जब हम लोग छोटे थे तो एक कहावत कही जाती थी। “पढ़ोगे, लिखोगे बनोगे नवाब, खेलोगे, कूदोगे होगे खराब।“ यानी पढ़ोगे तो अफसर बनोगे और खेलने कूदने में समय बर्बाद करोगे तो जीवन बर्बाद हो जाएगा। उसी तरह आजकल गायत्री यादव का गाया एक गाना वायरल हो रहा है। “ नून रोटी खा के भले जिनगी बिताव, अपने ना पढ़ल बाकिर बचवन के पढ़ाव, पढ़ि, लिखी, सीखी उहे जग में महान बा, पढ़ लिख बबुआ कलमिये में जान बा।“ (नमक रोटी खाकर भले ही जिंदगी बिता लो, अपने नहीं पढ़े लेकिन बच्चों को जरूर पढ़ाओ, क्योंकि जो भी पढ़ेगा, वही महान बनेगा इसलिए हे मेरे बच्चों पढ़ो, इस कलम में ही ताकत है।)
यह मुहावरा और गीत दोनों ही भोजपुरी के हैं। भोजपुरी पूर्वी उत्तर प्रदेश में बोली जाती है। लेकिन गायत्री यादव ने इस गाने को इतना मीठा गाया है कि इसे कोई भी आसानी से समझ सकता है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बीएसपी नेता सुशील गौतम को जब ये गीत मैंने सुनाया तो वे इसका मर्म समझ गये और मेरे देखते ही देखते कई बार इस गीत को सुन गये। शायद इसलिए भी कि गीत में आगे अंबेडकर का जिक्र है। कहने का मतलब ये कि ये गीत भले पूर्वी उत्तर प्रदेश में बोली जाने वाली भोजपुरी का हो लेकिन यह पश्चिम के लोगों को भी उतना ही भाता है।
लेकिन लोग पढ़े-लिखें तब न जब पढ़ाई का माहौल हो। यहां तो स्कूल ही बंद किये जा रहे हैं। आजकल देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू और कांग्रेस को खूब गालियां दी जा रही हैं। लेकिन उन्होंने शिक्षा के महत्व को समझते हुए गांव-गांव में प्राइमरी स्कूल खोले, ताकि लोग पढ़ सकें। अपना हित-अनहित समझ सकें। तभी देश में साक्षरता का प्रतिशत जो आजादी के समय 1947 में मात्र 18 प्रतिशत था अब वह बढ़कर 2011 की जनगणना के अनुसार 74 प्रतिशत से ज्यादा हो गया है। लेकिन वर्तमान डबल इंजन की सरकार देश और उत्तर प्रदेश में स्कूलों को धड़ाधड़ बंद कर रही है। अभी उत्तर प्रदेश सरकार ने आदेश जारी किया है कि जिन प्राइमरी स्कूलों में पचास से कम बच्चे हैं, उन्हें बंद किया जाएगा। प्रशासन का कहना है कि बंद किये जाने वाले स्कूलों के बच्चों को पड़ोस के किसी अन्य स्कूल में प्रवेश दिलाया जाएगा।
आपको पता है कि देश में पहले योजना आयोग हुआ करता था। इसका काम देश के विकास को ध्यान में रखकर योजनाएं बनाने का था। लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री बनते ही इसका नाम बदलकर नीति आयोग कर दिया। वह नीति आयोग 2023 में आधिकारिक रूप से स्कूलों के विलय की सिफारिश कर चुका है। नीति आयोग ने तो यह सिफारिश 2023 में की लेकिन बीजेपी शासन वाले राज्य इस पर मोदी जी के पीएम बनते ही अमल कर चुके थे। उसी का नतीजा है कि पिछले दस सालों में देश में 89,441 स्कूल बंद किये जा चुके हैं। इसमें 65 हजार स्कूल यानी करीब 73 प्रतिशत सिर्फ बीजेपी शासित राज्यों के हैं। अकेले मध्य प्रदेश में जहां बीजेपी पिछले करीब तीन दशक से शासन में है, 29,410 स्कूल बंद किये गये।
राज्य सरकारों की वेबसाइट से जो जानकारी मिली है उसके अनुसार राजस्थान में 17,129 स्कूलों का विलय किया गया। इनमें से 4000 स्कूल पूरी तौर पर बंद कर दिये गये। तेलंगाना में 2000 स्कूल बंद किये गये। उड़ीसा में 5000 स्कूल तो उत्तराखंड में 12 सौ स्कूल बंद किये गये। आम आदमी पार्टी के एक नेता ने दावा किया है कि उत्तर प्रदेश में सरकार 26 हजार स्कूलों को बंद कर चुकी है और 27 हजार और स्कूलों को बंद करने जा रही है।
