्वारा हिन्दू-विरोधी कह कर इन कहानियों के खिलाफ निंदा-अभियान चलाया जा रहा है और पर्यवेक्षी समिति (Oversight Committee) द्वारा पाठ्यक्रम में मनमाने ढंग से किए गए बदलाव को उचित ठहराने का कुत्सित प्रयत्न किया जा रहा है।
हम लेखक-कलाकार-संगठन इन सारी गतिविधियों की घनघोर भर्त्सना करते हुए इन सारी कहानियों को पुनः पाठ्यक्रम में शामिल करने की माँग करते हैं।
प्रगतिशील लेखक संघ
जनवादी लेखक संघ
जन संस्कृति मंच
दलित लेखक संघ
जन नाट्य मंच
अभादलम
न्यू सोशलिस्ट इनिशिएटिव
इप्टा
संगवारी
प्रतिरोध का सिनेमा
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