यह कहने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि भारत का समाजवादी आंदोलन कार्ल मार्क्स के चिंतन और अंतरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट आंदोलन से प्रभावित रहा है। लेकिन उसने मार्क्सवाद के क्रांति के विचार की सैद्धांतिक कमजोरियों और कम्युनिस्ट आंदोलन की साजिशों और तानाशाहियों से बाहर निकल कर महात्मा गांधी के शिल्प में समाजवाद को ढालने की कोशिश की।
डॉ राममनोहर लोहिया ने थोड़ा और आगे बढ़कर इसमें डॉ भीमराव आंबेडकर के जाति विनाश के शिल्प को भी शामिल करने की कोशिश की। समाजवादी चिंतकों में आचार्य नरेंद्र देव महात्मा गांधी के राष्ट्रीय आंदोलन के नेतृत्व और महत्त्व को स्वीकार करते हुए मार्क्सवाद की आवश्यकता पर डटे रहे तो जयप्रकाश नारायण जहां गांधी के सर्वोदय के सिद्धांत की ओर गए वहीं डॉ लोहिया अपनी सप्त क्रांति और चौखंभा राज्य के माध्यम से वैश्विक लोकतंत्र का नया शास्त्र गढ़ते रहे।
अगर भारत के तीन प्रमुख समाजवादी चिंतकों और राजनेताओं के विचारों का सार प्रस्तुत करना हो तो यही कहा जा सकता है कि वे समाजवाद के अंतरराष्ट्रीय सिद्धांत और संरचना को भारत की दृष्टि से एक नया आकार देने में लगे थे। यह एक श्रेष्ठ लोकतंत्र का आकार है जिसमें समाजवाद समाहित है। इन चिंतकों ने अपने चिंतन और जीवन से यह सिद्ध कर दिया था कि जिस तरह से पूंजीवाद और साम्राज्यवाद का चोली दामन का साथ है वैसे ही समाजवाद और लोकतंत्र एक दूसरे के जुड़वा भाई-बहन हैं। सच्चा लोकतंत्र समाजवाद के बिना कायम नहीं हो सकता और सच्चा समाजवाद लोकतंत्र के बिना पंगु है।
इस बारे में सन 1949 में पटना में सोशलिस्ट पार्टी के अधिवेशन में सभापति के पद से दिया गया आचार्य नरेंद्र देव का भाषण उल्लेखनीय है। वे कहते हैः- प्रचलित भ्रांत धारणाओं में एक धारणा यह भी है कि समाजवाद प्रजातंत्र के विरुद्ध है। इस धारणा का उन्मूलन होना चाहिए। मार्क्स एक महान मानवतावादी था। व्यक्ति स्वातंत्र्य के लिए उसका आग्रह उल्लेखनीय है। उसका विश्वास था कि इतिहास की एक दिशा है और उसके अनुसार इस युग में क्रांतिकारी सर्वहारा ही मानव समाज का प्रतिनिधि है। उसने पूंजीवाद को एक अनुचित सामाजिक व्यवस्था बताया था क्योंकि मुनाफे की लिप्सा में यह व्यक्तिवाद और अहमन्यता को जन्म देता है।
पूंजीवादी व्यवस्था के अंतर्गत श्रमिक वर्ग अपनी श्रमशक्ति को दूसरी अन्य वस्तुओं की तरह बेचने को बाध्य होता है और अपने मानव तत्व से च्युत हो जाता है। इस कार्य को उसने पुनः मानव स्वरूप में प्रतिष्ठित करना चाहा था। इस कार्य के लिए मुनाफे की प्रवृत्ति और प्रतिद्वंद्विता पर आश्रित पूंजीवादी व्यवस्था के स्थान पर एक मार्क्सवादी व्यवस्था की स्थापना करनी होगी, जिसमें मुनाफे की लिप्सा के स्थान पर एकता और सहयोग की भावना का विकास हो। मार्क्स के शब्दों में सर्वहारा की मुक्ति में ही मानव समाज की मुक्ति सन्निहित है,क्योंकि समाज के समस्त उत्पीड़न सर्वहारा वर्ग में ही केंद्रित हैं।
