कार्ल मार्क्स : मार्क्सवादी चिंतन में जाति,धर्म,वर्ग का प्रश्न, बदलाव और उसकी चुनौतियां

कार्ल मार्क्स पर बात हम एक सवाल से शुरू करते हैं। कार्ल मार्क्स की वह कौन सी प्रस्थापनाएं हैं जो उन्हें उनके पूर्ववर्ती
चिंतकों, विचारकों, दार्शनिकों से अलग करती है? मेरा जबाब उनकी राज्य संबंधी अवधारणा में है। कार्ल मार्क्स के पहले के
चिंतक राज्य को अभिजातवर्ग के नजरिये और उससे जुड़ी संरचना, कार्यप्रणाली संबंधी समस्याओं पर टिकी हुई है। वे राज्य
को अभिजात वर्ग का अभिन्न, अनिवार्य हिस्से की तरह देखते हैं। और, उसकी अनिवार्यता को ईश्वर के समकक्ष लाकर खड़ा
कर देते हैं। राज्य, शासक और ईश्वर एक दूसरे के पूरक बनकर पवित्र आदेश और आकार में ढल जाते हैं।

कार्ल मार्क्स राज्य की अवधारणा को एक ऐतिहासिक समस्या और उसके निवारण के नजरिये में बदल देते हैं। वह राज्य को
सर्वहारा के नजरिये से देखते हैं और राज्य को इसके हाथ एक ऐसे साधन की तरह व्याख्यायित करते हैं, जिसमें राज्य की
अनिवार्यता, कथित पवित्रता खत्म हो जाती है और इसके ऐतिहासिक विकास यात्रा में इसके खत्म होने की घोषणा करते हैं।
वह राज्य की अभिजात्यता, ईश्वर की समकक्षता और आदेशों की पवित्रता के सारे आवरण को उतार देते हैं और इसकी घोर
तानाशाही के पीछे खड़ी वर्ग-हितों को सामने ले आते हैं। वह मनुष्य के विकास में आज के दौर में इसे एक ऐसी बुराई बताते हैं
जिसे सर्वहारा की तानाशाही वाले राज्य के गठन और उसके प्रयासों से इसे खत्म करने को अनिवार्य बताते हैं। कार्ल मार्क्स
अपने पूर्ववर्तियों की राज्य की अवधारणा की सैद्धांतिकी को आमूल बदलते हैं। इसीलिए मार्क्सवाद राज्य के संबंध में आज
भी एक ऐसी क्रांतिकारी विचारधारा है जिससे पूंजीवादी राज्य सबसे अधिक खौफ खाता है।

कार्ल मार्क्स राज्य के विकास संबंधी अवधारणा को पेश करते हुए वह बेहद विस्तार से पूंजी पर आधारित राज्य, उसकी
कार्यवाहियों और उसकी संस्थाओं का विश्लेषण पेश करते हैं और इस सबके केंद्र पूंजी और श्रम के बीच के संबंधों में अंनिर्हित
अंतर्विरोधों को सामने लाते हैं। वह श्रम की गरिमा को उसके ऐतिहासिक क्षणों के साथ जोड़ते हुए उसे आगामी साम्यवादी
समाज का आधार घोषित करते हैं जिस पर गुलामी की सारे बंधनों से मुक्त मानव समाज का निर्मित होगा।

राज्य के संदर्भ में यूरोप के राष्ट्र-राज्यों के बारे में लिखने के दौरान ही कुछ रचनाएं, टिप्पणियां उन्होंने एशियाई देशों पर
लिखा। पूंजी के तीसरे हिस्से में एशियाई उत्पादन पद्धतियों, खासकर कृषि आधारित उत्पादन प्रणालियों पर उनकी रचनाएं
उपनिवेशवाद और राष्ट्र-राज्यों की समस्याओं को रेखांकित किया। भारत के संदर्भ में उनकी रचनाएं मुख्यतः द्वितीयक स्रोतों
पर निर्भर थीं। उनके इस रचना संसार का केंद्रीभूत सवाल राज्यों के ऊपर काबिज अभिजात चरित्र को सामने लाना था, और
साथ ही उस दमित समुदाय और सर्वहारा वर्ग को रेखांकित करना था जो राज्य को साम्यवादी समाज में बदलने की
क्रांतिकारी भूमिका निभा सके।