सरकार का कहना है कि प्राइवेट स्कूलों के खुलने के कारण सरकारी स्कूलों में बच्चे पढ़ने ही नहीं आ रहे। ऐसे में इन स्कूलों को चलाने का कोई फायदा नहीं है। सरकार ये भी तर्क देती है कि कई स्कूलों में सिर्फ एक-एक बच्चे पढ़ने आते हैं। ऐसे में उन को कैसे चलाया जा सकता है। सरकारी आकड़ों के अनुसार उत्तर प्रदेश में अभी कुल एक लाख 32 हजार प्राइमरी स्कूल हैं। लेकिन इन स्कूलों में एडमिशन लेने वाले विद्यार्थियों की संख्या हर साल कम होती जा रही है। 2022-23 में इन स्कूलों में एक करोड़ 92 लाख छात्रों ने एडमिशन लिया। जबकि अगले साल यानी 2023-24 में यह संख्या घटकर एक करोड़ 74 लाख रह गई। यानी 18 लाख छात्र कम हो गए। यह गिरावट देश में सबसे ज्यादा थी। इस साल इसमें और ज्यादा गिरावट आ गई है। इस साल 22 लाख विद्यार्थी कम हो गये हैं। अब छात्रों की संख्या 1 करोड़ 52 लाख ही रह गई है।
एक तरफ जहां सरकारी स्कूलों में छात्रों की संख्या कम होती जा रही है वहीं दूसरी तरफ प्राइवेट स्कूलों में छात्रों की संख्या बढ़ रही है। एक तरफ जहां सरकारी स्कूलों को बंद किया जा रहा है वहीं दूसरी तरफ प्राइवेट स्कूल बढ़ते जा रहे हैं। आकड़ों से पता चलता है कि जहां 89 हजार 441 सरकारी स्कूल बंद हुए वहीं 42 हजार 944 प्राइवेट स्कूल खुले। यानी आठ प्रतिशत के हिसाब से सरकारी स्कूल बंद हो रहे थे और 15 प्रतिशत की दर से प्राइवेट स्कूल बढ़ रहे थे।
सवाल यह है कि सरकारी स्कूलों में छात्रों की संख्या क्यों कम हो रही है? सरकार इसका ठीकरा स्कूलों और अध्यापकों पर फोड़ रही है। यह बात एक हद तक सही भी है। लेकिन उतना नहीं जितना कि सरकार कह रही है। बल्कि सरकार स्कूलों को बंद करने के लिए ऐसी धारणा बना रही है। उसका मानना है कि चूंकि सरकारी अध्यापक बच्चों को पढ़ाते नहीं इसलिए बच्चे सरकारी स्कूलों की बजाय प्राइवेट स्कूलों में चले जा रहे हैं। लेकिन यह पूरा सच नहीं है। बल्कि इसमें आंशिक सच्चाई है। दरअसल ऐसा कहकर सरकार अपनी नाकामी छिपा रही है।
बच्चे इसलिए प्राइवेट स्कूलों में नहीं जा रहे हैं कि सरकारी स्कूल के मास्टर पढ़ाते नहीं, बल्कि इसलिए जा रहे हैं कि जो सुविधाएं बच्चों को स्कूल में मिलनी चाहिए, जो संसाधन प्राइवेट स्कूल उपलब्ध करा रहे हैं वो सरकार अपने विद्यालयों को उपलब्ध नहीं करा रही है। ज्यादातर प्राइमरी स्कूल कांग्रेस के जमाने में बने हुए हैं। बीतते समय के साथ उनमें सुविधाएं नहीं बढ़ाई गईं और संसाधन उपलब्ध नहीं कराये गये। सरकार इस मामले में अपने को जिम्मेदार नहीं मानती।
एक कक्षा में तीस बच्चे होने चाहिए। जब स्कूल ठीक से चल रहे थे तो एक-एक कक्षा में चालीस पचास बच्चे होते थे। तब सरकार ने उन स्कूलों में न अध्यापक बढ़ाये न कमरे। बहुत सारे स्कूलों में ब्लैक बोर्ड तक पर्याप्त नहीं थे। बच्चों को बैठने के लिए टाट तक उपलब्ध नहीं कराये गये। फिर बहुत सारे स्कूलों में अध्यापकों की भी कमी थी। पता चला कि जहां पांच अध्यापकों की आवश्यकता है वहां एक ही अध्यापक से काम चलाया जा रहा है। पूरे देश में करीब 12 लाख प्राइमरी अध्यापकों की कमी है। दस प्रतिशत स्कूल आज भी सिर्फ एक अध्यापक के भरोसे चल रहे हैं।
बढ़ेगी अशिक्षा
अब हो क्या रहा है ? सरकार स्कूलों को बंद करके वहां के बच्चों को पास के स्कूल में भेज देगी, वहां कौन जाएगा पढ़ने ? जो बच्चा दस कदम दूर के स्कूल में नहीं पढ़ने जा रहा है वह दो किलो मीटर-पांच किलो मीटर चल कर स्कूल में कैसे जाएगा पढ़ने? सरकार का मानना है कि लोग सरकारी स्कूलों की बजाय प्राइवेट स्कूलों की तरफ जा रहे हैं। यह बात भी एक हद तक सही है। लोगों में अंग्रेजी माध्यम से पढ़ाए जाने वाले स्कूलों का क्रेज है। वे अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम वाले स्कूलों में भेज रहे हैं। सरकार क्यों नहीं प्राइमरी स्कूलों में अंग्रेजी को बढ़ावा दे रही ?
