चौंकाने और डराने वाला सप्ताह ! इधर, सूरज पाले का शोर, उधर, अंधेरा पसरता चहुँओर

मई का दूसरा सप्ताह देश और समूचे भारतीय प्रायद्वीप के लिए अभूतपूर्व रहा। तीन दिन चला भारत-पाकिस्तान युद्ध-या वह जो भी था-क्यों था, क्या था, कैसे शुरू हुआ, कब खत्म हुआ, किसने कितना पाया, कितना खोया और गंवाया, दोनों तरफ के मोर्चों पर क्या घटा, सेना, जनता और राजनीतिक दलों ने किस तरह की भूमिका निभाई, हथियारों, पोतों, विमानों, रडारों, खुफिया तंत्रों की सीमाएँ और उपलब्धियाँ, कारगरता और सीमित क्षमता का हिसाब आने वाले दिनों में होगा। होना भी चाहिए; हर बड़ी घटना एक सबक देकर जाती है, फिर यह तो सैनिक टकराव था। बहरहाल, इस बीच देश और उसके साथ जो घटा, वह चौंकाने वाला, कई मामलों में चिंताजनक और डराने वाला है।

मीडिया वानरों का भेड़िया धसान

इसमें सबसे स्तब्धकारी रही देश की जनता तक खबर पहुँचाने वाले सूचना माध्यमों की भयानकता। 8 मई की रात से ही उन्होंने जिस तरह की भूमिका निभाई, उसे बचकानापन मानकर अनदेखा नहीं किया जा सकता। यह ऐसा दुष्कर्म है, जिसके न केवल आंतरिक, बल्कि बाहरी और अंतरराष्ट्रीय प्रभाव भी पड़े। लगभग सारे कॉर्पोरेट चैनल सत्तासीनों की नजरों में राजा से भी अधिक वफादार बनने का दिखावा करने में इतने आगे निकल गए कि किसी ने इस्लामाबाद पर भारतीय सेना का कब्जा करा दिया, पाकिस्तान के 50 से ज्यादा शहरों को जीत लिया, कराची के बंदरगाह को तबाह कर दिया, और पाक अधिकृत कश्मीर को मुक्त कराकर भारत में शामिल करवा दिया।

कुछ इससे भी कई कदम आगे निकल गए और पाकिस्तान के सेनाध्यक्ष को बंदी बनाने की ब्रेकिंग न्यूज़ चला दी। एक-दो ने तो पाकिस्तान की सरकार ही उलटवा दी और भारत-नियंत्रित अंतरिम सरकार बिठा दी। बकवास इतनी ऊँची थी कि अपनी अब तक की परंपरा को तोड़कर भारतीय सेना को हर रोज प्रेस कॉन्फ्रेंस करनी पड़ी और अपने ही देश के मीडिया की खबरों का खंडन करना पड़ा।

मक्खी भगाने के लिए अपने मालिक की गर्दन उड़ा देने वाले बंदर जैसी स्वामीभक्ति दिखाने की ललक में इन मीडिया वानरों ने जो भेड़िया धसान मचाया, उसके विनाशकारी आयाम अनेक हैं। चापलूसी की सारी हदें पार कर कुछ भी अनाप-शनाप बताने और नकली वीडियो दिखाने वाले इन कुपढ़, नफरती अभियान में दक्ष, समझदारी-कुपोषित एंकर-एंकरानियों को नहीं पता था कि ऐसा करके वे खुद को हास्यास्पद ही नहीं बना रहे, बल्कि एक कठिन समय में अवांछित युद्ध में जूझते देश को पूरी दुनिया में दुविधा में डाल रहे हैं।

इन्हें और जिस कूपमंडूक संघी कुनबे की खटाल से ये दाना-पानी पाते हैं, जिनका लिखा बाँचते और दिखाते हैं, उन्हें नहीं पता कि युद्ध एक साथ अनेक धरातलों पर लड़ा जाता है। इसमें जो किया जाता है, वह वैसा का वैसा नहीं बताया जाता। दुनिया को दिखाने के लिए ऐसा जताया जाता है जैसे युद्ध थोपा गया हो और जो कुछ किया जा रहा है, वह आत्मरक्षा में दिया जा रहा जवाब है।

