खुद चुनी शेख हसीना ने अपने विनाश की राह

पिछले कुछ वर्षों में यह कथानक खूब प्रचारित हुआ था कि विकासशील देशों के लिए बांग्लादेश आर्थिक विकास का एक मॉडल बन गया है। बड़ी संख्या में विदेशी कंपनियों ने वहां अपनी इकाइयां लगाईं। चीन जैसे-जैसे उत्पादन शृंखला में ऊपर चढ़ा, विशुद्ध शारीरिक श्रम पर आधारित इकाइयों के लिए उनकी मालिक पश्चिमी कंपनियों ने नए ठिकाने ढूंढने शुरू किए।

उनमें टेक्सटाइल, साइकिल और इसी तरह के उन कारोबार का ठिकाना बांग्लादेश बना, जिनमें कम कौशल की जरूरत पड़ती है। इससे बांग्लादेश में विदेशी मुद्रा आई, निर्यात बढ़ा तो राष्ट्रीय राय बढ़ी और यह सब प्रति व्यक्ति आय में झलका।   

इसी से वह सुर्खी बनी, जिसने भारत में बहुत से लोगों को परेशान किया। यानी यह कि प्रति व्यक्ति आय के मामले में बांग्लादेश ने भारत को पीछे छोड़ दिया है।

ऐसी बातों को मेनस्ट्रीम मीडिया में खूब जगह मिलती है। इसे सरकार, सत्ताधारी नेता और कुल मिला कर देश की सफलता बताया जाता है। उस चर्चा में एक सायास कोशिश संभवतः यह भी रहती है कि उस कथानक के नकारात्मक पक्ष छिपे रहें।      

बांग्लादेश की उपरोक्त कथित उपलब्धियों की कहानी का भी एक बड़ा नकारात्मक पक्ष रहा है। दरअसल इन कामयाबियों की कीमत वहां के श्रमिक वर्ग ने चुकाई है। विदेशी कंपनियां बांग्लादेश इसलिए पहुंचीं, क्योंकि वहां की सरकार ने श्रमिकों को संरक्षण देने वाले कानूनों का नामोनिशां मिटा दिया। मजदूरों से असीमित समय तक काम लेने की छूट दी।

न्यूनतम मजदूरी इतनी कम रखी गई, जिससे श्रमिकों के लिए अपना गुजारा चलाना भी मुश्किल हो। जहां भारी बेरोजगारी हो, वहां किसी भी मेहनताने पर काम करने की होड़ लगी रहती है, तो बांग्लादेश में भी मजदूर यही सोच कर खुद को भाग्यशाली मानते रहे कि जैसा भी काम हो, जितना भी मेहनताना मिलता हो, पर एक काम तो पास में है। 

यह सब कुल मिलाकर “ठीक-ठाक” चल रहा था। लेकिन कोरोना महामारी ने सारा चक्र बिगाड़ दिया। देश जब महामारी से निकल रहा था, तभी यूक्रेन युद्ध शुरू हो गया। उससे विश्व बाजार में कच्चे तेल के दाम बढ़े। इसकी भारी मार बांग्लादेश पर पड़ी। महामारी और युद्ध का विदेशों में जाकर कमाने वाले बांग्लादेशी मजदूरों पर बहुत बुरा असर पड़ा।

वे जो कमाई वापस देश भेजते थे, उसका बांग्लादेश की अर्थव्यवस्था में बेहद अहम योगदान था। मगर अब उसमें भारी गिरावट आ गई। नतीजतन, देश का विदेशी मुद्रा भंडार तेजी गिरने लगा। तब शेख हसीना सरकार ने अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) के आगे हाथ फैलाया।  

जैसा कि आईएमएफ ऋण देने के पहले करता है, उसने बांग्लादेश को भी किफायत बरने की सख्त नीतियों पर राजी कराया। शेख हसीना सरकार ने अपने अवाम के हितों की बलि चढ़ाते हुए, ये समझौता किया। इसके तहत उन्हें देश में सब्सिडी घटानी पड़ी और कल्याण कार्यों के बजट में कटौती करनी पड़ी। मुसीबत के मारे लोगों पर यह सरकारी प्राथमिकताओं की अतिरिक्त मार थी। 

तीन हफ्तों से देश में जारी छात्र आंदोलन की पृष्ठभूमि बनाने में उपरोक्त घटनाओं का बड़ा रोल रहा है। प्रतिरोध का नया दौर तीन अगस्त को शुरू हुआ। चार अगस्त को व्यापक हिंसा हुई और पांच अगस्त को बांग्लादेश के राजनीतिक इतिहास में शेख हसीना के अध्याय पर परदा गिर गया। इतनी तेजी से घटे इस घटनाक्रम को कैसे समझा जाए? 

