हिमाचल प्रदेश सहित तमाम राज्यों में सांप्रदायिक उन्माद की स्थिति क्यों है?

पिछले एक सप्ताह से हिमाचल प्रदेश की राजधानी शिमला में एक अवैध मस्जिद का मुद्दा जोरशोर से गरमाया हुआ है। हिंदू संगठनों के नेतृत्व में स्थानीय लोगों का प्रदर्शन दिन-प्रतिदिन उग्र होता जा रहा है। हिंदू समुदाय के लोगों का कहना है कि उक्त मस्जिद अवैध निर्माण का नतीजा है, और पिछले कुछ समय से यहां पर असामान्य गतिविधियाँ देखी जा रही हैं, लिहाजा इस अवैध मस्जिद को तत्काल जमींदोज कर दिया जाना चाहिए। वहीं मुस्लिम समुदाय की ओर से वक्फ बोर्ड आगे आया है, और उसका कहना है कि अविभाजित पंजाब के समय से ही यह जमीन वक्फ बोर्ड के अधीन रही है, जबकि सरकारी रिकॉर्ड में यह जमीन राज्य की है। बता दें कि पिछले 14 वर्षों से इस विवादास्पद मस्जिद को लेकर अदालत में मामला विचाराधीन है।

अब इस मामले में आगे क्या होता है और यह विवाद किस हद तक तूल पकड़ता है, यह तो समय ही बतायेगा लेकिन इससे ज्यादा जरुरी यह जानना है कि कैसे देश के विभिन्न हिस्सों में हिंदू-मुस्लिम सांप्रदायिक तनाव को हवा दी जा रही है, और कई स्थानों पर स्थानीय लोग इसके चपेट में आ जाते हैं, जबकि अन्य मामलों में यह उन्माद अब उस तरह से नहीं बढ़ पा रहा है, जैसा पिछले 10 वर्षों के दौरान देखने को मिला करता था। लेकिन इतना तो तय है कि हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड ये दो उत्तर भारतीय हिमालयी राज्य हैं, जहां सवर्ण हिंदुओं की बहुतायत के चलते किसी भी छोटे से मुद्दे को विस्फोटक बना देना बहुसंख्यक हिंदुत्ववादी समूहों के लिए आज भी बायें हाथ का खेल बना हुआ है।

हालांकि, हाल ही में हुए उपचुनावों में इन दोनों ही राज्यों में हिन्दुत्वादी शक्तियों को मुँह की खानी पड़ी थी, लेकिन उसके बावजूद तमाम ऐसी घटनाएं देखने को मिली हैं, जिनमें जरा सी बात को मुद्दा बनाकर मुस्लिम अल्पसंख्यक समुदाय के बहिष्कार, मारपीट और पलायन के लिए मजबूर किया गया है। हिमाचल प्रदेश में सुखविंदर सिंह सुक्खू के नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी की सरकार है, जिसकी आवाज बहुसंख्यकवाद के आगे मिमियाती सी नजर आ रही है। चुनावी लोकतंत्र की इसे मजबूरी कहिये, राज्य कांग्रेस अच्छी तरह से जानती है कि ब्राहमणवादी शक्तियों से बिगाड़ बनाकर वह अपने ही भविष्य पर कुठाराघात करने वाली है।

पूर्व मुख्यमंत्री स्वर्गीय वीरभद्र सिंह, जिन्हें हिमाचल में राजा जी भी कहा जाता था, के परिवार को हिमाचल की बागडोर न सौंपकर एक सामान्य कांग्रेसी कार्यकर्ता सुक्खू को कमान सौंपकर भी कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व ने खुद के लिए आफत मोल ले ली है। कुछ माह पूर्व ही विपक्षी दल भाजपा ने राज्य सभा चुनाव में अपने प्रत्याशी को जिताकर कांग्रेस में दोफाड़ को अंजाम दिया था, जिसका एक सिरा वीरभद्र सिंह की पत्नी और प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष प्रतिभा सिंह के हाथों में था।

समय रहते कांग्रेस नेतृत्व ने हिमाचल में अपनी सरकार बचा ली, और भाजपा से सीखते हुए उसी की तर्ज पर अनुशासनात्मक कार्रवाई करते हुए पाला बदलने वाले कांग्रेसी विधायकों की विधानसभा सदस्यता रद्द कर दी थी। उपचुनाव में इसे उसका फायदा भी मिला और राज्य की जनता ने बीजेपी को बता दिया कि वह 5 वर्ष तक कांग्रेस की सरकार को देखना चाहती है, और मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, झारखंड या देश के अन्य हिस्सों में जिस प्रकार से भाजपा धनबल या सरकारी एजेंसियों का दुरूपयोग कर चुनी हुई सरकार को गिराने में सफल रहती है, वह हिमाचल में नहीं चलने वाला है।