क्यों नहीं प्राइमरी स्कूलों में ऐसी व्यवस्था बना रही है कि जो बच्चा जिस मीडियम से पढ़ना चाहे, पढ़ सके? लेकिन यहां तो अंग्रेजी बोलने वालों और अंग्रेजी पढ़ने वालों को शर्म आने लगेगी का जुमला बोला जा रहा है। यह बात भी पूरी तौर पर सच नहीं है कि लोग अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों से निकालकर प्राइवेट स्कूल में ले जा रहे हैं। ऐसे कितने लोग हैं ? जिस देश में 80 करोड़ लोग पांच किलो राशन के अनाज पर जिंदा हैं वे अपने बच्चों की पढ़ाई पर पांच – सात हजार रुपये महीने कहां से खर्च करेंगे। कोरोना में लॉक डाउन के दौरान जब लोगों का रोजगार चला गया तो शहरों की बहुत बड़ी आबादी गांव में लौटी। गांवों ने ही उन्हें सहारा दिया। जो लोग 25-30 हजार रुपये महीना कमा रहे थे वे मनरेगा में काम करने को मजबूर हुए।
ऐसे में जीना-खाना ही बड़ा मुश्किल था। वे अपने बच्चों को कहां से पढ़ाते ? तब उन्होंने भी अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में डाला, जहां फीस कम थी। अब उन स्कूलों को भी बंद किया जा रहा है। इसका मतलब ये होगा कि गरीब लोगों के हाथ से शिक्षा निकल रही है। एक दौर वो था जब लोगों को शिक्षित बनाने के लिए गांव-गांव स्कूल खोले गए। अब दौर ये आ गया है कि शिक्षा के लिए बने सरकारी स्कूल बंद किये जा रहे हैं। इससे निश्चित तौर पर अशिक्षा बढ़ेगी। अगर सरकार की यही नीति रही तो अगले दो दशक में साक्षरता पर इसका असर पड़ना स्वाभाविक है। अभी बिहार में जब जन्म प्रमाण पत्र की बात आई तो पता चला कि महज 12-13 प्रतिशत लोगों के पास ही हाई स्कूल का सर्टिफिकेट है। यानी इतने ही लोग हाई स्कूल पास कर पाये। अगर सरकार की यही नीति जारी रही तो ये आंकड़ा और भी नीचे गिर सकता है।
दरअसल यह सरकार की नीतियां होती हैं जिनकी वजह से सरकारी संस्थान घाटे में जाने लगते हैं और फिर बंद होने की नौबत आ जाती है। आपने इससे पहले संचार में यही होते देखा। सरकार ने निजी क्षेत्र को लाभ पहुंचाने के लिए सरकारी कंपनी बीएसएनल को तबाह कर दिया। निजी क्षेत्र को जहां 3 जी, 4 जी, 5 जी के लाइसेंस दिये गये वहीं बीएसएनल को 2 जी पर चलाया जा रहा था। अनिल अंबानी को लाभ पहुंचाने के लिए सरकार ने सरकारी कंपनी हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड को ठेका न देकर अनिल अंबानी की कंपनी को दे दिया। सरकारी रोडवेज बसों को घाटे में करने के लिए प्राइवेट वालों को परमिट जारी कर दिये जाते हैं।
अपने यहां बसों की कमी कर दी जाएगी, ड्राइवर, कंडक्टर कम कर दिये जाएंगे और जब रोडवेज घाटे में जाने लगेगी तो उसे बंद करने की बात चलने लगेगी। लालू यादव के समय रेलवे फायदे में थी। अब ऐसी नीतियां बनाई जा रही हैं कि यह लगातार घाटे में चल रही है। रेलवे के काफी काम निजी क्षेत्र को सौंप दिये गये हैं। ताज्जुब नहीं कि किसी दिन रेलवे किसी अडानी, अंबानी को पूरी तौर पर सौंप दिया जाए। यही हाल विभिन्न सरकारी क्षेत्रों का है। फिलहाल सरकार ने शिक्षा को निजी क्षेत्र को सौंपने का फैसला कर लिया है और उसी के तहत यह सब हो रहा है। उत्तर प्रदेश में चर्चा तो यहां तक है कि जो प्राइमरी स्कूल बंद होने के बाद खाली हो जाएंगे वह राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को दे दिये जाएंगे ताकि वह अपने सरस्वती शिशु शिक्षा मंदिर का और विस्तार कर सके।
(अमरेंद्र कुमार राय वरिष्ठ पत्रकार हैं।)
