जिस समय पूरा उत्तर-भारत 45 डिग्री सेंटीग्रेड से ऊपर जा रहे तापमान में झुलस रहा था उस समय इंसान के सामान्य जीवन जीना मुहाल हो चुका था। बड़ी संख्या में लू लगने से होने वाली बीमारी लोगों की जान ले रही थी। इन मौतों की घोषित संख्या वही मानी गई जिसे अस्पतालों ने ‘लू लगने से जान गई’ का टैग लगाया। दिल्ली जैसी जगहों पर अस्पताल लू लगने से गंभीर तौर पर बीमार पड़ने वालों की कतार लग गई। महीनों चले इस हीटवेव को इस साल भी एक आपदा की तरह नहीं देखा गया और न ही इससे निपटने के लिए कोई खास तैयारियां दिखीं।
जब इंसानों के लिए ही कोई खास व्यवस्था का अभाव था, तब जानवरों के लिए क्या ही तैयारियों की उम्मीद की जाए। हां, चिड़ियाघरों से कुछ पशुओं के नहलाने की फोटो अखबारों में एक दो जरूर छपी। लेकिन, उन पशु और पक्षियों की जिंदगी तापमान में तबाह होने के लिए आजाद रहीं जो इस तरह के सार्वजनिक जीवन से बाहर हैं। इस गर्मी में बड़े पैमाने पर मरने वालों में एक ऐसा ही मैमल पक्षी चमगादड़ रहा। जैसे-जैसे तापमान बढ़ा, इनके मरने की खबर आने लगी। उत्तर-प्रदेश के कानपुर में चमगादड़ों के मरने की संख्या कुछ ज्यादा ही थी। दिल्ली और मध्य प्रदेश से भी इनके मरने की खबर आई।
चमगादड़ों को आमतौर पर एक डरावने जीव की तरह देखा जाता है। ये रात में उड़ने वाला स्तनपायी पक्षी है और इसकी कई नस्लें हैं। अक्सर रात में बड़े आकार के उड़ने वाले चमगादड़ इंसान के लिए कोई आक्रामक जीव नहीं हैं। खासकर, पूर्वी उत्तर प्रदेश में गादुर कहे जाने वाले चमगादड़ को एक मित्र पक्षी की तरह ही देखा जाता है। पर्यावरणविदों के अनुसार इनकी एक बड़ी भूमिका पौधों के पुनरुत्पादन में है और साथ ही पर्यावरण के आम संतुलन को बनाये रखने में भी है। एक जीव विज्ञानी के अनुसार एक चमगादड़ एक घंटे में 1200 से अधिक कीटों को खा जाता है। चमगादड़ अपनी रिहाईश से 40 किमी का दायरा तय करता है।
चमगादड़ आमतौर पर मध्यम तापमान में रहने के आदी होते हैं। 40 डिग्री सेल्सियस से अधिक का तापमान इनके लिए घातक हो जाता है। यही कारण है कि ये घने और छायादार पेड़ों और नम जगहों को अपना आशियाना बनाते हैं। उत्तर भारत में आमतौर पर गर्मी के शुरूआती महीनों में पेड़ों की पत्तियां झड़ जाने से इन्हें काफी दिक्कत होती है। दूसरी ओर, पेड़ों की कटाई और उनके अनुरूप पेड़ों न लगाने की वजह से भी उनकी रिहाईश में कई समस्याएं आई थीं। दिल्ली में 2005 में जब विकास के नाम पर पेड़ों की कटाई चल रही थी, उस चमगादड़ों के साथ जुड़े पेड़ों का मसला आया था। तब ऐसे पेड़ों को संरक्षित करने का अभियान चला। लेकिन, समय के साथ ये बातें भी मानो भुला दी गईं। शहरी विकास आमतौर पर पेड़ों की कटाई अभियान की तरह ही होता है। और, पेड़ महज पार्कों की शोभा बनकर रह जाते हैं।
