आज जब फलस्तीन की मौत यकीनी होती जा रही है, तब यह सवाल न जाने कितने दिलों में सुलग रहा है कि ऐसा कैसे हो जाता है कि कुछ आतंकी देश लाखों लोगों का कत्ल कर देते हैं और दुनिया उन्हें रोक नहीं पाती!
इतिहास कभी भी सिर्फ तारीखों और घटनाओं की शृंखला नहीं होता-वह इंसानी ज़मीर का आईना भी होता है। वह सवाल पूछता है, टटोलता है, ललकारता है।
आने वाले ज़माने में जब फलस्तीन की धूल और राख से कोई बच्चा उठेगा, जब किसी माँ की आँखें अपने शहीद बेटे की तस्वीर पर टिकेंगी, तब इतिहास भी चीखकर पूछेगा: “जब फलस्तीन की सरज़मीं पर मौत नाच रही थी, तब दुनिया की तमाम हुकूमतें चुप क्यों थीं?”
फलस्तीन पर ज़ायोनी कब्ज़ा कोई अचानक हुई घटना नहीं, बल्कि यह एक योजनाबद्ध उपनिवेशवाद की परिणति है। 1917 की बेल्फोर घोषणा से लेकर 1948 में इज़राइल के गठन और उसके बाद की सैकड़ों कूटनीतिक विफलताओं ने यह साबित किया है कि यह पूरी योजना एक लंबे समय से चल रही औपनिवेशिक रणनीति का हिस्सा थी। तब से लेकर आज तक, फलस्तीनी ज़मीनों पर लगातार कब्ज़ा, बस्तियाँ, दीवारें और बम गिराए जा रहे हैं। लाखों लोग बेघर हुए, सैकड़ों गाँव मिटा दिए गए। यह सिर्फ एक भौगोलिक लड़ाई नहीं-यह एक सभ्यतागत अन्याय की गवाही है।
इज़राइल की सैन्य और राजनीतिक ताकत का मुख्य आधार है अमेरिका और यूरोप की अंध-समर्थन नीति। हथियार, टेक्नोलॉजी, मीडिया नैरेटिव-हर मोर्चे पर इज़राइल को एक ‘बचाव करने वाले’ के रूप में पेश किया गया, जबकि असलियत में वह एक औपनिवेशिक आक्रांता की भूमिका में रहा। अमेरिका ने हर अंतरराष्ट्रीय मंच पर इज़राइल की ढाल बनकर उसे अंतरराष्ट्रीय कानूनों से बचाया।
इस तरह देखा जाए तो इज़राइल और उसके समर्थक देश ही नहीं, बल्कि वो तमाम मुमालिक भी फलस्तीन के कत्ल में शामिल हैं जो या तो खामोश तमाशाई हैं या इस जंग में अपनी तरक्की के रास्ते तलाश रहे हैं। अफसोसनाक बात यह है कि दक्षिण एशियाई देश, विशेष रूप से भारत, जिन्होंने उपनिवेशवाद के खिलाफ लंबी लड़ाई लड़ी, वे भी इस अन्याय के विरुद्ध बोलने से परहेज़ कर रहे हैं।
इससे भी दुखद पहलू यह है कि जब फलस्तीनी बच्चों पर मिसाइलें गिर रही थीं, तब कई मुस्लिम हुकूमतें इज़राइल और अमेरिका से व्यापारिक समझौते कर रही थीं। कुछ ने खामोशी ओढ़ ली तो कुछ ने इज़राइल की तरफ दोस्ती के हाथ बढ़ा दिए। उम्मत के उस्मानी विचार को दफना दिया गया, और राजनीतिक स्वार्थ ने इंसानी हमदर्दी को निगल लिया।
अरब मुमालिक से फलस्तीन की मदद की उम्मीदें ज़्यादा की जाती हैं। इसके पीछे वजह सिर्फ इतनी है कि एक आम मुसलमान इस्लामिक ब्रदरहुड में यकीन रखता है, लेकिन जॉर्डन, तुर्की, सऊदी अरब और दीगर मुमालिक ने यह साबित कर दिया है कि सत्ता और संपदा ही दोस्ती और दुश्मनी की बुनियाद है, अकीदा या मज़हब नहीं।
हालाँकि उम्मत का मतलब महज़ धार्मिक एकता नहीं, बल्कि ज़ुल्म के खिलाफ एक साझा आवाज़ भी है। आज ज़रूरत है कि दुनिया भर के इंसाफ पसंद लोग, साथ ही मुसलमान भी-चाहे वे ताकतवर हों या मामूली-फलस्तीन के साथ खड़े हों। यह खड़े होना सिर्फ नारों से नहीं, बल्कि इन्फॉर्मेशन वॉरफेयर, बॉयकॉट, राजनीतिक दबाव और इंसानी मदद के ज़रिए होना चाहिए।
संयुक्त राष्ट्र, मानवाधिकार संगठन और अंतरराष्ट्रीय न्यायालय-ये तमाम संस्थाएँ भी बहुधा बयानबाज़ी तक सीमित रहीं। इज़राइल के खिलाफ प्रस्ताव पारित होते रहे, मगर कोई ठोस कार्यवाही नहीं हुई। इस असफलता ने यह सवाल उठाया है कि क्या ये संस्थाएँ सिर्फ शक्तिशाली देशों के हितों की रखवाली के लिए हैं?
जब इतिहास की अदालत लगेगी, और गवाही में फलस्तीन के टूटे घर, बहता खून और गूँगी लाशें पेश होंगी, तब एक सवाल गूँजेगा : “क्या तुम भी उनमें से हो जो इस ज़ुल्म पर खामोश थे?”
अब भी वक्त है-सच का साथ देने का, ज़ुल्म के खिलाफ बोलने का, और फलस्तीन की आवाज़ बनने का। हालाँकि लगता नहीं कि फलस्तीन को बचाने के लिए कोई ताकत सामने आएगी।
लेकिन उन फलस्तीनी अवाम पर लाखों सलाम, जो दुनिया की सबसे ताकतवर फौजों का मुकाबला बड़ी दिलेरी से कर रहे हैं। इतिहास जब दुनिया भर के कायर हुक्मरानों पर लानतें भेजेगा, तब इन जाँबाज़ फलस्तीनियों का नाम बड़ी इज़्ज़त से लिया जाएगा।
(डॉ. सलमान अरशद स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
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