आज की दुनिया में जितना महत्वपूर्ण सीमा पर लड़ना है, उतना ही, बल्कि उससे थोड़ा ज्यादा, छवि बनाने यानी धारणा (परसेप्शन) के मोर्चे पर लड़ना होता है। यही वजह है कि भारतीय सेना और विदेश नीति के प्रवक्ताओं ने कभी नहीं कहा कि भारत ने पाकिस्तान पर चढ़ाई की या युद्ध छेड़ा। शुरू से अंत तक यही कहा गया कि पहलगाम की वीभत्स आतंकी वारदात के बाद भारत केवल उन आतंकी ठिकानों को नेस्तनाबूद कर रहा है, जहाँ इस तरह के आतंकियों को पाला-पोसा और प्रशिक्षित किया जाता है।

पहले दिन से सेना और विदेश मंत्रालय बार-बार दोहराते रहे कि “पाकिस्तान के किसी भी सैनिक प्रतिष्ठान को निशाना नहीं बनाया गया, किसी भी नागरिक आबादी पर बम या मिसाइल नहीं दागे गए। सिर्फ और केवल आतंकी ठिकानों को ही टारगेट किया गया और इतने में से इतने ठिकाने नष्ट कर दिए गए।” यह वास्तविकता भी थी और अंतरराष्ट्रीय पैमाने पर धारणा बनाने की विवेकपूर्ण कूटनीति भी थी।

पाकिस्तान ठीक इसके विपरीत भारत को हमलावर बताने और दुनिया के देशों की हमदर्दी जुटाने की हरसंभव कोशिश कर रहा था, और ठीक यही काम भारत का कॉर्पोरेट मीडिया कर रहा था। यही वजह थी कि हर रोज भारतीय सेना के प्रतिनिधियों के साथ विदेश सचिव को स्वयं आकर देसी-विदेशी मीडिया को सच बताना पड़ा।

पाकिस्तानी अपराधों की पर्दादारी

अपनी इस उन्मादी मुहिम में इस मीडिया ने पाकिस्तान द्वारा भारतीय सीमा में नागरिक आबादी पर किए गए ड्रोन हमलों और उनमें हताहत असैनिकों की खबरें भी दबा दीं, और इस तरह पाकिस्तानी सेना के आपराधिक आचरण को देश-दुनिया के सामने आने से रोक दिया। क्या उन्हें इतना भी नहीं पता था कि मोदी सरकार की विफलताओं की पर्दादारी के चक्कर में वे पाकिस्तानी दरिंदगी पर पर्दा डालने की करतूत कर रहे हैं? सूचना क्रांति के इस दौर में उनका यह बचकानापन किसी काम नहीं आने वाला। सुनते हैं, किसी एक चैनल ने आधी-अधूरी माफी माँगी, मगर उसके बाद भी वह सुधरा नहीं।

हालांकि, अच्छी बात यह हुई कि ऐसा शेखचिल्लीपन दिखाकर इस छपाऊ-दिखाऊ मीडिया ने जनता के बीच अपनी बची-खुची साख भी गँवा दी। जरूरी है कि इनके खिलाफ दंडात्मक कदम उठाए जाएँ। मगर मोदी राज में स्वयं मोदी और उनके कुनबे ने इन मीडिया गिद्धों को पाल-पोसकर तैयार किया है। यही वजह है कि विदेश सचिव और सेना तो इनके कहे का खंडन करती रही, मगर मोदी, उनके किसी मंत्री या भाजपा नेता का मुँह नहीं खुला। उलटे, कुछ यूट्यूब चैनल्स और 8,000 से अधिक सोशल मीडिया अकाउंट्स को बंद करवा दिया गया, जो लगातार सही अपडेट्स दे रहे थे और लोकतांत्रिक समाज में जरूरी सवाल उठा रहे थे।