आज बहुत आसानी से यह कहा जा सकता है कि विश्व-पूंजी ने अपना चरित्र बदल लिया है, और एशियाई राज्य अब मार्क्स के
समय की उत्पादन पद्धतियों में काम नहीं कर रहे हैं, यहां तक कि यहां के राज्यों का चरित्र औनिवेशिक नहीं रहा, आज वे
स्वतंत्र हैं। ऐसे में मार्क्स की प्रासंगिकता ठीक वही नहीं है जो शुरूआती पूंजीवाद दौर में थी। इन्हीं तर्कों के आधार पर लेनिन
को भी खारिज करने वालों की संख्या काफी है।

स्टालिन को नकारने का कारण कुछ और है। यह कार्ल मार्क्स की राज्य संबंधी अवधारणा पर ही सीधा हमला की तरह आया,
लेकिन इसे गढ़ा गया स्टालिन पर हमले की शक्ल में। फासीवाद का जन्म स्टालिन के समय में हुआ। स्टालिन के नेतृत्व में न
सिर्फ फासीवाद की विचारधारा को सूत्रबद्ध किया गया, उसे हराने के लिए उस समय के सोवियत रूस ने हर तरह की
जोखिम को उठाया और उसे परास्त किया। स्टालिन के इस हासिल को खारिज करने के लिए सबसे पहले फासीवाद बराबर
तानाशाही का सिद्धांत लाया गया और सोवियत रूस में सर्वहारा की तानाशाही बराबर स्टालिन की तानाशाही का सूत्र पेश किया गया।

इसके बाद तानाशाही बराबर तानाशाही का राजनीतिक सिद्धांत को स्टालिन को खारिज करने में लगा दिया गया। अमेरिकी नेतृत्व में स्टालिन पर किया गया हमला मूलतः मार्क्स पर हमला था और यह इतना खतरनाक था कि इसका असर कम्युनिस्ट पार्टियों में उसकी सैद्धांतिकी में दिखने लगा। इस संदर्भ में ‘महान बहस’ को पढ़ना जरूरी है जिसमें बहस का मुख्य केंद्र मार्क्स की समझदारी ही है।

लेकिन, इस सबका असर इतना जरूर हुआ कि दुनिया ऐसी पार्टियों और चिंतकों की भरमार हो गई जिन्होंने न सिर्फ
स्टालिन को खारिज कर दिया, उन्होंने कार्ल मार्क्स की राज्य संबंधी अवधारणा को ही संशोधित कर दिया। राजनीतिक
भाषा में यह दिखने में संशोधन था लेकिन दार्शनिक अवस्थिति में ये मार्क्स को नकार चुके थे और व्यवहार में पूंजी के
नेतृत्व वाले अभिजात समूहों वाले राज्य की अवधारणा का हिस्सा बन गये थे। जिनका पतन हम 1990 के दशक में हमने
देखा है।

दरअसल ये पार्टियां प्रासंगिकता के संदर्भ में ही नहीं, कार्ल मार्क्स की चिंतन पद्धति और राज्य की अवधारणा को ही नकार
दिया। लोकतंत्र बनाम तानाशाही को इस तरह पेश किया जाने लगा मानों राज्य की आत्मा लोकतंत्र में ही निहित है। जबकि
हम जानते हैं कि राज्य और लोकतंत्र के बीच के फासलों में पूंजी का एक विशाल साम्राज्य होता है, लोकतंत्र उनकी जरूरतों
के साथ ही चलता है। आज के समय में भी राज्य और लोकतंत्र के बीच पूंजी और जन के बीच हासिल अधिकारों को मापना है
तो उनके हितों के संदर्भ में लिये गये निर्णयों को गणितीय तरीके से गिनकर भी लोकतंत्र की हकीकत को समझा जा सकता है।
राज्य की प्रणालियों को राज्य के चरित्र की तरह पेश करना या तो घोर अवसरवाद है या राजनीति की नासमझी का प्रदर्शन
है।

