आपातकाल: भ्रम, कुहासा और सच्चाई

वैसे तो आपातकाल 19 महीने रहा और आज उसे बीते 50 साल हो गए हैं लेकिन परवर्ती भारतीय राजनीति के लिए उसके नतीजे दूरगामी महत्व के साबित हुए। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि आज देश का जो राजनीतिक परिदृश्य है उसमें क्रियाशील तमाम प्रवृत्तियों का जन्म भ्रूण रूप में आपातकाल के दौर में ही हुआ।

आज जो भारतीय जनता पार्टी केंद्र में सत्तारूढ़ है उसकी राष्ट्रीय स्तर पर जनस्वीकृति की शुरुआत उसी दौर में हुई। बेशक इसके पहले सोशलिस्टों और CPI के साथ मिलकर जनसंघ ने कुछ राज्यों में संविद सरकार भी बनाई थी। वहीं से प्राप्त वैधता और ऊर्जा से आज वह इस स्थिति में पहुंच गई है कि इसी दौरान जोड़े गए संविधान की मूल भावना को व्यक्त करने वाले शब्दों धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद का विरोध करने की वह जुर्रत कर पा रही है और उन्हें संविधान से हटाने की मांग कर रही है।

दरअसल उस दौर में कांग्रेस के जनाधार में पिछड़े समुदाय के किसान नहीं थे, वह मुख्यतः ब्राह्मण, मुसलमान, दलित समुदाय पर आधारित थी। सोशलिस्टों ने जो गैर कांग्रेसवाद का नारा दिया उसमें राजनीतिक तौर पर वे सीपीएम और नक्सल धारा को छोड़कर सभी विपक्षी दलों को समेटने में सफल हो गए, RSS की राजनीतिक शाखा जनसंघ को भी इसमें शामिल कर लिया गया। उन्होंने सामाजिक रूप से पिछड़ों को केंद्रित किया, जो कांग्रेस के फोल्ड से बाहर थे।

पहली बार JP आंदोलन में प्रवेश के माध्यम से RSS और उसके संगठनों को समाज में लोकतंत्र के योद्धा के रूप में एक नई छवि बनाने का मौका मिला। बाद में जनता पार्टी बिखर गई लेकिन इस बीच RSS को एक नई लोकतांत्रिक छवि बनाने का मौका मिल चुका था। कालांतर में पुनः VP सिंह के नेतृत्व में जनता दल के रूप में जब उन ताकतों का पुनः कंसोलिडेशन हुआ तो उन्होंने एक ओर कम्युनिस्ट, दूसरी ओर भाजपा के साथ बोफोर्स के भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ने का फैसला किया, हालांकि यह सरकार भी बहुत दिन चल नहीं सकी लेकिन तब तक न सिर्फ भाजपा मुख्य धारा में अपनी जगह बना चुकी थी बल्कि राम मंदिर आंदोलन के माध्यम से लोकतंत्र और राष्ट्रवाद के चैंपियन के बतौर अपनी छवि गढ़कर भारतीय राजनीति की मुख्य धुरी बनने की ओर बढ़ चली थी। उधर जनता दल बिखर गया। इस बिखराव के बाद समाजवादी धारा के दलों का अलग-अलग नामों से जाति विशेष पर आधारित

दलों के रूप में पतन और आज पारिवारिक पार्टियों के रूप में काया कल्प का आदिस्रोत भी उसी दौर में मौजूद है।

आपातकाल को लेकर जो बहसें चल रही हैं, उनमें एक ओर आज का अघोषित आपातकाल है जिसकी अंतर्वस्तु दरअसल निरंकुशता या अधिनायकवाद ही नहीं फासीवादी निजाम कायम करना है। लेकिन सत्ता प्रतिष्ठान से जुड़े गोदी मीडिया और विश्लेषकों ने इस तरह माहौल बनाया है गोया वही असली आपातकाल था और आज तो पूरा विधि विधान के साथ लोकतांत्रिक शासन चल रहा है। उनके अनुसार कुछ मामलों में बेशक दमन है, पर वह कानून सम्मत है, समग्रता में यह लोकतंत्र है।

74 आंदोलन या जिसे JP मूवमेंट भी कहा जाता है, जरूरत है कि उसका ठोस वस्तुनिष्ठ विश्लेषण किया जाय। जरूरत इस बात की भी है कि बिना किसी लाग लपेट के इस दौर के मुख्य राजनीतिक ताकतों तथा किरदारों की भूमिका का विश्लेषण किया जाय। RSS को जो गांधी की हत्या के बाद से अलगाव झेल रही थी, उसे जिस तरह पहले 1967 में बनी संविद सरकारों में लोहिया के गैर कांग्रेसवाद के नारे के आधार पर जगह दी गई और फिर JP आंदोलन ने उसे जो वैधता दी, वह दूरगामी महत्व की साबित हुई।