अपनों के पीछे ही ‘छू’ बोलकर छोड़ी ट्रोल वाहिनी

बेहूदगी का मंचन-थिएटर ऑफ अब्सर्ड-यहीं तक नहीं रुका। कुनबे की भेड़िया ब्रिगेड-आईटी सेल-सैन्य टकराव के बीच भी मुस्लिम विरोधी नफरत उभारने की अपनी हरकतों से बाज नहीं आई। मोदी प्रचारतंत्र के इस समूह ने विदेश सचिव की बेटी तक को नहीं बख्शा। सेना द्वारा प्रेस कॉन्फ्रेंस के लिए समझदारी से चुनी गई टीम की लड़कियों, खासकर कर्नल सोफिया कुरैशी को, मुसलमान होने के नाते भद्दी और अश्लील टिप्पणियों का निशाना बनाया गया।

जिन्हें स्वयं प्रधानमंत्री फॉलो करते हैं, ऐसे अकाउंट्स से जो अनर्गल प्रलाप किया गया, वह जैसे काफी नहीं था, इसलिए मध्यप्रदेश के कैबिनेट मंत्री विजय शाह खुद जहरखुरानी करने उतर आए। अपने नाम के आगे ‘कुंवर’ लिखने वाले इस भाजपा मंत्री ने मध्यप्रदेश के छतरपुर की रहने वाली कर्नल सोफिया कुरैशी को “पाकिस्तानियों और आतंकियों की बहन” तक बता दिया। जाहिर है, यह न केवल एक सैन्य अधिकारी और महिला का अपमान था, बल्कि सोचे-समझे तरीके से आगे बढ़ाया जा रहा मुस्लिम विरोधी आख्यान था।

इन पंक्तियों के लिखे जाने तक न तो इस मंत्री का इस्तीफा हुआ, न बर्खास्तगी; उम्मीद भी कम है। यह मंत्री कोई नौसिखिया राजनेता नहीं; अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के जमाने से कुनबे के साथ है, आठवीं बार विधायक और चौथी बार मंत्री बना है। उसने जो कहा, वह उसका नहीं, कुनबे का आख्यान है। उसके उपमुख्यमंत्री जगदीश देवड़ा ने पूरी सेना को नतमस्तक करवाकर इसे और आगे बढ़ाया।

औरों की क्या कहें, खुद प्रधानमंत्री ने अपने राष्ट्र के नाम संबोधन में यही बेसुरा सुर साधा। पहलगाम के आतंकी हमले के जिक्र में उस दौरान और उसके बाद कश्मीरी अवाम की शानदार भूमिका और साहस का उल्लेख, उनकी सराहना, पाकिस्तान के हमलों में मारे गए नागरिकों का जिक्र और अफसोस-ये किसी भी प्रधानमंत्री के भाषण का हिस्सा होता, मगर यहाँ प्रधानमंत्री नहीं, मोदी बोल रहे थे।

युद्धविराम: सार्वजनिक मखौल, खुलेआम अपमान

इस युद्ध की सबसे चिंताजनक और डरावनी घटना युद्धविराम का तरीका और एलान है। युद्धविराम अच्छी खबर है, क्योंकि युद्ध, कैसा भी, कहीं भी हो, बिल्कुल अच्छी खबर नहीं होता। मगर यह जिस तरह हुआ, वह भारत को लाइबेरिया और बुर्कीनाफासो जैसे छोटे देशों से भी बदतर स्थिति में पहुँचाने वाला है। सबको हैरत में डालते हुए इस युद्धविराम की घोषणा युद्धरत देशों ने नहीं, बल्कि अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने की। उन्होंने कहा, “अमेरिका की मध्यस्थता में हुई लंबी बातचीत के बाद मुझे यह घोषणा करते हुए खुशी हो रही है कि भारत और पाकिस्तान ने पूर्ण और तत्काल सीजफायर पर सहमति जताई है।”