दरअसल लोकतंत्र और तानाशाही का यह जो खेल 1960-70 के दशक में शुरू हुआ उसने राजनीतिक सिद्धांतों को भी नये
सिरे से गढ़ने का नया सिलसिला दे दिया। उसने मार्क्स के दरवाजों को बंद कर राजनीति-शास्त्र और दार्शनिक चिंतन में
कई सारे ऐसे दरवाजे खोल दिये जिसमें लोकतंत्र से आगे जाने की रोमांचक उड़ान थी। जब हम यहां मार्क्स का दरवाजा
बंद करने की बात लिख रहा हूं, तो यह महज रूपक नहीं है। इस काम को अमेरिका और यूरोप में पूरी तानाशाही के साथ
किया गया और मार्क्सवादी चिंतकों को जेल में डाला गया। अपने देश में उन्हें प्रतिबंधित किया गया और उन पर सैन्य
कार्रवाईयां हुईं।

जिस समय चिंतनपद्धतियों और वादों का एक पूरा खेल का मैदान बनाया जा रहा था उस समय अमेरिका बनाम रूस की दो-
ध्रुवीय दुनिया को भी गढ़ा गया। मार्क्सवाद की मूल प्रस्थापनाओं को आंख से ओझल कर इनको पढ़ना या इन्हें युद्ध छेड़ते
हुए देखना और उसमें कार्ल मार्क्स को पढ़ना आसान नहीं था। 1970 के दशक में उपनिवेशवाद से मुक्ति के लिए छटपटाते देश में जो नेतृत्व उभरा उसने अपनी मुक्ति को सर्वोपरि रखने का सिद्धांत पेश किया और एक हिंसक संघर्ष में अमेरिका और
यूरोपीय देशों को पीछे हटने के लिए मजबूर कर दिया।

यह जनता का अपनी गढ़ी गई मुक्ति का अपना गीत था। जिसे उन्होंने मार्क्स के बिना भी गाया। पेरू से लेकर वियतनाम तक इन नये मुक्ति संघर्षों में ‘गुरिल्ला’ एक ऐसा शब्द आया जो जन-मुक्ति का समानार्थी हो गया। इस दौर की हिंदी कविताओं, यहां तक कि मुक्तिबोध की कविताओं की अनुगूंज सुनाई पड़ती है।

1970-80 के दशक में मार्क्सवाद बेहद अलग और नये विश्लेषणों के साथ वापसी कर रहा था। इस वापसी को अराजक,
हिंसक, भटके हुए, मूर्ख और कानूनी, राजनीतिक भाषा में आतंकवादी घोषित किया गया और उन पर भयावह हमला किया
गया। लेकिन, वे रूके नहीं। पूरी दुनिया में 1980 के दशक में नये तरह की कम्युनिस्ट पार्टियों का गठन होते हुए हम देखते हैं।
जो कम्युनिस्ट नहीं बने, वे राष्ट्रीय-मुक्ति की राह पर चल पड़े। पूरी दुनिया में, लातिन अमेरिका से लेकर अफ्रीका, एशिया में
इस तरह के विकास को हम देख सकते हैं। यह कार्ल मार्क्स की वापसी थी जिसे दुनिया के हर देश में देखा जा सकता था।