रोजा लक्जमबर्ग के शब्दों में समाजवाद केवल रोटी की समस्या नहीं है प्रत्युत एक विश्वव्यापी सांस्कृतिक आंदोलन है। अधिनायकतंत्र आतंक पैदा करता है और मनुष्य को राज्य की मशीन का एक पुर्जा मात्र बना देता है। वह मनुष्य के गौरव को नष्ट कर देता है और व्यक्तित्व के विकास का अवसर नहीं देता। यह एक नए ढंग के आतंक और दासता को जन्म देता है जिसमें नागरिक की कोई इच्छा नहीं होती और राज्य का एक पुर्जा मात्र होता है। अवश्य ही समाजवाद जो कि सामान्यजन की स्वतंत्रता का हामी है सरकार के इस स्वरूप की स्वीकृति नहीं दे सकता।
बल्कि आचार्य नरेंद्र देव इस बात पर आश्चर्य जताते हैं कि द्वितीय महायुद्ध जो कि राजनीतिक प्रजातंत्र और फासीवाद के बीच लड़ा गया उसकी समाप्ति के बाद कम्युनिस्ट पार्टियां और उनकी प्रणाली अधिनायकवादी तंत्र के माध्यम से जनता के जीवन पर पूर्ण नियंत्रण रखना चाहते हैं। इसीलिए वे इस व्याख्यान में इस नतीजे पर पहुंचते हैं कि वास्तव में रूसी नेताओं को राजनीतिक लोकतंत्र से कोई प्रेम नहीं था।
हालांकि आचार्य नरेंद्र कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी को राजनीतिक दिशा देने के मामले में रूस की बोल्शेविक क्रांति के नेता लेनिन का उल्लेख करते हैं। एक स्थान पर वे कहते हैं कि लेनिन ने कहा था कि सामाजिक मुक्ति तब तक नहीं हो सकती जब तक राजनीतिक मुक्ति की लड़ाई जीती न जा सके। इसीलिए कांग्रेस में पूंजीपतियों और जमींदार वर्ग के तमाम समर्थक होने के बावजूद वे कांग्रेस के उपनिवेशवाद विरोधी आंदोलन के समर्थन में खड़े थे। यही वजह थी कि उन्हें गांधी के नेतृत्व को स्वीकार करने में कोई दिक्कत नहीं हुई। वह दिक्कत जो सोवियत संघ और चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के निर्देश पर चलने वाले भारत के तमाम कम्युनिस्ट नेताओं को होती थी और वे गांधी को पूंजीपतियों का दलाल कहते थे।
भारतीय समाजवादियों की सबसे बड़ी विशेषता यह है उन्होंने निजी संपत्ति के परित्याग को एक महान गुण के रूप में स्वीकार किया है। इसे वे मार्क्स के विचार का केंद्रीय तत्व मानते हैं। इसे वे गांधी के विचार का केंद्रीय तत्व मानते हैं। इसी विचार को डॉ भीमराव आंबेडकर बुद्ध के विचार का केंद्रीय तत्व मानते हैं। बस असली सवाल यही है कि इस निजी संपत्ति का परित्याग कैसे किया जाए। इसे हिंसा के माध्यम से छीन लिया जाए, इसे राज्य की शक्ति के बल पर ले लिया जाए या इसे सहज मानस परिवर्तन के आधार पर परित्याग करवाया जाए।
निजी संपत्ति के इसी परित्याग के लिए जहां आचार्य नरेंद्र देव पूरी तरह अहिंसा के सिद्धांत में यकीन नहीं करते और महात्मा गांधी के एक सवाल के जवाब में कहते भी हैं कि इसके लिए एक हद तक बल प्रयोग आवश्यक हो जाएगा। डॉ राम मनोहर लोहिया गांधी के सत्याग्रह पर बल देते हैं और गांधी के ट्रस्टीशिप के विचार की ओर संकेत करते हैं तो जयप्रकाश नारायण अहिंसक वर्ग संघर्ष की बात करते हैं। इसी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए डॉ आंबेडकर बुद्ध के धार्मिक दर्शन को राजनीतिक दर्शन में परिवर्तित करना चाहते हैं। वे दावा भी करते हैं कि जो विचार कार्ल मार्क्स ने उन्नीसवीं सदी में व्यक्त किया और उसकी प्राप्ति के लिए बल प्रयोग को अनिवार्य बताया उसे बुद्ध ने 2500 साल पहले अहिंसक तरीके से प्राप्त किया था।