अमेरिकी विदेश मंत्री मार्क रुबियो का बयान आया, जिसमें और खुलासा करते हुए दावा किया गया कि “पिछले 48 घंटों में उपराष्ट्रपति वेंस और मैंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, शाहबाज शरीफ, विदेश मंत्री एस. जयशंकर और सेना प्रमुख आसिम मुनीर सहित पाकिस्तान और भारत के अधिकारियों से बातचीत की है। मुझे यह घोषणा करते हुए खुशी हो रही है कि भारत और पाकिस्तान की सरकारें तत्काल सीजफायर और तटस्थ जगह पर व्यापक मुद्दों पर बातचीत करने पर सहमत हो गई हैं।” जैसे इतना ही काफी नहीं था, पोप के अंतिम संस्कार में जाते समय ट्रम्प ने “हजारों साल पुराने कश्मीर विवाद” पर भी मध्यस्थता करने का दावा ठोंक दिया।

अमेरिका ने जैसे भारत को अपमानित करने और अपनी मर्जी से उसकी हैसियत दिखाने की ठान ली थी। यूक्रेन के राष्ट्रपति जेलेंस्की के साथ किए गए बर्ताव की तरह, प्रधानमंत्री मोदी के राष्ट्र के नाम संबोधन के ठीक आधा घंटे पहले लाइव प्रेस कॉन्फ्रेंस करके अत्यंत अशोभनीय लहजे में ट्रम्प ने कहा, “मैंने भारत-पाकिस्तान से कहा कि युद्धविराम करो, और युद्ध रुक गया। शायद हमेशा के लिए रुक गया।”

इसके बाद, सिर्फ शब्दों से ही नहीं, बल्कि हाथ हिलाते हुए, शब्दों को चबा-चबाकर बोलते इठलाती भंगिमा से भी अपमानित करते हुए उन्होंने कहा, “मैंने दोनों से कहा कि युद्ध बंद नहीं किया तो मैं तुम्हारे साथ व्यापार बंद कर दूँगा। और दोनों ने युद्ध बंद कर दिया।” ध्यान रहे, यह ट्रम्प का माइक पर दिया स्वतःस्फूर्त भाषण नहीं, बल्कि बाकायदा लिखित वक्तव्य था। इसके बाद से यह बड़बोला तानाशाह जहाँ-जहाँ जा रहा है, वहाँ यही बातें और भी घिनौने अंदाज में दोहरा रहा है। अभी सऊदी अरब में भी यही बात बोली।

न खंडन, न प्रतिवाद; इतना सन्नाटा क्यों है भाई?

ट्रम्प का एक-एक शब्द तमाचे की तरह है। अपने ‘माय डिअर फ्रेंड’ के गाल पर नहीं, बल्कि दुनिया की सबसे बड़ी आबादी वाले संप्रभु राष्ट्र ‘इंडिया दैट इज भारत’ के मुँह पर। उस देश के साथ ऐसा बर्ताव किया गया, जिसने स्वतंत्रता के बाद के करीब आठ दशकों में अपनी अंतरराष्ट्रीय हैसियत का ऐसा पराभव नहीं देखा। इतने विकट अंतरराष्ट्रीय स्तर के सार्वजनिक अपमान के बाद भी 56 इंची सीने वाले ने राष्ट्र के नाम संबोधन में इस बारे में एक शब्द नहीं बोला।

इन पंक्तियों के लिखे जाने तक सरकार, विदेश मंत्रालय या किसी प्रवक्ता ने इस अमेरिकी गुंडई का न कोई प्रतिवाद किया, न खंडन। किसी ने हिम्मत नहीं दिखाई कि अमेरिका से कहे, “अपने काम से काम रखो, भारत ने किसी तीसरे पक्ष का हस्तक्षेप न आज तक माना है, न मानेगा।” यह कहे कि “कश्मीर हजार साल से नहीं, सिर्फ 78 साल से एक मसला है, पूरा कश्मीर हमारा है और इसमें किसी को टाँग अड़ाने की अनुमति नहीं दी जाएगी।” किसी का बोल नहीं फूटा। दिल्ली में बैठे मोदी से लेकर नागपुर में बैठे भागवत जी और आईटी सेल से उसके फॉरवर्डी अंकलों का पूरा कुनबा सुट्ट और सन्न पड़ा है।

हमारे वाले बंदे ने खुद कहा था कि उसके खून में व्यापार है। इसका नतीजा यह निकलेगा, शायद ही किसी ने सोचा होगा। अमेरिका के आगे इस तरह घिघियाती सरकार इस देश ने पहली बार देखी है।

मातहती में पहुँचाने वाली हालत क्यों आई?