कार्ल मार्क्स की प्रासंगिकता पर सवाल खड़ा करने वाले ठीक एक जादूगर की तरह होते हैं। प्रासंगिकता के सवाल को अक्सर
उसकी मूल विचारधारा, चिंतन को आंखों के सामने ही उसे ओझल कर पेश किया जाता है। नए तथ्य को पुराने तथ्यों की
निरंतरता और गुणात्मक परिवर्तन की बजाय उसे जादूगर की शैली में पेश किया जाता है। जैसे जादूगर एक फूल को हमारी,
आपकी आंखों के सामने ही एक कबूतर में और उस कबूतर को एक सफेद रूमाल में बदलते हुए दिखाता है और आपको हैरान करता है। आप भी जानते हैं कि यह जादू है, सच् नहीं है। यह एक ऐसे रियल्टी शो की तरह होता है जिसे पूरा देख लेने के बाद जादू के सारे किरदार आपके सामने स्टेज पर आते हैं, और यदि आप चाहे तो वे मुस्कराते हुए आप उनसे हाथ भी मिला सकते हैं। लेकिन जो जादू का दृश्य था, वह जादू खत्म होने के बाद भी गायब नहीं हो जाता है। यह दिखाया गया दृश्य आपका
लगातार पीछा करता है, मोहित करता है और उस पर बात करने के लिए प्रेरित करता है।

कार्ल मार्क्स पर जादू दिखाने वालों की संख्या कम नहीं है जो ठोस तथ्यों को हैरान करने वाले तरीके से पेश करते हैं। भारत
के संदर्भ में कार्ल मार्क्स की प्रासंगिकता पर एक बड़ा सवाल जाति संबंधी प्रश्न से जोड़कर खड़ा किया जा रहा है। कार्ल मार्क्स
ने भारत की जाति व्यवस्था पर नहीं लिखा, इस बात को ऐसे पेश किया जाता है मानों यह बात पहली बार उद्घाटित किया
जा रहा है। अधिक विद्वान लोग यह दावा करते हैं कि मार्क्स ने वर्ग की बात की जबकि जाति भारत की सच्चाई है। सच्चाई
यह भी है कि मार्क्स अपनी ही रचना में वर्ग की खोज का श्रेय किसी और चिंतक को देते हैं। यदि हम मार्क्स की
विचारधारा को आगे ले जाने वाले चिंतकों लेनिन, स्टालिन और माओ की रचनाओं को देखें, तो उन्होंने ने भी भारत की
जाति संबंधी प्रश्न नहीं लिखा।

यदि ठोस संदर्भाें में कहा जाए तब मार्क्स और एंगेल्स जितनी विशिष्टता के साथ फ्रांस, जर्मनी और ब्रिटेन के बारे में लिखते हैं,
उतना वह अन्य देशों के बारे में नहीं लिखते। इसी तरह लेनिन जितना रूस, पोलैण्ड, जर्मनी और फ्रांस, और कुछ हद तक
इटली के बारे में लिखते हैं, उतना वह अन्य देशों के बारे में नहीं लिखते। भारत और चीन की ऐतिहासिक घनिष्टता के बावजूद
माओ ने भारत के बारे में विस्तार से कभी नहीं लिखा। ग्राम्शी अपने लेखन में जितना दक्षिणी इटली के बारे में चिंतित हैं और
उससे उनके इटली के बारे में उनका चिंतन विभाजित नहीं दिखता है। रोजा लक्जमबर्ग का लेखन जर्मनी और पोलैण्ड पर
ज्यादा केंद्रित दिखाई देता है।

ये सारे चिंतक मार्क्स की धारा में आते हैं, क्योंकि इनके चिंतन का आधार बिंदू कार्ल मार्क्स की वह मूल अवधारणा है जिसमें वह सर्वहारा की तानाशाही में राज्य की स्थापना और उस नेतृत्व में राज्य की अनिवार्यता को खत्म करना अंतर्निहित है। यही वह मार्क्सवाद है जिसमें दमन, शोषण और उत्पीड़न से भरे राज्य व्यवस्थाओं का खात्मा होगा।