आमतौर पर मार्क्स के विरोधी समझे जाने वाले डॉ लोहिया वास्तव में कम्युनिस्ट पार्टियों की रणनीतियों के आलोचक हैं। वे मार्क्स के समीक्षक हैं। उनके विचारों की कमियों की ओर संकेत करते हैं और इशारा करते हैं कम्युनिस्ट पार्टियों के झूठ, हिंसा, साजिश और छल कपट की ओर। गांधी के युग में जीने वाले डॉ लोहिया इस बात को स्वीकार नहीं कर पाते कि झूठ के माध्यम भला कैसे अच्छे समाज का निर्माण किया जा सकता है।
लेकिन मार्क्स की प्रशंसा में कहे गए लोहिया के शब्दों की अनदेखी नहीं की जा सकती। वे कहते हैः-
मैं यहां बता देना चाहता हूं कि मार्क्स की किस बात ने मुझे आकर्षित किया है। युवावस्था में उसकी कुछ बातों पर मैं मोहित रहा हूंगा लेकिन आज जिस एक चीज ने मुझे मोहित किया है वह है संपत्ति के मोह का त्याग। जिस किसी ने इस विचारधारा का ठीक से अध्ययन किया और इसे ठीक से अपनाया उसके मन से संपत्ति का मोह दूर होगा। यह एक बहुत आकर्षक पहलू है जो धार्मिक व्यक्ति को भी आकर्षित करता है। इसे अपरिग्रह या वैराग्य के क्षेत्र का अभ्यास भी कह जा सकता है। संभव है मार्क्सवाद में गहरी आस्था रखने वाला व्यक्ति अन्य क्षेत्रों में शैतान हो, वह धोखेबाज हो सकता है, वह झूठ बोल सकता है, हत्या भी कर सकता है, फूहड़ आचरण वाला ही हो सकता है, पाखंडी हो सकता है। लेकिन निजी संपत्ति का मोह उसमें नहीं होगा। मार्क्सवाद ने हमें धन से नफरत करना सिखाया। खासकर उससे जो दूसरों को नौकर बनाए। मैं इतिहास की पृष्ठभूमि में इसे सबसे बड़ी उपलब्धि कहूंगा क्योंकि उसने आदमी को बिना किसी आत्मानुशासन या मनःस्थिति की साधना के संपत्ति के मोह से मुक्त कर दिया। मार्क्सवाद नचिकेता है जो सहज भाव से स्वर्ण का तिरस्कार करता है।
यहीं पर डॉ लोहिया गांधी के शिल्प में समाजवाद को ढालने की कोशिश करते हैं। उनका मानना है कि ऋषि पर्यावरण पर अधिक जोर देता है जबकि संत व्यक्ति पर। वे कहते हैः-संभव है गांधी ने व्यक्ति पर अधिक जोर दिया और पर्यावरण पर कम जोर दिया। लेकिन यह भी समझ लेना चाहिए कि समाजवाद ने पर्यावरण पर अधिक जोर दिया है और व्यक्ति पर जरूरत से कम। यदि विचार की तर्कप्रणाली बनानी हो तो दोनों पर समान रूप से जोर देना होगा। क्योंकि आदमी साधन भी है और साध्य भी। आदमी अगर शास्वत गुणों का प्रतिपादन करता है तो उसे परिवर्तन का औजार भी बनना चाहिए। निष्कर्ष के रूप में कहूंगा कि आज ऋषि और संत को एक करने की आवश्यकता है।
डॉ लोहिया के चिंतन की विशेषता यह है कि वे गांधी के विशिष्ट चिंतन प्रणाली को विश्व के लिए उतना कारगर नहीं मानते जितना कि समाजवाद को। लेकिन गांधी के सत्याग्रह और सिविल नाफरमानी के अद्वितीय हथियार रूपी चाक और डंडे से समाजवाद का नया रूप गढ़ना चाहते हैं।
