ट्रेड, टैरिफ, ट्रंप और ट्रम्फेट 

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डोनाल्ड ट्रंप के दूसरी बार राष्ट्रपति चुने जाने के बाद से ही विश्व में एक खास तरह की हलचल देखी जा रही है। चुनाव प्रचार के दौरान ट्रंप ने सरकार बनने पर जिन नीतियों को लागू करने का ऐलान किया था। उससे ही दुनिया में अफरातफरी दिखाई देने लगी थी। 20 जनवरी, 25 को शपथ लेते ही ट्रंप ने घोषणा कर दी कि वह मेक अमेरिका ग्रेट अगेन (मागा) की योजना को आगे बढ़ायेंगे। उनके अनुसार जो वाइडेन ने अमेरिकी महानता और बादशाहत को भारी क्षति पहुंचाई है।

जिस कारण अमेरिका को हर मोर्चे पर गंभीर चुनौती मिल रही है। विगत कुछ वर्षों से अमेरिका में श्वेत पुरुष नस्लवाद उभार पर है। जो रिपब्लिकन पार्टी में ‌ आक्रामक और उद्दंड क्रिश्चियन नस्लवादी ट्रंप के रूप में राजनीतिक तौर पर संगठित हुआ है। (याद रखें दोनों बार ट्रंप डेमोक्रेटिक पार्टी के महिला उम्मीदवारों के मुकाबले में ही चुनाव जीते हैं !) अमेरिका के दोबारा राष्ट्रपति बनने वाले ट्रंप युद्ध लोलुप अमेरिकी साम्राज्यवाद के अनुदारवादी आक्रामक प्रतिनिधि हैं जो दुनिया में बदल रहे जियो पोलिटिकल परिदृश्य को बदल देने के एजेंडे के साथ सत्तारूढ़ हुए हैं।

अमेरिका आतंक को चुनौती

ट्रंप ने अमेरिकी नीतियों को पुनर्गठित करने का विध्वंसक अभियान शुरू कर दिया है। इसके लिए ट्रंप द्वारा दो हथियार प्रयोग किया जा रहा है। एक- दुनिया के विभिन्न देशों से आने वाले माल पर टैरिफ बढ़ाना और दूसरा अमेरिका में रह रहे प्रवासी मजदूरों को अपराधी करार देते हुए उन्हें देश से बाहर निकालने का अमानवीय तरीका अख्तियार करना। इन दोनों नीतियों से विश्व में अफरा-तफरी मची हुई है। इसके अलावा अमेरिका द्वारा जगह-जगह पर चलाए जा रहे प्राक्सी चरित्र के युद्धों को खत्म कराने के लिए ट्रंप एकतरफा ऐलान किये जा रहे हैं। जिसमें यूक्रेन रूस युद्ध और गजा को फिलिस्तीनियों से खाली कराना शामिल है।

शांति के नाम पर ट्रंप सुपर बॉस की तरह से इन देशों को आदेश दे रहे हैं। पहले तो ऐसा लगा कि शायद ट्रंप युद्ध रोकने के सवाल पर ईमानदार हों। लेकिन कहावत है कि बिल्ली चूहे के साथ शांति संधि कर लेगी तो खायेगी क्या? वार इकोनॉमी पर टिकी हुई अमेरिकी अर्थव्यवस्था दुनिया में शांति कायम करने का पाखंड ही कर सकती है। सच्चाई ठीक इसके उलट है।

यथार्थ तो यथार्थ ही होता है। साम्राज्यवादी कभी भी शांति के पक्ष धर हो ही नहीं सकते। साम्राज्यवादी व्यवस्था युद्ध केन्द्रीय व्यवस्था है। जो मानव श्रम के लूट पर ही फलती फूलती है। जब तक यह लूट जारी रहेगी दुनिया में शांति कायम नहीं हो सकती।