जहां तक वाम आंदोलन की बात है वह पूरे आंदोलन से अलग-थलग पड़ा रह गया।दरअसल आंदोलन को लेकर वाम नेतृत्व की समझ यांत्रिक थी। यह मान लिया गया कि यह शासक वर्ग के ही दो खेमों के बीच की लड़ाई है। उधर सीपीई तो इंदिरा गांधी को प्रगतिशील घोषित करके आपातकाल के समर्थन तक चली गई।CPIML या नक्सली धारा बेहद बिखरी हुई थी हालांकि उसके लोग इंदिरा निरंकुशता के खिलाफ तीखे वर्ग संघर्ष में सर्वोच्च बलिदान दे रहे थे, लेकिन वे बेहद बिखरे हुए थे और भारत की परिस्थिति के अनुरूप उनका राजनीतिक स्वरूप ग्रहण करना अभी बाकी था।

सीपीएम के अंदर इसे लेकर बहस चलती रह गई। जहां एक हिस्से का यह मानना था कि आंदोलन में भाग लेना चाहिए वहीं महासचिव सुन्दरैया के नेतृत्व में दूसरे हिस्से का यह मानना था कि RSS से जुड़े किसी संगठन आंदोलन या मंच से हमें कोई रिश्ता नहीं रखना चाहिए।

माकपा के प्रति सहानुभूति रखने वाले बुद्धिजीवी आदित्य निगम की यह लंबी टिप्पणी काबिले गौर है, “पार्टी के पहले महासचिव सुंदरैया के महासचिव पद से इस्तीफे के समय लिखे गए पत्र के 50,वर्ष पूरे हो रहे हैं। यह उन्होंने आपातकाल लगने के कुछ दिनों के अंदर दिया था। इसमें विवाद के तमाम सवालों पर उनके अपने विचार दिए हैं। यह एक अलग समय का दस्तावेज है और आज की बदली स्थितियों से उन्हें रिलेट करना कठिन है। जिन दो सबसे महत्वपूर्ण विषयों को उन्होंने उठाया है उनमें पहला एक tactical मुद्दा है जिस पर मेरे विचार से JP आंदोलन और RSS को लेकर उनकी स्थिति बहुत rigid है और समय की मांग के अनुरूप जरा भी लचीलेपन को तैयार नहीं।

प्रश्न RSS और उसके मजदूर संगठन BMS और उनकी पार्टी जनसंघ को लेकर है।उनके साथ संयुक्त एक्शन कमेटी में शामिल होने और उनके साथ संयुक्त कार्रवाई को लेकर है। इंदिरा गांधी द्वारा एक पार्टी राज कायम करने और उसके प्रतिरोध के संदर्भ में यह सवाल फौरी महत्व का बन गया था। आपातकाल की घोषणा अभी दो साल आगे होनी थी लेकिन 1972 के पश्चिम बंगाल के rigged चुनाव ने आने वाले दिनों का संकेत दे दिया था और 1974 आते सभी स्तर पर हड़तालों का सिलसिला जिसमें सबसे महत्वपूर्ण रेल हड़ताल थी और जनांदोलन देश के अलग अलग इलाकों में फूट रहे थे। 1973 के अंत में गुजरात नव निर्माण आंदोलन शुरू हुआ जिसके बाद1974के शुरू में बिहार आंदोलन या JP आंदोलन शुरू हो चुका था।

शुरू में उनकी पोजीशन बिल्कुल सही थी कि किसी भी हालत में पार्टी इन सांप्रदायिक और अर्ध फासीवादी संगठनों के साथ संयुक्त एक्शन में नहीं जाएगी।सवाल उठा मध्य 74 में ट्रेड यूनियन मोर्चे पर अखिल भारतीय सम्मेलन, wage freeze के खिलाफ और लगभग उसी समय JP आंदोलन के संदर्भ में। क्या BMS को सम्मेलन में बुलाना सही था? पार्टी को JP आंदोलन को आगे बढ़ाने के लिए बन रही जन संघर्ष समितियों में शामिल होना चाहिए या नहीं। असहमति के केंद्र में ये सवाल थे। सुंदरैया द्वारा सूत्रबद्ध उनकी पोजीशन निरपवाद थी। मेरा अब विश्वास है कि यह जनांदोलन के गतिविज्ञान को miss कर रही थी। स्वयंस्फूर्त जनांदोलन हमेशा fluid होते हैं और उसमें शामिल हर तरह की शक्तियों को अवसर देते हैं कि उसमें शामिल हों और अपने ढंग से उसे आकार देने का प्रयास करें।