मार्क्सवाद इस संघर्ष की अवधारणा में एकजुटता, पार्टी निर्माण और नये राज्य बनाने का रास्ता अख्तियार करने की
बात करता है। मार्क्सवाद की प्रासंगिकता उस समाज में बदलाव की चाहत वाले जन और नेतृत्वकारी समूहों द्वारा एकजुटता
की समस्या को हल करना और संघर्ष को आगे ले जाने वाली चुनौतियों का समझने में है। इसके लिए उस समाज की आर्थिक
संरचना, सामाजिक बनावट, चिंतन पद्धतियों आदि का समझना जरूरी है। कार्ल मार्क्स की रचनाएं हमें इस तरह के अध्ययन
में एक निर्णायक भूमिका अदा करती हैं। और, जिन बातों का उल्लेख नहीं है उसे समझने की दिशा पेश करती हैं।

भारत में निश्चित ही जाति का सवाल एक मौजूं सवाल है और इसे दरकिनार कर जाया नहीं जा सकता। मूल बात है जाति के
सवाल को अभिजात वर्ग के राज्य के साथ हिस्सेदारी कर, कुछ लोगों के शब्दों में इस पर सवारी कर हल होगा या समूचे
मेहनतकश वर्ग के साथ एकजुट होकर हल होगा। इसी के साथ एक और सवाल जुड़ा हुआ है और वह है धर्म। जाति धर्म की
चौखट को तोड़ते हुए दिखता है। लेकिन, इस बात को आंख से ओझल करना खतरनाक होगा कि धर्म की व्यवस्थाओं ने जाति
को रूढ़ बनाये रखने के लिए बाकायदा आदेश जारी किया और दस्तावेज लिखे। ऐसे में धर्म के साथ चलते हुए जाति व्यवस्था
से मुक्ति कितनी संभव है, यह भी परखना उपयुक्त होगा। लेकिन, हम यहां कार्ल मार्क्स के बारे में बात कर रहे हैं, तो हम
उन्हीं पर लौटते हैं।

कार्ल मार्क्स ने एशियाई उत्पादन पद्धति में ‘ठहराव’ वाले पक्ष पर काफी जोर दिया था। वह इसे ग्राम-समाज व्यवस्थाओं
और उपभोग की क्षमताओं के साथ जोड़ते हैं। यह संकट आज भी एशियाई समाज को आक्रांत किए हुए है। भारत में आदिम
पूंजी संचय और पूंजीवाद के उद्भव की समस्या से लेकर पिछले 70 सालों में भारत के पूंजीवाद को ‘विकासशील’ श्रेणी में बने
रहने की समस्या का अध्ययन करने वाले चिंतकों के सामने यह ‘ठहराव’ विश्लेषण के लिए एक चुनौती बना हुआ है।

आज इसकी आर्थिक संरचना ‘जजमानी प्रथा’ का जोर भले न दिखता हो, इसके असर को इंकार करना संभव नहीं है। यही वह
प्रथा है जिस पर जाति की ब्राह्मणवादी वर्चस्व की पूरी संरचना मतों, मठों और धर्मों को अपने भीतर समाहित किए हुए है
और पूंजी के साथ साथ चल रहा है। यह केंद्रीय शासन के सामानान्तर और उससे गुंथी हुई है। भारत में पूंजी, औपनिवेशिक
और साम्राज्यवादी पूंजी की उपस्थिति ने जातियों को जितना रूढ़ और एकाधिकारी बनाया और उसे राज्य के अभिजात तंत्र
में बदला, वह प्राचीन और मध्यकाल के दौर से निश्चित ही अलग तरह का है।

पूंजी ने यह काम लोकतंत्र के दावे के साथ किया है। जबकि मध्य और प्राचीन काल में इस काम के लिए बार-बार संहिताएं, न्याय मीमांसाएं लिखनी पड़ी थीं। इतिहास के इन दो हिस्सों को एक ही पाठ की तरह पढ़ना जाति से मुक्ति के पाठ में सबसे बड़ी चुनौती बना हुआ है। वर्तमान समय को इतिहास के संदर्भ में परखना और इस लोकतंत्र में जातियों के बर्चस्व को समझना एक चुनौती है। हालांकि इस सदंर्भ में उपलब्ध आंकड़े जाति वर्चस्व को समझने के लिए पर्याप्त है।