‌इस संदर्भ में दो घटनाएं महत्वपूर्ण हैं। ट्रंप ने यूक्रेन को धमकाने के लिए जेलेंस्की को व्हाइट हाउस में बुलाकर दुनिया के सामने अपमानित करने की कोशिश की। ट्रंप ने खुली प्रेस वार्ता में जेलेंस्की  पर हमला शुरू किया। उस समय ‌ऐसा ऐसा लग ‌रहा था कि‌ एक डिक्टेटर अपने कारिंदा को विश्व के समक्ष आदेशित कर रहा हो।लेकिन 3 वर्षों से युद्ध के अनेकों घाव सहते, भारी तबाही‌ व नरसंहार का दर्द दिलों में लिए यूक्रेनी राष्ट्रपति व्लादिमीर जेलेंस्की ने साहस और खुद्दारी के साथ प्रतिवाद किया।

वह क्षण निश्चय ही विकासशील देशों में ट्रम्फेट बन चुके शासकों के लिए एक सबक था। जबकि पूरी दुनिया को पता है कि अमेरिका और नाटो की विस्तारवादी नीतियों के जाल में फंसा और पुतिन के यूक्रेन को हड़पने के लिए किए गए हमले के खिलाफ यूक्रेन रक्षात्मक युद्ध लड़ रहा है। पिछले 3 वर्षों से नाटो के देश हथियारों और युद्ध के साजोसामान के द्वारा यूक्रेन को मदद कर रहे थे। 

एक धारणा यह है कि अगर नाटो यूक्रेन का समर्थन बंद कर दे तो यूक्रेन रूस के सामने एक सप्ताह भी नहीं टिक पाएगा। लेकिन याद रखिए ट्रंप के विस्तारवादी अपवित्र इरादे कि ” यूक्रेन को रूस और अमेरिका आपसी हितों के अनुकूल आपस में बंटवारा‌ कर लें” को यूक्रेनी जनता और राष्ट्रपति जेलेंस्की बखूबी ‌समझ रहे थे। जेलेंस्की ने अमेरिकी राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के सामने जिस तरह से प्रतिक्रिया दी।

वह संघर्षरत राष्ट्र की अपने राष्ट्रीय स्वाभिमान को बुलंद रखने का ऐतिहासिक उदाहरण है। जेलेंस्की सजे सजाये  दस्तरखान को छोड़कर बाहर निकल आए। यह दिखाता है कि देश के स्वाभिमान, स्वतंत्रता सार्वभौमिकता की रक्षा के लिए अभी ऐसे राष्ट्राध्यक्ष और राजनेता मौजूद हैं। जो अपने देश की आन-बान-शान के साथ समझौता करने के लिए तैयार नहीं हैं। इस घटनाक्रम के साथ भारत के  ट्रंफेट से तुलना कीजिएगा तो भारत के हिंदू राष्ट्रवाद के भौकाल की कलई खुल जायेगी।

यूक्रेन को दरकिनार कर सऊदी अरब के रियाद में रूस अमेरिका में  युद्ध रोकने के लिए हुई वार्ता का असफल हो जाना। रूस ने अमेरिका द्वारा रखी गई शर्तों को मानने से इनकार कर दिया और‌ पुनः यूक्रेन पर हमला शुरू कर दिया है ।” खिसियानी बिल्ली खंभा नोचे ” वाली कहावत के अनुसार ट्रंप फिर प्रतिबंध लगाने और रूस को धमकाने के खिसियाहट भरे बयान से आगे जाकर कुछ नहीं कर पा रहे हैं। हालांकि अभी भी अमेरिका यह आस लगाए बैठा है कि यूक्रेन अपने अस्तित्व रक्षा के लिए प्राकृतिक संपदा को अमेरिका के हाथ में गिरवी रख देगा।