लेकिन भले ही भाजपा को अपने प्रयास में अपेक्षित सफलता न मिली हो, आरएसएस और उसके तमाम आनुषांगिक संगठनों को अभिनव प्रयोग करने से तो कोई रोक नहीं सकता। शिमला के संजौली में विवादित मस्जिद को लेकर जो विवाद उभरा है, उसे भी एक प्रयोग कहा जा सकता है। खबर है कि आज शहर में निषेधाज्ञा लागू होने के बावजूद हिंदू संगठनों ने बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन आयोजित किया है। संजौली में अवैध मस्जिद के खिलाफ विरोध प्रदर्शन के मद्देनजर क्षेत्र में त्वरित प्रतिक्रिया दल (क्यूआरटी) के साथ 1,000 से अधिक पुलिस कर्मियों को तैनात किया गया था। एएनआई सहित दर्जनों मीडियाकर्मियों ने प्रदर्शन की तस्वीरों और वीडियो को अपने कैमरे में कैद किया है, जो बताता है कि प्रशासन का रवैया कितना ढीला-ढाला था।

प्रदर्शनकारी न सिर्फ शहर में प्रदर्शन निकालने में सफल रहे, बल्कि पुलिस बैरीकेडिंग को तोड़ने में भी सफल रहे। पुलिस प्रशासन की ओर से जब वाटर कैनन का इस्तेमाल किया गया तो प्रदर्शनकारी शिमला पुलिस की बैरीकेडिंग से अपना बचाव करते दिखे, जिसे उन्होंने पुलिस बल की ओर धकेलना शुरू कर दिया था। बाद में ऊपर से दबाव के बाद दो-चार पुलिसकर्मियों ने लाठी भांजना शुरू किया तो भीड़ तितर बितर हो गई, जबकि 90% पुलिसकर्मी रस्म-अदायगी करते नजर आ सकते हैं।

आज के प्रदर्शन के बाद उम्मीद है कि हिंदुत्वादी समूहों को बड़े पैमाने पर जनसमर्थन मिल सकता है। सुक्खू सरकार मामले को क़ानूनी दायरे और शांतिपूर्ण ढंग से सुलझाने की पक्षधर है, लेकिन लगता है कि मामला उसके हाथ में नहीं रहा। यह अनिर्णय की स्थिति असल में चुनावी अवसरवाद ही है, जिसमें कांग्रेस 80 के दशक के बाद से ही घिरी रही है। यूपीए सरकार के दौरान मनमोहन सिंह सरकार तो इसकी इतनी ज्यादा शिकार हो चुकी थी कि वह भारत में बढ़ते हिंदुत्वादी बहुसंख्यकवाद के खिलाफ कोई ठोस कार्रवाई करने से बचती रही, जिसका नतीजा कांग्रेस से अधिक देश के वंचितों, पिछड़ों और महिला समुदाय को भुगतना पड़ रहा है। हिमाचल प्रदेश में खुद कांग्रेस पार्टी के भीतर संजौली मस्जिद को लेकर दोफाड़ की स्थिति है।

असल में इस विवाद के मूल में ही सुक्खू सरकार में ग्रामीण विकास एवं पंचायती राज मंत्री, अनिरुद्ध सिंह जो कुसुम्पटी, शिमला से विधायक हैं, जिन्होंने विधानसभा में अपने बयान से इस मामले को तूल दे दिया। सदन में अनिरुद्ध सिंह ने संजौली स्थित मस्जिद में अवैध निर्माण के साथ-साथ बड़े पैमाने पर शिमला में अवैध घुसपैठ का मुद्दा उठा दिया। अपने बयान में उन्होंने दावा किया कि उन्होंने खुद कुछ अवैध रोहिंग्या समुदाय के लोगों को शिमला में अपना ठिकाना बनाते देखा है।

मंत्री महोदय यहीं पर नहीं रुके, उन्होंने लव जिहाद जैसे मुद्दों को भी सदन में उठाकर अपनी ही सरकार पर सवालिया निशान खड़े कर दिए। मजे की बात यह है कि जिस समय मंत्री महोदय यह बयान दे रहे थे, उनके बगल में दूसरे मंत्री, विक्रमादित्य सिंह मौजूद थे। विक्रमादित्य सिंह ने हाल ही में मंडी लोकसभा सीट पर कंगना रनौत के खिलाफ चुनाव लड़ा था, जो दिवंगत मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह के बेटे हैं, और कांग्रेस में मुख्यमंत्री पद के दावेदार रहे हैं।

बाद में अनिरुद्ध सिंह को हिंदू संगठनों द्वारा आहूत धरना प्रदर्शन में शामिल होते भी देखा गया। इसके बाद तो भाजपा के लिए यह मुद्दा करो और मरो का बन गया। आखिर उनके रहते, कांग्रेस का कोई नेता कैसे हिंदू हितों का खुद को चैंपियन बना सकता है?