समाजवादी आंदोलन और उसके भारतीय पुरोधा अगर निजी संपत्ति के त्याग पर जोर देते रहे तो वे हमेशा इस बात के लिए भी सतर्क रहे कि लोकतंत्र की आत्मा यानी नागरिक अधिकारों की हिफाजत हर हाल में की जानी चाहिए। अगर जयप्रकाश नारायण ने अप्रैल 1974 में सिटीजन फार डेमोक्रेसी का गठन किया तो 1976 में पीपुल्स यूनियन फार सिविल लिबरटीज एंड डेमोक्रेटिक(PUCLDR) का गठन किया। जेपी के निधन के बाद यह संगठन बिखर गया और 1980 में इस संगठन का नाम पीयूसीएल कर दिया गया।
अगर जेपी ने स्वतंत्र भारत में नागरिक अधिकारों की हिफाजत के लिए संगठन बनाया तो डॉ राममनोहर लोहिया ने पंडित जवाहर लाल नेहरू की प्रेरणा से ब्रिटिश शासन में इंडियन यूनियन फार सिविल लिबरटीज नामक संगठन बनाया। उन्हीं की प्रेरणा से डॉ लोहिया ने नागरिक स्वतंत्रता नामक पुस्तिका भी लिखी। उस समय वे कांग्रेस के विदेश विभाग के सचिव थे। इसकी भूमिका नेहरू जी ने लिखी थी। मूलतः अंग्रेजी में लिखी गई इस पुस्तिका का शीर्षक था-द स्ट्रगल फार सिविल लिबरटीज।
फ्रांसीसी क्रांति से प्रेरित इस पुस्तिका में कहा गया है कि राज्य का दायित्व मनुष्य के प्राकृतिक अधिकारों की हिफाजत करना है। इसमें व्यक्तिगत सुरक्षा का अधिकार, संपत्ति का अधिकार और दमन और अत्याचार के प्रतिकार का अधिकार शामिल है। पुस्तिका में अभिव्यक्ति के अधिकार संबंधी एक अमेरिकी उक्ति का हवाला दिया गया हैः-
अगर आदमी विद्रोह की प्रकट कार्रवाई न करे तो क्रांतिकारी से क्रांतिकारी अभिमत व्यक्त करने पर कोई सजा नहीं दी जा सकती। इसी तरह सभा जुलूसों के बारे में एक ब्रिटिश सिद्धांत सर्वमान्य है कि अगर ट्रैफिक में बहुत अधिक बाधा न पड़े तो पुलिस या प्रशासकीय अधिकारी सभा और जुलूस को रोकने की कार्रवाई नहीं नहीं कर सकते। इन सिद्धांतों का मतलब राजद्रोह के कानूनों का खात्मा और प्रेस पुस्तकों, चिट्ठियों और रेडियो का सेंसरशिप का न होना है।
अंत में डॉ लोहिया इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि “ नागरिक स्वतंत्रता की रक्षा के लिए सभी प्रकार की खाइयां खोदनी चाहिए और किले बनाने चाहिए। नागरिक स्वतंत्रता के लिए किया जाने वाला आंदोलन ही एक खाई और किला है। हो सकता है कि आंदोलन से सिर्फ जनमत ही मजबूत हो लेकिन यह भी संभव है कि राज्य को झुकना पड़े।”
यह पुस्तिका 1976 में जब फिर से प्रकाशित हुई तो इसकी भूमिका कालापानी की सजा पाए और समाजवादी विचारों से प्रेरित दिनेश दास गुप्ता ने लिखी। उन्होंने अपनी भूमिका में फिर से यह स्पष्ट कर दिया कि समाजवाद और लोकतंत्र किस प्रकार एक दूसरे से अभिन्न हैं। वे लिखते हैः-
सच्चे लोकतांत्रिक समाजवादियों का यह मत है कि आर्थिक और सामाजिक लोकतंत्र के बिना राजनीतिक लोकतंत्र और राजनीतिक लोकतंत्र के बिना सामाजिक लोकतंत्र एक व्यक्ति या एक पार्टी की तानाशाही बन कर रह जाता है। इसका मजाक उड़ाते हुए कम्युनिस्ट कहा करते थे कि भूखे पेट से लोकतंत्र का कोई वास्ता नहीं है। लेकिन आज कम्युनिस्ट भी यह कहने पर मजबूर हुए हैं कि लोकतांत्रिक अधिकार न रहने पर किसान मजदूर, छात्र, मध्यवर्ग और साधारण जनता के पेट की लड़ाई चलाई नहीं जा सकती।”