दूसरा बड़ा कदम जो अमेरिका द्वारा उठाया गया। वह था प्रवासी मजदूरों को घुसपैठिया बताकर उन्हें अपमानित करते हुए उनके देश भेजने का अभियान। ट्रंप ने शोर मचाते हुए सैन्य विमानों में बेड़ियों हथकड़ियों में जकड़ कर प्रवासी मजदूरों को उनके देश वापस करना शुरू किया। जिसका प्रतिवाद छोटे-छोटे देशों द्वारा होने लगा। इसकी अगुवाई लैटिन अमेरिकी देश कोलंबिया ने की। मेक्सिको के राष्ट्रपति ने भी तीखा प्रतिवाद किया। इन दोनों देशों के वामपंथी राष्ट्रपतियों ने ट्रंप को चेतावनी दी और कहा कि अमेरिकी सैन्य विमानों को वे अपने देश में घुसने नहीं देंगे।

अगर आप हमारे लोगों को अवैध प्रवासी कह रहे हैं। तो हम उन्हें सम्मान के साथ अपने नागरिक विमान से वापस लायेंगे। हुआ भी यही और अमेरिकी विमान वापस लौट गए। इन देशों ने नागरिक विमान भेज कर प्रवासी मजदूरों को सम्मान के साथ घर वापस बुला लिया। कोलंबिया के राष्ट्रपति तो हवाई अड्डे पर अपने नागरिकों से मिलने तक गए। मेक्सिको के राष्ट्रपति ने एक वक्तव्य जारी कर मेक्सिको की इंटीग्रिटी सार्वभौमिकता स्वतंत्रता और देश की गरिमा को बुलंद किया ।जो अमेरिका के लिए एक चुनौती है।

ट्रंप के विस्तार वादी घोषणा -अमेरिका  मैक्सिको, पनामा और कनाडा जैसे देशों को अपने संरक्षित राज्यों के रूप में देखता है। दोबारा चुनकर आने के बाद ट्रंप का व्यवहार भाव भंगिमा और भाषा दोनों एक धुर दक्षिणपंथी तानाशाह की भाषा में बदल गई है। महाबली अमेरिका को ट्रंप अपने कारनामों द्वारा गहरे संकट की तरफ ठेलने के लिए अभिशप्त हैं। ट्रंप पड़ोसी देशों के साथ बिग बास सा व्यवहार कर रहे हैं।

उन्होंने कनाडा के राष्ट्रपति को गवर्नर कहना शुरू कर दिया था और ग्रीन लैंड को सीधे अमेरिका में मिलाने की धमकी दे दी है। जिससे आसपास के मुल्कों के साथ अमेरिकी साम्राज्यवादी संबंध नए दौर में प्रवेश कर रहा है। हताशा में बादशाहत खो रहे अमेरिका के इस व्यवहार से आस पास के देशों के साथ-साथ अमेरिका के मित्र देशों में भी राष्ट्रवादी लहर को नया आवेग दिया है।शायद यह 100 वर्ष के अमेरिकी बादशाहत के लिए गंभीर खतरा बने।

भारत की दयनीय स्थिति-जहां दुनिया के छोटे से छोटे देश भी अपने नागरिकों के आत्म सम्मान आज़ादी और गरिमा के लिए तानकर खड़े थे। वहीं भारतीय ट्रम्फेट ने आत्म समर्पण कर दिया। अकेले भारत ही एक ऐसा देश है। जिसके प्रवासी श्रमिकों को हथकड़ियों और बेड़ियों में जकड़ कर अमृतसर हवाई अड्डे पर उतारा गया और भारत इसका प्रतिवाद तक नहीं कर सका। उल्टे भाजपा और संघ का भोपू मीडिया और उसके प्रवक्ता कानूनी तर्क गढ़ने में जुट गये और बेशर्मी के साथ मोदी की महानता का गुणगान करने लगे।