आज स्थिति यह है कि हिमाचल प्रदेश जैसे छोटे से पर्वतीय राज्य में बेहद अल्प बहुमत वाली सुखविंदर सिंह सुक्खू की सरकार को जितना खतरा भाजपा से है, उससे कहीं अधिक पार्टी के भीतर मौजूद जड़ जमाए राजशाही परिवार से है, जिसे कहीं न कहीं लगता होगा कि राष्ट्रीय स्तर पर राहुल गांधी और कांग्रेस अध्यक्ष, मल्लिकार्जुन खड़गे जिस लाइन पर चल रहे हैं, उसमें उनका हिमाचल में राजनीतिक भविष्य शून्य होने जा रहा है।

इस विवाद के पीछे की मूल वजह करीब दो सप्ताह पूर्व की एक घटना को माना जा रहा है। शिमला के समीप मल्याणा गाँव में एक स्थानीय दुकानदार यशपाल सिंह के साथ मुस्लिम समुदाय के एक व्यक्ति का झगड़ा हो गया था, जिसमें यशपाल सिंह को काफी चोटें आई थीं, और सिर पर एक दर्जन टाँके लगाने पड़े थे। इसके बाद से ही मुस्लिम घुसपैठियों का मुद्दा गरमा गया, और 2010 से मौजूद संजौली मस्जिद निशाने पर आ गई।

इससे पहले भी मस्जिद के आसपास के हिंदू बहुल इलाके में रहने वाले लोगों को मस्जिद में जुमे की नमाज के दौरान बड़ी संख्या में अल्पसंख्यक समुदाय की आवक से परेशानी बढ़ने लगी थी, जिसे विभिन्न न्यूज़ चैनलों के संवावदाताओं के द्वारा कवर किया गया है। स्थानीय लोगों की मानें तो मस्जिद में रात के समय भी शहर से बाहर से लोगों के आने का ताँता लगा रहता था, जिससे वे भय और किसी अनहोनी की आशंका से ग्रस्त रहने लगे थे।

अब इसके लिए जिम्मेदार तो खुद वे राजनीतिक तत्व हैं, जिन्होंने हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण के बीज आज से 100 वर्ष पहले बोये थे, जिसके परिणामस्वरूप ही भारत विभाजन की नौबत आई, और राष्ट्रपिता महात्मा गांधी तक को अपनी जान गंवानी पड़ी। शिमला की हसीन वादियों में संजौली को बाबरी मस्जिद की तर्ज पर ढहा देने की कुचेष्टा के पीछे बहुसंख्यकवादी मानसिकता काम कर रही है, जिसे लगता है कि यह हिंदू राष्ट्र है और किसी दूसरे मतावलंबी, विशेषकर मुस्लिम समुदाय को उनकी नजरों से दूर रहकर ही अपने धार्मिक अनुष्ठानों को संपन्न करना चाहिए।

मुख्यमंत्री सुक्खू के मुतबिक, संजौली मस्जिद का मामला शिमला नगर निगम की अदालत में विचाराधीन है, जिसे 5 अक्टूबर को फैसला लेना है कि मस्जिद में जो कुछ मंजिल इमारत का निर्माण किया गया है, वह वैध है या अवैध। बता दें कि उक्त मस्जिद का अस्तित्व तब भी था जब भाजपा की राज्य सरकार हिमाचल में राज कर रही थी। मस्जिद के संरक्षक की मानें तो इस मस्जिद का अस्तित्व 1947 से पहले का है। देश में मुस्लिम समुदाय के खिलाफ सफल घृणा अभियान का ही यह फल है कि आज हिमाचल ही नहीं देश के तमाम राज्यों में किसी न किसी बहाने से ऐसे मुद्दों को बेहद आसानी से हवा देना सबसे आसान काम हो गया है।

हिमाचल प्रदेश की स्थिति विशेष रूप से इसलिए चिंताजनक है, क्योंकि यहां पर कांग्रेस की सरकार है, जिसके नेता राहुल गांधी ‘नफरत के बाजार में मोहब्बत की दुकान’ खोलने की बात को देश ही नहीं अपने अमेरिकी दौरे पर भी पुरजोर तरीके से उठाते देखे जा सकते हैं। हिमाचल कांग्रेस के लिए इस नारे को बुलंद कर पाना कितना सहज है, या कांग्रेस का केंद्रीय नेतृत्व कैसे इस आंतरिक संकट से पार पा सकता है, यह देखना दिलचस्प होगा।

(रविंद्र पटवाल जनचौक संपादकीय टीम के सदस्य हैं)

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