ऐसा नहीं है कि इस जटिल विषय को समझा और हल नहीं किया जा सकता। डा. भीमराव आंबेडकर की रचनाओं के साथ
साथ ऐसी ढेरों सामग्रियां हैं जिसमें सामाजिक, नृजातीय अध्ययनों से लेकर आर्थिक संरचनाओं और धार्मिक ढांचों को देखा
और समझा जा सकता है। इस संदर्भ में जाति के संदर्भ में उपलब्ध तथ्यों, पुस्तकों और अन्य सामग्रियों का अध्ययन
मार्क्सवाद की उन मूल प्रस्थापनाओं के संदर्भ में रखकर पढ़ना होगा जिसमें राज्य जाति के प्रश्न को हल करने वाली एक
संस्था में बदल जाये और समाज को जाति उन्मूलन की ओर ले जाये।

यहां यह ध्यान में रखना होगा कि जाति का सवाल राज्य से उतना ही जुड़ा हुआ है जितना भारत का आदिवासी समाज का सवाल। हम पिछले 70 सालों में धार्मिक अल्पसंख्यक समूहों को एक जाति जैसी श्रेणी में बदल देने वाली प्रक्रिया का अध्ययन करें, तो भारत समाज की कथित उस गतिशीलता को सामने ला सकते हैं जिसमें एक पूरे उत्पादक समूह को एक श्रेणी बनाकर समाज में एक ठहरी हुई जाति में बदल दिया जाता रहा है। यह अध्ययन इतना कठिन नहीं है। इस पर भी ढेर सारी सामग्री उपलब्ध है।

वस्तुतः भारत में वर्ग, जाति, समुदाय,पहचान, राष्ट्रीयताएं जैसी कई प्रणालियां हैं, जिनके अंतर्संबंधों को एक दूसरे के साथ रखकर अध्ययन करने और उन्हें समग्रता के साथ देखे बिना भारतीय समाज को एक बराबरी वाले समाज में बदलने की ओर नहीं जा सकते।

कार्ल मार्क्स पूंजी की व्याख्या करते हुए लिखते हैं कि यह पूर्ण रोजगार की स्थिति बना ही नहीं सकता, यह असंभव है, इसके
अस्तित्व के लिए बेरोजगारों की फौज जरूरी है। इसी बात को एक अन्य चिंतक ने कहा कि पूंजीवाद यदि पूर्ण रोजगार देता
है तब उसे अपनी पूरी संरचना ही बदल देनी होगी अर्थात वह पूंजीवाद रहेगा ही नहीं। मार्क्स की इन मूल प्रस्थापनाओं
को भारत के संदर्भ में रखकर पढ़े बिना समाज में बदलाव और बराबरी की बात कल्पनालोक में घूमने के सिवा कुछ नहीं हो
सकता। भारत की उत्पादन पद्धति में ‘ठहराव’ और ‘उपभोग की समस्या’ पूंजीवादी समस्या से कहीं अधिक गहरी और अतीत
की लादी हुई समस्या से कई गुना अधिक वर्तमान की समस्या है।

पूंजीवाद की कथित पश्चिमी अनैतिक धारा के विरोध का तानाबाना पहनकर पूंजी के रथ पर बैठकर, धर्म की पीठ पर सवारी कर जिस लोकतंत्र की तलाश कथित राष्ट्रवादियों ने की थी आज उसका नजारा चारों तरफ हम देख रहे हैं। जाति और वर्ग विभाजनों से मुक्त समाज का निर्माण कहीं अधिक गहरे चिंतन और सरोकार की मांग कर रहा है। कार्ल मार्क्स ने अपने समय में गहरे चिंतन और सरोकार का जो उदाहरण पेश किया उसकी प्रासंगिकता से कौन ही इंकार कर सकता है!

(अंजनी कुमार स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

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