ट्रंप ने “माय फ्रेंड मोदी ” क्या कह दिया कि भांट और चारण मीडिया मोदी और ट्रंप के दोस्ती की विरुदावली गाने लगे। देखो-देखो ट्रंप की निगाह में मोदी का कितना सम्मान है। ट्रंप भारत और मोदी के सच्चे दोस्त हैं। ये बेशर्म लोग जिनके जींस में ही ताकतवर की दलाली छिपी हुई है। भारतीयों की हथकड़ियां और और वीडियो में लाने में भी सौंदर्य और गरिमा तलाशने लगे। 

भारत के सम्मान को धूल में मिलाना 

मजदूरों की पीड़ा, दर्द, वेदना और मानसिक आघात उस समय उत्सव में बदल गया जब बिन बुलाए मोदी अमेरिका पहुंच गए। एस जयशंकर के हफ्तों तक अमेरिका में रहने के बावजूद ट्रंप ने मोदी को अपने शपथ ग्रहण समारोह में नहीं बुलाया। इसकी जगह पर अमेरिका के धुर विरोधी चीन के राष्ट्रपति को निमंत्रण दिया गया। जिन्होंने आने से इनकार कर दिया। बाद में उद्योगपतियों और राजनीतिकों द्वारा लाबिंग के बाद मोदी अमेरिका गए। लेकिन उनका स्वागत किसी राष्ट्राध्यक्ष के बतौर न होकर उनकी निजी यात्रा के रूप में किया गया। वहां उनकी ट्रंप से मुलाकात हुई। इस मुलाकात में भारत ने क्या-क्या खोया और पाया है। कौन सी शर्तें ट्रंप ने भारत पर थोप दी हैं ‌और क्या-क्या रियायतें हम देने जा रहे हैं। इसका कोई विवरण अभी तक देश के समक्ष नहीं आया है।

अमेरिकी दबाव  

एक जानकारी अवश्य मिल रही है कि भारत अमेरिका के बीच फ्री ट्रेड एग्रीमेंट( FTA ) पर वार्ता हो रही है। इसके लिए मार्च के अंत में भारत के वाणिज्य मंत्री की अमेरिकी अधिकारियों के साथ लंबी वार्ता चली है। जहां तक टैरिफ घटाने का सवाल है। ट्रंप पहले ही भारत को कटघरे में खड़ा कर चुके हैं। एक बात ध्यान देने की है कि ट्रंप के शपथ ग्रहण के तत्काल बाद भारत सरकार ने 2025-26 का बजट पेश किया है। जिसमें भारत ने अमेरिका को निर्यात होने वाले अनेकों सामानों पर टैरिफ 115-20% से घटकर 15 से 20%पर पहले ही ला दिया था। इससे ट्रंप संतुष्ट नहीं हैं। वह चाहते हैं कि भारत अब  जीरो प्रतिशत पर लाये।

मोदी की विदेश नीति का गुब्बारा फटा

मोदी की विदेश नीति निहायत ही व्यक्तिगत संबंधों पर केंद्रित होती है। जबकि औद्योगिक कॉर्पोरेट गठजोड़ कै एलार्गी के दौर में दो देशों के राजनीतिक संबंध शुद्ध रूप से आना पाई कौड़ी के आधार पर तय होते हैं। जिसमें व्यक्तिगत संबंधों का कोई महत्व नहीं होता। लेकिन मोदी अपनी कमजोरियों के कारण लाचार हैं। इसीलिए वह गले लगने पीठ थपथपाने या एलन मस्क जैसे शुद्ध कारोबारी के परिवार के साथ गपशप लगाने को ही महत्व देते हैं और इसे ही सफलता के बतौर प्रचारित कराते हैं।

