गुजरात हाईकोर्ट।

लॉकडाउन की संवैधानिकता पर उठा सवाल, मामले में दायर याचिका पर गुजरात हाईकोर्ट ने जारी की केंद्र को नोटिस

क्या आप जानते हैं कि कोरोना वायरस के कारण लागू किए गए देशव्यापी लॉकडाउन का कोई संवैधानिक आधार नहीं है। यहाँ तक कि डिजास्टर मैनेजेमेंट एक्ट और एपिडेमिक एक्ट या भारत के संविधान में लॉकडाउन शब्द, या उसके समानार्थी शब्द या समकक्ष शब्द का कहीं पर उल्लेख नहीं है। लॉकडाउन में सम्पन्न प्रभावशाली और अमीर तथा वंचित तबके अभी भी विशेषाधिकार प्राप्त हैं जब कि कमेरे तबके के साथ भारी भेदभाव किया जा रहा है। कोरोना वायरस के कारण लागू किए गए लॉकडाउन की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली एक जनहित याचिका पर गुजरात हाईकोर्ट ने मंगलवार को केंद्र और राज्य सरकार से जवाब मांगा।

याचिका में हाईकोर्ट से लॉकडाउन को असंवैधानिक और अवैध, मनमाना, अन्यायपूर्ण घोषित करने का अनुरोध किया है। न्यायमूर्ति आरएम छाया और न्यायमूर्ति आईजे वोरा की पीठ ने सरकारी वकील और सहायक सॉलिसिटर जनरल को निर्देश दिया कि वे केंद्र और राज्य सरकार से निर्देश लेकर 19 जून को रिपोर्ट दें। इसके साथ ही अदालत ने इस याचिका को भी कोरोना वायरस और लॉकडाउन से संबंधित अन्य याचिकाओं के साथ जोड़ दिया है, जिन पर सुनवाई की जा रही है।

यह याचिका विश्वास भम्बुरकर ने अपने वकील केआर कोश्ती के जरिए दायर की है। याचिका में दावा किया गया है कि लॉकडाउन के कारण लोगों को किसी कानून के समर्थन के बिना “नज़रबंद” किया गया और इसे लागू करने से पहले समाज के कमजोर तबके को उसके हाल पर संघर्ष करने के लिए छोड़ दिया गया और उनके लिए कोई सुरक्षा उपाय नहीं किए गए।

याचिका में तर्क दिया गया है कि लॉकडाउन से देश के लोगों को अनकही कठिनाइयां हुईं जिनमें खाद्य संकट और भूख, प्रवासी संकट, चिकित्सा संकट और विभिन्न अन्य मुद्दे शामिल रहे। इसमें कहा गया है कि बिना किसी कानून और व्यवस्था या सार्वजनिक गड़बड़ी के जिसमें कर्फ्यू लगाने की आवश्यकता है, लॉकडाउन में कर्फ्यू 7 बजे शाम से सुबह 7 बजे तक लगाया जा रहा है, जो आज भी जारी है। इसने उन व्यक्तियों को घरों से बाहर निकलने की अनुमति नहीं दी जो वरिष्ठ नागरिक थे, या 65 वर्ष से अधिक आयु के थे। लॉकडाउन ने देश के लोगों को यह भी आदेश दिया कि वे विशिष्ट समय के दौरान और बहुत विशिष्ट प्रयोजनों के अलावा अपने घरों से बाहर कदम न रखें, जिसमें चिकित्सा सहायता प्राप्त करना या जीवन के निर्वाह के लिए अनिवार्य सामान खरीदना शामिल था ।

याचिका में कहा गया है कि लॉकडाउन के परिणाम स्वरूप देश के लोगों को किसी भी अपराध का आरोप लगाए बिना घर में नजरबंद कर दिया गया। इसमें भारत के संविधान के अनुच्छेद 13, 14, 19 और 21 को भी अघोषित रूप से निलंबित कर दिया, जिसमें लोगों को बिना किसी क़ानूनी प्रावधान के उनके घरों के अंदर अवैध रूप से कैद कर दिया गया।

याचिका में तर्क दिया गया है कि लॉकडाउन शब्द, या उसके समानार्थी शब्द या समकक्ष शब्द का महामारी रोग अधिनियम, आपदा प्रबंधन अधिनियम या भारत के संविधान में उल्लेख नहीं मिलता है। वास्तव में, भारत का संविधान घोषित आपातकाल के दौरान भी अनुच्छेद 20 और 21 के निलंबन को रोकता है। हालांकि वर्तमान स्थिति आपात स्थिति से भी बदतर है। बिना क़ानूनी रूप से घोषित आपातकाल चल रहा है।  

याचिका में अदालत से ‘जनता कर्फ्यू’ और लॉकडाउन के संबंध में जारी अधिसूचना को असंवैधानिक घोषित करने का अनुरोध किया गया है। जनहित याचिका में कहा गया है कि लॉकडाउन को तोड़ने के आरोप में बड़ी संख्या में लोगों के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज किए गए हैं, जिससे नागरिकों को काफी उत्पीड़न का सामना करना पड़ा जबकि लॉकडाउन खुद भारत के संविधान का उल्लंघन करता है।