भारत की विदेश नीति हमेशा भारत की विदेश नीति रही है। गुटनिरपेक्षता उसका आधार और साम्राज्यवाद से अलगाव उसकी धुरी रही है। संघ-जनसंघ से भाजपा तक इससे सहमत नहीं रहे, मगर मानना पड़ा, क्योंकि यह किसी पार्टी की नहीं, मोटे तौर पर देश की नीति रही है, स्वतंत्रता संग्राम का हासिल रही है। इसी की दम पर भारत निक्सनों, जॉन्सनों, रीगनों, बुशों से लेकर फोर्ड, क्लिंटनों, ओबामाओं से जूझता रहा है। जिसके लिए सारी कूटनीतिक मर्यादाएँ और लोकलाज छोड़कर मोदी ने ‘हाउडी ट्रम्प’ किया, ‘अबकी बार ट्रम्प सरकार’ का नारा तक दिया, उनके उस ‘माय डिअर फ्रेंड’ के चलते आज भारत को मातहती में लाकर खड़ा कर देना एक अक्षम्य अपराध है।

वह भी उस अमेरिका के मातहत, जिसका रिकॉर्ड प्रोजेक्ट ब्रह्मपुत्र की भारत-विभाजन की कुटिल योजना, 1971 में भारत पर हमला करने के लिए सातवाँ बेड़ा भेजने, अब तक चले सारे पृथकतावादी आंदोलनों को प्रश्रय और प्रशिक्षण देने, और हाल ही में भारत के खिलाफ टैरिफ युद्ध छेड़ने जैसे अनगिनत भारत-विरोधी कुकर्मों का रहा है।

यह अत्यंत गंभीर विचलन है और सिर्फ मोदी सरकार ही नहीं, सारे कॉर्पोरेट मीडिया की इस पर चुप्पी बहुत खतरनाक है। बहरहाल, यह अप्रत्याशित नहीं है। हिंदुत्वी साम्प्रदायिकता और कॉर्पोरेट का गठजोड़ जिस रास्ते पर चल रहा है, वह ऐसे ही अंधेरों की ओर ले जाता है। अंतरराष्ट्रीय वित्तीय पूँजी के वर्चस्व के दौर में सिर्फ मुनाफों और कमाई की लिप्सा देश की संप्रभुता और अवाम की जिंदगियों का सौदा इसी नीचता तक जाकर करती है। इसीलिए बार-बार दोहराया जाता रहा है कि जनता की सजगता का पैमाना उसकी विदेश नीति के जानने से जुड़ा होता है। आने वाले दिनों में इस पहलू पर जनता को ही जागना होगा और जो इन संकटों को समझते हैं, उन्हें उसे जगाने के काम में जुटना होगा।

अंत में

हर अंधेरे में कहीं न कहीं कोई रोशनी छिपी होती है। इस बार यह रोशनी सेना की प्रवक्ता कर्नल सोफिया कुरैशी के कथन में दिखी। पाकिस्तानी सेना के दावे कि भारतीय सेना ने कुछ मस्जिदों को भी निशाना बनाया, पर कड़ी प्रतिक्रिया देते हुए उन्होंने कहा, “भारत एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है और हमारी सेना हमारे संविधान की मूल भावना ‘सेक्युलरिज्म’ की सच्ची प्रतिनिधि है। हमारी सेना हर धर्म और हर पूजा स्थल का पूरा सम्मान करती है। किसी भी धार्मिक स्थल को निशाना नहीं बनाया गया।” कर्नल सोफिया का यह बयान भले पाकिस्तान के दुष्प्रचार का जवाब था, मगर इधर वालों को भी इसे पढ़ लेना चाहिए।

(बादल सरोज लोकजतन के संपादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं)

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