हमारा राष्ट्र विरोधी मीडिया देश के हितों को नजरअंदाज कर मोदी स्टाइल राजनयिक पाखंड को ही ग्लैमराइज करने में लगा रहता है। जिससे भारत को कई मोर्चों पर भारी अलगाव और आर्थिक क्षति झेलनी पड़ रही है। अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप की आत्मा जिस तोते में बसती है। उसका नाम एलन मस्क है। मोदी जी ने एलन मस्क के परिवार के साथ पारिवारिक उत्सव मनाया। जो मोदी ब्रांड अंतरराष्ट्रीय कूटनीति की खासियत है। यह उस हीन ग्रंथि को प्रकट करती है जो मोदी के निर्माण प्रक्रिया और जीवन शैली का अंतर निहित गुण है। अयोग्य व्यक्ति जब अप्रत्याशित ऊंचाई पर पहुंच जाता है। वह इसी तरह के छिछली कार्रवाइयों से अपनी योग्यता का प्रदर्शन करता है। 

मोदी ने स्वयं स्वीकारा

अभी नागपुर में मोदी ने कहा कि उनके निर्माण में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का मुख्य योगदान है। आज जो कुछ भी वह हैं। उसे संघ की विचारधारा ने गढ़ा है। देश में आजादी के लिए चले संघर्ष से गद्दारी करने वाले एक राजनीतिक विचारधारा से संबद्ध किसी राजनेता के चरित्र में यह स्वाभाविक गुण होगा कि वह ताकतवर के समक्ष सर झुका ले और कमजोर को देख कर गुर्राने लगे। उपनिवेशवाद के सामने आरएसएस ने जिस तरह से समर्पण किया था। उसके अनुयायियों से और क्या उम्मीद की जा सकती है। आज भारत सरकार मोदी के नेतृत्व में अमेरिका के सामने उसी तरह से घुटने टेक रही है। जैसा ब्रिटिश सत्ता के सामने इनके वैचारिक पूर्वजों ने किया था।

विदेश नीति से विचलन 

भारत के विदेश नीति की दिशा‌ हर दौर में उत्पीड़ित जन गण और राष्ट्रों के साथ दृढ़ता से खड़ा होने की रही है। आज वह बदलकर अमेरिका इजरायल गठजोड़ का रणनीतिक अंग बन गई है। इसलिए मोदी सरकार घटनाओं के प्रत्येक मोड़ पर अमेरिका के समक्ष सिर झुका देती है। लेकिन मालदीव सहित भारत के पड़ोसी देशों के साथ बिग बॉस जैसा व्यवहार करती है। जिसका नफा नुकसान भारत को उठाना पड़ रहा है। मोदी सरकार से अमेरिकी दादागिरी के खिलाफ खड़ा होने की उम्मीद करना अपने आप को धोखा देना होगा। जिस समय हमारे प्रधानमंत्री अमेरिका से चलने वाले थे। ठीक उसी समय हमारे नौजवानों को अपराधियों की तरह  बेड़ियों-जंजीरों में जकड़ कर मानसिक शारीरिक यातना देते भारत पहुंचाया गया। वह हमारे राष्ट्रीय गौरव और स्वाभिमान के लिए एक शर्मनाक क्षण था।

 ‌गजब की बेकरारी 

मोदी जी ट्रंप के सत्तारोहण के समय से ही अमेरिका जाने के लिए बेताब दिख रहे थे। उनका ट्रंप से मिलकर दोस्ती का डंका पीटना व भारतीय ट्रम्फटो के दिमाग को संतुष्ट करने के लिए आवश्यक था। ट्रंप ने अपने शपथ ग्रहण समारोह में मोदी को निमंत्रण न देकर उनकी चिंता बढ़ा दी थी। संघी अंध भक्तों ने हवन, पूजन, यज्ञ और प्रार्थनाओं के द्वारा ट्रंप को जिताने के लिए कठोर मेहनत जो की थी। अंध भक्तों की मेहनत पर पानी फिरते देख मोदी अमेरिका पहुंचने के लिए परेशान थे।

