हिमाचल प्रदेश की सियासत में आये तूफ़ान के पीछे की वजह

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हिमाचल प्रदेश में सत्तारूढ़ कांग्रेस ने विधानसभा में विपक्ष के भारी हंगामे के बीच बजट पारित करा लिया। विधानसभा अध्यक्ष ने पूर्व मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर सहित 15 भाजपा के विपक्षी विधायकों को निलंबित कर दिया है। मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू के इस्तीफ़ा देने की अफवाह कुछ देर पहले सुर्ख़ियों में थी, जिसे उन्होंने मीडिया के सामने आकर नकार दिया है।

आलम यह है कि कल राज्यसभा की एकमात्र सीट पर जब कांग्रेस 40 वोट+3 निर्दलीय विधायकों का समर्थन होने के बावजूद 35 की संख्या को हासिल नहीं कर पाई, और कांग्रेस और भाजपा के बीच मुकाबला 34-34 से टाई हो गया, तो टॉस के माध्यम से भाजपा के (पूर्व कांग्रेसी) हर्ष महाजन को जीत मिली। कांग्रेस के 6 विधायक और 3 निर्दलीय क्रॉस वोटिंग कर अपना मत भाजपा के पाले में डाल चुके थे। इस बात की आशंका पहले से की जा रही थी, और इसके लिए कांग्रेस हाई कमान ने प्रदेश प्रभारी राजीव शुक्ला और छत्तीसगढ़ के पूर्व मुख्यमंत्री भूपेश बघेल को शिमला में तैनात कर रखा था। लेकिन अंततः वही हुआ, जैसा भाजपा के रणनीतिकारों ने पहले से सोच रखा था।

सबसे हैरान करने वाली बात तो यह देखने में आई कि सभी 9 विधायकों को हरियाणा पुलिस और सीआरपीएफ के जवान बस में लेकर शिमला से रवाना भी हो गये और सभी विधायकों को शाम तक हरियाणा के पंचकुला में भी ले आने में सफल रहे। आखिर इनमें से 6 विधायक तो कांग्रेस के ही थे, जिन्होंने कांग्रेस पार्टी से इस्तीफ़ा तक नहीं दिया था। इसे अपहृत करने की घटना समझा जाना चाहिए, लेकिन कांग्रेस पार्टी की ओर से कोई प्राथमिकी तक नहीं दर्ज की गई है, क्योंकि उनके पास अब यही उम्मीद बची है कि विभिन्न उपायों के माध्यम से इन 6 विधायकों को मनाने की कोशिश नहीं छोड़नी चाहिए।

आज सुबह यही विधायक पंचकुला से शिमला के लिए हेलीकाप्टर में उड़ान भरते नजर आये। अब पता चल रहा है कि ये सभी 6 कांग्रेसी विधायक और 3 निर्दलीय सदन में चेहरा दिखाने के बाद से भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष राजीव बिंदल के साथ हैं, जिन्होंने इन सभी विधायकों को कांग्रेस के संपर्क में आने से बचाने के लिए सुरक्षित कमरे में रखा हुआ है। सदन में बजट पेश किये जाने की प्रकिया में विपक्ष के हंगामे और कांग्रेस से बहुमत साबित करने की मांग पर, विधानसभाध्यक्ष कुलदीप सिंह पठानिया द्वारा 15 विधायकों के निलंबन और मार्शल द्वारा सदन से बाहर करने के बाद 2 बजे तक के लिए सदन स्थगित कर दिया गया है।

सदन में विपक्ष के नेता जयराम ठाकुर पहले ही राज्यपाल से राज्य के हालात पर चर्चा कर सदन में पहुंचे थे। ठाकुर तो राज्यसभा चुनाव से पहले ही ऐलान कर चुके थे कि भाजपा उम्मीदवार की जीत सुनिश्चित है, और इसके साथ ही सुक्खू सरकार गिर जायेगी। शिमला और दिल्ली के बीच हॉटलाइन वार्ता का दौर जारी था।