सुंदरैया द्वारा ली गई स्थिति और यहां तक कि जो कॉम्प्रोमाइज स्थिति अंततः ली गई, वह आंदोलन से अलग रहने जैसी ही थी। संभवतः और यूनियनों की ओर से दबाव था कि सम्मेलन में BMS को भी शामिल किया जाय। मेरे विचार से मामला इस पर खत्म नहीं होना चाहिए था कि उन्हें बुलाया जाय या नहीं। संयुक्त कार्रवाई में या जनांदोलन में हमेशा स्थितियां खतरनाक और खुली होती हैं।लेकिन जनता को प्रभावित करने और रेडिकल बनाने का और दूसरा कोई तरीका नहीं है।यही बात ट्रेड यूनियन के लिए भी लागू होती है।

सुंदरैया इसके विपरीत तर्क करते हैं। मुख्यतः BTR,लेकिन कभी कभी नंबूदरीपाद द्वारा ली गई स्थिति के खिलाफ। साफ है कि अधिकांश पीबी मेंबर भी उनकी पोजीशन के साथ नहीं थे। नतीजतन व्यवहारिक रूप से सीपीएम आंदोलन से अलग थी। उसने जनवादी संघर्ष समितियां बनाईं लेकिन जनता कहीं और थी।1978की जालंधर कांग्रेस में यह सवाल उठा और इसे एक बड़ी गलती माना गया। पार्टी आंदोलन के किनारे खड़ी रह गई। कई जगह वाम रेडिकल सोशलिस्ट ताकतें मजबूत जगह बना सकती थीं लेकिन वह पूरा स्पेस दक्षिणपंथी ताकतों के लिए छोड़ दिया गया।

बावजूद इसके कि JP RSS पर अत्यधिक निर्भर होते गए और उसकी तारीफ में वह कुख्यात बयान दिया कि अगर RSS फासिस्ट है तो मैं भी फासिस्ट हूं। मेरा मानना है कि उस आंदोलन में पुरजोर ढंग से शामिल होना पार्टी के लिए फायदेमंद होता। हिंदी पट्टी में पार्टी का प्रवेश हो सकता था, जो अभी cpiml का हुआ है। “

लेकिन इस पूरे प्रकरण में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका समाजवादी नेतृत्व की रही।यह समझ से परे है कि JP जिस सम्पूर्ण क्रांति का नारा दे रहे थे, आखिर RSS के बल पर वह उनकी निगाह में कैसे संभव थी ? आखिर उनके उस वक्तव्य ने RSS को जो वैधता दी,क्या इसका उन्हें आभास नहीं था ?

आंदोलन में शामिल होकर RSS को अपने फासिस्ट चरित्र को छिपाने और अपने को राष्ट्रवादी के साथ साथ एक लोकतांत्रिक ताकत के बतौर पेश करने में मदद मिली। बाबरी मस्जिद को एक विदेशी आक्रांता के दमन का प्रतीक बताकर उसके खिलाफ आंदोलन को एक साथ राष्ट्रवाद का प्रतीक और हिंदुओं के साथ हुए ऐतिहासिक अन्याय के प्रतिकार के बतौर पेश करने में वे सफल रहे।

आजादी की लड़ाई के दौर में और उसके बाद भी लंबे समय तक गांधी, नेहरू, अंबेडकर जैसे दूरदर्शी नेतृत्व के विचारों और रणनीति के बल पर RSS को अलग थलग रखने की कोशिश पर परवर्ती नेताओं की नासमझी और अदूरदर्शिता तथा अवसरवाद से पानी फिर गया और RSS राष्ट्रीय स्तर पर राज और समाज के केंद्र में विराजमान हो गई।

पलटकर इतिहास में झांकने पर यह बिल्कुल साफ है कि गैर कांग्रेसवाद के नाम पर RSS को भारतीय राजनीति की मुख्यधारा में शामिल होने देना, एक ऐतिहासिक भूल थी जिसका परिणाम आज यह देश भुगत रहा है जब बिना आपातकाल लागू किए नव फासीवादी निजाम में पिछले ग्यारह साल से जीने को देश अभिशप्त है। यह सच ही नहीं जरूरी है कि जनता के स्वतःसफूर्त जन आंदोलनों में पूरी ताकत से भाग लिया जाय, लेकिन उस दौरान यह रणनीति बहुत महत्वपूर्ण है कि उस दौरान नकारात्मक ताकतों को कैसे अलग थलग किया जय। साथ ही आंदोलन में भाग लेना एक बात है लेकिन राजनीतिक एकता एक गुणात्मक रूप से अलग धरातल का विषय है।

(लाल बहादुर सिंह इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं।)

More From Author

ग्राउंड रिपोर्ट : “हुजूर ! जमीन हमारी मां है, सौदा मत कीजिए; नोटों से खेत बिकेंगे तो बच्चों का भविष्य कहां उगेगा?”

सार्क के स्थान पर चीन और पाकिस्तान नया संगठन बनाने की दिशा में अग्रसर

Leave a Reply