खैर किसी तरह मोदी जी अमेरिका पहुंच गए और ट्रंप से उनकी मुलाकात भी हो गई। उनको सामने बैठाकर ही भारत द्वारा अमेरिकी आयात पर लगाए जाने वाले शुल्क को लेकर ट्रंप ने बहुत कुछ कह सुनाया और धमकी भरे लहजे में कहा कि आप तत्काल टैरिफ हटाइए। नहीं तो हम जैसे को तैसा व्यवहार करेंगे।(रेसीप्रोकल टैरिफ लगाने की धमकी दी।) ऐसी कोई जानकारी नहीं है कि मोदी जी ने उस समय कोई प्रतिवाद किया था‌ या नहीं। (वह जेलेंस्की नहीं हैं) अब तो ट्रंप ने भारत पर 26% टैरिफ ठोक दिया है। (हालांकि एक हफ्ता बाद 70 देश पर 3 महीने के लिए अतिरिक्त टैरिफ पर रोक लगा दी है)। 

भारत अमेरिका व्यापार वार्ता  

मार्च के आखिरी हफ्ते में उद्योग मंत्री ने अमेरिका की यात्रा की। जहां व्यापार समझौते को लेकर लंबी वार्ता चली। यात्रा बेकार गई और भारत द्वारा दी जा रही रियायतें भी काम न आ सकीं। जबकि अमेरिकी ई-कॉमर्स कम्पनियों पर लगने वाले 5% शुल्क को भारत ने  वापस ले लिया है। फिर भी ट्रंप का दिल पसीजने वाला नहीं है। वह अमेरिकी सामानों पर शून्य टैरिफ लगाने के लिए दबाव बना रहे हैं। इसीलिए उन्होंने भारत पर जोरदार टैरिफ ठोका था।

अब उद्योग मंत्री अमेरिका की निंदा करने की जगह चीन पर व्यापारिक धोखाधड़ी करने, नियमों का पालन न करने और अंतर्राष्ट्रीय व्यापारिक नैतिकता को ध्वस्त करने का आरोप लगा रहे हैं और अमेरिका द्वारा चीन पर लगाए जा रहे पागलपन भरे टैरिफ का समर्थन कर रहे हैं। जबकि यूरोपीय यूनियन सहित जापान दक्षिण कोरिया कनाडा मैक्सिको ऑस्ट्रेलिया तक ट्रंप के टैरिफ वार का विरोध कर रहे हैं। जिससे दुनिया की बाजार में हाहाकार मचा है। खुद अमेरिका मैं इसका भारी विरोध हो रहा है और अमेरिकी बाजार को‌ भी तीन ट्रिलियन से ज्यादा नुकसान हो चुका है।

दोस्ती का तकाजा 

विश्व कूटनीति में बराबर शक्तियों वालों में ही बराबरी के संबंध हो सकते हैं। भारत के उद्योग मंत्री ट्रंप के टैरिफ युद्ध के लिए चीन को दोषी ठहरा रहे हैं। कितनी शानदार स्वामि भक्ति है? इसके बाद भी मालिक और ज्यादा निचोड़ने के लिए बार-बार दबाव डाल रहा है। वित्त मंत्री अभी भी कह रहे हैं कि वार्ता चल रही है और सकारात्मक दिशा में आगे बढ़ रही है। शीघ्र ही टैरिफ के सवाल को हल कर लिया जाएगा। यानी ट्रंप शरणम गच्छामि की नीति ही अंततोगत्वा विजई होगी। वार्ता की दिशा से स्पष्ट दिखाई दे रहा है कि मोदी सरकार ट्रंप के समक्ष घुटने टेकने ही वाली है।