जेपी का समाजवाद और लोकतंत्रः-
1974 के जिस महान आंदोलन से आजकल कुछ निहित स्वार्थ के बौद्धिक बेचैन हैं और जिसे बदनाम करने के लिए जेपी को बुरा भला कह रहे हैं वे उसके सैद्धांतिक पक्ष में झांकने के लिए तैयार नहीं हैं। वे उस लोकतांत्रिक आंदोलन से कमजोर हुई कांग्रेस के प्रति इतने मोहग्रस्त हैं कि आपातकाल तक को सही साबित करने में लग गए हैं। सवाल उठता है कि अगर इंदिरा गांधी का आपातकाल सही था तो आज नरेंद्र मोदी का अघोषित आपातकाल क्यों बुरा है। अगर सारी लोकतांत्रिक संस्थाओं को कार्यपालिका के अधीन ही काम करना चाहिए और नागरिकों को डंडे के जोर से हांका जाना चाहिए तो फिर मौजूदा सरकार तो आदर्श है। आज जिन्हें भी लोकतंत्र के सिकुड़ते दायरे को विस्तार देने की जरूरत महसूस होती है उन सभी की निगाह 1974 के जेपी आंदोलन की ओर जाती है। न कि इंदिरा गांधी की तानाशाही की ओर।
जेपी ने अहिंसक वर्ग संघर्ष का समर्थन किया था। जेपी किसी भी प्रकार से हिंसा के समर्थक नहीं थे। उनका कहना था कि जो भी क्रांतियां हिंसा के माध्यम से होती हैं वे अपने लक्ष्य को हासिल नहीं करतीं। उन पर हिंसा करने वाला एक खास समूह हावी हो जाता है और वह महान लक्ष्यों को दरकिनार कर देता है। इसीलिए उनका कहना था कि समाजवाद तीन प्रकार के होते हैः-
एक वह जो हिंसा के माध्यम से आए। उसे तामसी समाजवाद कहते हैं। दूसरा वह जो राज्य के माध्यम से आए उसे राजसी समाजवाद कहते हैं। तीसरा वह जो जनशक्ति के माध्यम से आए, उसे सात्विक समाजवाद कहते हैं। वे सात्विक समाजवाद के हिमायती थे। यहां जेपी भी समाजवाद को गांधी के शिल्प में ढाल रहे थे। गांधी की तरह उनका यकीन हो चला था कि राज्य की शक्ति को कम किए बिना न तो सच्चा लोकतंत्र कायम हो सकता है और न ही सच्चा समाजवाद। जो लोग जेपी की व्याख्या करते हुए यह कहते हैं कि जेपी राज्य की शक्ति और जनता की शक्ति में संतुलन कायम करना चाहते हैं वे न तो जेपी और गांधी को समझते हैं और न ही संपूर्ण क्रांति और सर्वोदय के विचार को। जेपी वास्तव में सच्ची जनशक्ति को जगाकर राज्य की शक्ति को क्षीण करना चाहते। उनके लिए वही सच्चा समाजवाद था वही सच्चा लोकतंत्र था और वही सर्वोदय था और वही संपूर्ण क्रांति थी। क्योंकि जेपी गांधी की तरह मान चुके थे कि राज्य की शक्ति हिंसक है और उसे तभी अहिंसक बनाया जा सकता है जब जनशक्ति बलशाली हो।
इसलिए यह कहना किसी भी तरह से अतिश्योक्ति नहीं है कि समाजवादियों ने गांधी से सहमत असहमत होते हुए, गांधी विचार को नई प्रणाली में ढालने की कोशिश करते हुए दरअसल समाजवाद के विचार को गांधी के शिल्प में ढाल दिया। इसलिए भारत के समाजवादी आंदोलन ने समाजवाद को सत्य, अहिंसा, समता, स्वतंत्रता, बंधुत्व और न्याय जैसे मूल्यों से अनुप्राणित किया जो कि वह विश्व इतिहास में उनका अद्वितीय योगदान है।
(अरुण कुमार त्रिपाठी वरिष्ठ पत्रकार हैं औऱ दिल्ली में रहते हैं)
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