कांग्रेस के लिए फिलहाल संकट टल गया है, लेकिन जल्द दूसरा हमला तय है

उधर कांग्रेस के द्वारा पार्टी में संकटमोचक के तौर पर उभरे कर्नाटक के उपमुख्यमंत्री डीके शिवकुमार के साथ कल रात ही राहुल गांधी की वार्ता हुई थी, जिसके बाद आज सुबह ही उन्हें हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री भूपिंदर सिंह हुड्डा के साथ हिमाचल प्रदेश पहुंचना था। सोशल मीडिया में डीके शिवकुमार को लेकर चर्चा हो रही है, कि उन्होंने कांग्रेस विधायकों से बातचीत की है, और भाजपा के 15 विधायकों को सदन से सस्पेंड कराकर कांग्रेस बजट पारित कराने में सफल रही, जिसमें उनका बड़ा हाथ माना जा रहा है।

लेकिन कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष और एकमात्र सांसद प्रतिभा सिंह इस पूरी कवायद में कहीं नजर नहीं आ रही हैं। आप पूर्व दिवंगत मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह की पत्नी हैं। कल राज्यसभा चुनाव के दौरान मीडिया से बात करते हुए उनके द्वारा दिया गया बयान स्वयं हिमाचल में कांग्रेस के भीतर की कलह के बारे में सारी हकीकत बयां कर रहा था। प्रतिभा सिंह के अनुसार, “विधायकों की नाराजगी स्वाभाविक है। उन लोगों की आकाक्षाओं को हम समय पर पूरा नहीं कर सके। वोटिंग के बाद ही पता चलेगा। मोदी जी जिस तरह से काम करते हैं, सभी जानते हैं। धन-बल का भी प्रयोग किया गया होगा।”

प्रतिभा सिंह की पुत्र और मंत्री विक्रमादित्य सिंह ने आज अपने मंत्रिपद से इस्तीफ़ा देकर आग में घी डालने का काम किया। अपने बयान में उन्होंने अपने दिवंगत पिता को उचित सम्मान न दिए जाने को मुद्दा बनाते हुए इसे भावनात्मक मुद्दा बनाया है। उनका साफ़ कहना था कि वर्तमान परिस्थिति में मेरा इस सरकार में रहना संभव नहीं रह गया है। मैं अपने सहयोगियों के साथ चर्चा करने के बाद भविष्य की योजना पर विचार करूंगा।

हिमाचल में परिवारवाद की परंपरा को खत्म करना विधायकों को रास नहीं आया

असल में यह संकट कांग्रेस के भीतर सत्ता को लेकर शुरू से बना हुआ था। हिमाचल प्रदेश में पिछले कई दशकों से कांग्रेस का नेतृत्व राजपरिवार के हाथ में बना हुआ था। राजस्थान की तरह यहां पर भी हर 5 वर्ष में भाजपा-कांग्रेस के बीच सरकार की अदला-बदली का खेल यहां की जनता खेलती आई है। ऐसा नहीं है कि वीरभद्र सिंह के परिवार को भाजपा ने अपमानित करने में कोई कोर-कसर रखी हो, इससे पहले जब प्रदेश में भाजपा का शासन था, तब ऐन घर में शादी के वक्त वीरभद्र सिंह के दरवाजे पर सीबीआई आ धमकी थी। विधान सभा चुनाव के वक्त पार्टी की कमान सुखविंदर सिंह सुक्खू के हाथ में थी, और ऐसा माना जा रहा था कि उन्होंने इस बीच कांग्रेस संगठन और प्रचार में जमकर पसीना भी बहाया था।

लेकिन राजपरिवार के लिए हिमाचल प्रदेश की सत्ता स्वाभाविक रूप से विरासत का हिस्सा बन चुकी थी। कौन बनेगा मुख्यमंत्री को लेकर खींचतान भी रही, लेकिन अंत में हाई कमान ने वीरभद्र परिवार से बाहर जाकर एक साधारण पृष्ठभूमि वाले सुक्खू को कमान सौंप दी। एक वजह यह भी थी कि प्रदेश में एकमात्र सांसद के रूप में प्रतिभा सिंह का होना आवश्यक था, जिन्होंने उप-चुनाव में जीत दर्ज कर भाजपा के गुरुर को तोड़ा था। लेकिन कहीं न कहीं राजपरिवार को यह बात हेठी के तौर पर लगी, जिसे सवर्ण बहुसंख्यक राज्य होने के नाते भाजपा/आरएसएस की ओर से भी हवा देने का काम किया गया।

उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश दो ऐसे राज्य हैं, जिनमें सवर्णों की आबादी ओबीसी, दलित एवं अल्पसंख्यक आबादी से अधिक है। ये वे मॉडल राज्य हैं, जिन्हें बिना किसी खास मेहनत के हिंदुत्व की प्रयोगशाला में तब्दील करना बेहद आसान है। पिछले वर्ष हिमाचल में भारी बारिश एवं उसके बाद की आपदा से पहले अल्पसंख्यकों के खिलाफ उन्माद बड़े पैमाने पर फैला था, जिसके पीछे की वजह बेहद मामूली थी। दोनों राज्यों में सरकारी कर्मचारियों की तादाद काफी अधिक है, लेकिन हाल के वर्षों में सरकारी नौकरी को तरसते युवाओं के गुस्से को मुस्लिम विरोध की दिशा में मोड़कर ही उन्हें साधा जा सकता है।

सुखविंदर सिंह सुक्खू ने आपदा के दौरान दिन-रात काम किया, और अपने जीवन भर की बचत 51 लाख रूपये को भी बाढ़ आपदा में दान कर दिया था। केंद्र सरकार से आपदा में मुआवजे की उनकी मांग को अनसुना कर दिया गया, हालांकि जी-20 शिखर सम्मेलन तक में उन्हें दिल्ली में देखा गया। सुक्खू राज्य में मेहनत तो कर सकते हैं, लेकिन उनके पास वो करिश्मा, आक्रामकता या पारिवारिक पृष्ठभूमि नहीं है, जिसके बल पर वे कांग्रेस के कुनबे को इकट्ठा रख सकें।

बड़े पैमाने पर कांग्रेस-सपा में बगावत की मूल वजह हैरान करने वाली

इसके अलावा हाल के दिनों में कांग्रेस की वैचारिकी में आये बदलाव ने भी हिंदी प्रदेशों, मुख्य रूप से हिमाचल और उत्तराखंड में पुराने कांग्रेसियों को हत्थे से उखाड़ दिया है। सभी जानते हैं कि आजादी के बाद से ही कांग्रेस ब्राहमण, दलित, आदिवासी और अल्पसंख्यक समुदाय की स्वाभाविक पार्टी रही है, जिसके शीर्ष पर अधिकतर सवर्ण वर्चस्व कई दशकों तक रहा है। 80 के दशक से राज्यों में कांग्रेस की पकड़ कम होती चली गई, जिसके लिए इंदिरा गांधी के सत्ता के केन्द्रीयकरण को जिम्मेदार माना जा सकता है। राजीव गांधी के दौर में शाहबानो और राम मंदिर के मुद्दे पर अल्पसंख्यक और सवर्ण हिंदू पार्टी से दूर होने लगे। 2014 में अपमानजक हार मिलने के बाद से कांग्रेस अपने अस्तित्व की तलाश में थी, जिसे वह 2019 में भी नहीं ढूंढ पाई।

पिछले वर्ष राहुल गांधी ने ‘भारत जोड़ो यात्रा’ में कन्याकुमारी से कश्मीर तक पैदल यात्रा के दौरान संभव है, पहली बार इसका अहसास किया हो। पार्टी के भीतर जड़ जमाए पुराने कांग्रेसियों, जो भीतर से सवर्ण संघ की मानसिकता वाले लोग मजबूती से पार्टी को हांक रहे थे, के बल पर पार्टी की नैय्या पार लगा पाना दूर-दूर तक नहीं दिख रहा था। ऐसे में इस वर्ष पूरब से पश्चिम की ‘भारत जोड़ो न्याय यात्रा’ में राहुल ने ‘जाति जनगणना’ की मांग को आधार बनाकर पिछड़ों, दलितों, आदिवासियों और अल्पसंख्यकों को एकजुट करने का अभियान चलाया है, वह पार्टी के भीतर बहुतों के लिए अपच साबित हो रहा है।