भारत के ट्रम्फटो का नजरिया

अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप ने व्हाइट हाउस में एक प्रेस वार्ता के दौरान यूक्रेनी राष्ट्रपति जेलेंस्की के साथ जो व्यवहार किया और जेलेंस्की ने जिस तरह से प्रतिवाद किया। इसको बच्चों की हठधर्मिता करार देते हु‌ए एक विद्वान लेखक का दिलचस्प लेख पढ़ा। अरविंद जयतिलक नामक स्तंभ कार ने जेलेंस्की को सलाह देते हुए लिखा कि अगर आपकी गर्दन किसी के पैर के नीचे दबी हो तो उस समय समझदारी का काम होगा कि आप पैर को सहलाए। जिससे पैर का दबाव कम हो जाये। मुझे लगता है कि उन्हें एक भी सलाह और देनी चाहिए थी  कि सहलाने के साथ साथ मौका मिलते ही उस जालिम के पैर को चाटना शुरू कर देना‌ चाहिए।

कितनी शानदार और व्यवहारिक सलाह है। शायद भारत सरकार  इस सलाह से सीख लेकर ही आगे की योजना पर अमल कर रही हो। बाद में एक लेख में जय तिलक जी के विचार प्रक्रिया का खुलासा हो गया। यह वही विचार है जो स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान अंग्रेजों की सेवा में लगा था। भगत सिंह जैसे क्रांतिकारियों को बहादुर तो मानता था। लेकिन उन्हें अदूरदर्शी कहता  था और उनकी शहादत को अति उत्साह में दी गई व्यर्थ कुर्बानी के तौर पर देखता था। 100 साल से संघ परिवार इस विचार पर आज भी दृढ़ता से अमल कर रहा है।

हानिकारक दृष्टिकोण-जिस कारण इस परिवार के लोग अमेरिका और इजरायली गठजोड़ के समक्ष इस तरह से आत्मसमर्पण कर देते हैं कि भारत के हितों को भारी क्षति पहुंचती है और वैश्विक पटल पर भारत की लोकतांत्रिक क्रेडेंशियल को भारी धक्का लगता हैं। अमेरिका जिस तरह से बात-बात पर हमारे देश को अपमानित कर रहा है। हमारे नागरिकों को बेड़ियों हथकड़ियां में जकड़ कर सैन्य विमान से लाकर हमारे हवाई अड्डों पर पटक दिया है। उस धृष्टता पूर्ण कार्रवाई पर मोदी सरकार की खामोशी जय तिलक जी के विचारों का ही प्रतिनिधित्व करती है। जबकि दुनिया के छोटे से छोटे देश अमेरिकी दादागिरी के खिलाफ प्रतिवाद में उठ खड़े हुए हैं। इसी संघी दूर दृष्टि से संपन्न मोदी आज तक अमेरिका के खिलाफ एक शब्द भी नहीं बोल रहे हैं। जब कि हमारे मंत्री गण इस घटना को लेकर प्रवासी मजदूरों को ही कानून तोड़ने का मुजरिम ठहरा रहे हैं।

समर्पण

हमारे प्रधानमंत्री जी श्री जय तिलक की सलाह पर अमल करते हुए आयात शुल्क हटाए जा रहे हैं। वे अमेरिका को खुश करने का कोई मौका गंवाने के लिए तैयार नहीं हैं। अमेरिकी धमकी मिलते ही धड़ा धड़ टैरिफ हटाए जाने लगे। विभिन्न कारणों से भारतीय छात्रों को अमेरिका से निकाला जा रहा है। फिलिस्तीन पर इजरायली हमले का प्रतिवाद करने के कारण दो भारतीय छात्रों (जिसमें एक लड़की भी है) उसे विश्वविद्यालय से निकाल दिया गया और भारत भेज दिया गया है। लेकिन भारत सरकार एक भी शब्द बोलने के लिए तैयार नहीं है। 2 दिन पहले वीजा के नियमों में बदलाव से लाखों भारतीय छात्रों पर गंभीर असर पढ़ने जा रहा है। जो लाखों रुपये का कर्ज लेकर उच्च शिक्षा के लिए अमेरिका गए थे कि शिक्षा ग्रहण करने के बाद कम से कम 2 साल वहां देकर कर्ज मुक्त हो जाएंगे। लेकिन भारत सरकार का लाखों छात्रों पर आने वाले ‌संकट को लेकर आधिकारिक बयान तक नहीं आया है। 