गौरतलब है कि लॉकडाउन संविधान के किसी प्रावधान के तहत नहीं बल्कि नेशनल डिजास्टर मैनेजमेंट एक्ट के तहत देश भर में लगाया गया है। जरूरी सामानों के खरीद बिक्री के सिवाय किसी भी तरह की आवाजाही पर पूरी तरह से रोक लगा दिया गया है। ठीक इसी तरह साल 1867 के एपिडेमिक एक्ट का इस्तेमाल कर कई राज्यों ने भी कोरोना वायरस से लड़ने के लिए पूरी तरह से तालाबंदी की है। लॉकडाउन के कारण करोड़ों लोगों ने अपनी जीविका के साधन को गंवा दिया है। 

डिजास्टर मैनजेमेंट एक्ट और एपिडेमिक एक्ट जैसे कानून आपदा से बचाव के लिए बिना किसी भेदभाव के निष्पक्ष तरीके से सभी लोगों पर लागू होते हैं। साथ में कार्यपालिका को बड़े स्तर पर अधिकार देते हैं कि आपदा से लड़ने के लिए कुछ भी करे। लेकिन ये ऐसा कानून है जो सब पर बिना किसी भेदभाव के लागू होने के बावजूद बहुत बड़े समुदाय के साथ भेदभाव साफ-साफ़ परिलक्षित होता है । कोरोना के मामले में कुछ मुठ्ठी भर लोग ही डिजिटल माध्यम से वर्क फ्रॉम होम कर सकते हैं।

देश का बहुत बड़ा कमेरा समूह वर्क फ्रॉम होम नहीं कर सकता है। वह शारीरिक श्रम से रोज़ कमाने खाने वाला है। सरकारी दफ्तरों में भी डिजिटल काम करने वाले 100-200 कर्मचारियों पर मुश्किल से दो-चार कर्मचारी हैं। ऐसे में कर्मचारियों में नौकरी जाने की आशंका और कमेरे समूह में अपनी रोजाना की जिंदगी चलाने में परेशानी का सामना करना पड़ रहा है। 

संविधान के अनुच्छेद 14 में कहा गया है कि भारत के राज्य में किसी भी व्यक्ति को विधि के समक्ष समता से या विधियों के समान संरक्षण से वंचित नहीं करेगा। विधियों के समान संरक्षण का मतलब है कि ऐसा कानून नहीं लागू हो जिससे सब पर अलग-अलग प्रभाव पड़े। समानता के अधिकार वाले अनुच्छेदों में इसके कुछ अपवाद भी हैं। लेकिन अपवाद का मकसद यह है कि ऐसा भेदभाव किया जाए जिसका असर समान हो। लेकिन लॉकडाउन का असर सब पर बराबर नहीं है। अमीर इससे निपट ले रहे हैं लेकिन गरीबों को परेशानी हो रही हो। अर्थात लॉकडाउन का असर भेदभाव से भरा हुआ है। 

संविधान का अनुच्छेद 21 गरिमापूर्ण जीवन जीने का अधिकार देता है। उच्चतम न्यायालय ने एक से अधिक बार दोहराया है कि गरिमा पूर्ण जीवन जीने का अधिकार का मतलब यह नहीं है कि लोगों को जानवरों की तरह समझा जाए।

कोरोना वायरस की लड़ाई में सड़कों पर चलने वाले प्रवासी श्रमिकों के साथ ढोर डंगर की तरह व्यवहार सरकारी मशीनरियां कर रही हैं। झुंड में इकट्ठा कर प्रवासी मजदूरों पर केमिकल का छिड़काव कर दिया गया। क्वारंटाइन के नाम पर स्कूलों में लोगों को जानवरों की तरह ठूंस कर रखा जा रहा है। खाने को लेकर दंगे तक की खबर आ रही है। जेब में पैसे नहीं हैं कि लोग अपने घर पर बात कर पाएं। ऐसी तमाम हृदयविदारक ख़बरों से संविधान के अनुच्छेद 21 पर ही सवाल उठ रहा है।

सरकार के संवैधानिक कर्तव्य में सरकार को कानूनन भी जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। कोरोना वायरस के संकट में सरकार का संवैधानिक कर्तव्य है कि वह लोगों को सुविधायें दे जो उसके मूलभूत जरूरतों को पूरा करने के लिए जरूरी है। डिजास्टर मैनेजमेंट और एपिडेमिक एक्ट से महामारी रोकने के लिए कुछ भी करने की शक्ति कार्यपालिका को मिल जाती है। विधायिका यानी कि संसद ठप्प है। इसलिए न्यायपालिका भी कमोवेश पलायन मोड में है। ऐसे में गुजरात हाईकोर्ट ने लॉकडाउन की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली एक जनहित याचिका पर जवाब तलब करके यह प्रदर्शित किया है कि अभी भी संविधान जीवित है। 

(वरिष्ठ पत्रकार जेपी सिंह कानूनी मामलों के जानकार भी हैं।)

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