जाति जनगणना और दक्षिण में सहयोगी दल डीएमके द्वारा सनातन धर्म के खिलाफ अभियान के साथ-साथ मोदी के अयोध्या राम मंदिर और सेंगोल को प्रतिष्ठापित कर भारत को लोकतंत्र से राज-तंत्र की ओर ले जाने की मुहिम को भारत के 80% गरीब और हाशिये पर खड़े लोग ही प्रतिकार कर सकते हैं। लेकिन वे खुद भाजपा सहित तमाम क्षेत्रीय दलों के क्षत्रपों की छुद्र राजनैतिक स्वार्थ की बलिवेदी पर खुद को लाभार्थी की हालत से आगे नहीं पा रहे हैं। राहुल ने उत्तर प्रदेश में जिस प्रकार से यात्रा के दौरान अपनी सभाओं में पिछड़ों एवं दलित युवाओं के सामने चुनौती पेश की है, वो दिखा रहा है कि वे उनसे आगे बढ़कर चुनौती पेश करने की मांग कर रहे हैं।

भाजपा पहले ही अति-पिछड़ों एवं दलितों के बड़े हिस्से को अपने भीतर समाहित कर चुकी है। ऐसा वह पार्टी नेतृत्व में समायोजन और सरकार में मंत्री, मुख्यमंत्री बनाकर गाहे-बगाहे प्रदर्शित भी करती है। आम जनमानस के बड़े हिस्से को 5 किलो मुफ्त राशन, पीएम आवास, उज्ज्वला गैस और जल-नल जैसी स्कीम के सहारे अपने पीछे भी कर चुकी है। लेकिन राहुल, देश की बहुसंख्यक आबादी को निस्सहाय बनाने की बजाय अधिकार संपन्न बनने का आह्वान कर शांत हो चुके तालाब में हलचल पैदा करने की कोशिश कर रहे हैं। जाति जनगणना के आधार पर आर्थिक मैपिंग और तदनुसार संसाधनों के वितरण का सपना दिखाने की उनकी मुहिम कितना सिरे चढती है, यह तो समय ही बतायेगा।

लेकिन ये वे बातें हैं, जो धर्मनिरपेक्षता का दशकों से लबादा ओढ़े कई लिबरल कांग्रेसी नेताओं की ऐठन बढ़ा रहा है। यह बात सिर्फ कांग्रेस तक पर लागू नहीं होती है। समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव भी इस झटके से उबरने की कोशिश कर रहे हैं। दबंग सवर्णों को जमाकर उन्हें समाजवादी टोपी पहनाने से उनके तबके को अपने पाले में नहीं किया जा सकता, उल्टा ऐसा कर वे पीडीए की अपनी थीसिस से पिछड़े, दलित और अल्पसंख्यक तबकों को ही दूर कर रहे हैं। कमोबेश यही हाल बिहार में भी है, जहाँ आवरण के लिए जेडीयू में तो बने रहा जा सकता है, लेकिन आरजेडी, कांग्रेस में अब नकली धर्मनिरपेक्षता का नकाब पहनकर रहना संभव नहीं रहा गया है।

उत्तर प्रदेश में हुए उलटफेर पर कल लखनऊ में कुछ सपाई कार्यकर्ता इस तथ्य की पुष्टि करते पाए गये। उनका साफ़ कहना था कि इस झटके से सपा कमजोर होने के बजाय मजबूत हुई है। भाजपा के भीतर दूसरी पार्टियों से आने वाले सवर्ण विधायकों और सांसदों का जमावड़ा बढ़ रहा है, लेकिन पिछड़े और दलित आदिवासी नेता खामोश बने हुए हैं, क्योंकि जमीन से सवाल अभी भी नहीं उठ रहे हैं।

