वैसे तो राजनीतिक विमर्श में धार्मिक और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के जुमले उछालने के अलावा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का सबसे प्रिय विषय होता है-परिवारवाद। कांग्रेस को निशाना बनाने के लिए वे अक्सर परिवारवाद का मुद्दा छेड़ते हैं। इस मुद्दे पर कांग्रेस के साथ-साथ वे उन क्षेत्रीय दलों को भी निशाना बनाते हैं, जो विपक्षी गठबंधन में शामिल हैं।
भाजपा के नेतृत्व वाले गठबंधन यानी एनडीए में शामिल परिवार आधारित क्षेत्रीय पार्टियों के परिवारवाद से उन्हें परहेज नहीं है। यही नहीं, अपनी पार्टी में भी नेताओं के बेटे-बेटियों और भाई या पत्नी को चुनाव का टिकट और मंत्री पद देने में उन्हें कोई बुराई नजर नहीं आती है।
भ्रष्टाचार के मामले भी मोदी और उनकी पार्टी का नजरिया बिल्कुल यही रहता है। किसी भी दूसरी पार्टी का भ्रष्ट से भ्रष्ट नेता भी भाजपा में शामिल होते ही पाक-साफ हो जाता है और विधायक, सांसद, मंत्री और यहां तक कि मुख्यमंत्री तक बन जाता है। अपनी पार्टी के मंत्रियों, मुख्यमंत्रियों और दूसरे नेताओं के भ्रष्टाचार को भी प्रधानमंत्री भ्रष्टाचार नहीं मानते हैं।
दरअसल भाजपा में नरेंद्र मोदी और अमित शाह का युग शुरू होने के साथ ही दोनों नेताओं ने कुछ नए किस्म के सिद्धांत तय किए गए हैं, जिनके मुताबिक दूसरे राजनीतिक दलों के लिए जो चीजें वर्जित हैं, वे भाजपा के लिए अपिरहार्य और पवित्र हैं।
भाजपा के नीति-सिद्धांत के मुताबिक जो कहा जाना है, उसका बिल्कुल उलटा करना है। यानी बातें सारी बड़ी-बड़ी, नैतिकता और आदर्शवाद की करनी है, लेकिन व्यवहार में मैकियावेली की तरह काम करना है। कहने का मतलब है कि अच्छा-अच्छा कहना है और बुरा करना है। यानी भाषणों और क्रियाकलापों में उच्चतम स्तर का पाखंड अपनाए रखना है।
बहरहाल बात परिवारवाद की है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बीते रविवार, 20 अक्टूबर को अपने चुनाव क्षेत्र वाराणसी में अपनी इस बात को दोहराया कि देश और लोकतंत्र के लिए परिवारवाद बड़ा खतरा है। उन्होंने राजनीति में परिवारवाद के खात्मे के लिए गैर राजनीतिक पृष्ठभूमि वाले एक लाख युवाओं को राजनीति में लाने का संकल्प दोहराया।
जिस समय प्रधानमंत्री यह भाषण देकर अपने विशेष विमान से दिल्ली के लिए उड़े उसी समय महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के लिए भाजपा के 99 उम्मीदवारों की सूची जारी हुई। इस सूची में सिर्फ 10 लोग नए हैं।
हालांकि ये लोग भी गैर राजनीतिक पृष्ठभूमि वाले नहीं हैं। लेकिन सिर्फ ये 10 ही लोग हैं, जो पहली बार चुनाव लड़ेंगे। बाकी सब पुराने नेता और राजनीतिक पृष्ठभूमि वाले ही हैं।
भाजपा ने जिन महिलाओं को उम्मीदवार बनाया है, उनमें एक पूर्व मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण की बेटी है और दूसरी जेल में बंद भाजपा विधायक गणपत गायकवाड की पत्नी है। मुंबई के पार्टी अध्यक्ष आशीष शेलार और उनके सगे भाई को भी चुनाव मैदान में उतारा गया है।