संभवतः सबसे उचित नजरिया होगा कि इसे शेख हसीना सरकार की क्रमिक रूप से घटती गई legitimacy के संदर्भ में देखा जाए। बांग्लादेश की हालिया हिंसा का संदेश यह है कि देश की आबादी के एक बहुत बड़े तबके ने प्रधानमंत्री शेख हसीना वाजेद और उनकी सरकार के शासकीय औचित्य को ठुकरा दिया था। 

गौरतलब है कि सरकारी नौकरियों में आरक्षण के खिलाफ जून से शुरू होकर जुलाई तक चले छात्र आंदोलन का बुनियादी मुद्दा कमोबेश छात्रों के हक में हल हो चुका था। उसके बावजूद छात्रों ने तीन अगस्त आंदोलन का नया दौर शुरू कर दिया, जिसमें उन्होंने अपनी एकमात्र शर्त यह रखी कि प्रधानमंत्री का इस्तीफा दें। 

अक्सर ऐसी मांगों को चरमपंथी माना जाता है। बातचीत से उन पर किसी समाधान कोई गुंजाइश नहीं होती। तो चार अगस्त को सत्ताधारी आवामी पार्टी की छात्र इकाई और सत्ता पक्ष के अन्य समर्थक भी सड़कों पर उतर गए। उन्होंने आंदोलनकारियों को खुली चुनौती दी। दोनों तरफ से हुई हिंसा में 14 पुलिसकर्मी सहित 100 से अधिक लोग मारे गए। 

चार अगस्त को यह साफ हो गया कि यह आंदोलन सिर्फ कुछ निर्दलीय छात्र संगठनों का नहीं रह गया है। बल्कि इसमें विपक्ष एवं सरकार विरोधी तमाम गुट सक्रिय हो गए हैं। हाल में हसीना सरकार ने इस्लामी पार्टी जमात-ए-इस्लामी पर प्रतिबंध लगाया था। सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स को रोक दिया गया था। लेकिन उसका कोई असर होता नहीं दिखा।

इसके विपरीत शेख हसीना के इस्तीफे की मांग के पक्ष में बड़ी जन गोलबंदी खड़ी हो गई। आंदोलनकारियों के मुकाबले अपने समर्थकों को सड़क पर उतारने की शेख हसीना की रणनीति बैकफायर कर गई। छात्र नेताओं ने आह्वान कर दिया कि पांच अगस्त को पूरे देश से लोग ढाका की तरफ कूच करें। और सचमुच ऐसा लाखों लोगों ने कर दिया!

जन गोलबंदी के स्तर को देखते हुए अनुमान लगाया जा सकता है कि यह दो मोर्चों पर सत्ता पक्ष के शासकीय औचित्य (लेजिटिमैसी) पर उठे सवाल का नतीजा था। पहला मुद्दा तो विकराल बेरोजगारी सहित अन्य आर्थिक मोर्चों पर सरकार की नाकामी और आम जन के जीवन स्तर में आई गिरावट का रहा है।

दूसरा सवाल इस वर्ष जनवरी में जिस तरह आम चुनाव कराए गए, उससे उठा। शेख हसीना ने तटस्थ सरकार के तहत निर्वाचन से इनकार कर दिया था। इस कारण विपक्ष ने आम चुनाव का बहिष्कार किया। परिणामस्वरूप अवामी लीग बिना मुकाबले के जीत तो गई, लेकिन बड़ी संख्या में लोगों की निगाह में उसकी जीत संदिग्ध बनी रही। 