दैनिक भाष्कर कानपुर के ऐसे ही पार्कों के पेड़ों चमगादड़ों के मरकर गिरने की खबरें दीं। इसके अनुसार अतर्रा के आक्सीजन पार्क में 200 चमगादड़ों के मरे। ललितपुर में हजारों चमगादड़ों की मरने की बात बताई गई है। छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश और दिल्ली में चमगादड़ों के मरने की खबरें और कई अखबारों में छपी। सभी जगहों से वन विभाग द्वारा की गई जांच में उनकी मौत का पहला कारण गर्मी ही बताई गई।

चमगादड़ों की गर्मी से मौत की खबर पहले भी आती रही है। लेकिन, इस बार यह खबर देश के कई हिस्सों से बड़ी संख्या में हुई मौत की आई है। इनके लिए 42 डिग्री सेल्सियस तापमान एक तरह से बर्दाश्त की अंतिम सीमा होती है। निश्चित ही, तापमान सहने की यह सीमा अन्य पक्षियों और पशुओं के लिए भी है। पर्यावरण में बदलाव, ग्लोबल वार्मिंग और भारत में लंबे समय तक बने रहने वाला हीटवेब, जंगलों की कटाई, पर्यावरण के अनुकूलन के लिए नमी वाले जगहों का खत्म होना और जंगली क्षेत्रों का सफाया, पानी के प्राकृतिक स्रोतों का खत्म होना और खासकर शहरों में ऊंचे मकानों का सघन निर्माण वे कारण हैं जिनकी वजह से पक्षियों और पशुओं के लिए जीवन कठिन बनता जा रहा है।
चमगादड़ों के जीने के लिए ऐसी परिस्थितियां जानलेवा साबित हो रही हैं। यह उन पक्षियों के लिए जीवन जीने को मुश्किल बना रहा है जो 45 डिग्री तापमान में नहीं जी सकते। दैनिक भास्कर ने नेशनल फ्लाईंग मॉनिटरिंग प्रोग्राम के कोआर्डिनेटर डेविड वेस्टकॉट के हवाले से लिखता है कि चमगादड़ों की मौत तापमान बढ़ने से हो रही है और इस दौरान हुई मौतें अभूतपूर्व हैं। पिछले 15 सालों में चमगादड़ों की संख्या में 75 फिसदी की गिरावट आई है। ज्ञात हो कि आस्ट्रेलिया में बढ़ती गर्मी के कारण दो दिन में 10 हजार से अधिक चमगादड़ मर गये। 2018 में 23 हजार ऐसी मौतें गिनी गई थीं। वहां चमगादड़ों की गिरती संख्या वहां उसके अस्तित्व के संकट से जोड़कर देखा जा रहा है।
भारत में चमगादड़ों की मौत की चिंता उसकी छपी खबरों की पेशकश में देखी जा सकती है। पर्यावरण के नाम पर अफ्रीका से कूनो चीता को लेकर जो प्रचार अभियान चलाया गया उसमें चमगादड़ों को कौन पूछता है। वैसे भी, जहां गर्मी से हो रही मौत जब सरकार की चिंता का कोई सबब न बने, तब चमगादड़ों की मौत को कौन पूछता है। 1990 के दशक में जब विशाल पक्षी गिद्धराज पेड़ों से पके फल की तरह गिरकर मर रहे थे, तब कौन जानता था कि भारत की धरती से वे विलुप्त हो रहे हैं।
आज जब पेड़ों से चमगादड़ उन्हीं की तरह ताड़ के पके फल की तरह गिरकर बिखर रहे हैं, तब भी उन्हें कौन पूछता है। लेकिन, जिन्हें जिंदगी से प्यार होगा वे जरूर उनकी मौत पर चिंतित होंगे। वे जरूर उन्हें सिर्फ बीमारियों के वाहक एक पक्षी की तरह नहीं, हमारी जिंदगी के एक हिस्से की तरह देखेंगे। हम उनके लिए और अपने लिए भी पेड़ों को बचाने, पर्यावरण को सुरक्षित रखने, जंगलों और पानी के स्रोतों की सुरक्षा के लिए जरूर खड़े होंगे। हमें जरूर ही जिंदगी के पक्ष में खड़ा होना होगा जिससे हम अपने पर्यावरण के साथ जी सकें।
(अंजनी कुमार स्वतंत्र पत्रकार हैं।)
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