एक अन्य पूर्व मुख्यमंत्री और मौजूदा सांसद नारायण राणे के बेटे को भी पार्टी उम्मीदवार बनाया है। एक पूर्व सांसद हरिभाऊ जवाले के बेटे और पूर्व केंद्रीय मंत्री राव साहेब दानवे के बेटे को भी टिकट दिया गया है।
एक लाख युवाओं को राजनीति में लाने का संकल्प करने वाली पार्टी सिर्फ तीन विधायकों के टिकट काट पाई। उसने 89 विधायकों को एक बार फिर टिकट दे दिए। कुल मिला कर नेताओं के बेटे, बेटियां, पोते, पोतियां, भाई या पत्नी और नजदीकी सहयोगी ही चुनाव लड़ रहे हैं।
भाजपा के सहयोगी दल शिव सेना शिंदे गुट और अजीत पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) की हालत भी भाजपा से अलग नहीं है। इन दोनों पार्टियों ने भी अभी तक अपने जितने उम्मीदवार घोषित किए हैं उनमें कई ऐसे हैं, जो किसी न किसी नेता के परिवार से हैं। लेकिन इन सब में प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा को कतई परिवारवाद नजर नहीं आता है।
महाराष्ट्र के लिए उम्मीदवारों की सूची जारी होने से एक दिन पहले भाजपा ने झारखंड विधानसभा चुनाव के लिए भी उम्मीदवारों की घोषणा की। उसमें तो पार्टी ने और भी गजब किया। अगले महीने झारखंड की स्थापना के 24 साल होने वाले है। इन 24 सालों में कई सरकारें बनीं और उन सरकारों का कार्यकाल औसत ढाई साल रहा है।
इस दौरान सात मुख्यमंत्री बने हैं, जिनमें से अर्जुन मुंडा, शिबू सोरेन और हेमंत सोरेन ने एक से अधिक बार मुख्यमंत्री पद की शपथ ली है।
इस बार के विधानसभा चुनाव में गजब यह हुआ है कि झारखंड के इतिहास में अब तक जितने भी मुख्यमंत्री हुए हैं, चाहे वह झारखंड मुक्ति मोर्चा (जेएमएम) का हो, भाजपा का हो या निर्दलीय हो, सबका कोई न कोई रिश्तेदार भाजपा के टिकट पर चुनाव लड़ रहा है।
ऐसा नहीं है कि ये रिश्तेदार दूरदराज के हैं। तमाम पूर्व मुख्यमंत्रियों और मौजूदा मुख्यमंत्री के बेहद करीबी रिश्तेदार या परिवार के सदस्य चुनाव लड़ रहे हैं।
राज्य के पहले मुख्यमंत्री शिबू सोरेन बने थे लेकिन वे बहुमत साबित नहीं कर पाए थे और फिर भाजपा के बाबूलाल मरांडी मुख्यमंत्री बने थे। वे 2००6 से 2०19 तक करीब 13 साल भाजपा से बाहर रहने के बाद वे भाजपा मे लौटे और अभी पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष हैं।
इस बार विधानसभा चुनाव में मरांडी राजधनवार विधानसभा क्षेत्र से चुनाव लड़ रहे हैं। शिबू सोरेन अब सक्रिय राजनीति में नहीं हैं। उनके बेटे हेमंत सोरेन मुख्यमंत्री हैं, जो बरहेट से और उनके भाई बसंत सोरेन दुमका से जेएमएम के टिकट पर चुनाव लड़ रहे हैं।
लेकिन शिबू सोरेन की बड़ी बहू और हेमंत सोरेन की भाभी सीता सोरेन भाजपा के टिकट पर जामताड़ा विधानसभा सीट से चुनाव लड़ रही हैं। भाजपा ने सीता सोरेन को दुमका लोकसभा सीट से भी चुनाव लड़ाया था लेकिन वे हार गई थीं।
भाजपा के दूसरे मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा थे। वे इस साल लोकसभा चुनाव में खूंटी सीट से हार गए थे। उससे पहले वे अपनी पारंपरिक खरसांवा सीट से विधानसभा का चुनाव भी हारे थे। इसीलिए इस बार सीट बदल कर भाजपा ने उनकी पत्नी मीरा मुंडा को जमशेदपुर लोकसभा के तहत आने वाली पोटका सुरक्षित सीट से उम्मीदवार बनाया है।