आधुनिक दौर में सरकारें शासकीय औचित्य को दो आधार पर हासिल करती हैः एक, आम जन के जीवन में स्तर में उत्तरोत्तर सुधार के रिकॉर्ड से और दूसरा चुनावी बहुमत के समर्थन के इजहार से। हसीना सरकार इन दोनों मोर्चों पर नाकाम हो गई।

तो यह कहने का आधार है कि पटकथा का केंद्रीय पहलू अर्थव्यवस्था का स्वरूप रहा है। इस सिलसिले में एक घटना याद करने योग्य है। 1992 में अमेरिका अपनी भू-राजनीतिक कामयाबी और सैनिक शक्ति के चरमोत्कर्ष पर था। सोवियत संघ के विखंडन और प्रथम खाड़ी युद्ध में अमेरिकी सैनिक शक्ति के चकाचौंध प्रदर्शन ने एकध्रुवीय दुनिया के निर्माण की नींव डाल दी थी। अमेरिकी शासक वर्ग और मीडिया में इसको लेकर सुखबोध की लहर चल रही थी। 

उसी माहौल में 1992 का राष्ट्रपति चुनाव हुआ, जिसमें एक नवोदित नेता ने तत्कालीन राष्ट्रपति- एचडब्लू बुश- को हरा दिया, जिनकी सदारत में अमेरिका को उपरोक्त उपलब्धियां हासिल हुई थीं। इस घटनाक्रम को समझने की माथापच्ची में जुटे पत्रकारों ने जब ये सवाल विजयी डेमोक्रेटिक उम्मीदवार बिल क्लिंटन से पूछा, तो उन्होंने कहा- इट्स इकॉनमी, स्टूपिड (यह अर्थव्यवस्था है, मूर्खों)। हकीकत यह थी कि जब अमेरिका रणनीतिक सफलताओं के शिखर था, उसी समय अर्थव्यवस्था संबंधी मुश्किलों से आम जन की परेशानियां बढ़ी थीं। 

बांग्लादेश के घटनाक्रम को समझने में यह कथन सहायक है। दरअसल यह कथन बांग्लादेश से लेकर नाईजीरिया तक में आज जो उथल-पुथल है, उसे समझने में मददगार हो सकता है। बांग्लादेश से प्रधानमंत्री शेख हसीना को भागना पड़ा है, जबकि नाईजीरिया की राजधानी लेगोस में लाखों लोग सड़कों पर उतरे हुए हैं। महीना भर पहले ऐसा ही नज़ारा केन्या में दिखा था। उन दोनों देशों में खर्च घटाने की सरकारी नीति से त्रस्त लोग सड़कों पर उतरे और दोनों जगहों पर सरकारों को कुछ कदम वापस खींचने पड़े। 

लेकिन शेख हसीना ने ऐसा कुछ नहीं किया। वे अपनी राह चलती रहीं, जो आखिरकार उन्हें देश से बाहर तक ले गई! श्रीलंका में ऐसा ही घटनाक्रम दो साल पहले हुआ था। पाकिस्तान में उथल-पुथल का दौर लंबा हो चुका है। वैसे देखें, तो इस वक्त विकसित देशों में जो अशांति और अस्थिरता है, उसके पीछे भी महंगाई और युवाओं के लिए बढ़ती अवसरहीनता को देखा जा सकता है। भारत में यह असंतोष हाल के आम चुनाव में अलग रूप में व्यक्त हुआ है। 

संदेश यह है कि जिन नीतियों पर हाल के वर्षों में सत्ता प्रतिष्ठानों ने आम सहमति से अमल किया, साधारण जनता उनसे बुरी तरह प्रभावित हुई है। उसकी नाराजगी अब अलग-अलग रूपों में सामने आ रही है। बांग्लादेश में अतिरिक्त पहलू यह था कि शेख हसीना ने इस नाराजगी के जाहिर होने के सबसे सशक्त माध्यम यानी चुनाव को भी अवरुद्ध कर दिया। तो लोगों ने अपने ढंग से नाराजगी जताने का रास्ता तलाश लिया है। यह नव-उदारवादी नीतियों पर बेरोक चल रहे और लोकतांत्रिक तकाजों को ठेंगा दिखा रहे तमाम सत्ताधारियों के लिए एक चेतावनी है।

(सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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