लेकिन यह प्रकिया जारी रही तो हिंदी प्रदेशों में स्पष्ट विभाजन रेखा खिंच सकती है, जिसमें एक तरफ भाजपा के भीतर (मुस्लिम) छोड़ सभी जातियों का प्रतिनिधित्व देखने को मिल सकता है, लेकिन कांग्रेस, सपा और आरजेडी में नेतृत्व पूरी तरह से बदल सकता है। ऐसा हुआ, और मूलभूत सवालों, बेरोजगारी और उसके पीछे की वजह पर अधिकाधिक सवाल खड़े होने शुरू हुए तो भाजपा के लिए मंडल और कमंडल दोनों को साधना अधिकाधिक कठिन हो सकता है। फिलहाल, यह रिएक्शन हिमाचल प्रदेश में भाजपा/आरएसएस के पाले में जा रहा है, लेकिन असल लड़ाई यूपी/बिहार/मध्य प्रदेश/राजस्थान/छत्तीसगढ़ और झारखंड में है, जिसमें अभी वक्त लगेगा।

लौटते हैं फिर से आज की हलचलों पर। हिमाचल के सियासी संकट पर प्रियंका गांधी ने भी अपनी प्रतिक्रिया दी है। उन्होंने कहा है, “लोकतंत्र में आम जनता को अपनी पसंद की सरकार चुनने का अधिकार है। हिमाचल की जनता ने अपने इसी अधिकार का इस्तेमाल कर स्पष्ट बहुमत के साथ कांग्रेस की सरकार बनाई। लेकिन भाजपा धनबल, एजेंसियों की ताकत और केंद्र की सत्ता का दुरुपयोग करके हिमाचल वासियों के इस अधिकार को कुचलना चाहती है। इस मकसद के लिए जिस तरह भाजपा सरकारी सुरक्षा और मशीनरी का इस्तेमाल कर रही है, वह देश के इतिहास में अभूतपूर्व है।”

प्रियंका गांधी ने आगे कहा, “25 विधायकों वाली पार्टी यदि 43 विधायकों के बहुमत को चुनौती दे रही है, तो इसका मतलब साफ है कि वो प्रतिनिधियों के खरीद-फरोख्त पर निर्भर है। इनका यह रवैया अनैतिक और असंवैधानिक है। हिमाचल और देश की जनता सब देख रही है। जो भाजपा प्राकृतिक आपदा के समय प्रदेशवासियों के साथ खड़ी नहीं हुई, अब प्रदेश को राजनीतिक आपदा में धकेलना चाहती है।”

4 बजे तक हिमाचल प्रदेश में विधान सभा के भीतर वर्ष 2024-25 का बजट मुख्यमंत्री सुक्खू पारित कराने में सफल होने की खबर है। इसके साथ ही सदन की कार्रवाई को अनिश्चितकाल के लिए स्थगित कर दी गई है। विधानसभाध्यक्ष कुलदीप सिंह पठानिया के अनुसार, दल बदल कानून के तहत सुनवाई का काम पूरा हो गया था, और दोनों पक्ष के वकीलों ने अपना पक्ष पेश कर दिया है, जल्द ही विधायकों के संबंध में फैसला लिया जाना है। ऐसा जान पड़ता है कि फिलहाल के लिए संकट टल गया है।

गोदी मीडिया अभी भी सुक्खू सरकार के गिरने को लेकर टकटकी लगाये बैठा है। भाजपा के रणनीतिकार पल-पल के घटनाक्रम पर निगाहें बनाये हुए हैं। मुख्यमंत्री सुक्खू ने विक्रमादित्य सिंह के इस्तीफे को स्वीकारने की बात को सिरे से नकार दिया है। वे मुख्यमंत्री पद से इस्तीफ़ा दिए बिना सभी असंतुष्टों को मनाने की जुगत में हैं। हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस के पास खोने के लिए कुछ ख़ास नहीं है, लेकिन एक और प्रदेश को मैनेज न कर पाने के दाग को भाजपा आगामी लोकसभा चुनाव में इतना बड़ा साबित कर सकती है, कि इसके सहारे भी वह फ्लोटिंग वोटर्स के एक बड़े तबके के दिमाग में इस बात को फिट करने में कामयाब हो सकती है, कि इस देश को तो सिर्फ मोदी जी के सहारे की ही जरूरत है।

(रविंद्र पटवाल जनचौक संपादकीय टीम के सदस्य हैं।)

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