अर्जुन मुंडा की सरकार गिरा कर 2006 में निर्दलीय मधु कोड़ा मुख्यमंत्री बने थे। इस बार भाजपा ने भ्रष्टाचार के मामले में जेल की लंबी सजा काट चुके मधु कोड़ा की पत्नी गीता कोड़ा को उनकी पारंपरिक जगन्नाथपुर सीट से उम्मीदवार बनाया है। गीता कोड़ा भाजपा के टिकट पर पूर्वी सिंहभूम सीट से लोकसभा का चुनाव भी लड़ी थीं, लेकिन जीत नहीं पाई थीं।
भाजपा के तीसरे मुख्यमंत्री रघुवर दास थे, जो पांच साल का कार्यकाल पूरा करने वाले झारखंड के पहले मुख्यमंत्री बने। वे 2014 से 2019 तक मुख्यमंत्री थे और इस समय ओडिशा के राज्यपाल हैं। भाजपा ने उनकी पारंपरिक जमशेदपुर पूर्वी सीट पर उनकी बहू पूर्णिमा दास साहू को उम्मीदवार बनाया है।
इस साल फरवरी में हेमंत सोरेन के जेल जाने पर चम्पई सोरेन राज्य के मुख्यमंत्री बने थे। बाद मे वे भाजपा में शामिल हो गए और भाजपा ने उन्हें सरायकेला सीट से उम्मीदवार बनाया है, जो उनकी पारंपरिक सीट है। इसके साथ ही उनके बेटे बाबूलाल सोरेन को भाजपा ने बगल की घाटशिला सीट से टिकट दिया है।
यानी पिता और पुत्र दोनों एक साथ भाजपा के टिकट पर चुनाव लड़ रहे हैं। इस तरह दो पूर्व मुख्यमंत्री खुद चुनाव लड़ रहे हैं और बाकियों के परिवार के सदस्य भाजपा की टिकट से लड़ रहे हैं।
झारखंड के उम्मीदवारों की घोषणा से दो-तीन दिन पहले ही हरियाणा में तीन पूर्व मुख्यमंत्रियों के परिवारजनों को राज्य सरकार में मंत्री बनाया गया। इससे पहले हरियाणा की 90 सदस्यीय विधानसभा के चुनाव में तो भाजपा ने 20 से ज्यादा ऐसे उम्मीदवार उतारे थे, जो किसी न किसी बडे नेता या पूर्व सांसद-विधायक के परिवार के सदस्य हैं।
इस समय दो राज्यों के विधानसभा चुनाव के साथ ही देश के कई राज्यों में विधानसभा के उपचुनाव भी हो रहे हैं। इन उपचुनावों में भी भाजपा ने ज्यादातर सीटों पर अपनी पार्टी के नेताओं के परिवारजनों को ही उम्मीदवार बनाया है। जिन सीटों पर भाजपा के सहयोगी दल चुनाव लड़ रहे हैं, वहां पर सहायोगी दलों ने भी अपने नेताओं के करीबी रिश्तेदारों को ही टिकट दिया है।
ऐसे में सवाल है कि क्या प्रधानमंत्री मोदी सचमुच परिवारवाद के खिलाफ हैं और क्या यही गैर राजनीतिक पृष्ठभूमि वाले युवाओं को राजनीति में आगे बढ़ाने का उनका फॉर्मूला है?
दरअसल मोदी और उनकी पार्टी को हर मुद्दे पर पाखंड या दोहरा रवैया अपनाने में इसलिए संकोच नहीं होता है, क्योंकि मुख्यधारा का मीडिया डर और लालच के चलते पूरी तरह उनका पिछलग्गू और ढिंढोरची बना हुआ है।
ऐसे मुद्दों पर वह न तो खुद सवाल करता है और न ही उन लोगों को तवज्जो देता है, जो सवाल उठाते हैं। इसीलिए प्रधानमंत्री मोदी के जो मन में आता है, वह बोल कर वे निकल लेते हैं।
(अनिल जैन वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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