आश्चर्य 

इसके बाद भी वाणिज्य मंत्री दो कदम आगे जाकर अमेरिका को सही ठहराते हुए उन देशों का लानत मलानत करने में जुट गए हैं। जो ट्रंप की धौंस-धमकी और दादागिरी के खिलाफ सीना तानकर खड़े हैं।भला हो कि दुनिया में कनाडा मैक्सिको कोलंबिया यूरोपीय यूनियन और एशिया के अधिकांश देशों का कि उन्होंने जय तिलक जी की सलाह पर अमल नहीं किया। चीन ने तो यहां तक कह दिया है कि हम वह देश नहीं हैं जिन्हें दुनिया का कोई देश झुका या डराकर ब्लैकमेल कर सके। भाजपा की सरकार के पूर्व विदेश मंत्री जसवंत सिन्हा कह रहे हैं कि ट्रंप के हाथ में मोदी की कोई कमजोर नस पकड़ में आ गई है। जिसे दबा-दबा कर वह भारत को और ज्यादा झुकाना चाहता है। ट्रंप की योजना भारतीय कृषि व मैन्युफैक्चरिंग के साथ अर्थव्यवस्था और बाजार पर कब्जा करने की।

हिंदू उदारवाद के खिलाफ राष्ट्रवाद की नई लहर 

इस समय पूरी दुनिया में ट्रंप के धौंस धमकी और एक तरफ टैरिफ लगाने के खिलाफ नये तरह के राष्ट्रीय उभार का माहौल है। 20वीं सदी के मध्य में जिस तरह से उपनिवेशवाद के खिलाफ राष्ट्रवादी  उभार देखे गए थे। 1990- 91 में सोवियत संघ के विघटन के बाद अमेरिका के नेतृत्व में आईएमएफ और विश्व व्यापार संगठन के दबाव में थोपे गए उदारीकरण के बाद विश्व को एक बाजार में बदलने की साम्राज्यवादी परियोजना लागू की गई थी। अब ट्रंप के संरक्षणवाद से उदारीकरण औंधे मुंह धाराशायी हो गया है। अमेरिका की दादागिरी ने नव औपनिवेशवाद के खिलाफ राष्ट्रीय जागरण का भौतिक आधार तैयार कर दिया है। शायद विश्व में हो रहे इस नवजागरण से दुनिया में एक नए तरह का इतिहास रच जाए। जैसा अभी तक शायद ना देखा गया हो।

भारत के लिए सबक

लेकिन हम भारत में समर्पणवादी और सांप्रदायिक राष्ट्रवाद से किसी तरह की उम्मीद नहीं करते कि वह अमेरिकी साम्राज्यवाद के खिलाफ राष्ट्रीय जागरण की अगुवाई कर सकेगा। उसकी आंतरिक वैचारिक संरचना में साम्राज्यवाद विरोधी राष्ट्रवाद का कोई भी तत्व मौजूद नहीं है। इसलिए वह अमेरिकी साम्राज्यवाद का मुकाबला करने की जगह  समर्पण वादी नीति पर ही चलेगा। अतः भारत के नागरिकों को ही एक बार पु‌न: स्वतंत्र सार्वभौमिक गणतंत्र का झंडा बुलंद करना होगा। अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप द्वारा भारत सहित दुनिया भर के 180 देशों के खिलाफ छेड़े गए टैरिफ युद्ध के बाद उठ रहे वैचारिक तूफान में इसके लक्षण स्पष्ट दिखाई दे रहे हैं।

(जयप्रकाश नारायण किसान नेता और राजनीतिक कार्यकर्ता हैं।)

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